09 दिसंबर 2009

सबसे बड़ी तपस्या


सत्यनगर का राजा सत्यप्रताप सिंह अत्यंत न्यायप्रिय शासक था। एक बार उसे पता चला कि सौम्यदेव नामक एक ऋषि अनेक सालों से लोहे का एक डंडा जमीन में गाड़कर तपस्या कर रहे हैं और उनके तप के प्रभाव से डंडे में कुछ अंकुर फूट कर फूल-पत्ते निकल रहे हैं और जब वह अपनी तपस्या में पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेंगे तो उनका डंडा फूल-पत्तों से भर जाएगा। सत्यप्रताप ने सोचा कि यदि उनके तप में इतना बल है कि लोहे के डंडे में अंकुर फूट कर फूल-पत्ते निकल सकते हैं तो फिर मैं भी क्यों न तप करके अपना जीवन सार्थक बनाऊं।
यह सोच कर वह भी ऋषि के समीप लोहे का डंडा गाड़कर तपस्या करने लगा। संयोगवश उसी रात जोर का तूफान आया। मूसलाधार बारिश होने लगी। राजा और ऋषि दोनों ही मौसम की परवाह न कर तपस्या में मगन रहे। कुछ देर बाद एक व्यक्ति बुरी तरह भीगा हुआ ठंड से कांपता आया। उसने ऋषि से कहीं ठहरने की जगह के बारे में पूछा पर ऋषि ने आंख खोलकर भी नहीं देखा। निराश होकर वह राजा सत्यप्रताप के पास पहुंचा और गिर पड़ा। राजा ने उसकी इतनी बुरी हालत देखकर उसे गोद में उठाया। उसे नजदीक ही एक कुटिया नजर आई। उसने उस व्यक्ति को कुटिया में लिटाया और उसके समीप आग जलाकर गर्माहट पैदा की। गर्माहट मिलने से व्यक्ति होश में आ गया। इसके बाद राजा ने उसे कुछ जड़ी-बूटी पीसकर पिलाई। कुछ ही देर बाद वह व्यक्ति बिल्कुल ठीक हो गया। सुबह होने पर राजा जब उस व्यक्ति के साथ कुटिया से बाहर आया तो यह देखकर हैरान रह गया कि जो लोहे का डंडा उसने गाड़ा था वह ताजे फूल-पत्तों से भरकर झुक गया था। इसके बाद राजा ने ऋषि के डंडे की ओर देखा। ऋषि के थोड़े बहुत निकले फूल-पत्ते भी मुरझा गए थे। राजा समझ गया कि मानव सेवा से बड़ी तपस्या कोई और नहीं है। वह अपने राज्य वापस आकर प्रजा की समुचित देखभाल करने लगा।