वैदिक ऋषियों ने सूर्य उपासना को महत्व इसलिए दिया है क्योंकि यह भौतिक, शारीरिक सामाजिक आर्थिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। ऋक संहिता के [1/191] सूक्त में सूर्य देवता को गरल को दूर करने वाला कहा गया है। अथर्ववेद[1/22/1] में आया है कि शारीरिक और हृदयगत रोगों का अपहरण करने में सूर्य के सामर्थ्य का उल्लेख कई ऋचाओंमें है। महर्षि याज्ञवल्क्यने सूर्य की उपासना कर सम्पूर्ण यजुर्वेद प्राप्त कर लिया था। सूर्य का सम्बन्ध सभी वेदों से है। पृथ्वी के कण-कण में सूर्य से ही जीवन को गति मिलती है।
29 दिसंबर 2009
वेद की ऋचाओं में सूर्य देव
वैदिक ऋषियों ने सूर्य उपासना को महत्व इसलिए दिया है क्योंकि यह भौतिक, शारीरिक सामाजिक आर्थिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। ऋक संहिता के [1/191] सूक्त में सूर्य देवता को गरल को दूर करने वाला कहा गया है। अथर्ववेद[1/22/1] में आया है कि शारीरिक और हृदयगत रोगों का अपहरण करने में सूर्य के सामर्थ्य का उल्लेख कई ऋचाओंमें है। महर्षि याज्ञवल्क्यने सूर्य की उपासना कर सम्पूर्ण यजुर्वेद प्राप्त कर लिया था। सूर्य का सम्बन्ध सभी वेदों से है। पृथ्वी के कण-कण में सूर्य से ही जीवन को गति मिलती है।
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मैनपुरी की देवी मां शीतला
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कष्टों को दूर करती हैं देवी शाकम्भरी
ततोऽहमखिलंलोकमात्मदेहसमुद्भवै:।
भरिष्यामिसुरा: शाकैरावृष्टे:प्राणाधारकै:।।
अनावृष्टि से संपूर्ण प्राणियों के व्यग्र होने के कारण ऋषि-मुनियों की अधीर प्रार्थना पर ही यह देवी प्रकट होंगी। देवी अयोनिजा होंगी अर्थात् किसी के गर्भ से प्रकट नहीं होकर स्वयं की शक्ति से अवतरित होंगी। अवतरित होते ही यह शत नेत्रों से मुनियों को अवलोकितकरेंगी, अत:इन्हीं का नाम शताक्षीभी होगा। ये सब देवी-वाक्य वस्तुत:सत्य सिद्ध हुए। उन्होंने जो कुछ कहा था, उससे अधिक ही कर दिखाया। पृथ्वी पर दुर्गम नामक एक खूंखार महाबली दैत्य उत्पन्न हुआ। उसके भयावह उपद्रव से तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मच गई। उसने चारों वेदों को चुरा लिया। यज्ञ-जाप बंद करा दिए। यज्ञ नहीं हो तो वर्षा किधर से हो? श्री मद्भगवद्गीतामें कहा भी गया है-
अन्नाद्भवन्तिभूतानिपर्जन्यादन्नसम्भव:।
अर्थात अन्न से प्राणियों का अस्तित्व है। वर्षा के फलस्वरूप अन्न की प्राप्ति होती है। वर्षा यज्ञ से ही संभव है एवं यज्ञ कर्मजनितहै। दुर्गम नामक राक्षस ने इंद्र को भी बंदी बना लिया। वर्षा के देवता ही बंदी हो गए तो आकाश से एक बूंद का बरसना भी बंद हो गया। मुनियों की विह्वल प्रार्थना पर देवी शाकंभरी अपनी सौ आंखों के साथ अवतरित हुईं। पृथ्वी की दुर्दशा देख कर इनकी सौ नेत्रों से जल-धार बह चली और इस जल से संपूर्ण धरती आप्लावित हो गई। पृथ्वी अब अन्न दे सकती थी पर उसमें समय लगता। अत:देवी ने एक अन्य उपाय किया। अपने ही शरीर से विपुल शाक उत्पन्न किया, इतना कि उससे सभी प्राणियों की प्राण-रक्षा होने लगी। उन्होंने मुनियों की प्रार्थना पर दुर्गम से युद्ध कर उसे काल के हवाले किया और इंद्र को मुक्त करा लिया। शाकंभरी देवी का भव्य मंदिर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से कुछ ही दूरी पर दो पहाडियोंके मध्य स्थित है। यहां की प्राकृतिक छटा अत्यंत रमणीय है। एक सुंदर जलप्रपात से निरंतर जल की धार प्रवाहित होती रहती है। यहां की पहाडियोंपर सराल नामक कंद-मूल अधिकता से पाया जाता है जो अत्यंत मीठा और स्वादिष्ट होता है। भूमि को थोडा सा खोदने पर ही यह प्राप्त हो जाता है। आश्विन शुक्ल चतुर्दशी को शाकम्भरी-पीठ पर बहुत बडा मेला लगता है जिसमें स्थान-स्थान से हजारों श्रद्धालु जुटते हैं और सभी को प्रसाद के रूप में सराल ही दिया जाता है। इसी तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि किस मात्रा में यह कंदमूलयहां उपलब्ध है। इस सराल को ही देवी द्वारा उत्पन्न शाक का प्रतीक माना जाता है। सचमुच यह अभी भी लोगों की क्षुधा-पूर्ति कर सकता है, देवी के अवतरण के समय इसकी बहुलता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। श्रद्धालुओं की भीड यहां इसलिए अधिक होती है कि कभी सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणियों की क्षुधा-पिपासा शान्त करने वाली माता शाकम्भरी आज भी अपने भक्तों के सभी भौतिक कष्टों को दूर कर उनकी मनोकामनाएंपूर्ण करती हैं। दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकम्भरी के स्वरूप का वर्णन है जिसके अनुसार इनका वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं।
शाकम्भरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
दूसरे श्लोक के अनुसार ये पद्मासनाहैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही ये विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है-
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:46:00 am 0 comments
जनमानस के हृदय में बसते हैं राम
साहित्य शोध भगवान राम के बारे में अधिकारिक रूप से जानने का मूल स्त्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। इस गौरव ग्रंथ के कारण वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं। श्रीराम कथा केवल वाल्मीकि रामायण तक सीमित न रही बल्कि मुनि व्यास रचित महाभारत में भी चार स्थलों- रामोपाख्यान,आरण्यकपर्व,द्रोण पर्व तथा शांतिपर्व-पर वर्णित है। बौद्ध परंपरा में श्रीराम संबंधित दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएं उपलब्ध हैं। रामायण से थोडा भिन्न होते हुए भी वे इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। जैन साहित्य में राम कथा संबंधी कई ग्रंथ लिखे गए, जिनमें मुख्य हैं-विमलसूरिकृत पदमचरित्र (प्राकृत), रविषेणाचार्यकृतपद्म पुराण (संस्कृत), स्वयंभू कृत पदमचरित्र (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्र पुराण तथा गुणभद्रकृतउत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परंपरा के अनुसार राम का मूल नाम पदम था।
दूसरे, अनेक भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गई। हिंदी में कम से कम 11,मराठी में 8,बंगला में 25,तमिल में 12,तेलुगु में 5तथा उडिया में 6रामायणेंमिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत, गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गई। महाकवि कालिदास,भास,भट्ट, प्रवरसेन,क्षेमेन्द्र,भवभूति,राजशेखर,कुमारदास,विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त,नारद, लोमेश,मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास,गुरु गोविंद सिंह, समर्थ गुरु रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों ने, संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के बारे में काव्यों/कविताओंकी रचना की है।
विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावाका सेरतराम,सैरीराम,रामकेलिंग,पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति(रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन,थाईलैंड की रामकियेनआदि रामचरित्र का बखूबी बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमरका प्राचीन काव्य इलियड रोम के कवि नोनसकी कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है।
विश्व साहित्य में इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों/लेखकों द्वारा राम के अलावा किसी और चरित्र का इतनी श्रद्धा से वर्णन न किया गया।
मंदिर व मृण्मूर्तियां-देश-विदेशोंमें भगवान राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान आदि के सैकडों नहीं, हजारों मंदिरों का निर्माण किया गया। कंबोडिया के विश्व प्रसिद्ध 11वींशताब्दी में निर्मित अंकोरवाटमंदिर की दीवारों पर रामायण व महाभारत के दृश्य अंकित हैं। इसी तरह 9वींसदी में निर्मित जावाके परमबनन(परमब्रह्म)नामक विशाल शिवमंदिर की भित्तिकाओंपर रामायण की चित्रावली अंकित है। रामायण से संबंधित सैकडों मृण्मूर्तियां(टैराकोटा) हरियाणा प्रदेश के सिरसा, हाठ,नचारखेडा (हिसार), जींद,संथाय(यमुनानगर), उत्तर प्रदेश के कौशांबी (इलाहाबाद), अहिच्छत्र(बरेली), कटिंघर(एटा) तथा राजस्थान के भादरा(श्रीगंगानगर) आदि जगहों से प्राप्त हुई है। इन मृण्मूर्तियोंपर वनवास काल की प्रमुख घटनाओं को बहुत सुंदर रूप से दिखाया गया है। इनमें मुख्य है राम, सीता, लक्ष्मण का पंचवटी गमन, मारीचमृग, त्रिशिराराक्षस द्वारा खर-दूषण से विचार-विमर्श और राम द्वारा 14राक्षसों के वध का वर्णन, रावण द्वारा सीताहरण, सुग्रीव-बाली युद्ध, श्रीराम द्वारा बाली वध, हनुमान द्वारा अशोक वाटिका को नष्ट किया जाना, त्रिशिराराक्षस का वध, रावण पुत्र इंद्रजीत का युद्ध में जाना आदि-आदि दृश्य विद्यमान है। इन मृण्मूर्तियोंपर गुप्तकालपूर्व की लिपि में वाल्मीकीय रामायण के श्लोक भी लिखे गए हैं। ये मृण्मूर्तियांझज्जर(हरियाणा)केपुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती है। इसके अलावा सैकडों मृण्मूर्तियांभारत के विभिन्न संग्रहालयों तथा लंदन म्यूजियम में संग्रहितहैं।
श्रीराम का काल-प्राचीन भारतीय कालगणनातथा पुराणीयपरंपरा के अनुसार श्रीराम 24वेंत्रेतायुग में पैदा हुए। वाल्मीकि रामायण तथा अन्य रामायणों/रामचरित्रों के अतिरिक्त अन्य प्राचीन ग्रंथों में राम, रावण आदि के विषय में चार मुख्य संदर्भ मिलते हैं।
त्रेतायुगेचतुर्विंशेरावण: तपस: क्षयात।राम दशरथिंप्राप्य सगण:क्षयमीयीवान्।।
(वायु पुराण)
संद्यौतुसमनुप्राप्तेत्रैतायांद्वापरस्यच।रामौदाशरथिर्भूत्वाभविष्यामिजगत्पति॥
(महाभारत )
चतुर्विशेयुगेचापिविश्वामित्र पुर: सर:। लोकेराम इति ख्यात: तेजसाभास्करोपम्॥
(हरिवंश)
चतुर्विशेयुगेवत्स! त्रेतायांरघुवंशज:।
रामोनाम भविष्यामिचतुव्र्यूह:सनातन:॥ (ब्रह्माण्ड पुराण)
उपरोक्त संदर्भो व प्रमाणों के आधार पर यही सत्य प्रतीत होता है कि श्रीराम, विश्वामित्र आदि युग पुरुष 24वेंत्रेतायुग में थे। महाभारत के अनुसार श्रीराम त्रेताएवं द्वापर युगों के संधिकाल में हुए थे।
ऊपर लिखे प्रमाणों के आधार पर हम अगर 24वेंत्रेताकी समाप्ति पर राम का काल माने तो युगों की वर्ष-गणना के हिसाब से श्रीराम का समय आज से 8,69,108वर्ष पूर्व का ठहरता है।
इतने लम्बे काल के बाद किसी भी भवन, मूर्ति, मुद्रा, हथियार आदि का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्रमाण दिए भी नहीं जा सकते। 4-5पीढियों पूर्व अगर कोई व्यक्ति बिना संतान के मर गया तो उसको सिद्ध करने के लिए हमारे पास शायद काई प्राकृतिक वस्तु न मिले। अगर कोई घर है भी तो उसीनेबनाया था जब तक इसका दस्तावेज नहीं मिलता अथवा उसके बारे में कोई जनश्रुतिनहीं मिलती तो कैसे सिद्ध किया जा सकता है? आज के समय में देश में अथवा विदेशों में राज्य करने वाले प्रधानमंत्रियों तथा राष्ट्रपतियों के बारे में 1000वर्षो के बाद में कोई प्रमाण मांगे तो उस समय उनके पास सिर्फ पुस्तकीय विवरण तथा जनश्रुतिही उनके इतिहास को बता सकती है। पिछले कुछ वर्षो में कम्प्यूटर का ज्ञान रखने वाले कुछ अति उत्साही लोगों ने वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड) में वर्णित श्री राम के जन्म समय (चैत्र मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, पुनर्वसुनक्षत्र, कर्क लग्न आदि) की प्लेनेटेरियम गोल्ड साफ्टवेयर के माध्यम से आधुनिक गणना की है। इन लोगों ने ग्रहों, नक्षत्रों आदि की स्थिति का अध्ययन करते हुए यह परिणाम निकाला कि श्रीराम का जन्म 10जनवरी, 5114ई. पूर्व (अर्थात आज से 7121वर्ष पूर्व) हुआ था। ये लोग जहां साधुवाद के पात्र हैं, वहां हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गणित ज्योतिष की अनभिज्ञता व साहित्यिक प्रमाण के अभाव के कारण उनका यह परिणाम ठीक नहीं। गणित ज्योतिष के हिसाब से लगभग 26000वर्षाें में राशियां अपना एक चक्र पूरा कर लेती हैं। अर्थात एक राशि चक्र का अपने पूर्ववत स्थान पर आने के लिए लगभग 26000वर्ष लगते हैं।
इसीलिए राम सिर्फ 7121वर्ष पूर्व ही जन्मे, यह किस आधार पर कहा जा सकता है? पहले दिए गए वायुपुराणव महाभारत के प्रमाणों के आधार पर यदि हम श्रीराम का जन्म 28वेंत्रेता(वर्तमान चतुर्युगी) में मानें तो तब से राशि चक्र आकाश में 33चक्कर लगा चुका है व 34वांचालू है और यदि हम 24वेंत्रेताका आधार लेते हैं तो तब से लेकर आज तक 698राशि चक्र पूरे हो चुके हैं और 699वांचक्र अभी चल रहा है।
नासा अमेरिका एजेंसी के जैमिनि-11आकाश यान (स्पेश क्राफ्ट) द्वारा वर्ष 2002में एडम ब्रिज (रामसेतु) के लिए गए चित्रों के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर कहा गया था कि भारत तथा श्रीलंका को जोडने वाले पुल के ये अवशेष मनुष्यकृत हैं तथा लगभग 17.5लाख वर्ष पुराने हैं।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:43:00 am 1 comments
कल्याणकारी पंचमुखी हनुमान
पंचमुखीहनुमानजी का अवतार मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को माना जाता है। शंकर के अवतार हनुमान ऊर्जा के प्रतीक माने जाते हैं। इसकी आराधना से बल, कीर्ति, आरोग्य और निर्भीकता बढती है। आनंद रामायण के अनुसार, विराट स्वरूप वाले हनुमान पांच मुख, पंद्रह नेत्र और दस भुजाओं से सुशोभित हैं। हनुमान के पांच मुख क्रमश:पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊर्ध्व दिशा में प्रतिष्ठित हैं।
पंचमुख हनुमान के पूर्व की ओर का मुख वानर का है। जिसकी प्रभा करोडों सूर्यो के समान है। पूर्व मुख वाले हनुमान का स्मरण करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है। पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का है। ये विघ्न निवारक माने जाते हैं। गरुड की तरह हनुमानजी भी अजर-अमर माने जाते हैं। हनुमानजी का उत्तर की ओर मुख शूकर का है। इनकी आराधना करने से सकल सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए हनुमान भगवान नृसिंह के रूप में स्तंभ से प्रकट हुए और हिरण्यकश्यपुका वध किया। यही उनका दक्षिणमुखहै। उनका यह रूप भक्तों के भय को दूर करता है।
श्री हनुमान का ऊर्ध्वमुख घोडे के समान है। ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर उनका यह रूप प्रकट हुआ था। मान्यता है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए। कष्ट में पडे भक्तों को वे शरण देते हैं। ऐसे पांच मुंह वाले रुद्र कहलाने वाले हनुमान बडे दयालु हैं।
हनुमतमहाकाव्य में पंचमुखीहनुमान के बारे में एक कथा है। एक बार पांच मुंह वाला एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ। उसने तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान पाया कि मेरे रूप जैसा ही कोई व्यक्ति मुझे मार सके। ऐसा वरदान प्राप्त करके वह भयंकर उत्पात मचाने लगा। सभी देवताओं ने भगवान से इस कष्ट से छुटकारा मिलने की प्रार्थना की। तब प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, गरुड, अश्व और शूकर का पंचमुख स्वरूप धारण किया।
मान्यता है कि पंचमुखीहनुमान की पूजा-अर्चना से सभी देवताओं की उपासना का फल मिलता है। हनुमान के पांचों मुखों में तीन-तीन सुंदर आंखें आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तीनों तापों को छुडाने वाली हैं। ये मनुष्य के सभी विकारों को दूर करने वाले माने जाते हैं। शत्रुओं का नाश करने वाले हनुमानजी का हमेशा स्मरण करना चाहिए।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:40:00 am 0 comments
दुर्गतिनाशिनी विंध्यवासिनी
श्रीमद्देवीभागवतके दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकत्र्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपाको उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुवमनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचलआए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापरयुगमें मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतारहेतु विंध्याचलमें लक्षचण्डीका अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई।
मार्कण्डेयपुराणके अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती(देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवेंयुग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्यउत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोपके घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वकस्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराणके श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
मन्त्रशास्त्रके सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है-
सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां
चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयाङ्गदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां
ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पार्श्वस्थपञ्चाननाम्॥
जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादिसभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुंदर मुखवालीइन विंध्यवासिनी के समीप सदाशिवविराजितहैं।
सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:39:00 am 1 comments
काल के नियंत्रक, महाकाल
आकाशेतारकंलिङ्गं,पातालेहाटकेश्वरम्।
भूलोकेचमहाकालं,लिङ्गत्रयनमोऽस्तुते॥
आकाश में तारक लिङ्गतथा पाताल में हाटकेश्वरपूजित हैं। महाकाल भूलोक के शासक हैं। योगी जब इन तीनों शिवलिङ्गोंका स्मरण करके इन्हें नमस्कार करते हैं तो उनके द्वारा महादेव की मानसपूजासम्पन्न हो जाती है।
स्कन्दपुराणके अवंतीखण्डमें भगवान शिव के महाकाल वन में निवास तथा यहां से सृष्टि की संरचना का शुभारंभ करने की कथा है। इस खण्ड में मोक्षदायिनीअवंतिकापुरी(उज्जैन) के राजा महाकाल, 84शिवलिङ्गोंतथा परमपुण्यप्रदाशिप्राका सुविस्तृतवर्णन है। स्कन्दपुराणके ब्राह्मोत्तरखण्डमें राजा चन्द्रसेन एवं श्रीकरगोप की शिव-भक्ति तथा महाकालेश्वर की महिमा का गुण-गान मिलता है। शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहितामें महाकाल ज्योतिर्लिङ्गके आविर्भाव की कथा है। भक्तों के अनुरोध पर महाकालेश्वर अवंतिका(उज्जयिनी) में स्थित हो गए। महाभारत के वनपर्वमें लिखा है कि महाकाल के देवालय में स्थित कोटितीर्थ-कुण्डके जल से उनका अभिषेक करने पर अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है। शिप्रामें स्नान करके महाकालेश्वर का दर्शन करने वाला अनेक जन्मों के पापों से मुक्त होकर सद्गति पाता है। लिङ्गपुराणमें महाकाल का मृत्युलोक के स्वामी रूप में स्तवन किया गया है-मृत्युलोके महाकालंलिङ्गरूपनमोऽस्तुते।गरुडपुराणमें महाकाल की नगरी अवंतिकाको मोक्षप्रदाएवं सप्त पावन पुरियोंमें तिलाधिकश्रेष्ठ बताया गया है। आदिब्रह्मपुराणमें महाकालेश्वर की अवंतिकाको भूतल पर सर्वोत्तम घोषित किया गया है।
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुन्धतीसे प्रशंसा करते हुए कहते हैं-
महाकाल: सरिच्छिप्रागतिश्चैवसुनिर्मला।
उज्जयिन्यांविशालाक्षिवास: कस्यन रोचयेत्॥
स्नानंकृत्वानरोयस्तुमहानद्यांहि दुर्लभम्।
महाकालंनमस्कृत्यनरोमृत्युंन शोचयेत्॥
जहां भगवान महाकाल हैं, पुण्यसलिलाशिप्राहैं, उस मोक्षदायिनीउज्जयिनीमें रहना भला किसे अच्छा न लगेगा। महानदी शिप्रामें स्नान करके महाकाल का दर्शन कर लेने पर अकाल मृत्यु की कोई चिन्ता नहीं रहती।
त्रिखण्डमंदिर के जमीन की सतह से नीचे स्थित भूगर्भ-खण्ड में श्रीमहाकालेश्वरका विशाल ज्योतिर्लिङ्गहै, जो चांदी की जलहरी(अरघे) में नाग-परिवेष्टित है। इसके एक ओर श्रीगणेश, दूसरी ओर माता पार्वती और तीसरी ओर कार्तिकेय जी के विग्रह हैं। यहां घृतदीपऔर तेलदीपनिरंतर प्रज्वलित रहते हैं। ज्योतिर्लिङ्गके ऊपर की छत चाँदी के विशाल रुद्रयंत्रके रूप में है। उसके ऊपर भूतलखण्डमें ओङ्कारेश्वरशिवलिङ्गहै। इसके ऊपर तीसरे खण्ड में श्रीनागचन्दे्रश्वरविराजमान हैं, जिनका दर्शन साल में एक बार केवल नागपंचमी के दिन ही होता है। नित्य ब्रह्ममुहूर्तमें होने वाली महाकाल की भस्म-आरती बडी अनूठी है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके दक्षिणमुखीहोने से इनका अपना एक विशेष महत्व है। तंत्रशास्त्रकी दृष्टि में दक्षिणमुखीशिवलिङ्गअति उग्र होने से प्रचण्ड शक्तिशाली एवं त्वरित फलदायीमाना जाता है। इस अनुपम विशेषता के कारण महाकाल का वैदिक अथवा तांत्रिक मंत्रों से पूजन एवं अभिषककरने पर तुरन्त फल प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि महाकाल के समक्ष महामृत्युंजयका जप करने से द्वार पर आई मृत्यु भी उल्टे पैर लौट जाती है। रोगी स्वस्थ होकर दीर्घायु हो जाता है। मरणशय्यापर पडा व्यक्ति भी नया जीवन पाता है।
महाकाल कालचक्र के प्रवर्तक हैं-कालचक्र- प्रवर्तकोमहाकाल: प्रतापन:।भारतीय ज्योतिर्विज्ञान में महाकाल की नगरी उज्जयिनीसदा से ही पंचांग-गणना की केंद्रबिन्दु रही है। इस प्रकार काल के नियंत्रक होने से उनका महाकाल नाम पूर्णतया सार्थक और सत्य है। श्रावण एवं कार्तिक मास में तथा विजयादशमी, वैकुण्ठ चतुर्दशी आदि पर्वो में महाकाल की सवारी नगर-भ्रमण के लिए निकलती है, जिसमें अपार जनसमूह श्रद्धा के साथ भाग लेता है।
फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में षष्ठी से चतुर्दशी तिथि (महाशिवरात्रि) तक के नौ दिन के परमपुनीतकाल को महाकालेश्वर-नवरात्र कहा जाता है। इस नवरात्रमें महाकाल का नित्य नूतन विशिष्ट श्रृंगार होता है। यह नवरात्रीयमहोत्सव उज्जयिनीमें बडे धूमधाम से मनाया जाता है। देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु महाकाल के दर्शनार्थ अवंतिका(उज्जैन) पहुंचते हैं। महाकाल अपने प्रत्येक भक्त का पिता के समान पालन करते हुए उसकी सर्वत्र रक्षा करते हैं।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:30:00 am 0 comments
दु:खहारिणी मां दुर्गा
आश्विन शुक्ल पक्ष के नौ दिन(नवरात्र) मां दुर्गा की आराधना सहस्रोंगुणा फल देने वाली होती है। इस समय शक्तियों का एक ऐसा प्रवाह विद्यमान रहता है कि साधक की श्रद्धा और भक्ति जितनी प्रगाढ होगी वह मां दुर्गा की कृपा और वरदहस्तका उतना ही भागी बनेगा। मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत 700श्लोकों की श्री दुर्गासप्तशतीमां की विविध कथाओं को चित्रित करती है। महर्षि मार्कण्डेय के अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने माँ दुर्गा की यह समस्त कथा कही। इस ग्रन्थ के समस्त मंत्र अगाध शक्तियों से पूर्ण हैं। साधक की श्रद्धा-भक्ति जितनी गहन होगी, वह उतना ही उन मंत्रों का फल प्राप्त कर सकता है। दुर्गा का अर्थ है कठिनतासे जिनकी प्राप्ति हो। जो सबके दुर्गुणोंको दूर करती हैं वे मां दुर्गा हैं।
दु:खैनअष्टांगयोगकर्मोपासनारूपेण क्लेशेनगम्यतेप्राप्यतेया सा दुर्गा। अर्थात जो अष्टांगयोगकर्म एवं उपासना रूप दु:साध्य साधना से प्राप्त होती हैं वे जगदंबिका दुर्गा कहलाती हैं। जो सबके कल्मषोंएवं दुर्गुणोंको दूर करती हैं वे मां दुर्गा हैं। जो अपने भक्तों के दु:ख और दुर्गति को दूर करती हैं वे मां दुर्गा हैं।
दुर्गासिदुर्गभवसागरनौरसङ्गा।अर्थात जो दुर्गम भवसागर से उतारने वाली नौका रूप हैं वे माँ दुर्गा हैं। जिनसे कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
जिन्होंने दुर्गम राक्षस का वध किया वे माँ दुर्गा हैं। दुर्गा के 32नाम की माला कठिन से कठिन दु:खों को दूर करने वाली है। मां तुम्हारादैवीय अलौकिक,अद्भुत करुणा से युक्त स्वरूप को वही जान सकता है, जिसने जीवन में तुम्हारी कृपादृष्टि प्राप्त की हो। मां शारदेरूप में साधक को ज्ञान प्रदान करती हो। लक्ष्मी रूप में अनंत वैभव एवं दुर्गा रूप में साधक को शक्तिशाली बना उसके दु:खों को हरती हो। मां तुम निर्बल प्राणियों में बल का संचार करती हो, शरण में आए हुए की रक्षा करती हो। जीवन में अगाध कष्टों से घिरे हुए भक्त जब-जब तुम्हें पुकारते हैं, तब-तब तुम उनके दु:ख दूर करती हो। देवताओं ने अपने संकट निवारणार्थजब-जब तुम्हें पुकारा तब कभी चंडिका, कभी काली, कभी महिषासुरमर्दिनीबन अवतरित हुई एवं शुंभ-निशुंभ,चंड-मुंड, रक्तबीज एवं महिषासुर का वध किया। मां तुम्हें कोटि कोटि नमन।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरेदेवि नारायणिनमोऽस्तुते।
मां दुर्गा शरण में आए हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में सदा संलग्न रहती हैं।
सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणीको नमस्कार है।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:22:00 am 0 comments
अमंगल को मंगल करें मंगलनाथ
मंगलनाथ-मंदिरसे 84सीढियां नीचे उतरने पर पुण्यसलिलाशिप्राके घाट से अत्यंत मनोरम दृश्य दिखाई देता है। यहां आने पर क्षण भर के लिए अशांत चित्त भी शांत और प्रफुल्लित हो जाता है। उज्जयिनीमें कालभैरवसे मंगलनाथतक शिप्राके पूर्व में बहने से यह स्थान क्षेत्र अत्यंत पवित्र माना जाता है। टेकरी पर स्थित मंगलनाथका मंदिर आस-पास के स्थान में सबसे ऊंचा है। मंदिर के कर्क रेखा पर होने से इसकी अपार महिमा है। मंगल का एक नाम अंगारक भी है जिसका अर्थ है- अंगारे के समान लाल रंग वाला।
इस संवत्सर में संयोगवश 17अप्रैल को भौमवतीअमावस्या का वैशाख मास में उपलब्ध होना मणि-कंचन योग बना रहा है। भौमवती(मंगलवारी) अमावस्या का तो इतना महत्व है कि यदि इस पर्व में गंगा-स्नान करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए तो करोडों सूर्यग्रहण के समान फल प्राप्त होता है।
वशिष्ठसंहिता में वíणत मंगल के इक्कीस नामों वाले निमन् स्तोत्र का नित्य प्रात:पाठ करने से ऋण से मुक्ति मिलती है। दरिद्रता दूर होती है तथा भूमि-भवन, सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। नि:संतान को पुत्र, रोगी को आरोग्यताऔर कमजोर को शक्ति प्रदान करने वाला यह स्तोत्र मंगल की पीडा का भी शमन करता है-
ॐमंगलो भूमिपुत्रश्चऋणहर्ताधनप्रद:।
स्थिरात्मजोमहाकाय: सर्वकामार्थसाधक:॥
लोहितोलोहितांगश्चसामागानांकृपाकर:।
धरात्मज:कुजोभौमोभूतिदोभूमिनंदन॥
वृष्टिकर्ताऽपहर्ताचसर्वकामफलप्रद:॥
मंगल की दशा अथवा ग्रह-गोचर में मंगल के अरिष्ट को दूर करने के लिए निमन् मंत्रों में से किसी एक का 40,000जप करें-
ॐअंअंगारकायनम:।
जन्मकुण्डली का मंगली-दोष पूर्वाेक्त उपायों के साथ श्रीमंगलनाथएवं मंगलागौरीकी आराधना करने से शांत हो जाता है। वैशाख-शुक्लपक्ष के प्रथम मंगलवार से प्रारंभ करके 21या 45मंगलवार विधिवत् व्रत करने से भी विपरीत मंगल की अशुभताका निवारण संभव है।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:20:00 am 0 comments
अभीष्ट सिद्ध करते हैं सिद्धिविनायक
गणेशपुराणमें इस संदर्भ में विस्तृत कथा है, जो संक्षेप में यह है-आदिदेव गणेश की तीव्र लालसा से माता पार्वती ने एक रमणीय स्थान पर उनका ध्यान करते हुए एकाक्षरीगणेश-मंत्र का तल्लीन होकर जप किया। इस तरह भगवती उमा के बारह वर्ष तक निरंतर कठोर तप करने पर प्रथम पूज्यदेवगणेश संतुष्ट होकर उनके सम्मुख उपस्थित हो गए तथा उन्होंने जगदम्बा को पुत्र के रूप में अवतरित होने का वचन दे दिया। भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी के मध्याह्नकालमें स्वाति नक्षत्र के समय अमित महिमामय श्रीगणेश जगज्जननीशिवा के यहाँ पुत्र-रूप में प्रकट हुए। अत:इस पावन तिथि के मध्याह्न में विघ्नेश्वरकी स्थापना करके उनका षोडशोपचारपूजन करें। संभव हो तो गणेश- सहस्त्रनामवलीसे दूर्वा एवं मोदक अर्पित करें और यदि यह न कर सकें तो कम से कम 21लड्डुओं का भोग अवश्य लगाएं। आपके हृदय में जो कामना हो, वह चिन्तामणि गणेश के समक्ष निवेदित कर दें। भक्तवत्सल सिद्धिविनायककी कृपा से साल भर के अंदर वह मनोरथ पूर्ण हो जाएगा। इस व्रतराजका पूरा फल प्राप्त करने के लिए भाद्रपद मास के बाद भी प्रत्येक माह की मध्याह्नव्यापिनीचतुर्थी के दिन व्रत रखते हुए मध्याह्नकालमें सिद्धिविनायककी सविधि पूजा जरूर करें। मनोनुकूल वरदान करने में समर्थ यह तिथि वरदा चतुर्थी एवं वैनायकी चतुर्थी नामों से लोकप्रिय हो गई है।
स्कन्दपुराणोक्तश्रीकृष्ण-युधिष्ठिर संवाद में चतुर्थी-व्रत का विस्तार से वर्णन हुआ है। भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी अमोघ फलदायिनीहैं। सिद्धिविनायककी आराधना से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं और मनोकामना पूरी होती है। इसी कारण श्रीगणेश का यह सिद्धिविनायक नाम लोकविख्यातहो गया है-
सिद्धयन्तिसर्वकार्याणिमनसा चिन्तितान्यपि।
सिद्धिविनायकका ध्यान इस प्रकार करें-
एकदन्तंशूर्पकर्णगजवक्त्रंचतुर्भुजं।
पाशांकुशधरंदेवंध्यायेत्सिद्धिविनायकं॥
जिनके एक दाँत, सूप के समान विशाल कान, हाथी के सदृश मुख और चार भुजाएं हैं, जो अपने हाथों में पाश एवं अंकुश धारण करे हुए हैं, ऐसे सिद्धिविनायकदेव का हम ध्यान करते हैं। सिद्धिविनायककी अंग-कान्ति तपे हुए सोने के समान दीप्तिमयहै। वे अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूतिषहैं। एक अन्य ध्यान में सिद्धिविनायकको अपने हाथों में दंत, अक्षमाला,परशु और मोदक से भरा हुआ पात्र लिए दिखाया गया है, जिसमें उनकी सूँड का अग्रभाग लड्डू पर लगा हुआ है। गणेशजीकी दो पत्नियां सिद्धि और बुद्धि हैं। शिवपुराणकी रुद्रसंहिताके कुमारखण्डमें गणपति के सिद्धि-बुद्धि के साथ विवाह का प्रसंग वर्णित है। शास्त्रों में श्रीगणेश के वाम भाग में (बायीं ओर) सिद्धि और दक्षिण भाग में (दाहिनी तरफ) बुद्धि की संस्थितिबताई गई है। इनकी कृपा से भक्त को अपने कार्य में सिद्धि (पूर्णता) प्राप्त होती है तथा वह बुद्धिमान और ज्ञानवान बन जाता है। सिद्धिविनायकके कृपा-कटाक्ष से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष अर्थात सब कुछ मिल जाता है। विनयपत्रिकामें गोस्वामी तुलसीदास ने इनकी सिद्धिसदन गजबदनविनायक.. विद्यावारिधिबुद्धिविधाताकहकर वन्दना की है। गणेशजीके क्षेम-लाभ नामक दो पुत्र हैं, जो क्रमश:सिद्धि-बुद्धि से उत्पन्न हुए।
मुंबई में सिद्धिविनायकके दर्शनार्थ बहुत बडी संख्या में भक्त आते हैं। काशी के छप्पन विनायकोंमें मणिकर्णिकाघाट के ऊपर स्थित सिद्धिविनायककी भी काफी मान्यता है। पंचक्रोशी-परिक्रमामें तीर्थयात्री इनका दर्शन-लाभ करते हैं। श्रीसिद्धिविनायकके आविर्भावोत्सवहेतु मध्याह्नव्यापिनीभाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी ही ग्रहण करनी चाहिए। इस वर्ष यह योग रविवार 27अगस्त को ही बनेगा और साथ ही रविवार से इस चतुर्थी का संयोग सोने में सुहागा की कहावत को चरितार्थ कर रहा है। सिद्धिविनायक-चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शननिषिद्ध है। ऐसा सिद्धिविनायकके चन्द्रदेवको शाप देने के कारण है-
भाद्रशुक्लचतुथ्र्यायो ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपिवा।
जो जानकर या अनजाने ही भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी को चन्द्रमा का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा। उसे भारी दुख उठाना पडेगा। योगेश्वर श्रीकृष्ण को स्यमन्तकमणिकी चोरी का मिथ्याकलंकइस तिथि के चन्द्रदर्शनसे ही लगा था। इस दिन चन्द्रमा देख लेने पर उसके दोष के शमन हेतु श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 57वेंअध्याय को पढें। जिसमें स्यमन्तकमणि के हरण का प्रसंग हैं।
वस्तुत:सिद्धिविनायकअपने नाम के अनुरूप फल प्रदान करने वाले हैं। इनकी उपासना अतिशीघ्र फलीभूत होती है। अभीष्टि-सिद्धिके लिए देवताओं ने भी इनकी अर्चना की है।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 07:02:00 am 0 comments
भक्ति के महाद्वार हैं हनुमान
विश्व-साहित्य में हनुमान के सदृश पात्र कोई और नहीं है। हनुमान एक ऐसे चरित्र हैं जो सर्वगुण निधान हैं। अप्रतिम शारीरिक क्षमता ही नहीं, मानसिक दक्षता तथा सर्वविधचारित्रिक ऊंचाइयों के भी यह उत्तुंग शिखर हैं। इनके सदृश मित्र, सेवक ,सखा, कृपालु एवं भक्तिपरायणको ढूंढनाअसंभव है। हनुमान के प्रकाश से वाल्मीकि एवं तुलसीकृतरामायण जगमग हो गई। हनुमान के रहते कौन सा कार्य व्यक्ति के लिए कठिन हो सकता है?
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरेतेते॥
तो आप अगर किसी कष्ट से ग्रस्त हैं, किसी समस्या से पीडित हैं, कोई अभाव आपको सता रहा है तो देर किस बात की! हनुमान को पुकारिए, सुंदर कांड का पाठ कीजिए, वह कठिन लगे तो हनुमान-चालीसा का ही परायण कीजिए और आप्तकामहो जाइए। हनुमान की प्रमुख विशेषताओं को गोस्वामी ने इन चार पंक्तियों में समेटने का प्रयास किया है-
अतुलितबलधामंहेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुंज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानंवानरणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तंवातजातंनमामि।।
अतुलित बलशाली, सोने के पर्वत के सदृश विशाल कान्तिमान् शरीर, दैत्य (दुष्ट) रूपी वन के लिए अग्नि-समान, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के खान, वानराधिपति,राम के प्रिय भक्त पवनसुतहनुमान का मैं नमन करता हूं।
अब ढूंढिएऐसे चरित्र को जिसमें एक साथ इतनी विशेषताएं हों। जिसका शरीर भी कनक भूधराकारहो, जो सर्वगुणोंसे सम्पन्न भी हो, दुष्टों के लिए दावानल भी हो और राम का अनन्य भक्त भी हो। कनक भूधराकारकी बात कोई अतिशयोक्ति नहीं, हनुमान के संबंध में यह यत्र-तत्र-सर्वत्र आई है।
आंजनेयंअति पाटलाननम् कांचनाद्रिकमनीयविग्रहम्।
पारिजाततरुमूलवासिनम् भावयामिपवननन्दनम्॥
अंजना पुत्र,अत्यन्त गुलाबी मुख-कान्ति तथा स्वर्ण पर्वत के सदृश सुंदर शरीर, कल्प वृक्ष के नीचे वास करने वाले पवन पुत्र का मैं ध्यान करता हूं। पारिजात वृक्ष मनोवांछित फल प्रदान करता है। अत:उसके नीचे वास करने वाले हनुमान स्वत:भक्तों की सभी मनोकामनाओंकी पूर्ति के कारक बन जाते हैं। आदमी तो आदमी स्वयं परमेश्वरावतारपुरुषोत्तम राम के लिए हनुमान जी ऐसे महापुरुष सिद्ध हुए कि प्रथम रामकथा-गायक वाल्मीकि ने राम के मुख से कहलवा दिया कि तुम्हारे उपकारों का मैं इतना ऋणी हूं कि एक-एक उपकार के लिए मैं अपने प्राण दे सकता हूं, फिर भी तुम्हारे उपकारों से मैं उऋण कहां हो पाउंगा?
एकैकस्योपकारस्यप्राणान्दास्यामितेकपे।
कृतंहनूमताकार्यसुमहद्भुविदुलर्भम्।
गोस्वामी जी हनुमान के सबसे बडे भक्त थे। वाल्मीकि के हनुमान की विशेषताओं को देखकर वह पूरी तरह उनके हो गए। हनुमान के माध्यम से उन्होंने राम की भक्ति ही नहीं प्राप्त की, राम के दर्शन भी कर लिए। हनुमान ने गोस्वामी की निष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें वाराणसी में दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। तुलसी को अपने राम के दर्शन के अतिरिक्त और क्या मांगना था? हनुमान ने वचन दे दिया। राम और हनुमान घोडे पर सवार, तुलसी के सामने से निकल गए। हनुमान ने देखा उनका यह प्रयास व्यर्थ गया। तुलसी उन्हें पहचान ही नहीं पाए। हनुमान ने दूसरा प्रयास किया। चित्रकूट के घाट पर वह चंदन घिस रहे थे कि राम ने एक सुंदर बालक के रूप में उनके पास पहुंच कर तिलक लगाने को कहा। तुलसीदास फिर न चूक जाएं अत:हनुमान को तोते का रूप धारण कर ये प्रसिद्ध पंक्तियां कहनी पडी-
चित्रकूट के घाट पर भई संतनकी भीर।
हनुमान ने मात्र तुलसी को ही राम के समीप नहीं पहुंचाया। जिस किसी को भी राम की भक्ति करनी है, उसे प्रथम हनुमान की भक्ति करनी होगी। राम हनुमान से इतने उपकृत हैं कि जो उनको प्रसन्न किए बिना ही राम को पाना चाहते हैं उन्हें राम कभी नहीं अपनाते। गोस्वामी ने ठीक ही लिखा-
राम दुआरेतुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनुपैसारे॥
अत:हनुमान भक्ति के महाद्वारहैं। राम की ही नहीं कृष्ण की भी भक्ति करनी हो तो पहले हनुमान को अपनाना होगा। यह इसलिए कि भक्ति का मार्ग कठिन है। हनुमान इस कठिन मार्ग को आसान कर देते हैं, अत:सर्वप्रथम उनका शरणागत होना पडता है। भारत में कई ऐसे संत व साधक हुए हैं जिन्होंने हनुमान की कृपा से अमरत्व को प्राप्त कर लिया। रामायण में राम और सीता के पश्चात सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र हैं हनुमान जिनके मंदिर भारत ही नहीं भारत के बाहर भी अनगिनत संख्या में निर्मित हैं। धरती तो धरती तीनों लोकों में इनकी ख्याति है-
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीसतिहूंलोक उजागर॥
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 06:45:00 am 0 comments
अभीष्ट सिद्ध करें सिद्धिविनायक
विनायक: कर्मविघ्नसिद्धयर्थविनियोजित:।
ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर ने विनायक को गणों का आधिपत्य प्रदान करके कार्यो में विघ्न डालने का अधिकार तथा पूजनोपरान्तविघ्न को शांत कर देने का अधिकार भी प्रदान किया। इसलिए किसी भी देवता के पूजन में सर्वप्रथम श्रीगणेश की पूजा होती है। ऐसा न करने पर वह व्रत-अनुष्ठान निष्फल हो जाता है। भविष्यपुराणमें लिखा है-
देवतादौयदा मोहाद्गणेशोन चपूज्यते।
यदि किसी कारणवश देव-पूजन के प्रारंभ में विघ्नराजगणपति की पूजा नहीं की जाती है तो वे कुपित होकर उस साधना का फल नष्ट कर देते हैं। इसी कारण सनातनधर्म में गणेशजीकी प्रथम पूजा का विधान बना। मानव ही नहीं वरन् देवगण भी प्रत्येक कर्म के शुभारंभ में विघ्नेश्वरविनायक की पूजा करते हैं। पुराणों में इस संदर्भ में अनेक आख्यान वर्णित हैं।
श्रीगणेशपुराणमें भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी को आदिदेव गणपति के आविर्भाव की तिथि माना गया है। स्कन्दपुराणमें भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से इस तिथि के माहात्म्य का गुणगान करते हुए कहते हैं-
सर्वदेवमय:साक्षात् सर्वमङ्गलदायक:।
तेन ख्यातिंगतोलोकेनाम्नासिद्धिविनायक:॥
समस्त देवताओं की शक्ति से सम्पन्न मंगलमूर्तिगणपति का भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन आविर्भाव हुआ। इस तिथि में आराधना करने पर वे सब कार्यो को सिद्ध करते हैं तथा मनोवांछित फल देते हैं। आराधकोंका अभीष्ट सिद्ध करने के कारण ही वे सिद्धिविनायक के नाम से लोक-विख्यात हुए हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराणके अनुसार भगवती पार्वती नेपरब्रह्मको पुत्र के रूप में प्राप्त करने के लिए देवाधिदेव महादेव के परामर्श पर परम दुष्कर पुण्यकव्रत का अनुष्ठान किया था। इस व्रतराजके फलस्वरूप ही साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर ही श्रीगणेश के रूप में उनके यहां आए।
गणेश-पूजन के समय उनके सम्पूर्ण परिवार का स्मरण करना चाहिए। सिद्धि और बुद्धि उनकी पत्नियां हैं। मुद्गलपुराणके गणेशहृदयस्तोत्रमें सिद्धि-बुद्धि से सेवित विघ्ननायकगणपति की स्तुति की गई है-
सिद्धि-बुद्धिपतिम् वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञकम्।
माङ्गल्येशंसर्वपूज्यंविघ्नानांनायकंपरम्॥
सद्बुद्धिसे विचार करके काम करने पर ही मनोरथ सिद्ध होता है। सिद्धि-बुद्धि के साथ विनायक का ध्यान करने का यही अभिप्राय है। श्रीगणेशजीके वामभागमें (बायें) सिद्धि और दक्षिण भाग में (दाहिने) बुद्धि की संस्थितिहै। सिद्धिविनायककी उपासना से मस्तिष्क पर छाया अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है तथा बुद्धि जाग्रत होकर कार्य-सिद्धि की योजना बनाने में सक्षम हो जाती है। सिद्धि-बुद्धि से युक्त विनायक का तेज करोडों सूर्यो के प्रकाश से भी ज्यादा है- सिद्धिबुद्धियुत: श्रीमान् कोटिसूर्याधिकद्युति:।शिवपुराणकी रुद्रसंहिताके कुमारखण्डमें श्रीगणेश के सिद्धि-बुद्धि के साथ विवाह का प्रसंग वर्णित है। गणेशपुराणके उपासनाखण्डमें भी श्रीगणेश के विवाह का विस्तार से वर्णन है। लोक-प्रचलन में गणेशजीकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि के नाम से जानी जाती हैं। गणेशजीकी पत्नी सिद्धि से क्षेम और बुद्धि से लाभ नाम के अतिशय शोभासम्पन्नदो पुत्र हुए-
सिद्धेर्गणेशपत्न्यास्तुक्षेमनामासुतोऽभवत्।
गणपति के रेखाचित्र स्वस्तिक (") के दोनों तरफ दो रेखायें (॥) उनकी दो पत्नियों और दो पुत्रों का प्रतीक हैं। दीपावली, बही-बसना अथवा गृह-प्रवेश आदि के समय ऋद्धि-सिद्धि और शुभ-लाभ लिखना गणेशजीका पत्नियों व पुत्रों सहित आवाहन करना ही है। क्षेम का ही दूसरा नाम शुभ है। इस प्रकार सम्पूर्ण गणेश-परिवार सदा से ही प्रथमपूज्यरहा है।
श्रीरामचरितमानसमें गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीराम-विवाह के बाद सीताजीके जनकपुर से अयोध्या में आगमन के अवसर पर सिद्धिविनायकका स्मरण चित्रित किया है-
प्रेमबिबसपरिवारुसब जानिसुलगन नरेस।
भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी के दिन श्रीसिद्धिविनायकका आविर्भावोत्सवबडे धूमधाम से मनाया जाता है।
गणेशपुराणके अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्रमा देख लेने पर कलंक अवश्य लगता है। ऐसा गणेश जी के अमोघ शाप के कारण है। स्वयं सिद्धिविनायकका वचन है-
जो जानबूझ कर अथवा अनजाने में ही भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा। उसे बहुत दुख उठाना पडेगा। भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी का चंद्र देख लेने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण को स्यमन्तकमणि की चोरी का मिथ्या कलंक लगा था। श्रीमद्भागवत महापुराणके दशम स्कन्ध के 57वेंअध्याय में यह कथा है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्र-दर्शन हो जाने पर उसका दोष दूर करने के लिए श्रीमद्भागवत में वर्णित इस प्रसंग को पढना अथवा सुनना चाहिए।
वस्तुत:सिद्धिविनायक चतुर्थी हमें ईश्वर के विघ्नविनाशकस्वरूप का साक्षात्कार कराती है जिससे अभीष्ट-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन को निर्विघ्न बनाने के लिए आइये हम सब इनकी स्तुति करें-
आदिपूज्यंगणाध्यक्षमुमापुत्रंविनायकम्।
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Posted by Udit bhargava at 12/29/2009 06:34:00 am 1 comments
28 दिसंबर 2009
व्यापार हमेशा साफ-सुथरा ही करना चाहिए
वे जीने की कला (आर्ट ऑफ लिविंग) के प्रणेता आध्यात्मिक गुरू रविशंकर के संपर्क में आए और उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करना शुरू कर दिया। गुप्ता कहते हैं कि वह एक ऎसे व्यक्ति हैं, जिनका उनके जीवन पर सबसे ज्यादा असर हुआ है। महेश गुप्ता ने तीन दशक पहले अपने कॅरियर के शुरू में जब पहली नौकरी की तो उनकी हैसियत एक दोपहिया वाहन खरीदने लायक भी नहीं थी। आज वे देश में उपलब्ध सबसे बेहतरीन कार बीएमडब्ल्यू 750 आई सिरीज के नवीनतम मॉडल को चलाते हैं।उनका कहना है कि "मेरा जन्म एक साधारण से परिवार में हुआ। हम चार बहन और दो भाई थे, जो निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से थे, इसलिए जीवनशैली की दृष्टि से हम पर कई बंदिशें थीं।" इन्हीं बंदिशों के कारण जीवन में बड़ा बनने की उदात्त आकांक्षा जाग्रत हुई। "स्वाभाविक रू प से मैं अच्छे कपड़े पहनना चाहता था; मेरी इच्छा अच्छा वाहन खरीदने की थी और मैं जानता था कि मैं बहुत कुछ करने का इच्छुक हूं और यह सब पाने में समर्थ हो जाऊंगा।"उनके पिता सरकारी सेवा में थे। महेश का बचपन शुरू में लोधी रोड और बाद में साउथ एक्सटेंशन में बीता, जहां वे हाल ही तक रहते थे। वह स्कूल में हमेशा सर्वप्रथम रहते थे। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा दी और छुटि्टयां मनाने अपनी बहन के पास कोटा चले गए। पिता उनके भविष्य को लेकर बहुत चिंतित थे, लेकिन महेश को पूरा भरोसा था कि उन्हें आईआईटी में प्रवेश मिल जाएगा। हुआ भी ऎसा ही। उन्होंने आईआईटी कानपुर में प्रवेश ले लिया।"हालांकि मैं सर्वश्रेष्ठ छात्रों में शामिल था, फिर भी मुझ पर मनोवैज्ञानिक दबाव था, क्योंकि मेरी पृष्ठभूमि बहुत ऊंची नहीं थी।" उनकी मानसिकता बदलने में एक साल लगा। उसके बाद वे सहज हो गए। प्रथम वर्ष में तो वह 10 में से केवल 6।7 अंक ही ले पाए। तृतीय वर्ष में पहुंचते-पहुंचते उन्होंने खोया आत्मविश्वास फिर पा लिया और 10 में से 10 अंक प्राप्त कर दिखाए। वह गर्व से बताते हैं कि आईआईटी में तृतीय वर्ष की पढ़ाई सबसे कठिन मानी जाती है। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद गुप्ता 1978 में इंडियन ऑइल कॉरपोरेशन (आईओसी) से जुड़ गए और कड़ी मेहनत की बदौलत वहां उन्हें जल्दी-जल्दी पदोन्नति मिली, जिससे कम्पनी में वह तेजी से आगे बढ़े। वहां काम बहुत अच्छा था, फिर भी गुप्ता ने 1988 में आईओसी की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने कहा कि ईमानदारी से कहूं तो उसके दो कारण थे। "एक तो यह कि मैं अपना घर दिल्ली छोड़ना नहीं चाहता था। कम्पनी की नीति हर 3-4 साल में तबादला करने की थी और मेरा पदस्थापन मुंबई में था। मैं जानता था कि मैं दिल्ली में अपनी पोस्टिंग कराने के लिए किसी से नहीं कहने वाला। आखिर मैं कितनी बार ऎसा कर सकता था" दूसरा कारण यह था कि मैं मानवता की व्यापक भलाई के काम में उसे बाधक महसूस करता था। आईओसी में तो वह कम्पनी की सोच के हिसाब से ही काम कर सकते थे। वह लोगों को यह सिखाना चाहते थे कि तेल (ईधन) कैसे बचाया जा सकता है।आईओसी की "पक्की" नौकरी छोड़कर उन्होंने ठीक ऎसा ही काम शुरू किया। कुछ महीने तो पिता उनसे नाराज भी रहे, लेकिन बाद में बेटे की अपने निजी उद्यम के प्रति उत्कंठा को उन्होंने महसूस किया। गुप्ता के अनुसार "इसके बाद उन्होंने मुझे सहयोग देना शुरू कर दिया। आज 73 साल की उम्र होने के बावजूद वे मुझे पूरा सहयोग दे रहे हैं।"तेल से वह पानी पर कैसे आ गए वर्ष 1998 में महेश गुप्ता के दोनों बच्चों को दूषित पानी पीने के कारण पीलिया हो गया। इसके बाद उन्होंने पानी पीने योग्य साफ बनाने वाली प्रणाली की तलाश की। गुप्ता को महसूस हुआ कि बाजार में सही मायने में ऎसी कोई प्रणाली उपलब्ध नहीं है, जो पीने के पानी को हानिरहित करने के मानदंडों पर पूरी तरह खरी उतर सके। इसके बाद उन्होंने अपने घर के गैरेज में ही पहली आरओ प्रणाली तैयार की। इसी के साथ उनके दिमाग में यह बात भी आई कि जब मैं अपने लिए यह प्रणाली तैयार कर सकता हूं, तो दूसरों के लिए क्यों नहीं इसी सोच से केंट आरओ अस्तित्व में आया।इसी दौरान गुप्ता आध्यात्मिक दृष्टि से कई परिवर्तनों से गुजरे। वे जीने की कला (आर्ट ऑफ लिविंग) के प्रणेता आध्यात्मिक गुरू रविशंकर के संपर्क में आए और उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करना शुरू कर दिया। गुप्ता कहते हैं कि वह एक ऎसे व्यक्ति हैं जिनका उनके जीवन पर सबसे ज्यादा असर हुआ है। "उन्होंने मेरी सोच को ही पूरी तरह बदल दिया।" गुप्ता हर महीने 5-7 दिन अपने गुरू के आश्रम जाते हैं। अपने मैनेजमेंट मंत्रों के बारे में पूछने पर वह कहते हैं- "मैं बहुत अनुदार हूं।" और मानता हूं कि किसी को भी अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरू प ही आगे बढ़ना चाहिए।" उनका दूसरा मंत्र है "व्यापार हमेशा साफ-सुथरा ही करना चाहिए।" दस साल में केंट आरओ परिवार एक से बढ़ते-बढ़ते डेढ़ हजार लोगों की एक सशक्त टीम बन गया है। आज उनकी कम्पनी नगण्य से बढ़कर दो सौ करोड़ की हो गई है।वह केंट आरओ परिवार के लिए सदस्यों का चयन कैसे करते हैं यह पूछने पर उन्होंने बताया कि हम पढ़ाई-लिखाई देखकर तय करते हैं, यदि वह ठीक है तो हम प्रशिक्षण देकर उसे अपने योग्य बना लेते हैं। गुप्ता जब से आर्ट ऑफ लिविंग से जुड़े हैं, उनका "हर क्षण उत्सव" होता है। वह शाकाहारी हैं और प्रतिदिन ध्यान-पूजन करते हैं। उनके परिवार में पत्नी के अलावा एक बेटी और एक बेटा है। बेटा वरूण उनके साथ कारोबार में लगा है और बेटी सुरभि ने प्राचीन स्मारकों के पुनरूद्धार में विशेषज्ञता अर्जित की है।आज के युवाओं के लिए उनका क्या संदेश है यह पूछने पर गुप्ता ने कहा आज के युवा में आत्मविश्वास की कमी है। "उन्हें लगता है कि भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाने से आत्मविश्वास आता है, लेकिन ऎसा नहीं है। आत्मविश्वास तभी आता है, जब यह भावना आए कि मैं यह काम कर सकता हूं। उन्हें यह महसूस करने की जरू रत है कि सफलता तभी मिलेगी, जब वह अपनी पूरी क्षमता से काम करेंगे अन्यथा समय की बर्बादी ही होगी।
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Posted by Udit bhargava at 12/28/2009 04:49:00 pm 0 comments
हिसाब-किताब की आदत डालें
तमिलनाडु के सेलम शहर में स्थित विनायक विद्यालय के एक योग टीचर महज छ्ह महीने में अपने तमाम छात्रों की पाकेटमनी की राशि लिखने के लिए कहा। इसके बाद उनहोंने छात्रों से पाकेटमनी में से खर्च किये गए एक-एक पैसे का हिसाब लिखने के लिए कहा। हालांकि उन्होंने बच्चों से कभी यह नहीं कहा की उन्हें किस आइटम पर खर्च करना चाहिए। हरेक छात्र ने दो महीने तक खर्चे का पूरा हिसाब-किताब रखा। दो महीने बाद वे अपने साठ दिनों का ब्यौरा लेकर अपने शिक्षक के सामने आये। सभी छात्रों ने अलग-अलग आइटम्स पर अपने सारे पैसे खर्च कर दिए थे। कुछ छात्रों ने चाकलेट्स पर खर्च किया तो किसी ने बिस्किट, स्नैक्स ,कोल्ड ड्रिंक्स और फिल्मों इत्यादि पर। जहां उनकी 80 फीसदी पाकेटमनी फिल्मों पर खर्च होती थी, वहीँ कुछ छात्रों ने 75 फीसदी तक चाकलेट्स पर खर्च किया था। कुछ ओवर स्मार्ट छात्रों ने जंक फ़ूड पर ज्यादा खर्च किया था, जिसके बगैर वे शायद रह नहीं सकते थे। उन्होंने इसकी गणना कर खर्चे के प्रत्येक चार्ट का पीओपी और एमओएम एनेलिसिस किया।
मैनेजमेंट की भाषा में उत्पाद-दर-उत्पाद विश्लेषण को पीओपी एनेलिसिस और महीने-दर-महीने विश्लेषण को एमओएम एनेलिसिस कहा जाता है। गणपति ने हर चार्ट का पीओपी और एमओएम एनेलिसिस करते हुए छात्रों को बताया कि वे हरेक आइटम पर हर महीने कितना ज्यादा खर्च कर रहे हैं। गणपति ने उन्हें यह भी बताया की साल भर में उन आइटम्स पर उनका अनुमानित खर्चा कितना हो सकता है।
छात्रों को सच का सामना करवाने वाली यह तकनीक बेहद आशार्यजनक लगी और अचानक उन्हें समझ में आ गया कि अब तक उनका पैसा कहाँ जा रहा था।
अगले दो महीनों में उन्होंने अनावश्यक मदों पर अपना खर्च बचाया और उनमें से कुछ छात्रों ने तो महीने के अंत में बचा पैसा अपने पितो को वापस सौंप भी दिया। गणपति ने खुश होते हुए बताया की कुछ छात्रों ने चार महीने के बाद बचे पैसे से साइकिल खरीद ली और अब उनमें पैसे के इस्तेमाल को लेकर एक अनुशासन आ गया है।
फंडा यह है कि.......
मैनेजमेंट की भाषा में कहें तो अपने द्वारा किये गए हर काम का लगातार पीओपी और एमओएम विश्लेषण करते रहे। सामने आंकड़े होने पर आपमें काफी सुधार हो सकता है।
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Posted by Udit bhargava at 12/28/2009 03:45:00 pm 0 comments
काम के प्रति रहे फोकस्ड
जीवन के किसी भी स्तर पर अपनी राह से भटक जाना आजकल आम होता जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकी छोटी सी समयावधि बहुत कुछ प्रदशित या जाहिर करने के चक्कर मे हम अपने कार्य की मुख्य धुरी से भटक जाते हैं।
इसका एक ताजा उदाहरण मुझे हाल ही में समपन्न फ़िल्म समारोह मे नजर आया। यहाँ प्रदशित होने वाली हर फ़िल्म से पहले एक अजीब सी रस्मअदायगी की गयी। कोई युवा श्ख्स मच पर आता, अपने काल सेंटर वाले बेह्तरीन लह्जे मे लोगो में वहा प्रदशित होने वाली फ़िल्म का कथासार प्रस्तुत करता। यह वक्ता वही पढ़कर सुनाता जो वहा मौजूद लोगो के बीच बाट दिए गए ब्रोशर मे लिखा होता। इस समारोह के मुख्य आयोजन स्थल ( मुबई के अँधेरी इलाके मे स्थित फ़न रिपब्लिक मल्टीप्लेक्स ) के स्टाफकर्मी अलग-अलग फॉर्मेट में बनी फिल्मों को सही तरीके से हैंडल और प्रदशित करने के लिहाज से अप्रशिक्षित नज़र आये। उनमें से एक ने तो आंगंतुकों को प्रोजेक्ट कबिन में न घुसने के लिए कड़े शब्दों में चेतावनी तक दे डाली। फिल्म समारोह में आने वाले शिष्टमंडल की गंभीरता को देखते हुए इस तरह की उदघोषणा और ब्रोशर को पढ़कर सुनाता कतई जरुरी नहीं था। फिल्म समारोह का मुख्य फोकस दस दिन की समयावधि में चुनिंदा २०० फिल्मों का प्रदशन करना था। इसके बजाय इससे जुड़े ज्यादा से ज्यादा अनुषंगी आयोजनों से दर्शक उबने लगे, जो वहां कुछ गंभीर योजनाओं के साथ आये थे। फिल्म समारोह में ज्यादातर वही लोग आते हैं और इसे समर्थन देते हैं जो फिल्म मेंकिंग व मनोरंजन के कारोबार में हैं। वे वहां अपना मनोरंजन करने नहीं आते। उन्हें मनोरंजन से परेशानी नहीं है, लेकिन उनका फोकस अपने यहाँ प्रदशित होने वाली दुनियाभर की फिल्मों से कुछ सीखना होता है।
फंडा यह है कि.......
किसी भी इवेंट में मिशन स्टेटमेंट को तय कर उसी पर फोकस करना चाहिय।
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Posted by Udit bhargava at 12/28/2009 02:44:00 pm 0 comments
25 दिसंबर 2009
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – भीष्म का प्राण त्याग
सारे पाण्डव विनम्र भाव से भीष्म पितामह के पास जाकर बैठे। उन्हें देख कर भीष्म के नेत्रों से प्रेमाश्रु छलक उठे। उन्होंने कहा, “हे धर्मावतारों! अत्यंत दुःख का विषय है कि आप लोगों को धर्म का आश्रय लेते हुये और भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहते हुये भी महान कष्ट सहने पड़े। बचपन में ही आपके पिता स्वर्गवासी हो गये, रानी कुन्ती ने बड़े कष्टों से आप लोगों को पाला। युवा होने पर दुर्योधन ने महान कष्ट दिया। परन्तु ये सारी घटनायें इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण, जो अपने भक्तों को कष्ट में डाल कर उन्हें अपनी भक्ति देते हैं, की लीलाओं के कारण से ही हुये। जहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर, पवन पुत्र भीमसेन, गाण्डीवधारी अर्जुन और रक्षक के रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हों फिर वहाँ विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं? किन्तु इन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को बड़े बड़े ब्रह्मज्ञानी भी नहीं जान सकते। विश्व की सम्पूर्ण घटनायें ईश्वाराधीन हैं! अतः शोक और वेदना को त्याग कर निरीह प्रजा का पालन करो और सदा भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहो।
ये श्रीकृष्णचन्द्र सर्वशक्तिमान साक्षात् ईश्वर हैं, अपनी माया से हम सब को मोहित करके यदुवंश में अवतीर्ण हुये हैं। इस गूढ़ तत्व को भगवान शंकर, देवर्षि नारद और भगवान कपिल ही जानते हैं। तुम लोग तो इन्हें मामा का पुत्र, अपना भाई और हितू ही मानते हो। तुमने इन्हें प्रेमपाश में बाँध कर अपना दूत, मन्त्री और यहाँ तक कि सारथी बना लिया है। इनसे अपने अतिथियों के चरण भी धुलवाये हैं। हे धर्मराज! ये समदर्शी होने पर भी अपने भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं तभी यह मेरे अन्त समय में मुझे दर्शन देने कि लिये यहाँ पधारे हैं। जो भक्तजन भक्तिभाव से इनका स्मरण, कीर्तन करते हुये शरीर त्याग करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। मेरी यही कामना है कि इन्हीं के दर्शन करते हुये मैं अपना शरीर त्याग कर दूँ।
धर्मराज युधिष्ठिर ने शरशैया पर पड़े हुये भीष्म जी से सम्पूर्ण ब्रह्मर्षियों तथा देवर्षियों के सम्मुख धर्म के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। तत्वज्ञानी एवं धर्मेवेत्ता भीष्म जी ने वर्णाश्रम, राग-वैराग्य, निवृति-प्रवृति आदि के सम्बंध में अनेक रहस्यमय भेद समझाये तथा दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म, भगवत्धर्म, द्विविध धर्म आदि के विषय में विस्तार से चर्चा की। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का भी उत्तम विधि से वर्णन किया।
उसी काल में उत्तरायण सूर्य आ गये। अपनी मृत्यु का उत्तम समय जान कर भीष्म जी ने अपनी वाणी को संयम में कर के मन को सम्पूर्ण रागादि से हटा कर सच्चिदान्द भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना चतुर्भुज रूप धारण कर के दर्शन दिये। भीष्म जी ने श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि पर अपने नेत्र एकटक लगा दिये और अपनी इन्द्रियों को रो कर भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे – “मै अपने इस शुद्ध मन को देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में अर्पण करता हूँ। जो भगवान अकर्मा होते हुये भी अपनी लीला विलास के लिये योगमाया द्वारा इस संसार की श्रृष्टि रच कर लीला करते हैं, जिनका श्यामवर्ण है, जिनका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, जो पीताम्बरधारी हैं तथा चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म कण्ठ में कौस्तुभ मणि और वक्षस्थल पर वनमाला धारण किये हुये हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में मेरा मन समर्पित हो।
इस तरह से भीष्म पितामह ने मन, वचन एवं कर्म से भगवान के आत्मरूप का ध्यान किया और उसी में अपने आप को लीन कर दिया। देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की और दुंदुभी बजाये। युधिष्ठिर ने उनके शव की अन्त्येष्टि क्रिया की।
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 06:14:00 pm 0 comments
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ –श्रीकृष्ण का द्वारिका प्रस्थान
कौरव दल को नाश करि, गये द्वारिका नाथ।
कौरव पाण्डव दोनों वंश काल की गति से परस्पर लड़ कर नष्ट हो गये। केवल भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की कृपा से उत्तरा का गर्भ ही सुरक्षित रह गया।
धर्मराज युधिष्ठिर के राज्य में अधर्म का नाश हो गया। वे देवराज इन्द्र की भाँति सम्पूरण पृथ्वी पर शासन करने लगे। उनके चारों भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव उनकी आज्ञा का पालन करते थे। राज्य में यथासमय वृष्टि होती थी, पृथ्वी उर्वरा होकर समुचित मात्रा से भी अधिक अन्न तथा फल उत्पन्न करती थी और रत्नों से भरपूर थी, गौएँ पर्याप्त से भी अधिक मात्रा में दूध देती थीं, अकाल का कहीं नामोनिशान तक न था। प्रजा सुखी थी, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण तथा स्नातक यज्ञ योगादि कर्मों को नित्य नियमपूर्वक करते थे। प्रजा वर्ण आश्रमों के अनुकूल धर्म का आचरण करती थी। सम्पूर्ण प्राणी दैविक, भौतिक और आत्मिक तापों से मुक्त थे।
अपनी बहन सुभद्रा तथा पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये अनेक मासों तक हस्तिनापुर में रहने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, राजा युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर, द्वारिका के लिये विदा हुये। कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, उत्तरा, युयुत्स, गुरु धौम्य तथा वेदव्यास जी ने उन्हें प्रेमपूर्वक विदा किया। विदाई के समय मृदंग, ढोल, नगाड़े, घण्ट, शंख, झालर आदि बजने लगे। नगर की नारियाँ अपनी-अपनी अट्टालिकाओं से झाँक कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन करने लगीं। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। यद्यपि भगवान के लिये ब्राह्मणों के आशीर्वाद का कोई महत्व नहीं था फिर भी लोकाचार के अनुसार ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को आशीर्वचन कहने लगे। उन्हें को किसी प्रकार की सुरक्षा की भी आवश्यकता नहीं थी फिर भी धर्मराज युधिष्ठिर ने एक विशाल सेना उनके साथ भेज दिया। सभी पाण्डव दूर तक भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को छोड़ने के लिये गये।
सभी लोगों को वापस जाने के लिये कह कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने केवल उद्धव और सात्यकी को अपने साथ रखा। वे विशाल सेना के साथ कुरुजांगल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुना के निकटवर्ती अनेक प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत मरु प्रदेश आदि को लांघते हुये सौवीर और आभीर देशों के पश्चिमी भाग आनर्त्त देश में पहुँचे। थके हुये घोड़ों को रथ से खोल कर विश्राम दिया गया। जिस प्रान्त से भी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र गुजरते थे वहाँ के राजा बड़े आदर के साथ अनेक प्रकार के उपहार दे कर उनका सत्कार करते थे।
मगन भये नर नारि सब, सुनि आगम यदुराय।
आनर्त्त देश अति सम्पन्न और वैभवयुक्त था तथा उसी के निकट अमरावती के समान उनकी नगरी द्वारिकपुरी थी। अपनी सीमा में पहुँचते ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया जिसकी ध्वनि से सम्पूर्ण प्रजा की विरह वेदना नष्ट हो गई। श्वेत शंख उनके ओष्ठों तथा करों पर ऐसा शोभायमान था जैसे लाल कमल पर राजहंस शोभा पाता है। उनके शंख की ध्वनि को सुन कर सम्पूर्ण प्रजा उनके दर्शनों के लिये गृहों से निकल पड़ी। जो जिस भी हालत में था उसी हालत में ऐसे दौड़ कर आया जैसे गाय के रंभाने की ध्वनि सुन कर बछड़ा दौड़ कर आता है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन करके सबके मुखों पर प्रसन्नता छा गई और वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे – “हे भगवन्! आपके चरणों की स्तुति ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्रादि सभी देवता करते हैं। आप ही विश्व का कल्याण करते हैं। ये चरण कमल हमारा आश्रय है। इन चरणों की कृपा से कराल काल भी हमारी ओर दृष्टि नहीं कर सकता। आप ही हमारे गुरु, माता-पिता और मित्र हैं। आपके दर्शन बड़े बड़े योगीजन, तपस्वी तथा देवताओं को भी प्राप्त नहीं होते किन्तु हम अति भाग्यशाली हैं जो निरन्तर आपके मुखचन्द्र का दर्शन करते रहते हैं। द्वारिका छोड़ कर आपके मथुरा चले जाने पर हम निष्प्राण हो जाते हैं और आपके पुनः दर्शन से ही सप्राण हो पाते हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।”
उनके इन वचनों को सुनकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उन पर अपनी कृपादृष्टि डाली और द्वारिकापुर में प्रवेश किया। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की द्वारिकापुरी अमरावती के समान मधु, भोज, दाशार्ह, अर्हकुकुर, अन्धक तथा वृष्णि वंशी यादवों से उसी प्रकार सुरक्षित रहती थी जिस प्रकार नागों से पातालपुरी सुरक्षित रहती है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वागतार्थ नगर वासियों ने नगर के फाटकों, गृहद्वारों तथा सड़कों पर बन्दनवार, चित्र-विचित्र ध्वजायें, कदली खम्भ और स्वर्णकलश सजाये। सुगन्धित जल से छिड़काव किया गया। उनके उपहार के लिये दधि, अक्षत, फल, धूप, दीप आदि सामग्री लेकर नगरवासी अपने द्वारों पर खड़े थे। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के शुभागमन का समाचार पाकर वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, महाबली बलराम, प्रद्युम्न, साम्ब आदि परिजन मांगलिक सामग्रियों के साथ ब्राह्मणों को लेकर शंख तुरही, मृदंग आदि बजाते हुये उनकी अगवानी के लिये आ गये। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने भी अपने बन्धु-बान्धवों तथा नगरवासियों का यथोचित सम्मान किया। सर्वप्रथम उन्होंने माताओं के महल में जाकर देवकी आदि माता के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। फिर अपनी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ रानियों हृदय से लगा कर सान्त्वना दी।
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने सम्पूर्ण राजाओं को परस्पर भिड़ाकर पृथ्वी के भार को बिना शस्त्रास्त्र ग्रहण किये ही हल्का कर दिया। रति के समान सुन्दर भार्यायें निरन्तर उनके साथ रहकर भी उन्हें भोगों में आसक्त न कर सकीं क्योंकि वे योग-योगेश्वर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कर्म करते हये भी हृदय में उनके प्रति आसक्त नहीं थे, वे प्रकृति में स्थित रहते हुये भी प्रकृति के गुणों में लिप्त नहीं थे। उनकी योगमाया से मोहित होकर ही स्त्रियाँ उन पर मुग्ध रहती थीं और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को स्ववश समझती थीं।
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 06:06:00 pm 0 comments
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ –विदुर का धृतराष्ट्र तथा गांधारी को उपदेश एवं वन गमन
दीन बिदुर उपदेश तब, अन्धराज को आय।
सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने पश्चात् विदुर जी हस्तिनापुर आये। उन्होंने मैत्रेय जी से आत्मज्ञान प्राप्त कर किया था। धर्मराज यधिष्ठिर, भीम अर्जुन, नकुल सहदेव, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती गांधारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ विदुर जी के दर्शन के लिये आये। सभी के यथायोग्य अभिवादन के पश्चात् युधिष्ठिर ने कहा – “हे चाचाजी!आपने हम सब का पालन पोषण किया है और समय समय पर हमारी प्राणरक्षा करके आपत्तियों से बचाया है। अपने उपदेशों से हमें सन्मार्ग दिखाया है। अब आप हमें अपने तीर्थयात्रा का वृतान्त कहिये। अपनी इस यात्रा में आप द्वारिका भी अवश्य गये होंगे, कृपा करके हमारे आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र का हाल चाल भी बताइये।”
अजातशत्रु युधिष्ठिर के इन वचनों को सुन कर विदुर जी ने उन्हें सभी तीर्थों का वर्णन सुनाया, किन्तु यदुवंश के विनाश का वर्णन को न कहना ही उचित समझा। वे जानते थे कि यदुवंश के विनाश का वर्णन सुन कर युधिष्ठिर को अत्यंत क्लेश होगा और वे पाण्डवों को दुखी नहीं देख सकते थे। कुछ दिनों तक विदुर झि प्रसन्नता पूर्वक हस्तिनापुर में रहे।
विदुर जी धर्मराज के अवतार थे। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज को श्राप दे दिया था इसी कारण वे सौ वर्ष पर्यन्त शूद्र बन कर रहे। एक समय एक राजा के दूतों ने मांडव्य हषि के आश्रम पर कुछ चोरों को पकड़ा था। दूतों ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी चोर समझ कर पकड़ लिया। राजा ने चोरों को शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। उन चोरों के साथ मांडव्ठ ऋषि को भी शूली पर चढ़ा दिया गया किन्तु इस बात का पता लगते ही कि चोर नहीं हैं बल्कि ऋषि हैं, राजा ने उन्हें शूली से उतरवा कर अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज के पहुँच कर प्रश्न किया कि तुमने मझे मेरे किस पाप के कारण शूली पर चढ़वाया? धर्मराज ने कहा कि आपने बचपन में एक टिड्डे को कुश को नोंक से छेदा था, इसी पाप में आप को यह दंड मिला। ऋषि बोले – “वह कार्य मैंने अज्ञानवश किया था और तुमने अज्ञानवश किये गये कार्य का इतना कठोर दंड देकर अपराध किया है। अतः तुम इसी कारण से सौ वर्ष तक शूद्र योनि में जन्म लेकर मृत्युलोक में रहो।”
मुनि के शाप के कारण ही धर्मराज को विदुर जी का अवतार लेना पड़ा था। वे काल की गति को भली भाँति जानते थे। उन्होंने अपने बड़े भ्राता धृतराष्ट्र को समझाया कि महाराज! अब भविष्य में वड़अ बुरा समय आने वाला है। आप यहाँ से तुरन्त वन की ओर निकल चलिये। कराल काल शीघ्र ही यहाँ आने वाला है जिसे संसार का कोई भी प्राणी टाल नहीं सकता। आपके पुत्र-पौत्रादि सभी नष्ट हो चुके हैं और वृद्धावस्था के कारण आपके इन्द्रिय भी शिथिल हो गईं हैं। आपने इन पाण्डवों को महान क्लेश दिये, उन्हें मरवाने कि कुचेष्टा की, उनकी पत्नी द्रौपदी को भरि सभा में अपमानित किया और उनका राज्य छीन लिया। फिर भी उन्हीं का अन्न खाकर अपने शरीर को पाल रहे हैं और भीमसेन के दुर्वचन सुनते रहते हैं। आप मेरी बात बात मान कर सन्यास धारण कर शीघ्र ही चुपचाप यहाँ से उत्तराखंड की ओर चले जाइये। विदुर जी के इन वचनों से धृतराष्ट्र को प्रज्ञाचक्षु प्राप्त हो गये और वे उसी रात गांधारी को साथ लेकर चुपचाप विदुर जी के साथ वन को चले गये।
प्रातःकाल सन्ध्यावंदन से निवृत होकर ब्राह्मणों को तल, गौ, भूमि और सुवर्ण दान करके जब युधिष्ठिर अपने गुरुजन धृतराष्ट्र, विदुर और गांधारी के दर्शन करने गये तब उन्हें वहाँ न पाकर चिंतित हुये कि कहीं भीमसेन के कटुवचनों से त्रस्त होकर अथवा पुत्र शोक से दुखि हो कर कहीं गंगा में तो नहीं डूब गये। यदि ऐसा है तो मैं ही अपराधी समझा जाउँगा। वे उनके शोक से दुखी रहने लगे।
एक दिन देवर्षि नारद अपने तम्बूरे के साथ वहाँ पधारे। युधिष्ठिर ने प्रणाम करके और यथोचित सत्कार के साथ आसन देकर उनसे विदुर, धृतराष्ट्र और गांधारी के विषय में प्रश्न किया। उनके इस प्रश्न पर नारद जी बोले – “हे युधिष्ठिर! तुम किसी प्रकार का शोक मत करो। यह सम्पूर्ण विशव परमात्मा के वश में है और वही सब की रक्षा करता है। तुम्हारा यह समझना कि मैं ही उनकी रक्षा करता हूँ, तुम्हारी भूल है। यह संसार नश्वर है तथा जाने वालों के लिये शोक नहीं करना चाहिये। शोक का कारण केवल मोह ही है, इस मोह को त्याग दो। यह पंचभौतिक शरीर नाशवान एवं काल के वश में है। तुम्हारे चाचा धृतराष्ट्र, माता गांधारी एवं विदुर उत्तराखंड में सप्तश्रोत नामक स्थान पर आश्रम बना कर रहते हैं। वे वहाँ तीनों काल स्नान कर के अग्नहोत्र करते हैं और उनके सम्पूर्ण पाप धुल चुके हैं। अब उनकी कामनाएँ भी शान्त हो चुकी हैं। सदा भगवान के ध्यान में रहने के कारण तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण और अहंकार बुद्धि नष्ट हो चुकी है। उन्होंने अपने आप को भगवान में लीन कर दिया है।
“अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि वे आज से पाँचवे दिन अपने शरीर को त्याग देंगे। वन में अग्नि लग जाने के कारण वे उसी में भस्म हो जायेंगे। उनकी साध्वी पत्नी गांधारी भी उसी अग्नि में प्रवेश कर जायेंगी। फिर विदुर जी वहाँ से तीर्थयात्रा के लिये चले जायेंगे। अतः तुम उनके विषय में चिंता करना त्याग दो।” इतना कह कर देवर्षि नारद आकाशमार्ग से स्वर्ग के लिये प्रस्थान कर गये। युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद के उपदेश को समझ कर शोक का परित्याग कर दिया।
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 06:00:00 pm 0 comments
योग बढ़ाए याददाश्त
उष्ट्रासन करने पर रीढ़ में से गुजरने वाली स्त्रायु कोशिकाओं में एक तनाव पैदा होता है जिसके कारण उनमें खून का संचार बढ़ जाता है । इससे याददाश्त में बढ़ोतरी होती है। रोजाना तीन मिनट तक लगातार अभ्यास से बहुत फायदा होता है।चक्रासनचक्रासन करने से मस्तिष्क की कोशिकाओं में खून का प्रवाह बढ़ जाता है। खून मस्तिष्क की उन कोशिकाओं में पहुंचना शुरू हो जाता है, जहां पहले खून पूरी मात्रा में नहीं पहुंचता था। जैसे ही खून का प्रवाह निस्तेज कोशिकाओं में होने लगता है मस्तिष्क की पियूष ग्रंथि द्वारा स्रावित हार्मोन घूसर द्रव्य व प्रमस्तिष्क के कार्य का सफलतापूर्वक संपादन करता है। इसका नियमित अभ्यास आंख, मस्तिष्क आदि में फायदेमंद होता है।त्राटकस्मरण शक्ति का सीधा संबंध मन की एकाग्रता से होता है। मन जितना एकाग्र होता है, बुद्धि उतनी ही पैनी व स्मरण शक्ति उतनी ही मजबूत होती है। तीस मिनट त्राटक का नियमित अभ्यास एकाग्रता में बढ़ोतरी करता है। बगैर पलक झपकाए एकटक किसी भी बिंदु पर अपनी आंखें गड़ाए रखना त्राटक कहलाता है। त्राटक से मस्तिष्क के सुप्त केंद्र जाग्रत होने लगते हैं,जिससे याददाश्त में बढ़ोतरी होती है।
योग आसन करने क़ी विधि यहाँ देखें :-
सुप्त-वज्रासन
सूर्य नमस्कार
ताड़ासन
उष्ट्रासन
वज्रासन
वक्रासन
विपरीत नौकासन
विपरीतकर्णी आसन
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 05:54:00 pm 0 comments
ब्राह्माण्ड का रहस्य!
सृष्टि के आरंभ से मानव की जिज्ञासा प्रकृति से जुड़ी तमाम चीजों को जानने की रही है। यह सवाल भी वैज्ञानिकों को हमेशा परेशान करता रहा है कि ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई, बिग बैंग यानी महाविस्फोट की सच्चाई क्या है, इसी महाविस्फोट के रहस्य को समझने के लिए फ्रांस और स्विट्जरलैैंड की सीमा पर दुनिया का सबसे बड़ा प्रयोग चल रहा है। इसके नतीजे धीरे-धीरे हमारे सामने आएंगे। इसी महाप्रयोग के बहाने इस बार चर्चा ब्राह्माण्ड से जुड़ी कई दिलचस्प बातों की। आखिर क्या है ब्राह्माण्डआमतौर पर हम ब्राह्माण्ड के अंतर्गत आकाश के उन सभी पिण्डों को तथा आकाश गंगाएं, उल्का पिंड, धूमकेतु तथा सौर परिवार आदि को सम्मिलित करते हैं। ब्राह्माण्ड में हम करीब 3 हजार से भी ज्यादा तारों को देख सकते हैं जिनका नामकरण विभिन्न पौराणिक मान्यताओं के अनुसार किया गया है। 12 तारा मंडलों के ऎसे ही समूह को राशियों के रू प में मान्यता है तथा ये राशियां पृथ्वी के कक्ष के समान ही सूर्य के चारों ओर घूमती हैं। ये सभी 12 राशियां सूर्य के चक्कर लगाते हुए अपनी स्थितियां बदलती रहती हैं। ब्राह्माण्ड का दूसरा प्रमुख संघटक आकाश गंगाएं हैं जिनमें असंख्य चमकते तारों की सर्पिलाकार व्यवस्था होती है, इसमें एक लाख मिलियन तारे माने गए हैं। सौरमंडल पड़ोसी, आकाशगंगा शहरब्राह्माण्ड में हमारे लिए सर्वाधिक महžवपूर्ण संघटक सौर मंडल माना जाता है जिसमें पृथ्वी स्थित है। हमारा सौर मंडल आकाश गंगा में स्थित है। यदि ऎसा माना जाए कि पृथ्वी हमारा घर है, तो सौर मंडल हमारा पड़ौसी, आकाश गंगा हमारा शहर तथा ब्राह्माण्ड हमारी दुनिया है। इस ब्राह्माण्ड रूपी दुनिया की रचना को समझने के लिए इसकी रहस्यमय उत्पत्ति को समझना आवश्यक है। यूनानी, रोमवासी, भारतीय, अरबवासी लंबे समय से इस बारे में जानकारी जुटाते रहे हैं। लेकिन ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में सही जानकारी लंबे समय बाद ही प्राप्त हो पाई। पूर्व यूनानी और रोमन सभ्यता के विद्वान भी ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति और रचना का आधार धार्मिक ही मानते रहे हैं। ज्योतिषियों ने लगाए अंदाजसारी दुनिया में पंद्रहवीं शताब्दी से पूर्व तक यही माना जाता रहा है कि ब्राह्माण्ड का केंद्र पृथ्वी है तथा सारे ग्रह, उपग्रह तथा सूर्य सहित सभी तारे पृथ्वी के चक्कर लगाते हैं। सूर्य केंद्रित विचारधारा को विकसित करने का श्रेय सोलहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध विद्वान कॉपरनिकस को जाता है। सत्रहवीं शताब्दी में जब गैलीलियों ने दूरबीन बनाई तो आकाशीय पिंडों के बारे में अधिक स्पष्ट जानकारी मिल पाई। इसी समय यूरोप के प्रसिद्ध ज्योतिष वैज्ञानिक केपलर ने आकाशीय पिण्डों की गति के बारे में नियमों की जानकारी दी तथा स्पष्ट किया कि ये आकाशीय पिंड दीर्घ वृत्ताकार मार्गोü पर सूर्य की परिक्रमा करते हैं। महाविस्फोट के सिद्धांत की खोजलेकिन अभी तक यह जिज्ञासा बरकरार थी कि ब्राह्माण्ड बना कैसे, बीसवीं सदी के शुरू में अचानक बदलाव आया जब वृहद् विस्फोट द्वारा ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति सिद्ध की गई। ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में वृहद् विस्फोट का विचार सन् 1627 में बेल्जियम के वैज्ञानिक जॉर्ज लैमेतंर ने दिया था, इसे बिग बैंग सिद्धांत भी कहते हैं। अब तक ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में इसी विचार को प्रामाणिक माना जा रहा है। ये है महाविस्फोट की थ्योरीमहाविस्फोट के विचार के अनुसार आज से लगभग 15 अरब वर्ष पहले ब्राह्माण्ड में सारा पदार्थ एक विशाल अग्निपिण्ड के रूप में था, इसमें तापमान और दाब की अधिकता थीं। इसके कारण इसमें भयंकर विस्फोट हुआ। इस विस्फोट से अग्निपिंड के रूप में विद्यमान पदाथो का ब्राह्माण्ड में बिखराव हुआ तथा विस्फोट से पदार्थोü के इस बिखराव की प्रक्रिया को महाविस्फोट कहा गया। इन सामान्य पदार्थों का अलगाव होने लगा तथा इससे काले पदार्थों का निर्माण हुआ। बाद में इस काले पदार्थ का एकत्रीकरण (समूहन) हो गया। कालांतर में इन पदार्थोü से अनेक केंद्रीभूत पिंड बन गए। निरंतर जमा पदार्थोü से इन पिण्डों का आकार बढ़ता गया तथा ये आगे बढ़ते गए। ये जितने आगे बढ़ते गए उतनी ही उनकी गति बढ़ती गई। इसी प्रक्रिया से वर्तमान ब्राह्माण्ड की रचना हुई। वर्तमान में यह माना जाता है कि आकाश गंगा के तारें ठण्डे हो रहे हैं। इस सिद्धांत के अनुसार ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति 4.5 अरब वर्ष पूर्व हुई।अभी जिज्ञासा अधूरीप्राचीन काल से धार्मिक, ज्योतिष और वैज्ञानिक आधार पर ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति का रहस्य जानने के अनेक प्रयास किए, लेकिन हमारी जिज्ञासा वास्तविकता से अभी भी दूर रही। कालांतर में वृहद् विस्फोट सिद्धांत की भी आलोचना हुई, क्योंकि इस विस्फोट में सबसे पहले जिस विशाल अग्निपिंड की परिकल्पना की गई वह असंभव प्रतीत होता है। वैज्ञानिक यह मानते हैं कि इतना बड़ा अग्निपिंड होना संभव नहीं, जिससे इस विशाल ब्राह्माण्ड की उत्पत्ति हो सकें। फिर यह भी संशय की बात है कि इस पदार्थ से ब्राह्माण्ड, आकाश गंगा, तारों तथा ग्रहों व उपग्रहों की क्रमबद्ध प्रक्रिया से बार-बार विस्फोट एवं एकत्रीकरण से उत्पत्ति हों।डॉ. बी.सी. जाटवैज्ञानिक खोज की शुरूआतब्राह्माण्ड की उत्पत्ति को जानने के लिए सदी का महाप्रयोग किया जा रहा है। इसे इक्कीसवीं सदी का महाप्रयोग कहा गया है। लार्ज हेड्रोन कोलाइडर (मशीन) में महाविस्फोट कि प्रक्रिया करके महाप्रयोग की शुरूआत 6 सितंबर 08 को जेनेवा की प्रयोगशाला में की। इस प्रयोग को एक मशीन द्वारा एक सुरंग में किया जा रहा है जिसकी लंबाई 27 किमी है। इसमें घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में प्रोटोन पुंज छोड़े हैं। ये पुंज प्रकाश की तरह गतिशील हो जाएंगे। इसके बाद दूसरे चरण में इसके विपरित दिशा में प्रोटोन पुंज छोड़ेगें। अब वैज्ञानिक यह चाहते हैं कि इन प्रोटोन पुंजों के टकराने से महाविस्फोट होना चाहिए इससे छोटा ब्लैक हॉल (प्रोटोन के बादल) बन जाएं।तब जान पाएंगे रहस्यमहाविस्फोट में कणों के टकराव के बाद आएं परिणामों से हम जान पाएंगे कि इस सृष्टि की रचना कैसे हुई। इन कणों में विद्यमान आकर्षण कहां से आता है। इस तरह यह प्रयोग भी एक तरह से बिग बैंग (वृहद् विस्फोट) जैसे ही एक बड़े विस्फोट पर आधारित है। ब्राह्माण्ड की रचना का रहस्य जानने के लिए शुरू किए इस अभियान के परिणाम धीरे-धीरे आएंगे क्योंकि इसमें बिग बैंग की स्थिति बनने में अभी काफी समय लगेगा। "हिग्स बोसोन" नामक मूल कणों को आद्य पदार्थ माना गया है जिनसे ब्राह्माण्ड बनता है। इनमें इन मूल कणों की प्राप्ति अगले वर्ष जून तक होने की संभावना है। ये ही वे कण हैं जिनकी तलाश के लिए वैज्ञानिक प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयोग में बीम के टकराने से उत्पन्न अवशिष्ट पदार्थ से यदि ये कण मिले तथा इनमें द्रव्यमान और गुरूत्व का पता चला, तो ब्राह्माण्ड की रचना के बारे में प्रचलित बिग बैंग विचार को सिद्ध किया जा सकेगा।
Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 05:51:00 pm 0 comments
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – भगवान के विराट् रूप का वर्णन
महायोगेश्वर श्री शुकदेव जी बोले – “हे राजा परीक्षित! एक राजा होने के नाते तुम अपने कल्याण के साथ ही साथ सभी के कल्याण की चिन्ता रहती है इसीलिये तुमने यह अति उत्तम प्रश्न किया है। इससे तुम्हारे कल्याण के साथ ही साथ दूसरों का भी कल्याण अवश्य ही होगा। मनुष्य जन्म लेने के पश्चात् संसार के मायाजाल में फँस जाता है और उसे मनुष्य योनि का वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। उसका दिन काम धंधों में और रात नींद तथा स्त्री प्रसंग में बीत जाता है। अज्ञानी मनुष्य स्त्री, पुत्र, शरीर, धन, सम्पत्ति सम्बंधियों आदि को अपना सब कुछ समझ बैठता है। वह मूर्ख पागल की भाँति उनमें रम जाता है और उनके मोह में अपनी मृत्यु से भयभीत रहता है पर अन्त में मृत्यु का ग्रास हो कर चला जाता है।
मनुष्य को मृत्यु के आने पर भयभीत तथा व्याकुल नहीं होना चाहिये। उस समय अपने ज्ञान से वैराग्य लेकर सम्पूर्ण मोह को दूर कर लेना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को वश में करके उन्हें सांसारिक विषय वासनाओं से हटाकर चंचल मन को दीपक की लौ के समान स्थिर कर लेना चाहिये। इस समस्त प्रक्रिया के मध्य ॐ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिये जिससे कि मन इधर उधर न भटके। इस प्रकार ध्यान करते करते मन भगवत् प्रेम के आनन्द से भर जाता है। फिर चित्त वहाँ से हटने को नहीं करता है। यदि मूढ़ मन रजोगुण और तमोगुण के कारण स्थिर न रहे तो साधक को व्याकुल न हो कर धीरे धीरे धैर्य के साथ उसे अपने वश में करने का उपाय करना चाहिये। उसी योग धारणा से योगी को भगवान के दर्शन हृदय में हो जाते हैं और भक्ति की प्राप्ति होती है।”
राजा परीक्षित ने पूछा – “हे महाभाग! वह कौन सी धारणा है जो अज्ञानरूपी मैल को शीघ्र दूर कर देती है और उस धारणा को कैसे किया जाता है?”
उनके इस प्रश्न के उत्तर में श्री शुकदेव जी ने कहा – “हे परीक्षित! योग की साधना करने वाले साधक को सबसे पहले अपने शरीर को वश में करने के लिये यथोचित आसन में बैठना चाहिये। तत्पश्चात् क्रिया शक्ति को वश में करने के लिये प्राणायाम का साधन करना चाहिये। साथ ही साथ विषय एवं कामनाओं को त्याग कर इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में करना चाहिये। फिर ज्ञान का प्रयोग कर मन को चारों ओर से इस प्रकार समेट लेना चाहिये जैसे कि कछुवा अपने सिर पैर को समेट लेता है। इतना करने के पश्चात् भगवान के विराट रूप का ध्यान करना चाहिये। उसे यह समझना चाहिये कि जल, वायु, अग्नि, आकाश, पथ्वी आदि पंचतत्व, अहंकार और प्रकृति इन सात पदों से आवृत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विराट भगवान का ही शरीर है, वही इन सबको धारण किये हुये है। तत्वज्ञानी पुरुषों के अनुसार पाताल विराट भगवान के तलवे, रसातल उनके पंजे, महातल उनकी एड़ी के ऊपर की गाँठें, तलातल उनकी पिंडली, सुतल उनके घुटने, वितल और अतल उनकी जाँघें तथा भूतल उनका पेडू है। हे परीक्षित! आकाश उनकी नाभि, स्वर्गलोक उनकी छाती, महालोक उनका कंठ, जनलोक उनका मुख, तपलोक उनका मस्तक और सत्यलोक उनके सहस्त्र सिर हैं। दिशाएँ उनके कान, दोनों अश्वनीकुमार उनकी नासिका, अग्नि उनका मुख, अन्तरिक्ष उनके नेत्र और सूर्य उन नेत्रों की ज्योति है। दिन और रात्रि उनकी पलकें हैं, ब्रह्मलोक उनका भ्रू-विलास है, जल उनका तालू और रस उनकी जिव्ह्या है। वेद उनकी मस्तकरेखाएँ और यम उनकी दाढ़ें हैं। स्नेह उनके दाँत हैं और जगत को मोहित करने वाली माया उनकी मुस्कान है। लज्जा उनकी ऊपरी ओंठ तथा लोभ निचली ओंठ है। धर्म उनके स्तन और अधर्म उनकी पीठ है। प्रजापति ब्रह्मा उनकी मूत्रेन्द्रिय, मित्रावरुण उनके अण्डकोष और समुद्र उनका कोख है। पर्वत उनकी हड्डियाँ और नदियाँ उनकी नाड़ियाँ हैं। वृक्ष उनके रोम और वायु उनका श्वास है। बादल उनके केश है। सन्ध्या उनका वस्त्र है। मूल प्रकृति उनका हृदय है और चन्द्रमा उनका मन है। महातत्व उनका चित्त और रुद्रदेव उनका अहंकार है। वन्य पशु उनका कमर तथा हाथी, घोड़े, खच्चर आदि उनके नख हैं। अनेकों प्रकार के पक्षी उनकी कलाएँ हैं। बुद्धि उनका मन है और मनुष्य उनका निवास स्थान है। अप्सरा, चारण, गन्धर्व आदि उनके स्वर हैं। देवताओं के निमित्त किये गये यज्ञ उनके कर्म हैं। दैत्य तथा राक्षस उनके वीर्य, ब्राह्मण उनकी मुखारविन्दु, क्षत्रिय उनकी बाँहें, वैश्य उनकी जंघायें तथा शूद्र उनके चरणों से उत्पन्न होते हैं।
“अतः बुद्धि और ज्ञान से अपने मन को वश में कर के भगवान के इसी विराट रूप का ध्यान करना चाहिये।”
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 05:45:00 pm 0 comments
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – सृष्टि की उत्पत्ति
श्री शुकदेव मुनि ने कहा – “हे परीक्षित! अब मैं आपके ज्ञानवर्धन के लिये आपको इस सृष्टि के उत्पत्ति के विषय में बताता हूँ। सृष्टि के आरम्भ में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जलमग्न था। केवल भगवान नारायण ही शेष शैया पर विराजमान योग निद्रा में लीन थे। सृष्टिकाल आने पर काल शक्ति ने उन भगवान नारायण को जगाया। उनके नाभि प्रदेश से सूक्ष्म तत्व कमल कोष बाहर निकला और सूर्य के समान तेजोमय होकर उस अपार जल को प्रकाशमान करने लगा। उस देदीप्यमान कमल में स्वयं भगवान विष्णु प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुये। कमल पर बैठे ब्रह्मा जी को भगवान नारायण सम्पूर्ण जगत की रचना करने की आज्ञा दी।
“ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अँगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, लिंग से समुद्र, गुदा से निऋति तथा छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये हैं। ब्रह्मा जी की कन्या सरस्वती अत्यन्त लावण्यमयी थीं। एक बार ब्रह्मा जी उस कन्या को देख कर अति कामित हो उठे। इस पर ब्रह्मा जी को उनके पुत्रों ने समझाया कि ऐसा संकल्प अधर्म पूर्ण है। ब्रह्मा जी ने अति लज्जित होकर अपना वह शरीर त्याग दिया। उनके उस त्यागे हुये शरीर को दिशाओं ने कुहरा और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।
“इसके बाद ब्रह्मा जी के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद, और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकलीं। फिर ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व (शिल्पविद्या) आदि उप-वेदों की रचना की। इसके बाद उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किया। फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म, चारों आश्रम और वृतियाँ आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्दादि तथा क्रीड़ा से षडज्, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत् और निषाद ये सात सुर प्रकट हुये।
“इतनी रचना करने के बाद भी ब्रह्मा जी ने यह विचार करके कि मेरी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम ‘का’ और ‘या’ (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयम्भुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। स्वयम्भुव मनु और शतरूपा से दो पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद और तीन कन्यायें आकूति, देवहूति एवं प्रसूति की उत्पत्ति हुई। मनु ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति और देवहूति का विवाह कर्दम जी के साथ कर दिया। इन्हीं तीन कन्याओं से सारे जगत की श्रृष्टि हुई।
“फिर ब्रह्मा जी ने इन सबके निवास के लिये भगवान नारायण से प्रार्थना की कि वे जलमग्न श्रृष्टि से पृथ्वी को बाहर निकालें। उनकी इस प्रार्थना पर भगवान नारायण ने वाराह का अवतार धारण करके पृथ्वी को निकाला जहाँ पर कि स्वयम्भुव मनु और शतरूपा की सन्तानें, जो कि मानव कहलाते हैं, निवास करने लगे।”
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 05:39:00 pm 0 comments
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – दिति का गर्भधारण
एक बार मरीचि नन्दन कश्यप जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिये खीर की आहुति दिया और उनकी आराधना समाप्त करके सन्ध्या काल के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे गये। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से कश्यप जी के निकट गई। दिति ने कश्यप जी से मीठे वचनों से अपने साथ रमण करने के लिये प्रार्थना किया। इस पर कश्यप जी ने कहा, “हे प्रिये! मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार तेजस्वी पुत्र अवश्य दूँगा। किन्तु तुम्हें एक प्रहर के लिये प्रतीक्षा करनी होगी। सन्ध्या काल में सूर्यास्त के पश्चात् भूतनाथ भगवान शंकर अपने भूत, प्रेत, राक्षस तथा यक्षों को लेकर बैल पर चढ़ कर विचरते हैं। इस समय तुम्हें कामक्रीड़ा में रत देख कर वे अप्रसन्न हो जावेंगे। अतः यह समय सन्तानोत्पत्ति के लिये उचित नहीं है। सारा संसार मेरी निन्दा करेगा। यह समय तो सन्ध्यावन्दन और भगवत् पूजन आदि के लिये ही है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं वे नरकगामी होते हैं।”
पति के इस प्रकार समझाने पर भी उसे कुछ भी समझ में न आया और उस कामातुर दिति ने निर्लज्ज भाव से कश्यप जी के वस्त्र पकड़ लिये। इस पर कश्यप जी ने दैव इच्छा को प्रबल समझ कर दैव को नमस्कार किया और दिति की इच्छा पूर्ण की और उसके बाद शुद्ध जल से स्नान कर के सनातन ब्रह्म रूप गायत्री का जप करने लगे। दिति ने गर्भ धारण कर के कश्यप जी से प्रार्थना की, “हे आर्यपुत्र! भगवान भूतनाथ मेरे अपराध को क्षमा करें और मेरा यह गर्भ नष्ट न करें। उनका स्वभाव बड़ा उग्र है। किन्तु वे अपने भक्तों की सदा रक्षा करते हैं। वे मेरे बहनोई हैं मैं उन्हें नमस्कार करती हूँ।”
प्रजापति कश्यप जब सन्ध्यावन्दन आदि से निवृत हुये तो उन्होंने अपनी पत्नी को अपनी सन्तान के हित के लिये प्रार्थना करते हुये और थर थर काँपती हुई देखा तो वे बोले, “हे दिति! तुमने मेरी बात नहीं मानी। तुम्हारा चित्त काम वासना में लिप्त था। तुमने असमय में भोग किया है। तुम्हारे कोख से महा भयंकर अमंगलकारी दो अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। सम्पूर्ण लोकों के निरपराध प्राणियों को अपने अत्याचारों से कष्ट देंगे। धर्म का नाश करेंगे। साधू और स्त्रियों को सतायेंगे। उनके पापों का घड़ा भर जाने पर भगवान कुपित हो कर उनका वध करेंगे।”
दिति ने कहा, “हे भगवन्! मेरी भी यही इच्छा है कि मेरे पुत्रों का वध भगवान के हाथ से ही हो। ब्राह्मण के शाप से न हो क्योंकि ब्राह्मण के शाप के द्वारा प्राणी नरक में जाकर जन्म धारण करता है।” तब कश्यप जी बोले, “हे देवि! तुम्हें अपने कर्म का अति पश्चाताप है इस लिये तुम्हारा नाती भगवान का बहुत बड़ा भक्त होगा और तुम्हारे यश को उज्वल करेगा। वह बालक साधुजनों की सेवा करेगा और काल को जीत कर भगवान का पार्षद बनेगा।”
कश्यप जी के मुख से भगवद्भक्त पौत्र के उत्पन्न होने की बात सुन कर दिति को अति प्रसन्नता हुई और अपने पुत्रों का वध साक्षात् भगवान से सुन कर उस का सारा खेद समाप्त हो गया।
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Posted by Udit bhargava at 12/25/2009 05:36:00 pm 0 comments
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