09 दिसंबर 2009

वास्तविक ज्ञान


शूरसेन प्रदेश में चित्रकेतु नामक राजा थे। उनकी अनेक रानियां थीं, किंतु कोई संतान नहीं थी। एक दिन महर्षि अड्गिरा राजभवन में पधारे। नरेश को संतान के लिए लालायित देख उन्होंने एक यज्ञ कराया, पर जाते समय कह गए, 'महाराज, आप पिता बनेंगे किंतु आपका पुत्र आपके हर्ष तथा शोक दोनों का कारण बनेगा।' महारानी कृतद्युति गर्भवती हुईं। समय पर उन्हें पुत्र उत्पन्न हुआ। राज्य भर में महोत्सव मनाया गया। राजा पुत्र के स्नेहवश बड़ी रानी के भवन में अधिक समय बिताने लगे।
फल यह हुआ कि दूसरी रानियां कुढ़ने लगीं। उनकी ईर्ष्या इतनी बढ़ी कि उन्होंने उस अबोध शिशु को विष दे दिया। बालक मर गया। राजा विलाप करने लगे। तभी वहां महर्षि अड्गिरा के साथ देवर्षि नारद पधारे। महर्षि ने राजा से कहा, 'राजन्, तुम पर प्रसन्न होकर मैं तुम्हारे पास इसलिए आया था कि तुम्हें ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखा दूं, किंतु तुम्हारे चित्त में उस समय प्रबल पुत्रेच्छा देखकर मैंने तुम्हें पुत्र दिया। अब तुमने पुत्र-वियोग के दुख का अनुभव कर लिया। यह संसार इसी प्रकार दुखमय है।'
चित्रकेतु अभी शोकमग्न थे। वह समझ नहीं सके। देवर्षि नारद ने ताड़ लिया कि इनका मोह ऐसे दूर नहीं होगा। उन्होंने अपनी दिव्यशक्ति से बालक की जीवात्मा को आमंत्रित किया। जीवात्मा के आ जाने पर उन्होंने कहा, 'देखो, ये तुम्हारे माता-पिता अत्यंत दुखी हो रहे हैं। तुम अपने शरीर में फिर प्रवेश करके इन्हें सुखी करो और राजसुख भोगो।' उस जीवात्मा ने कहा, 'देवर्षि, ये मेरे किस जन्म के माता-पिता हैं? जीव का तो कोई माता-पिता या भाई-बंधु है नहीं। अनेक बार मैं इनका पिता, ये मेरे मित्र या शत्रु रहे हैं। ये सब संबंध तो शरीर के हैं। शरीर के छूटने के साथ ही सब संबंध छूट जाते हैं।'
जीवात्मा यह कहकर चली गई। राजा चित्रकेतु का मोह उसकी बातों को सुनकर नष्ट हो चुका था। नारद ने उन्हें भगवान शेष की आराधना का उपेदश किया, जिसके प्रभाव से कुछ काल में ही उन्हें शेषजी के दर्शन हुए।