महाराज जनक के राज्य में एक तपस्वी रहता था। एक बार किसी बात को लेकर जनक उससे नाराज हो गए। उन्होंने उसे अपने राज्य से बाहर चले जाने की आज्ञा दी। इस आज्ञा को सुनकर तपस्वी ने जनक से पूछा, 'महाराज, मुझे बता दीजिए कि आपका राज्य कहां तक है क्योंकि तब मुझे आपके राज्य से निकल जाने का ठीक-ठीक ज्ञान हो सकेगा।' महाराज जनक स्वभावत: विरक्त तथा ब्रह्माज्ञानी थे। तपस्वी के इस प्रश्न को सुनकर वह सोच में पड़ गए। पहले तो संपूर्ण पृथ्वी पर ही उन्हें अपना राज्य तथा अधिकार दिखा। फिर मिथिला नगरी पर वह अधिकार दिखने लगा। आत्मज्ञान के झोंके में पुन: उनका अधिकार घटकर प्रजा पर, फिर अपने शरीर में आ गया और अंत में कहीं भी उन्हें अपने अधिकार का भान नहीं हुआ।
उन्होंने तपस्वी को अपनी स्थिति समझाई और कहा,' मेरा किसी वस्तु पर भी अधिकार नहीं है। आपकी जहां रहने की इच्छा हो, वहीं रहें और जो इच्छा हो, भोजन करें।' इस बात पर तपस्वी को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, 'महाराज, आप इतने बड़े राज्य को अपने अधिकार में रखते हुए किस तरह सब वस्तुओं से तटस्थ हो गए हैं और क्या समझकर पहले पृथ्वी पर अधिकार की बात सोच रहे थे?' जनक ने कहा, 'संसार के सब पदार्थ नश्वर हैं। शास्त्रानुसार न कोई अधिकार ही सिद्ध होता है और न कोई अधिकार-योग्य वस्तु ही। अतएव मैं किसी वस्तु को अपना कैसे समझूं? अब जिस बुद्धि से सारे विश्व पर अपना अधिकार समझता हूं, उसे सुनिए। मैं अपने संतोष के लिए कुछ भी न कर देवता, पितर, भूत और अतिथि-सेवा के लिए करता हूं। अतएव पृथ्वी, अग्नी, जल, वायु, आकाश और अपने मन पर भी मेरा अधिकार है।' जनक के इन वचनों के साथ ही तपस्वी ने अपना चोला बदल दिया। वह बोला, 'महाराज, मैं धर्म हूं। आपकी परीक्षा के लिए तपस्वी वेश में आपके राज्य में रहता आया हूं। अब भलीभांति समझ गया कि आप सत्वगुणरूप नेमियुक्त ब्रह्माप्रतिरूप चक्र के संचालक हैं।'
09 दिसंबर 2009
जनक की परीक्षा
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:32:00 am
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
एक टिप्पणी भेजें