16 जुलाई 2010

उँच-नीच

ब्रह्मदत्त जब काशी राज्य का शासक था, तब बोधिसत्व ने सिंह के रूप में जन्म लिया। वह सिंह अपनी पत्नी समेत एक पर्वत की गुफ़ा में रहा करता था। एक दिन सिंह को बड़ी भूख लगी। वह पर्वत पर से नीचे कूदा। पर्वत के नीचे के एक सरोवर के पास हरी घास से भरे मैदान में उसने हिरनों व खरगोशों को देखा। सिंह गरजता हुआ उनकी तरफ़ दौड़ा। दौड़ते समय वह सरोवर के पास एक दलदल में गिर गया। इतने में खरगोशों और हिरनों ने उसे देख लिया और वे वहाँ से भाग गये।

दलदल से सिंह बाहर आने की कोशिश करने लगा। पर उससे संभव नहीं हो पा रहा था। इसलिए वह वहीं रह गया और देखने लगा कि उसकी रक्षा करनेवाला क्या कोई उधर से गुज़रेगा।

भूख के मारे तड़पते हुए सिंह को एक हफ्ते तक वहीं रहना पड़ा। एक हफ्ते के बाद बग़ल ही के सरोवर में पानी पीने एक सियार वहाँ आया। पर सिंह को देखते ही वह घबराकर रुक गया।

सिंह ने सियार से कहा, ‘‘भैय्या सियार, हफ्ते भर से इस दलदल में फंसा हूँ। ज़िन्दा रहने की कोई उम्मीद नहीं है। किसी प्रकार से मुझे बचा लो।''

‘‘तुम बहुत भूखे हो। मुझे खा जाने में आनाकानी नहीं करोगे। कैसे तुम्हारा विश्वास करूँ?'' सियार ने अपना संदेह व्यक्त किया।

‘‘जिसने मेरी जान बचायी, भला उसे मैं कैसे खा जाऊँगा। मुझे इस दलदल से बाहर निकालोगे तो जन्म भर तुम्हारा आभारी रहूँगा। मेरी बात का विश्वास करो।'' सिंह ने कहा।

सियार ने सिंह की बातों का विश्वास किया। वह सूखी लकड़ियाँ समेटकर ले आया और उन्हें दलदल में फेंका। उनपर सिंह ने अपने पैर जमाये और बड़ी मुश्किल से बाहर आया।

फिर दोनों मिलकर शिकार करने जंगल में गये। सिंह ने एक जंतु को मार डाला। दोनों ने मिलकर उसे खा लिया।

‘‘अब से हम दोनों भाई हैं। अब हमें अलग-अलग जगह पर रहने की क्या ज़रूरत है? अपने परिवार को भी मेरी गुफ़ा में ले आओ। सब मिलकर रहेंगे।'' सिंह ने कहा। सियार ने सिंह की बात मान ली और पत्नी को भी गुफ़ा में ले आया।

सियार को लगा कि सिंह के साथ रहने से उसका गौरव बढ़ जायेगा। इसीलिए उसने सिंह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। परंतु, वह जानता था कि अपनी जाति से दूर रहने से उसे कैसे-कैसे कष्टों का सामना करना पड़ेगा। सिंह ने भी सियार के त्याग को भली-भांति समझ लिया और हर विषय में उसका साथ देने लगा। कभी भी उसका दिल नहीं दुखाया। यों दिन गुज़रते गये।

सिंह, सियार को बहुत चाहता था, पर सिंह की पत्नी सियार की पत्नी को नहीं चाहती थी। उसका मानना था कि वह ऊँची जाति की है और सियार की पत्नी निम्न जाति की। सियार की पत्नी ने शेरनी के इस दावे को स्वीकार कर लिया, इसलिए दोनों परिवारों में झगड़े नहीं होते थे। जब दोनों पत्नियों ने बच्चों को जन्म दिया, तब वे बच्चे बड़े होकर एक साथ खेलने-कूदने लगे। शेरनी से यह देखा नहीं गया।

सिंह और सियार के बच्चों को यह मालूम नहीं था कि दोनों में एक बड़ा है और दूसरा छोटा। वे खुलकर खेलने लगे। एक-दूसरे को चाहने लगे। ऊँच-नीच की भावना उनमें कभी नहीं आई।

शेरनी से यह सहा नहीं गया। उसने एक दिन अपने बच्चों से कहा, ‘‘हम ऊँची जाति के हैं। तुम्हें सियार के बच्चों से इस तरह मिलकर खेलना नहीं चाहिये। उनसे दूर ही रहना। उनकी और हमारी बराबरी ही नहीं।''

सिंह के बच्चों पर माँ की बातों का असर होने लगा। वे सियार के बच्चों के साथ लापरवाही बरतने लगे, खेलते समय उनके साथ अन्याय करने लगे और बारंबार यह कहने भी लगे, ‘‘हम उच्च जाति के हैं। हम तुम्हारा पालन-पोषण करते हैं। हम जो भी कहें, तुम्हें उसका विरोध करना नहीं चाहिये। तुम नीच जाति के हो, इसलिए हमारी गालियॉं भी तुम्हें सहनी होंगी।''

सियार की पत्नी ने एक दिन पति से शेरनी की शिकायत की और उसके व्यवहार के बारे में बताया।

दूसरे दिन जब सियार सिंह के साथ शिकार करने जा रहा था, तब उसने सिंह से कहा, ‘‘तुम्हारी जाति उच्च जाति है। हम सामान्य जाति के हैं। इसलिए हमारा साथ-साथ रहना अच्छा नहीं। हम अपनी जातिवालों के साथ रहेंगे।''

अपने मित्र में इस आकस्मिक परिवर्तन पर उसे आश्चर्य हुआ और उसने इस परिवर्तन का कारण पूछा। सियार ने सब कुछ सविस्तार बताया।

रात को गुफ़ा में लौटते ही सिंह ने सिंहनी से कहा, ‘‘मालूम हुआ कि तुम सियार के बच्चों से घृणा करते हो।''

‘‘हाँ, हमारे बच्चों का उस निम्न जाति के बच्चों के साथ खेलना-कूदना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। पता नहीं, इस सियार ने आप पर क्या जादू कर डाला। जब देखो, आप उसकी तरफ़दारी करने लगते हैं। साफ़-साफ़ कह देती हूँ कि उनके बच्चों को हमारे बच्चों के साथ खेलना नहीं चाहिये।'' सिंहनी ने कहा।

‘‘अब सब कुछ मेरी समझ में आ गया। जानना चाहती हो न कि सियार ने मुझपर क्या जादू किया, तो सुनो। याद है, एक बार एक हफ्ते भर तक मैं घर नहीं आया? उस हफ्ते भर भूख से तड़पता हुआ दलदल में फंसा रहा। जब मैं मरने ही जा रहा था, तब इस सियार ने मेरी जान बचायी। उस दिन अगर यह सियार मेरी जान नहीं बचाता तो मैं कभी का मर गया होता। यह संतान भी नहीं होती। प्राण की जो भिक्षा देते हैं, उनके प्रति ऊँच-नीच का भाव दिखाना, अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा समझना बड़ा पाप है। उनका अपमान करना अपने ही बंधुओं का अपमान कराने के समान है।'' सिंह ने कहा।

सिंह की पत्नी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ और उसने सियार की पत्नी से क्षमा माँगी।

इसके बाद पी़ढ़ियों तक सिंह और सियार की संतान उसी गुफ़ा में मिल-जुलकर सुखी जीवन बिताती रही।