सुतून ऐ दार की उँचाई से न डर बाबा
जो हौसला है तो इस राह से गुज़र बाबा
ये देख जु़लमत ए शब का पहाड़ काट के हम
हथेलियों पे सजा लाए हैं सहर बाबा
मिली है तब कहीं इरफ़ान ए ज़ात की मंजिल
खुद अपने आपमें सदियों किया सफ़र बाबा
बुलंदियाँ भी उसे सर उठा के देखती हैं
सुतून ए दार की ज़ीनत बने जो सर बाबा
10 मार्च 2010
सुतून ऐ दार
Labels: कविता / शायरी
Posted by Udit bhargava at 3/10/2010 07:48:00 am
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बहुत खूब !! बहुत उम्दा शेर हैं भाई .... बहुत उम्दा !!
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