09 मार्च 2010

जैन धर्म दर्शन - एकीभावस्तोत्रम्

एकीभावस्तोत्रम् [श्रीवादिराज]

एकीभाव संस्कृत स्तोत्र के रचियता आचार्य श्री वादिराज हैं आपकी गणना महान् आचार्यों में की जाती है आप महान वाद-विजेता और कवि थे आपकी पा‌र्श्वनाथ चरित्र, यशोधर चरित्र, एकीभाव स्तोत्र, न्याय-विनिश्यिय विवरण, प्रमाण निर्णय ये पांच कृतियाँ प्रसिद्ध हैं आपका समय विक्रम की 11 वीं शताब्दी माना जाता है आपका चौलुक्य नरेश जयसिंह (प्रथम) की सभा में बडा़ सम्मान था 'वादिराज' यह नाम नही वरन् पदवी है प्रख्यात वादियों में आपकी गणना होने से आप वादिराज के नाम से प्रसिद्ध हुए
निस्पृही आचार्य श्री वादिराज ध्यान में लीन थे कुछ द्वेषी व्यक्तियों ने उन्हें कुष्ट-ग्रस्त देखकर राजसभा में जैन मुनियों का उपहास किया जिसे जैनधर्म प्रेमी राजश्रेष्ठी सहन न कर सके और भावावेश में कह उठे कि हमारे मुनिराज की काया तो स्वर्ण जैसी सुन्दर होती है राजा ने अगले दिन मुनिराज के दर्शन करने का विचार रखा सेठ ने मुनिराज से सारा विवरण स्पष्ट कह कर धर्मरक्षा की प्रार्थना की मुनिराज ने धर्मरक्षा और प्रभावना हेतु एकीभाव स्तोत्र की रचना की जिससे उनका शरीर वास्तव में स्वर्ण सदृश हो गया राजा ने मुनिराज के दर्शन करके और उनके रुप को देखकर चुगल-खोरों को दण्ड दिया परन्तु उत्तम क्षमाधारक मुनिराज ने राजा को सब बात समझा कर तथा सबका भ्रम दूर कर सबको क्षमा करा दिया इस स्तोत्र का श्रद्धा एवं पूर्ण मनोयोग पूर्वक पाठ करने से समस्त व्याधियां दूर होती हैं तथा सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं

कविवर भूधरदास जी कृत भाषानुवाद
दोहा :- वादिराज मुनिराज के, चरणकमल चित्त लाय
भाषा एकीभाव की, करुँ स्वपर सुखदाय
(रोला छन्दः "अहो जगत गुरुदेव" विनती की चाल में)

यो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी
जो मुझ-कर्म प्रबंध करत भव भव दुःख भारी
ताहि तिहांरी भक्ति जगतरवि जो निरवारै
तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै1

तुम जिन जोतिस्वरुप दुरित अँधियारि निवारी
सो गणेश गुरु कहें तत्त्व-विद्याधन-धारी
मेरे चित्त घर माहिं बसौ तेजोमय यावत
पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत2

आनँद-आँसू वदन धोयं तुम जो चित्त आने
गदगद सरसौं सुयश मन्त्र पढ़ि पूजा ठानें
ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी
भाजें थानक छोड़ देह बांबइ के वासी3

दिवि तें आवन-हार भये भवि भाग-उदय बल
पहले ही सुर आय कनकमय कीन महीतल
मन-गृह ध्यान-दुवार आय निवसो जगनामी
जो सुरवन तन करो कौन यह अचरज स्वामी4

प्रभु सब जग के बिना-हेतु बांधव उपकारी
निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहांरी
भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे
मेरे दुःख-संताप देख किम धीर धरोगे5

भव वन में चिरकाल भ्रम्यों कछु कहिय न जाई
तुम थुति-कथा-पियूष-वापिका भाग से पाई
शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम
करत न्हौन ता माहिं क्यों न भवताप बझै मम6

श्रीविहार परिवाह होत शुचिरुप सकल जग
कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग
मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावे
अब सो कौन कल्यान जो न दिन-दिन ढिग आवे7

भव तज सुख पद बसे काम मद सुभट संहारे
जो तुमको निरखंत सदा प्रिय दास तिहांरे
तुम-वचनामृत-पान भक्ति अंजुलि सों पीवै
तिन्हैं भयानक क्रूर रोगरिपु कैसे छीवै8

मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर
ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अंतर
देखत दृष्टि प्रमान मानमद तुरत मिटावे
जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावे9

प्रभुतन पर्वत परस पवन उर में निबहे है
ता सों तत छिन सकल रोग रज बाहिर ह्रै है
जा के ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं
कौन जगत उपकार-करन समरथ सो नाहीं10

जनम जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो
याद किये मुझ हिये लगें आयुध से मानों
तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरन गही है
जो कुछ करनो होय करो परमान वही है11

मरन-समय तुम नाम मंत्र जीवक तें पायो
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो
जो मणिमाला लेय जपे तुम नाम निरंतर
इन्द्र-सम्पदा लहे कौन संशय इस अंतर12

जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै
अनवधि सुख की सार भक्ति कूंची नहिं लांघे
सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उघारे
मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै13

शिवपुर केरो पंथ पाप-तम सों अतिछायो
दुःख सरुप बहु कूप-खाई सों विकट बतायो
स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें!
प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगे14

कर्म पटल भू माहिं दबी आतम निधि भारी
देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै
थुति कुदाल सों खोद बंद भू कठिन विदारै15

स्याद् वाद-गिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई
तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई
मो चित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव तामें
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय या में16

तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो
यदपि झूठ है तदपि त्रप्ति निश्चल उपजावे
तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावे17

वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापे
भंग-तरंगिनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापे
मन सुमेरु सों मथे ताहि जे सम्यज्ञानी
परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्रानी18

जो कुदेव छविहीन वसन भूषन अभिलाखे
वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे
तुम सुंदर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई
भूषन वसन गदादि ग्रहन काहे को होई19

सुरपति सेवा करे कहा प्रभु प्रभुता तेरी
सो सलाघना लहै मिटे जग सों जग फेरी
तुम भव जलधि जिहाज तोहि शिव कंत उचरिये
तुही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये20

वचन जाल जड़ रुप आप चिन्मूरति झांई
तातैं थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम तांई
तो भी निर्फल नाहिं भक्ति रस भीने वायक
संतन को सुर तरु समान वांछित वरदायक21

कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहूं नहिं धारो
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहांरो
तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये
यह प्रभुता जगतिलका कहां तुम बिन सरदहिये22

सुरतिय गावें सुजश सर्व गति ज्ञान स्वरुपी
जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनंद रुपी
ताहि छेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो हैं
श्रुत के सुमरन माहिं सो न कबहूं नर मोहै23

अतुल चतुष्टय रूप तुम्हें जो चित में धारे
आदर सों तिहुं काल माहिं जग थुति विस्तारे
सो सुकृत शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरे
पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुःख चूरे24

अहो जगत पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे
तुम गुन कीर्तन माहिं कौन हम मंद विचारे
थुति छल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे
शिव सुख-पूरनहार कलपतरु यही हमारे25

वादिराज मुनि तें अनु, वैयाकरणी सारे
वादिराज मुनि तें अनु, तार्किक विद्यावारे
वादिराज मुनि तें अनु, हैं काव्यन के ज्ञाता
वादिराज मुनि तें अनु, हैं भविजन के त्राता26

दोहा - मूल अर्थ बहु विधि कुसुम, भाषा सूत्र मँझार
भक्ति माल 'भूधर' करी, करो कंठ सुखकार