अपने पुत्र इन्द्रजित की मृत्यु का समाचार सुनकर रावण व्याकुल हो दीनतापूर्वक विलाप करने लगा। फिर वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर राक्षसों को एकत्रित कर बोला, "हे निशाचरों! मैंने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से अद्भुत कवच प्राप्त किया है। उसके कारण मुझे कभी कोई देवता या राक्षस नहीं हरा सकता। देवासुर संग्राम में प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने मुझे बाण सहित विशाल धनुष भी दिया है। आज मैं उसी धनुष से राम-लक्ष्मण का वध करूँगा। मेरे पुत्र मेघनाद ने वानरों को भ्रम में डालने के लिये माया की सीता बनाकर उसका वध किया था, परन्तु मैं आज वास्तव में सीता का वध करके उस झूठ को सत्य कर दिखाउँगा।" यह कहकर वह चमचमाती हुई तलवार लेकर सीता को मारने के लिये अशोकवाटिका में जा पहुँचा।
रावण को यह नीच कर्म करने के लिये तैयार देखकर रावण के एक विद्वान और सुशील मन्त्री सुपार्श्व ने उसे रोकते हुये कहा, "महाराज दशग्रीव! आप साक्षात् कुबेर के भाई और वेद शास्त्रों के ज्ञाता हैं। फिर क्रोध के कारण धर्म को भूलकर सीता की हत्या क्यों करना चाहते हैं? आप सदा से धैर्यपूर्वक कर्तव्य का पालन करते आये हैं। इसलिये यह अनुचित कार्य न करें और हमारे साथ चलकर रणभूमि में राम पर अपना क्रोध उतारें।"
मन्त्री के वचन सुनकर रावण अपने महल को लौट गया। वहाँ मन्त्रियों के साथ आगे की योजना पर विचार करने लगा। फिर बोला, "कल हमको पूरी शक्ति से राम पर आक्रमण कर देना चाहिये।" रावण की आज्ञा पाकर दूसरे दिन प्रातःकाल लंका के वीर राक्षस नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर वानर सेनाओं से जा भिड़े। परिणाम यह हुआ कि दोनों ओर के वीरों द्वारा की गई मारधाड़ से समरभूमि में रक्त की धारा बह चली जो मृत शरीरों को लकड़ी की तरह बहा रही थी। जब राक्षसों ने वानर सेना की मार-मार कर दुर्गति कर दी तो स्वयं श्री राम ने वानरों पर आक्रमण करती हुई राक्षस सेना का देखते-देखते इस प्रकार सफाया कर दिया जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य की किरणें आकाश से बादलों का सफाया कर देती हैं। उन्होंने केवल आधे पहर में दस हजार रथों, अठारह हाथियों, चौदह हजार अश्वारोही वीरों और दो लाख पैदल सैनिकों को मार गिराया।
जब लंका में इस भयानक संहार की सूचना पहुँची तो सारे नगर में हाहाकार मच गया। राक्षस नारियाँ अपने पिता, पति, पुत्र, भाई आदि का स्मरण कर करके भयानक क्रन्दन करने लगीं। रावण ने क्रुद्ध, दुःखी और शोकाकुल होकर महोदर, महापार्श्व और विरूपाक्ष को युद्ध करने के लिये बुला भेजा। उनके आने पर वह स्वयं भी करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तिमान तथा आठ घोड़ों से सुसज्जित रथ पर बैठकर उन्हें साथ ले युद्ध करने को चला। उसके चलते ही मृदंग, पाह, शंख आदि नाना प्रकार के बाजे बजने लगे। महापार्श्व, महोदर और महावीर विरूपाक्ष भी अपने-अपने रथों पर सवार होकर उसके साथ चले। उस समय सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गई। सब दिशाओं में अन्धेरा छा गया। भयंकर पक्षी अशुभ बोली बोलने लगे। धरती काँपती सी प्रतीत होने लगी, ध्वज के अग्रभाग पर गृद्ध आकर बैठ गया। बायीं आँख फड़कने लगी। इन भयंकर उत्पातों की ओर ध्यान न देकर रावण अपनी सेना सहित युद्धभूमि में जा पहुँचा।
11 मार्च 2010
रामायण – लंकाकाण्ड – युद्ध के लिये रावण का प्रस्थान
Posted by Udit bhargava at 3/11/2010 06:22:00 am
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