29 दिसंबर 2009

कष्टों को दूर करती हैं देवी शाकम्भरी


दुर्गा के अवतारोंमें एक हैं माता शाकंभरी। अपने अवतारोंका वर्णन स्वयं मातेश्वरीने दुर्गासप्तशतीमें किया है। इन अवतारोंमें रक्तदंतिका,भीमा,भ्रामरी,शताक्षीतथा शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। देवी के कथनानुसार एक समय सौ वर्षो तक अनावृष्टि की अवस्था रहेगी अर्थात् आकाश से मेघ नहीं बरसेंगे। वृष्टि नहीं होगी तो कृषि-कार्य संभव नहीं होगा। घास तक नहीं उगेंगे। तृण का भी दर्शन नहीं होगा। ऐसी स्थिति में जीव-जंतु काल-कवलित होने लगेंगे। पृथ्वी पर मृत्यु का तांडव आरंभ हो जाएगा। ऐसी स्थिति में देवी अपने ही तन से उत्पन्न शाक द्वारा पूरे लोक की क्षुधा शांत करेंगी। इससे सभी के लिए प्राणों का धारण संभव होगा और देवी शाकंभरी नाम से विख्यात होंगी-
ततोऽहमखिलंलोकमात्मदेहसमुद्भवै:।
भरिष्यामिसुरा: शाकैरावृष्टे:प्राणाधारकै:।।
शाकम्भरीतिविख्यातिंतदा यास्यामहंभुवि।
अनावृष्टि से संपूर्ण प्राणियों के व्यग्र होने के कारण ऋषि-मुनियों की अधीर प्रार्थना पर ही यह देवी प्रकट होंगी। देवी अयोनिजा होंगी अर्थात् किसी के गर्भ से प्रकट नहीं होकर स्वयं की शक्ति से अवतरित होंगी। अवतरित होते ही यह शत नेत्रों से मुनियों को अवलोकितकरेंगी, अत:इन्हीं का नाम शताक्षीभी होगा। ये सब देवी-वाक्य वस्तुत:सत्य सिद्ध हुए। उन्होंने जो कुछ कहा था, उससे अधिक ही कर दिखाया। पृथ्वी पर दुर्गम नामक एक खूंखार महाबली दैत्य उत्पन्न हुआ। उसके भयावह उपद्रव से तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मच गई। उसने चारों वेदों को चुरा लिया। यज्ञ-जाप बंद करा दिए। यज्ञ नहीं हो तो वर्षा किधर से हो? श्री मद्भगवद्गीतामें कहा भी गया है-
अन्नाद्भवन्तिभूतानिपर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवतिपर्जन्योयज्ञ: कर्म समुद्भव:।।
अर्थात अन्न से प्राणियों का अस्तित्व है। वर्षा के फलस्वरूप अन्न की प्राप्ति होती है। वर्षा यज्ञ से ही संभव है एवं यज्ञ कर्मजनितहै। दुर्गम नामक राक्षस ने इंद्र को भी बंदी बना लिया। वर्षा के देवता ही बंदी हो गए तो आकाश से एक बूंद का बरसना भी बंद हो गया। मुनियों की विह्वल प्रार्थना पर देवी शाकंभरी अपनी सौ आंखों के साथ अवतरित हुईं। पृथ्वी की दुर्दशा देख कर इनकी सौ नेत्रों से जल-धार बह चली और इस जल से संपूर्ण धरती आप्लावित हो गई। पृथ्वी अब अन्न दे सकती थी पर उसमें समय लगता। अत:देवी ने एक अन्य उपाय किया। अपने ही शरीर से विपुल शाक उत्पन्न किया, इतना कि उससे सभी प्राणियों की प्राण-रक्षा होने लगी। उन्होंने मुनियों की प्रार्थना पर दुर्गम से युद्ध कर उसे काल के हवाले किया और इंद्र को मुक्त करा लिया। शाकंभरी देवी का भव्य मंदिर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से कुछ ही दूरी पर दो पहाडियोंके मध्य स्थित है। यहां की प्राकृतिक छटा अत्यंत रमणीय है। एक सुंदर जलप्रपात से निरंतर जल की धार प्रवाहित होती रहती है। यहां की पहाडियोंपर सराल नामक कंद-मूल अधिकता से पाया जाता है जो अत्यंत मीठा और स्वादिष्ट होता है। भूमि को थोडा सा खोदने पर ही यह प्राप्त हो जाता है। आश्विन शुक्ल चतुर्दशी को शाकम्भरी-पीठ पर बहुत बडा मेला लगता है जिसमें स्थान-स्थान से हजारों श्रद्धालु जुटते हैं और सभी को प्रसाद के रूप में सराल ही दिया जाता है। इसी तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि किस मात्रा में यह कंदमूलयहां उपलब्ध है। इस सराल को ही देवी द्वारा उत्पन्न शाक का प्रतीक माना जाता है। सचमुच यह अभी भी लोगों की क्षुधा-पूर्ति कर सकता है, देवी के अवतरण के समय इसकी बहुलता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। श्रद्धालुओं की भीड यहां इसलिए अधिक होती है कि कभी सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणियों की क्षुधा-पिपासा शान्त करने वाली माता शाकम्भरी आज भी अपने भक्तों के सभी भौतिक कष्टों को दूर कर उनकी मनोकामनाएंपूर्ण करती हैं। दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकम्भरी के स्वरूप का वर्णन है जिसके अनुसार इनका वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं।
शाकम्भरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
दूसरे श्लोक के अनुसार ये पद्मासनाहैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही ये विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है-
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।