आयुर्वेद के प्रणेता ब्रह्मा जिन्होंने
ब्रह्मसंहिता की रचना की
आयुर्वेद आयुर्विज्ञान की प्राचीन भारतीय पद्धति है। यह आयु का वेद अर्थात आयु का ज्ञान है। जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान कराया जाय उसका नाम आयुर्वेद है। शरीर, इन्द्रिय सत्व, और आत्मा के संयोग का नाम आयु है। आधुनिक शब्दों में यही जीवन है। प्राण से युक्त शरीर को जीवित कहते है। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। आयुर्वेद में इस सम्बन्ध में विचार किया जाता है। फलस्वरुप वह भी शाश्वत है। जिस विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्वप्रकार के ज्ञातव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके या जिस का अनुसरण करते हुए दीर्घ आशुष्य की प्राप्ति हो सके उस तंत्र को आयुर्वेद कहते हैं, आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है।
यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है। आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार), अहित (हानिकर, आहार, विहार), रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। सम्पूर्ण कार्यों विशेष रुप से शरीर की रक्षा करना चाहिए। भाव प्रकाश, आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ, मे कहा गया है कि जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान, हित और अहित आहार विहार का ज्ञान, व्याधि निदान तथा शमन का ज्ञान प्राप्ति किया जाता है, उस शास्त्र का नाम आयुर्वेद है।
यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है। आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार), अहित (हानिकर, आहार, विहार), रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। सम्पूर्ण कार्यों विशेष रुप से शरीर की रक्षा करना चाहिए। भाव प्रकाश, आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ, मे कहा गया है कि जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान, हित और अहित आहार विहार का ज्ञान, व्याधि निदान तथा शमन का ज्ञान प्राप्ति किया जाता है, उस शास्त्र का नाम आयुर्वेद है।
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आयुर्वेद के इतिहास पर यदि अवलोकन किया जाय तो इसकी उत्पत्ति महर्षि देवता ब्रह्मा जी द्वारा माना गया है, जिन्होंने ब्रह्मसंहिता की रचना की थी। कहा जाता है कि ब्रह्मसंहिता में दस लाख श्लोक तथा एक हजार अघ्याय थे, लेकिन आधुनिक काल में यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है।
आयुर्वेद के ज्ञान के आदि श्रोत वेद मानें जाते हैं। यद्यपि आयुर्वेद का वर्णन सभी चारों वेदों में किया गया है, लेकिन अथर्ववेद से अधिक साम्यता होंनें के कारण महर्षि सुश्रुत नें उपांग और महर्षि वाग्भट्ट नें उपवेद बताया है। महर्षि चरक नें भी अथर्ववेद से सबसे अधिक नजदीकी विवरण मिलनें के कारण आयुर्वेद को इसी वेद से जोडा है।
इसी कडी में, ऋग्वेद में आयुर्वेद को उपवेद की संज्ञा दी गयी है। महाभारत में भी आयुर्वेद को उपवेद कहा गया है। पुराणों में भी वर्णन प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा गया है। वास्तव में किसी भी वैदिक साहित्य में आयुर्वेद शब्द का वर्णन नहीं मिलता, फिर भी महर्षि पाणिनि द्वारा रचित ग्रंथ अष्टाध्यायी में आयुर्वेद शब्द प्राप्त होता है।
आयुर्वेद का सम्पूर्ण वर्णन प्रमुख रूप से चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में किया गया है। अन्य संहिताओं यथा काश्यप संहिता, हरीत संहिता, में इसका वर्णन किया गया है, लेकिन ये सम्पूर्ण नहीं हैं। अष्टाङ्ग संग्रह, अष्टाङ्ग हृदय, भाव प्रकाश, माधव निदान इत्यादि ग्रंथों का सृजन चरक और सुश्रुत को आधार बनाकर रचित की गयीं हैं। समय के परिवर्तन के साथ साथ निदानात्मक और चिकित्सकीय अनुभवों को लेखकों नें अपने अपने दृष्टिकोणों और विचारों को अनुकूल समझ कर संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध किया।
आयुर्वेद के ज्ञान के आदि श्रोत वेद मानें जाते हैं। यद्यपि आयुर्वेद का वर्णन सभी चारों वेदों में किया गया है, लेकिन अथर्ववेद से अधिक साम्यता होंनें के कारण महर्षि सुश्रुत नें उपांग और महर्षि वाग्भट्ट नें उपवेद बताया है। महर्षि चरक नें भी अथर्ववेद से सबसे अधिक नजदीकी विवरण मिलनें के कारण आयुर्वेद को इसी वेद से जोडा है।
इसी कडी में, ऋग्वेद में आयुर्वेद को उपवेद की संज्ञा दी गयी है। महाभारत में भी आयुर्वेद को उपवेद कहा गया है। पुराणों में भी वर्णन प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा गया है। वास्तव में किसी भी वैदिक साहित्य में आयुर्वेद शब्द का वर्णन नहीं मिलता, फिर भी महर्षि पाणिनि द्वारा रचित ग्रंथ अष्टाध्यायी में आयुर्वेद शब्द प्राप्त होता है।
आयुर्वेद का सम्पूर्ण वर्णन प्रमुख रूप से चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में किया गया है। अन्य संहिताओं यथा काश्यप संहिता, हरीत संहिता, में इसका वर्णन किया गया है, लेकिन ये सम्पूर्ण नहीं हैं। अष्टाङ्ग संग्रह, अष्टाङ्ग हृदय, भाव प्रकाश, माधव निदान इत्यादि ग्रंथों का सृजन चरक और सुश्रुत को आधार बनाकर रचित की गयीं हैं। समय के परिवर्तन के साथ साथ निदानात्मक और चिकित्सकीय अनुभवों को लेखकों नें अपने अपने दृष्टिकोणों और विचारों को अनुकूल समझ कर संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध किया।
संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो दुःखी होना चाहता हो। सुख की चाह प्रत्येक व्यक्ति की होती है, परन्तु सुखी जीवन उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्वस्थ और सुखी रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर में कोई विकार न हो और यदि विकार हो जाए तो उसे शीघ्र दूर कर दिया जाये। आयुर्वेद का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन करना है। ऋषि जानते थे कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ जीवन से ही है इसीलिए उन्होंने आत्मा के शुद्धिकरण के साथ शरीर की शुद्धि व स्वास्थ्य पर भी विशेष बल दिया है।
आयुर्वेद के विकास क्रम और विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करनें से ऐसा समझा जाता है कि आदिम काल के पूर्वजों नें रोंगों से मुक्ति पानें के लिये जिन जंगली जड़ी-बूटियों, रहन-सहन और अन्य पदार्थों को रोगानुसार आरोग्यार्थ स्वरूप में स्वीकार किया, वे यह सारा ज्ञान अपनें बाद की पीढियों को देते चले गये। यह सारा ज्ञान श्रुति और स्मृति पर आधारित रहा। कालान्तर में यह ज्ञान एक स्थान पर एकत्र होता गया। जब गुरूकुलों की स्थापना हुयी तो धर्म, कर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इत्यादि की प्राप्ति के लिये यह कहा गया कि जब तक तन और मन स्वस्थ्य नहीं होंगे, ऐसा उद्देश्य प्राप्त करना कठिन है, इसलिये पहली आवश्यकता शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखना है।
जब तक लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था तब तक यह ज्ञान स्मृति और श्रुति के सहारे जीवित रहा। जब लिपियों का आविष्कार हुआ तब यह ज्ञान पत्थरों से लेकर भोजपत्र में संचित करके रखा गया।
आयुर्वेद के विकास क्रम और विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करनें से ऐसा समझा जाता है कि आदिम काल के पूर्वजों नें रोंगों से मुक्ति पानें के लिये जिन जंगली जड़ी-बूटियों, रहन-सहन और अन्य पदार्थों को रोगानुसार आरोग्यार्थ स्वरूप में स्वीकार किया, वे यह सारा ज्ञान अपनें बाद की पीढियों को देते चले गये। यह सारा ज्ञान श्रुति और स्मृति पर आधारित रहा। कालान्तर में यह ज्ञान एक स्थान पर एकत्र होता गया। जब गुरूकुलों की स्थापना हुयी तो धर्म, कर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इत्यादि की प्राप्ति के लिये यह कहा गया कि जब तक तन और मन स्वस्थ्य नहीं होंगे, ऐसा उद्देश्य प्राप्त करना कठिन है, इसलिये पहली आवश्यकता शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखना है।
जब तक लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था तब तक यह ज्ञान स्मृति और श्रुति के सहारे जीवित रहा। जब लिपियों का आविष्कार हुआ तब यह ज्ञान पत्थरों से लेकर भोजपत्र में संचित करके रखा गया।
नागार्जुन, आयुर्वेद के भिषज्
ग्रन्थ -- रचनाकार
चरक संहिता -- चरक
सुश्रुत संहिता -- सुश्रुत
अष्टांग हृदय -- वाग्भट्ट
वंगसेन -- वंगसेन
माधव निदान -- मधवाचार्य
भाव प्रकाश -- भाव मिश्र
इन ग्रन्थों के अतिरिक्त वैद्य विनोद, वैद्य मनोत्सव, भैषज्य रत्नावली, वैद्य जीवन आदि अन्य वैद्यकीय ग्रन्थ हैं। वैद्य जीवन के रचयिता पंडितवर लोलिम्बराज हैं; इस ग्रन्थ को अतीत में एवं आधुनिक काल में अधिक श्रद्धा के साथ वैद्यों ने अपनाया है।
चरक संहिता -- चरक
सुश्रुत संहिता -- सुश्रुत
अष्टांग हृदय -- वाग्भट्ट
वंगसेन -- वंगसेन
माधव निदान -- मधवाचार्य
भाव प्रकाश -- भाव मिश्र
इन ग्रन्थों के अतिरिक्त वैद्य विनोद, वैद्य मनोत्सव, भैषज्य रत्नावली, वैद्य जीवन आदि अन्य वैद्यकीय ग्रन्थ हैं। वैद्य जीवन के रचयिता पंडितवर लोलिम्बराज हैं; इस ग्रन्थ को अतीत में एवं आधुनिक काल में अधिक श्रद्धा के साथ वैद्यों ने अपनाया है।
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आयुर्वेद अवतरण
आयुर्वेद के अवतरण की कई गाथायें हैं :
चरक संहिता के अनुसार ब्रह्मा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान दोनों अश्विनी कुमार को दिया, अश्वनी कुमारों नें यह ज्ञान इन्द्र को दिया, इन्द्र नें यह ज्ञान भारद्वाज को दिया, भारद्वाज नें यह ज्ञान आत्रेय पुनर्वसु को दिया, आत्रेय पुनर्वसु नें यह ज्ञान अग्निवेश, जतूकर्ण, भेल, पराशर, हरीत, क्षारपाणि को दिया ।
सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्षप्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्वनीं कुमार को दिया, अश्वनी कुमार से यह ज्ञान धन्वन्तरि को दिया, धन्वन्तरि नें यह ज्ञान औपधेनव और वैतरण और औरभ और पौष्कलावत और करवीर्य और गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया।
काश्यप संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान अश्वनी कुमार को दिया और अश्वनीं कुमार नें यह ज्ञान इन्द्र को दिया और इन्द्र ने यह ज्ञान कश्यप और वशिष्ठ और अत्रि और भृगु आदि को दिया। इनमें से एक शिष्य अत्रि नें यह ज्ञान अपनें पुत्र और अन्य शिष्यों को दिया।
सृष्टि के प्रणेता ब्रह्मा द्वारा एक लाख सूत्रों में आयुर्वेद का वर्णन किया गया और इस ज्ञान को दक्ष प्रजापति द्वारा ग्रहण किया गया तत्पश्चात् दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान सूर्यपुत्र अश्विन कुमारों को और अश्विन कुमारों से स्वर्गाधिपति इन्द्र को प्राप्त हुआ। आयुर्वेद के इतिहास से यह ज्ञात होता है कि इन्द्र के द्वारा यह ज्ञान पुनर्वसु आत्रेय को यह प्राप्त हुआ। शल्य शास्त्र के रुप में यह ज्ञान आदि धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ। और स्त्री एवं बाल चिकित्सा के रुप में यह ज्ञान इन्द्र से महर्षि कश्यप को दिया गया। उपरोक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि भारत में प्रारंभ से ही चिकित्सा ज्ञान, काय चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, स्त्री एवं बालरोग चिकित्सा रुप में विख्यात हुआ था। उपरोक्त इस विशेष कथन से यह बात भी प्रमाणित होती है कि चिकित्सा कार्य को करने के लिए आज की राज आज्ञा के अनुरुप चिकित्सा कार्य करने के लिए स्वर्गाधिपति इन्द्र से अनुमति प्राप्त करनी आवश्यक होती थी।
चरक संहिता को काश्मीर राज्य के आयुर्वेदज्ञ दृढ़बल नें पुर्नसंगृहित किया। इस समय के प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञों में मत्त, मान्डव्य, भास्कर, सुरसेन, रत्नकोष, शम्भू, सात्विक, गोमुख, नरवाहन, इन्द्रद, काम्बली, व्याडि आदि रहे हैं।
महात्मा बुद्ध के समय में आयुर्वेद विज्ञान नें सबसे अधिक प्रगति रस चिकित्सा विज्ञान और रस विद्या में किया है। इसी कारण बौद्ध युग को रस शास्त्र का स्वर्ण युग कहा जाता है।
रस विद्या तीन भागों 1- धातु विद्या 2- रस चिकित्सा 3- क्षेम विद्या, में विभाजित हुयी ।
सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्षप्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्वनीं कुमार को दिया, अश्वनी कुमार से यह ज्ञान धन्वन्तरि को दिया, धन्वन्तरि नें यह ज्ञान औपधेनव और वैतरण और औरभ और पौष्कलावत और करवीर्य और गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया।
काश्यप संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान अश्वनी कुमार को दिया और अश्वनीं कुमार नें यह ज्ञान इन्द्र को दिया और इन्द्र ने यह ज्ञान कश्यप और वशिष्ठ और अत्रि और भृगु आदि को दिया। इनमें से एक शिष्य अत्रि नें यह ज्ञान अपनें पुत्र और अन्य शिष्यों को दिया।
सृष्टि के प्रणेता ब्रह्मा द्वारा एक लाख सूत्रों में आयुर्वेद का वर्णन किया गया और इस ज्ञान को दक्ष प्रजापति द्वारा ग्रहण किया गया तत्पश्चात् दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान सूर्यपुत्र अश्विन कुमारों को और अश्विन कुमारों से स्वर्गाधिपति इन्द्र को प्राप्त हुआ। आयुर्वेद के इतिहास से यह ज्ञात होता है कि इन्द्र के द्वारा यह ज्ञान पुनर्वसु आत्रेय को यह प्राप्त हुआ। शल्य शास्त्र के रुप में यह ज्ञान आदि धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ। और स्त्री एवं बाल चिकित्सा के रुप में यह ज्ञान इन्द्र से महर्षि कश्यप को दिया गया। उपरोक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि भारत में प्रारंभ से ही चिकित्सा ज्ञान, काय चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, स्त्री एवं बालरोग चिकित्सा रुप में विख्यात हुआ था। उपरोक्त इस विशेष कथन से यह बात भी प्रमाणित होती है कि चिकित्सा कार्य को करने के लिए आज की राज आज्ञा के अनुरुप चिकित्सा कार्य करने के लिए स्वर्गाधिपति इन्द्र से अनुमति प्राप्त करनी आवश्यक होती थी।
चरक संहिता को काश्मीर राज्य के आयुर्वेदज्ञ दृढ़बल नें पुर्नसंगृहित किया। इस समय के प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञों में मत्त, मान्डव्य, भास्कर, सुरसेन, रत्नकोष, शम्भू, सात्विक, गोमुख, नरवाहन, इन्द्रद, काम्बली, व्याडि आदि रहे हैं।
महात्मा बुद्ध के समय में आयुर्वेद विज्ञान नें सबसे अधिक प्रगति रस चिकित्सा विज्ञान और रस विद्या में किया है। इसी कारण बौद्ध युग को रस शास्त्र का स्वर्ण युग कहा जाता है।
रस विद्या तीन भागों 1- धातु विद्या 2- रस चिकित्सा 3- क्षेम विद्या, में विभाजित हुयी ।
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शल्य चिकित्सा पर प्रतिबन्ध
कलिंग विजय के पश्चात सम्राट अशोक नें भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर अपनें राज्य में रक्तपात और रक्तपात से संबंधित समस्त कार्यकलापों पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लागू कर दिया। इससें कालान्तर में शनै: शनै: आयुर्वेद में प्रचिलित शल्य-चिकित्सा का अभ्यास प्रभावित हुआ और अन्तत: एक प्रकार से शल्यचिकित्सा का लोप होता चला गया। लेकिन दूसरी तरफ रस चिकित्सा में अदभुत रूप से प्रगति हुयी। केवल रसौषधियों के बल पर साध्य, कष्ट साध्य और असाध्य रोंगों की चिकित्सा विधियों की खोज की गयी।
बौद्ध युग के सिद्ध आयुर्वेदज्ञों में भगवान बुद्ध के शिष्य नागार्जुन तृतीय ने रस विद्या के उत्थान के लिये बहुत योगदान दिया। भगवान बुद्ध के शिष्यों में लगभग आठ नागार्जुन हुये हैं। ऐसा समझा जाता है कि आयुर्वेद रस-चिकित्सा विज्ञान के उत्थान और शोध में सभी नागार्जुनों का अमूल्य योगदान रहा है।
बौद्ध युग के सिद्ध आयुर्वेदज्ञों में भगवान बुद्ध के शिष्य नागार्जुन तृतीय ने रस विद्या के उत्थान के लिये बहुत योगदान दिया। भगवान बुद्ध के शिष्यों में लगभग आठ नागार्जुन हुये हैं। ऐसा समझा जाता है कि आयुर्वेद रस-चिकित्सा विज्ञान के उत्थान और शोध में सभी नागार्जुनों का अमूल्य योगदान रहा है।
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आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त
आयुर्वेद, के विद्वान मनीषियों नें चिकित्सा-विधि को ज्ञान एवं तर्क युक्त बनानें के लिये बहुत से मूल सिद्धान्तों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हुये संरचनायें की हैं. ये इस प्रकार रचित की गयीं हैं -
त्रिदोष
मुख्य लेख : त्रिदोष
मुख्यतः यह तीन होते हैं जिन्हें वात, पित्त और कफ कहते हैं (ये एकल दोष कहे जाते हैं)।
जब वात और पित्त अथवा पित्त और कफ अथवा वात और कफ ये दो दोष मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को द्विदोषज कहते हैं।
जब वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष एक साथ मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को त्रिदोषज या सन्निपातज कहते हैं।
मुख्य लेख : त्रिदोष
मुख्यतः यह तीन होते हैं जिन्हें वात, पित्त और कफ कहते हैं (ये एकल दोष कहे जाते हैं)।
जब वात और पित्त अथवा पित्त और कफ अथवा वात और कफ ये दो दोष मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को द्विदोषज कहते हैं।
जब वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष एक साथ मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को त्रिदोषज या सन्निपातज कहते हैं।
त्रिदोष के पांच भेद
मुख्य लेख : त्रिदोष के प्रत्येक के पांच भेद
हरेक दोष के पांच भेद आयुर्वेद के मनीषियों नें निर्धारित किये हैं -
वात दोष के पांच भेद (1) समान वात (2) व्यान वात (3) उदान वात (4) प्राण वात (5) अपान वात हैं। वात दोष को ‘’ वायु दोष ‘’ भी कहते हैं।
पित्त दोष के पांच भेद होते हैं: 1- पाचक पित्त 2- रंजक पित्त 3- भ्राजक पित्त 4- लोचक पित्त 5- साधक पित्त
इसी प्रकार कफ दोष के पांच भेद होते हैं: 1- श्लेष्मन कफ 2- स्नेहन कफ 3- रसन कफ 4- अवलम्बन कफ 5- क्लेदन कफ
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ वातादि दोषों के भेदों को फिजियोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज के समकक्ष मानते हें। कुछ अन्य विदृवान इसे असामान्य एनाबालिजम की तरह से समझते हैं।व्च्व्ह्ज अ
मुख्य लेख : त्रिदोष के प्रत्येक के पांच भेद
हरेक दोष के पांच भेद आयुर्वेद के मनीषियों नें निर्धारित किये हैं -
वात दोष के पांच भेद (1) समान वात (2) व्यान वात (3) उदान वात (4) प्राण वात (5) अपान वात हैं। वात दोष को ‘’ वायु दोष ‘’ भी कहते हैं।
पित्त दोष के पांच भेद होते हैं: 1- पाचक पित्त 2- रंजक पित्त 3- भ्राजक पित्त 4- लोचक पित्त 5- साधक पित्त
इसी प्रकार कफ दोष के पांच भेद होते हैं: 1- श्लेष्मन कफ 2- स्नेहन कफ 3- रसन कफ 4- अवलम्बन कफ 5- क्लेदन कफ
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ वातादि दोषों के भेदों को फिजियोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज के समकक्ष मानते हें। कुछ अन्य विदृवान इसे असामान्य एनाबालिजम की तरह से समझते हैं।व्च्व्ह्ज अ
सप्त धातु
मुख्य लेख : सप्त धातु
आयुर्वेद के मौलिक सिदधान्तों में सप्त धातुओं का बहुत महत्व है इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से धातु कहा जाता है। ये संख्या में सात होती है -
रस धातु
रक्त धातु
मांस धातु
मेद धातु
अस्थि धातु
मज्जा धातु
शुक्र धातु
सप्त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ सप्त धातुओं को पैथोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज के समतुल्य मानते हैं
मुख्य लेख : सप्त धातु
आयुर्वेद के मौलिक सिदधान्तों में सप्त धातुओं का बहुत महत्व है इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से धातु कहा जाता है। ये संख्या में सात होती है -
रस धातु
रक्त धातु
मांस धातु
मेद धातु
अस्थि धातु
मज्जा धातु
शुक्र धातु
सप्त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ सप्त धातुओं को पैथोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज के समतुल्य मानते हैं
मल-आयुर्वेद
मुख्य लेख : मल-आयुर्वेद
मल तीन प्रकार के होतें हैं
पुरीष
मूत्र
स्वेद
मुख्य लेख : मल-आयुर्वेद
मल तीन प्रकार के होतें हैं
पुरीष
मूत्र
स्वेद
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आयुर्वेद के आठ अङ्ग : अष्टाङ्ग आयुर्वेद
चिकित्सा के दृष्टिकोण से आयुर्वेद को आठ अंगों में वर्गीकृत किया गया है । इसे अष्टाङ्ग आयुर्वेद कहते हैं ।
1- शल्य
2- शालाक्य
3- काय चिकित्सा
4- भूत विद्या
5- कौमार भृत्य
6- अगद तन्त्र
7- रसायन
8- बाजीकरण
1- शल्य
2- शालाक्य
3- काय चिकित्सा
4- भूत विद्या
5- कौमार भृत्य
6- अगद तन्त्र
7- रसायन
8- बाजीकरण
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आयुर्वेद में नयी खोजें
आयुर्वेद लगभग, 5000 वर्ष पुराना चिकित्सा विज्ञान है. इसे भारतवर्ष के विद्वानों नें भारत की जलवायु, भौगालिक परिस्थितियों,भारतीय दर्शन, भारतीय ज्ञान-विज्ञान के द्ष्टकोण को घ्यान में रखते हुये विकसित किया है। वतर्मान में स्वतंत्रता के पश्चात आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान नें बहुत प्रगति की है. भारत सरकार द्वारा स्थापित संस्था ‘’केन्द्रीय आयुर्वेद एवं सिद्ध अनुसंधान परिषद’’,[Central council for research in Ayurveda and Siddha, CCRAS] नई दिल्ली, भारत, आयुर्वेद में किये जा रहे अनुसन्धान कार्यों को समस्त देश में फैले हुये शोध सन्स्थानों में सम्पन्न कराता है। बहुत से एन0जी0ओ0 और प्राइवेट सन्स्थान तथा अस्पताल और व्यतिगत आयुर्वेदिक चिकित्सक शोध कार्यों में लगे हुये है। इनमें से प्रमुख शोध त्रिफला, अश्वगंधा आदि औषधियों, इलेक्ट्रानिक उपकरणों यथा इलेक्ट्रो त्रिदोष ग्राफी ई०टी०जी० और नाडी तरन्गिणी यत्रों द्वारा आयुर्वेदिक तौर तरीकों से आयुर्वेद के मौलिक सिद्धन्तों की पहचान, रोगों के निदान में सहायता और सटीक साक्ष्य आधारित चिकित्सा व्यवस्था से संबंधित हैं।
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आलोचना
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एलोपैथी के समर्थन करनें वाले चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि आयुर्वेद एक अवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जिस प्रकार एलोपैथी में रोगों के कारण बैक्टीरिया, इन्फेक्सन, जेनेटिक आदि होते हैं और औषधियों के परीक्षण जानवरों पर होते हैं और परिणाम प्राप्त करनें तक की सारी प्रक्रिया साक्ष्य आधारित [Evidence Based] होती है वैसा आयुर्वेद में कुछ भी नहीं है और सब कुछ कपोल कल्पना पर आधारित है।
जनरल आंफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिसिन में चिकित्सा विज्ञानियों नें दावा किया है कि ऐसी तमाम आयुर्वेदिक औषधियां हैं जिनमें एलापैथिक स्टेरायड मिले हुये होते हैं।
जनरल आंफ अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन नें एक अध्ययन के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला है कि एशिया के बाजारों से प्राप्त आयुर्वेदिक दवाओं के सैंपिल जांचनें में हेवी मेटल [Heavy metals] यानी भारी धातुयें जैसे पारा, शीशा और संखिया जैसे जहरीले पदार्थ 20 प्रतिशत नमूनों में मात्रा से अधिक प्राप्त हुआ है।
जनरल आंफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिसिन में चिकित्सा विज्ञानियों नें दावा किया है कि ऐसी तमाम आयुर्वेदिक औषधियां हैं जिनमें एलापैथिक स्टेरायड मिले हुये होते हैं।
जनरल आंफ अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन नें एक अध्ययन के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला है कि एशिया के बाजारों से प्राप्त आयुर्वेदिक दवाओं के सैंपिल जांचनें में हेवी मेटल [Heavy metals] यानी भारी धातुयें जैसे पारा, शीशा और संखिया जैसे जहरीले पदार्थ 20 प्रतिशत नमूनों में मात्रा से अधिक प्राप्त हुआ है।
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आयुर्वेद द्वारा रोगों का इलाज
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कड़ी संख्या - 2
कड़ी संख्या - 3
कड़ी संख्या - 4
कड़ी संख्या - 5
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