बाला जी मंदिर में प्रवचन सुनाते हुए महंत गोपालदास ने कहा कि मानव शरीर अनगढ है और वृत्तियांअसंयमित। इन्हें सुगढ एवं सुसंयमित करना ही अभ्यास का लक्ष्य है। अनगढ काया एवं मन अभ्यस्त होने के कारण सामान्यता किसी भी नए कार्य को करने के लिए तैयार नहीं होते। उल्टे अवरोध खडा करते है उन्हें व्यवस्थित करने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता पडती है।
उन्होंने कहा कि लगातार अभ्यास द्वारा शरीर एवं मन को इच्छानुवर्ती अर्थात इच्छा अनुसार कार्य करने लायक बनाया जा सकता है। साथ ही उन अंगों को असामान्य कार्यो के कर सकने के लिए भी सहमत किया जा सकता है। परोक्ष रूप से अभ्यास की यह प्रक्रिया ही व्यक्तित्व का निर्माण करती है। प्रतिभा योग्यता के विकास में बुद्धि आवश्यक तो है सर्व समर्थ नहीं। बुद्धिमान होते हुए भी विद्यार्थी यदि पाठ याद न करे, पहलवान व्यायाम छोड दे, संगीतज्ञ, क्रिकेटर अभ्यास करना छोड दें, चित्रकार तूलिका का प्रयोग न करे, कवि भाव संवेदनाओं को संजोना छोड बैठे, तो उसे प्राप्त क्षमता भी क्षीण होती जाएगी। जबकि बुद्धि की दृष्टि से कर्म पर सतत अभ्यास में मनोयोग पूर्वक लगे, व्यक्ति अपने अंदर असामान्य क्षमताएं विकसित कर लेते है। निश्चित समय एवं निर्धारित क्रम में किया गया प्रयास मनुष्य को किसी भी प्रतिभा का स्वामी बना सकता है। जबकि अभ्यास के अभाव में प्रतिभाएं कुंठित हो जाती है, उनमें व्यक्ति अथवा समाज को कोई लाभ नहीं मिल पाता। अभ्यास से ही आदतें बनती है और अंतत: संस्कार का रूप लेती है। कितने ही व्यक्ति किसी भी कार्य को करने में अपने को असमर्थ मानते है, उन्हें असंभव जानकर प्रयास नहीं करते है। फलस्वरूप कुछ विशेष कार्य नहीं कर पाते। जबकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प कर लेने एवं आत्मविश्वास जुटा लेने वाले व्यक्ति उसमें अवश्य सफल होते है। आत्मविश्वास की कमी एवं प्रयास का अभाव ही मनुष्य को आगे बढने से रोकता तथा महत्वपूर्ण सफलताओं को पाने से वंचित रहता है। मानवीय काया परमात्मा का विलक्षण संरचना है। उसे जैसा चाहे बनाया जा सकता है। सामान्यता लोग कुछ दिनों तक तो बडे उत्साह के साथ किसी भी कार्य को करने का प्रयास करते है पर अभीष्ट सफलता तुरन्त न मिलने पर प्रयत्न छोड देते है। जबकि धैर्य एवं मनोयोग पूर्वक सतत अभ्यास में लगे व्यक्ति असामान्य क्षमताएं तक विकसित कर लेते हैं।
उन्होंने कहा कि अभ्यास की प्रक्रिया द्वारा शारीरिक-मानसिक क्षमताओं का विकास ही नहीं रोगों का निवारण भी किया जा सकता है। मानवीय काया एवं मन में शक्ति भंडारे छिपे पडे है। विकास की असीम संभावनाएं है। निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रयास चल पडे और उसमें धैर्य एवं क्रम-बद्धता का समावेश हो जाए तो असंभव समझे जाने वाले कार्य भी संभव हो सकते हैं।
12 जुलाई 2010
विकास के लिए अभ्यास जरूरी: गोपालदास ( Practise Required for development: Gopaldas discourse )
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 7/12/2010 06:37:00 pm
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