समय चक्र का प्रवाह अनवरत चलता रहता है। समय के कारण प्रत्येक द्रव्य में परिवर्तन होता है। क्षण-क्षण बदलते पर्यायों के स्वरूप को इस विश्व में भगवान बुद्ध ने जितना अधिक बल देकर व्याख्यायित किया, उतना अन्य कोई नहीं कर सका। उनका मानना था कि सभी वस्तुएं परिवर्तनशील हैं। जीव भी परिवर्तनशील है। जैनदर्शन भी परिवर्तन को मानता है किंतु वह नित्यता को भी स्वीकार करता है। शरीर या पर्याय बदलता है, किंतु आत्मा नित्य है, अजर-अमर है। प्रतीत्यसमुत्पाद के कारण बुद्ध परिवर्तनशील दृष्ट धर्मो के अतिरिक्त किसी अदृष्ट स्थायी द्रव्य को नहीं मानते थे। अत: उन्होंने आत्मा को नहीं माना, यही अनात्मवाद बौद्ध धर्म का बहुत बडा सिद्धान्त बन गया। पुनर्जन्म का सिद्धान्त भारतीय दर्शन की एक प्रमुख विशेषता है। आत्मा की नित्यता स्वीकार किए बिना पुनर्जन्म को सिद्ध करना कठिन हो जाता है। स्थिर आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करते हुए भी भगवान बुद्ध यह स्वीकार करते थे कि जीवन विभिन्न क्रमबद्ध और अव्यवस्थित अवस्थाओं का प्रवाह या संतान है। विभिन्न अवस्थाओं की संतति को ही जीवन कहते हैं। इस संतति के अंदर किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है। इसी तरह वर्तमान अवस्था आगामी अवस्था को उत्पन्न करती है। अनित्यता में भी निरन्तरता की स्वीकृति का यह अलग अंदाज था। शायद यही कारण था कि जातक कथाओं में भगवान बुद्ध के ही पूर्वजन्मों के बहुत रोमांचक वृत्तान्त लिखे हैं। सांचीके स्तूपों में जातक कथाओं के माध्यम से अद्भुत शिल्प सौन्दर्य द्वारा भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों के वृत्तान्तों को बखूबी दर्शाया गया है। सांचीमध्य प्रदेश के रायसेन जिले में बेतवा और बेसनदी के तट पर, विदिशानगरी से लगभग दस कि।मी की दूरी पर स्थित है। सांचीस्थित पहाडी को पुरातन काल में बेदिसगिरी, चेतियागिरी, काकनायआदि नामों से पुकारा जाता था। सांची के इन मनोरम स्तूपों का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था। सांची में स्थित स्तूप, स्तंभ, विहारों, मंदिरों तथा चैत्यालयों का निर्माण तीसरी शती से बारहवीं शती तक हुआ। सम्राट अशोक ने विदिशा के एक व्यापारी की कन्या के साथ विवाह किया था। हृदय परिवर्तन के बाद उसने बौद्ध धर्म स्वीकार किया और धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार किया। सम्राट अशोक ने विदिशा निवासी पत्नी के कहने पर ही सांची को बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार का केंद्र बनाया। उनका मानना था कि धर्म की शिक्षा के लिए एकान्त स्थल जरूरी है। विश्व में बौद्ध धर्म का सबसे पहले प्रचार सांची से ही शुरू हुआ। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा सांची से ही बोधिवृक्ष की शाखा लेकर श्रीलंका गए थे। वे मां के साथ सांची में निर्मित विहार में ठहरे भी थे। ऐसी मान्यता है कि यहां के स्तूपों में भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी हैं। जिन दिनों बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा निषेध थी उन दिनों ये स्तूप बौद्ध धर्मानुयायियों के लिए आस्था के प्रतीक थे और आज भी हैं।
ज्ञातव्य है कि बौद्ध स्मारक उन्हीं स्थलों पर निर्मित हुए जो भगवान बुद्ध के जीवन की घटना से संबंध रखते हैं। जैसे- लुम्बिनी, यहां भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। बोधगया यहां उन्हें सम्यक् बोधि प्राप्त हुई। सारनाथ, यहां उनका प्रथमोपदेश हुआ। श्रावस्ती, यहां उन्होंने चमत्कार दिखाया। कुशीनगर, यहां उनका परिनिर्वाण हुआ। इसके अलावा राजगृह संकाश्य तथा वैशाली इत्यादि स्थान इस कारण श्रद्धा के केंद्र हैं, क्योंकि यहां भगवान बुद्ध का कई बार आगमन हुआ। सांचीके प्रथम स्तूप की चारों दिशाओं के तोरणद्वारों पर छद्दन्त, महाकपि, वेस्सन्तर, अलम्बुस और साम जातक कथाएं उत्कीर्ण हैं, ये सभी बुद्ध के जीवन की घटनाओं से संबंधित हैं।
12 जुलाई 2010
सांची में अंकित हैं भगवान बुद्ध के पूर्वभव ( Sanchi is reflected in Buddha's Puarvha )
Labels: धार्मिक स्थल
Posted by Udit bhargava at 7/12/2010 07:14:00 pm
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