श्री शुकदेव मुनि ने कहा – “हे परीक्षित! अब मैं आपके ज्ञानवर्धन के लिये आपको इस सृष्टि के उत्पत्ति के विषय में बताता हूँ। सृष्टि के आरम्भ में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जलमग्न था। केवल भगवान नारायण ही शेष शैया पर विराजमान योग निद्रा में लीन थे। सृष्टिकाल आने पर काल शक्ति ने उन भगवान नारायण को जगाया। उनके नाभि प्रदेश से सूक्ष्म तत्व कमल कोष बाहर निकला और सूर्य के समान तेजोमय होकर उस अपार जल को प्रकाशमान करने लगा। उस देदीप्यमान कमल में स्वयं भगवान विष्णु प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुये। कमल पर बैठे ब्रह्मा जी को भगवान नारायण सम्पूर्ण जगत की रचना करने की आज्ञा दी।
“ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अँगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, लिंग से समुद्र, गुदा से निऋति तथा छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये हैं। ब्रह्मा जी की कन्या सरस्वती अत्यन्त लावण्यमयी थीं। एक बार ब्रह्मा जी उस कन्या को देख कर अति कामित हो उठे। इस पर ब्रह्मा जी को उनके पुत्रों ने समझाया कि ऐसा संकल्प अधर्म पूर्ण है। ब्रह्मा जी ने अति लज्जित होकर अपना वह शरीर त्याग दिया। उनके उस त्यागे हुये शरीर को दिशाओं ने कुहरा और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।
“इसके बाद ब्रह्मा जी के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद, और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकलीं। फिर ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व (शिल्पविद्या) आदि उप-वेदों की रचना की। इसके बाद उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किया। फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म, चारों आश्रम और वृतियाँ आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्दादि तथा क्रीड़ा से षडज्, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत् और निषाद ये सात सुर प्रकट हुये।
“इतनी रचना करने के बाद भी ब्रह्मा जी ने यह विचार करके कि मेरी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम ‘का’ और ‘या’ (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयम्भुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। स्वयम्भुव मनु और शतरूपा से दो पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद और तीन कन्यायें आकूति, देवहूति एवं प्रसूति की उत्पत्ति हुई। मनु ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति और देवहूति का विवाह कर्दम जी के साथ कर दिया। इन्हीं तीन कन्याओं से सारे जगत की श्रृष्टि हुई।
“फिर ब्रह्मा जी ने इन सबके निवास के लिये भगवान नारायण से प्रार्थना की कि वे जलमग्न श्रृष्टि से पृथ्वी को बाहर निकालें। उनकी इस प्रार्थना पर भगवान नारायण ने वाराह का अवतार धारण करके पृथ्वी को निकाला जहाँ पर कि स्वयम्भुव मनु और शतरूपा की सन्तानें, जो कि मानव कहलाते हैं, निवास करने लगे।”
एक टिप्पणी भेजें