09 दिसंबर 2009

नारद और मनुष्य के बीच आधुनिक संवाद


नारद मुनि कहीं राह चलते मिल गए स्वर्ग में घुसने के आकांक्षी एक मनुष्य को समझा रहे हैं। हे! लेमैन अर्थात् आम आदमी, स्वर्ग के अधिपति के सिंहासन का डोलाना इतना आसान नहीं है। तुम विस्तृत तरीके जानना ही चाहते हो तो पहले कर्णपटल के मैल को कर्ण खखरोंचिका अर्थात् बड्स से क्लीन कर यह कथा सुनो।
अलग-अलग युगों में सिंहासन को डोलाने के लिए डिफेंट्र लेवल का एफर्ट करना पड़ता है। सतयुग में न्यूनतम प्रयास में अधिकतम की प्राप्ति होती थी। अब कलयुग में अधिकतम एफर्ट में न्यूनतम भी नहीं मिलता है। यहां तक कि कलयुग के प्रारंभ में तो देवता आदि सिंहासन डोलाने की कूवत किसी में न जानकर स्वर्ग में एक जोरदार फंक्शन तक एडवांस में आयोजित कर चुके हैं।
तो हे! मनुष्यों में अत्यंत लोलुप व्यक्ति, तुम उस फंक्शन का विस्तृत विवरण भी सुन ही लो- जिस दिन देवताओं ने इस उत्सव का आयोजन किया था, उस दिन व्यर्थ के झंझट से मुक्ति पाकर देवताओं ने खुद पर ही फूलों की वर्षा की थी।
अप्सराएं किलपी-किलपी सी डोल रही थीं। उन्हें लग रहा था कि अब शायद धरती पर ध्यान भंग करने जैसे फिजूल कामों से मुक्ति मिल जाएगी। क्योंकि कई बार तो उनके सामने इस कार्य के दौरान यह समस्या आ जाती थी कि टारगेट ऋषि-मुनि पीछे ही पड़ जाता था।
फिर उससे ब्याह आदि के झंझट तक में पड़ना पड़ता था। जिस पर वे देवताओं को नहीं समझा पाती थीं कि तुम्हारा क्या? इधर सिंहासन डोला, उधर तुमने टप्प से नोटशीट चलाई कि जाओ ध्यान भंग कर दो, रूपजाल में फांस लो। अब तुम क्या जानो कि कैसी-कैसी युक्तियां भिड़ानी पड़ती थीं। कितना मेकअप चपोड़ना पड़ता था।
कैसे-कैसे तो डांस स्टेप्स करने पड़ते थे। पांव तक थक जाते थे, आत्मा तक पर बेहोशी छाने लगती थी। लेकिन कई खुर्राट महात्मा एक आंख दाबकर पूरा डांस देखते रहते थे। कुछ तो प्रवृत्तिवश इतने जालिम होते थे कि पहले पूरा डांस भी देख लेते थे, फिर जैसे-तैसे आंख खोलते थे, फिर भसम करने आदि की धमकियां भी देना शुरू कर देते थे।
ऐसे दुष्टों पर ज्यादा रूपजाल के बाण फेंको तो कमंडल से जल-वल निकालना शुरू कर देते थे कि अभी बनाता हूं कीड़ा-मकोड़ा। ज्यादा अनुनय-विनय करो तो पेड़-पत्ती बना देने वाली दुष्टता पर उतर आते थे।
हालांकि वत्स, मेरा निजी एक्सपीरियंस है कि कुछ सिंहासन तो इन्हीं अप्सराओं के पीछे ही डोलते थे। कुछ साधकों की साधना में इतनी गहराई होती ही इसलिए थी कि उनका परम लक्ष्य किसी अप्सरा की प्राप्ति होता था।
तभी सदियों एक ही मुद्रा में अडिग बैठे रहते थे। वे तो इकाध मॉडर्न किस्म की अप्सरा से शादी कर धरती पर ही स्वर्ग की व्यवस्था बैठा लेने के प्रति ज्यादा उत्सुक रहते थे।
.तो, हे! चलते पुर्जेनुमा व्यक्ति, अब तुम अपना मंतव्य उगलो, बताओ तुम किस चक्कर अर्थात् जुगाड़ में यहां घूम रहे हो? सर, मुझे स्वर्ग का अधिपति बनने में ज्यादा इंट्रेस्ट नहीं है। मैं तो इन्हीं अप्सराओं की डच्यूटी लगाने वाला और नोटशीट चलाने वाला सेक्शन अधिकारी बनाना चाहता हूं। मनुष्य ने उद्देश्य बताया।
चल बे भ्रष्ट, ये तो स्वर्ग का सिंहासन मिलने से भी ज्यादा कठिन है। अबे, अधिकारी बनना, अधिपति बनने से ज्यादा कठिन है। हमें देख हम यूं ही सदियों यहां से वहां टल्ले खाते धूम रहे हैं क्या? इतना आसान होता तो हम ही कभी के न बन जाते। नारदजी ने तंबूरा उस पतित मनुष्य के सिर पर मारा और स्वर्ग की ही दिशा में नारायण-नारायण करते हुए निकल लिए।