सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन, द्वीप, समुद्र और भारतवर्ष का वर्णन, भारत में सत्कर्मानुष्ठानकी महत्ता तथा भगवदर्पणपूर्वक कर्म करने की आज्ञा
नारदजी ने पूछा - सनकजी ! आदिदेव भगवान् विष्णु ने पूर्वकाल में ब्रह्मा आदि की किस प्रकार स्रष्टि की ? यह बात मुझे बताइये; क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।
श्रीसनकजीने कहा -- देवर्षे ! भगवान् नारायण अविनाशी, अनत, सर्वज्ञ तथा निरंजन हैं। उन्होंने इस सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त कर रखा है। स्वयं प्रकाश, जगन्मय महाविष्णु ने आदि सृष्टि के समय भिन्न-भिन्न गुणों का आश्रय लेकर अपनी तीन मूर्तियों को प्रकट किया। पहले भगवान् ने अपने दाहिने अंग से जगत की सृष्टि के लिये प्रजापति को प्रकट किया। फिर अपने मध्य अंग से जगत का संहार करने वाले रूद्र-नामधारी शिव को उत्पन्न किया। साथ ही इस जगत का पालन करने के लिये उन्होंने अपने बाएं अंगसे अविनाशी भगवान् विष्णु को अभिव्यक्त किया। ज़रामृत्युसे रहित उन आदिदेव परमात्मा को कुछ लोग 'शिव' नाम से पुकारते हैं। कोई सदा सत्यरूप 'विष्णु' कहते हैं और कुछ लोग उन्हें 'ब्रह्मा' बताते हैं। भगवान् विष्णु की जो परा शक्ति हैं, वह जगतरूपि कार्य का सम्पादन करने वाली है। भाव और अभाव - दोनों उसी के स्वरुप हैं। वही भावरूप से विद्या और अभावरूप से अविद्या कहलाती है। जिस समय यह संसार महाविष्णु से भिन्न प्रतीत होता है, उस समय अविद्या सिद्ध होती है; वही दुःख का कारण होती है। नारदजी ! जब तुम्हारी ज्ञाता, ज्ञान, गये रूप की उपाधि नष्ट हो जायेगी और सब रूपों में एकमात्र भगवान् महाविष्णु ही हैं-- ऐसी भावना बुद्धि में होने लगेगी, उस समय विद्या का प्रकाश होगा। वह अभेद-बुद्धि ही विद्या कहलाती है। इस प्रकार महाविष्णु की मायाशक्ति उनसे भिन्न प्रतीत होने पर जन्म-मृत्युरूप संसार-बंधन को देनेवाली होती है और वही यदि अभेद-बुद्धि से देखी जाय तो संसार-बंधन का नाश करने वाली बन जाती है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत भगवान् विष्णु की शक्ति से उत्पन्न हुआ है। भगवान् विष्णुकी वह परा शक्ति जगत की सृष्टि आदि करने वाली है। वह व्यक्त और अव्यक्तरूप से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है। जो भगवान् अखिल विश्व की रक्षा करते हैं, वे हे परम पुरूष नारायण देव हैं। अतः जो परात्पर अविनाशी तत्त्व है, परमपद भी वही है; वही अक्षर; निर्गुण; शुद्ध; सर्वत्र परिपूर्ण एवं सनातन परमात्मा है; वे परसे भी परे हैं। परमानंदस्वरुप परमात्मा सब प्रकार की उपाधियों से रहित हैं। एकमात्र ज्ञान योग के द्वारा उनके तत्वका बोध होता है, वे सबसे परे हैं। सत, चित और आनंद ही उनका स्वरुप है। वे स्वयं प्रकाशमय परमात्मा नित्य शुद्ध स्वरुप हैं तथापि तत्त्व आदि गुणों के भेद से तीन स्वरुप धारण करते हैं। उनके ये ही तीनों स्वरुप जगत की सृष्टि, पालन और संहार के कारण होते हैं। मनु ! जिस स्वरुप से भगवान् इस जगत की सृष्टि करते हैं, उसी का नाम ब्रह्मा है। ये ब्रह्माजी जिनके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं, वे ही आनंदस्वरुप परमात्मा विष्णु इस जगत का पालन करते हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण जगत के अन्तर्यामी आत्मा हैं। समस्त संसार में वे ही व्याप्त हो रहे हैं। वे सबके साक्षी निरंजन हैं। वे ही भिन्न और अभिन्न रूप में स्थित परमेश्वर हैं। उन्हीं की शक्ति महामाया है, जो जगत की सत्ता का विश्वास धारण करती है। विश्व की उत्पत्ति का आदिकारण होने से विद्वान् पुरूष उसे प्रकृति कहते हैं। आदिसृष्टि के समय लोकरचना के लिये लिये उघत हुए भगवान् महाविष्णु के प्रकृति, पुरुष और काल -- ये तीन रूप प्रकट होते हैं। शुद्ध अन्तःकरण वाले ब्रह्मरूप से जिसका साक्षात्कार करते हैं, जो विशुद्ध परम धाम कहलाता है, वही विष्णुका परम पद है। इसी प्रकार वे शुद्ध, अक्षर, अनंत परमेश्वर ही कालरूप में स्थित हैं। वे ही सत्व, रज, तम-रूप तीनों गुणों में विराज रहे हैं तथा गुणों के आधार भी वे ही हैं। वे सर्व्यापी परमात्मा ही इस जगत के आदि-स्रष्टा हैं। जगदगुरू पुरूषोत्तम के समीप स्थित हुई प्रकृति जब क्षोभ (चञ्चलता) को प्राप्त हुई, तो उससे महत्वका पादुर्भाव हुआ; जिसे समाष्टि-बुद्धि भी कहते हैं। फिर उस महत्तत्व से अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकार से सूक्षम तन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुई। तत्पश्चात तन्मात्राएँ से पञ्च महाभूत प्रकट हुए, जो इस स्थूल जगत के कारण हैं। नारदजी ! उन भूतों के नाम हैं -- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। ये क्रमश: के-एक के कारण होते हैं।
तदन्तर संसार की सृष्टि करने वाले भगवान् ब्रह्माजी ने तामस सर्ग की रचना की। तिर्यग योनिवाले पशु-पक्षी तथा मृग आदि जंतुओं को उत्पन्न किया। उस सर्गको पुरुषार्थ का साधक न मानकर ब्रह्माजी ने अपने सनातन स्वरुप से देवताओं को (सात्विक सर्गको) उत्पन्न किया। तत्पश्चात उन्होंने मनुष्यों की (राजस सर्ग्की) सृष्टि की। इसके बाद दक्ष आदि पुत्रों को जन्म दिया, जो सृष्टि कार्य में तत्पर हुए। ब्रह्माजी के इन पुत्रों से देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों सहित यह सम्पूर्ण जगत भरा हुआ है। भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोक -- ये सात लोक क्रमश: एक के ऊपर एक स्थित हैं। विप्रवर ! अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल रसातल तथा पाताल -- ये सात पाताल क्रमश: एक के नीचे एक स्थित हैं। इन सब लोकों में रहने वाले लोकपालों को भी ब्रह्माजी ने उत्पन्न किया। भिन्न-भिन्न देशों के कुल पर्वतों और नदियों की भी सृष्टि की तथा वहां के निवासियों के लिये जीविका आदि सब आवश्यक वस्तुओं की भी यथायोग्य व्यवस्था की। इस पृथ्वी के मध्यमभाग में मेरू पर्वत है, जो समस्त देवताओं का निवासस्थान है। जहाँ पृथ्वी की अंतिम सीमा है, वहां लोकालोक पर्वत की स्थिति है। मेरू तथा लोकालोक पर्वत के बीच में सात समुद्र और सात द्वीप हैं। विप्रवर ! प्रत्येद ! प्रत्येद द्वीप में सात-सात मुख्य पर्वत तथा जल प्रवाहित करने वाले अनेक विख्यात नदियाँ भी हैं। वहाँ के निवासी मनुष्य देवताओं के समान तेजस्वी होते हैं। जम्बू, पल्क्ष, शाल्मली, कुश, क्रौन्ज, शाक तथा पुष्कर - ये सात द्वीपों के नाम हैं। वे सब-की-सब देवभूमियाँ हैं। ये सात द्वीपों के नाम हैं। वे सब-की-सब देवभूमियाँ हैं। ये सातों द्वीब सात समुद्रों से घिरे हुए हैं। क्षारोद, इक्षुरसोद, सुरोड़, घृत, दधि, दुग्ध तथा स्वादु जल से भरे हुए वे समुद्र उन्हीं नामों से प्रसिद्ध हैं। इन द्वीपों और समुद्रों को क्रमश: पूर्व-पूर्वकी उपेक्षा उत्तरोत्तर दूने विस्तारवाले जानना चाहिए। ये सब लोकालोक पर्वत तक स्थित हैं। क्षार समुद्र से उत्तर और हिमालय पर्वत से दक्षिण के प्रदेश को 'भारतवर्ष' समझना चाहिए। वह समस्त कर्मों का फल देने वाला है।
नारदजी ! भारतवर्ष में मनुष्य जो सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार के कर्म करते हैं, उनका फल भोगभूमियों में क्रमश: भोगा जाता है। विप्रवर ! भारतवर्ष में किया गया जो शुभ अठवार अशुभ कर्म है, उसका क्षणभंगुर (बचा हुआ) फल जीवों द्वारा अन्यत्र भोगा जाता है। आज भी देवतालोग भारत भूमि में जन्म लेने की इच्छा करते हैं। वे सोचते हैं 'हमलोग कब संचित किये हुए महान अक्षय, निर्मल एवं शुभ पुण्यके फल स्वरुप भारतवर्ष की भूमिपर जन्म लेंगे और कब वहां महान पुण्य करके परमपद को प्राप्त होंगे। अथवा वहां नाना प्रकार के दान, भांति-भांति के यज्ञ या तपस्या के द्वारा जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना करके उनके नित्यानन्दमय अनामय पद को प्राप्त कर लेंगे।' नारदजी ! जो भारतभूमि में जन्म लेकर भगवान् विष्णु की आराधना में लग जाता है, उसके समान और गुणों का कीर्तन जिसका स्वभाव बन जाता है, जो भाग्वाद्भाक्तों का प्रिय होता है अथवा जो महापुरुषों की सेवा-शुश्रूशा करता है, वह देवताओं के लिये भी वन्दनीय है। जो नित्य भगवान् विष्णु आराधना में तत्पर है अथवा हरि-भक्तों के स्वागत-सत्कार में संलग्न रहता है और उन्हें भोजन कराकर बचे हुए (श्रेष्ठ) अन्नका स्वयं सेवन करता है, वह भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। जो अहिंसा आदि धर्मों के पालन में तत्पर होकर शांतभाव से रहता है और भगवान् के 'नारायण' कृष्ण तथा वासुदेव' आदि नामों का उच्चारण करता है, वह श्रेष्ठ इन्द्रादि देवताओं के लिये भी वन्दनीय है। जो मानव 'शिव, नीलकंठ तथा शंकर' आदि नामों द्वारा भगवान् शिव का स्मरण करता तथा सम्पूर्ण जीवों के हित में संलाग्न्न रहता है, वह (भी) देवताओं के लिये पूजनीय माना गया है। जो गुरोका भक्त, शिव का ध्यान करने वाला, अपने आश्रम-धर्म के पालन में तत्पर, दूसरों के दोष करने वाला, पवित्र तथा कार्यकुशल है, वह भी देवेश्वर द्वारा पूज्य होता है। जो ब्राह्मणों का हित-साधन करता है, वर्णधर्म और आश्रमधर्म में श्रद्धा रखता है तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में तत्पर होता है, उसे पड्क्तिपावन्' मानना चाहिए। जो देवेश्वर भगवान् नारायण तथा शिव में कोई भेद नहीं देखता, वह ब्रह्माजी के लिये भी सदा वन्दनीय है; फिर हम लोगों की तो बात की क्या है ? नारदजी ! जो गौओं के प्रति क्षमाशील - उनपर क्रोध न करने वाला, ब्रह्मचारी, पराई निंदा से दूर रहने वाला तथा संग्रह से रहित है, वह भी देवताओं के लिये पूजनीय है। जो चोरी आदि दोषों से पराड्मुख् है, दूसरों द्वारा किये हुए उपकारों को याद रखता है तथा दूसरों की भलाई के कार्य में सदा संलग्न रहता है, वह देवताओं और असुर सबके लिये पूजनीय होता है। जिसकी बुद्धि वेदार्थ श्रवण करने, पुराण की कथा सुनाने तथा सत्संग में लगी होती है, वह भी इन्द्रादि देवताओं द्वारा वन्दनीय होता है। जो भारतवर्ष में रहकर श्रद्धापूर्वक पूर्वोक्त प्रकार के अनेकानेक सत्कर्म करता रहता है, वह हमलोगों के लिये वन्दनीय है।
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