09 दिसंबर 2009

अपना पता


एक बार रामकृष्ण परमहंस के पास एक श्रीमंत आकर बोले, सुना है आपके पास मां आती हैं, आप उनसे बातें भी करते हैं। रामकृष्ण बोले, हां... आती हैं .. जिस तरह से तुम मेरे साथ बातें कर रहे हो, उसी प्रकार मैं उनके साथ भी बातें करता हूं।
मां कब आती हैं? श्रीमंत ने पूछा। उनका आगमन तय नहीं होता, जब उनकी इच्छा होती है तब आ जाती हैं, रामकृष्ण सहज भाव से बोले। श्रीमंत बोला, स्वामी जी मेरा एक काम करना, इस बार जब मां आएं तो कहना कि मेरे पास भी पधारें। आप तो जानते ही हैं कि मैं बहुत व्यस्त रहता हूं, इसलिए यहां बैठ कर प्रतीक्षा नहीं कर सकूंगा। रामकृष्ण बोले, ठीक है, अगली बार मां जब भी मुझे मिलेंगी तो अवश्य कहूंगा, मगर वह तुम्हें मिलने के लिए कहां आएंगी?
उस श्रीमंत ने रामकृष्ण को अपना विजिटिंग कार्ड बढ़ाया। रामकृष्ण बोले, नहीं, नहीं, मुझे तुम्हारी कोठी का नहीं, तुम्हारा एड्रेस चाहिए, बस वह दे दो। श्रीमंत उलझन में फंस गया, बोला, 'मेरा पता' का मतलब?
हां, तुम्हारा पता, तुम कौन हो? मां को तो तुम्हारा पता देना पड़ेगा, तभी तो वह जा पाएंगी।रामकृष्ण ने विजिटिंग कार्ड वापस लौटा दिया और कहा, ये एड्रेस तो आपकी कोठी, ऑफिस और फैक्ट्री के हैं। मां वहां थोड़े ही जाएंगी। वे तो तुम्हारे पास जाएंगी, इसलिए अपना पता बताओ।
श्रीमंत को फिर भी समझ में नहीं आया, मेरा पता का मतलब? तब रामकृष्ण ने समझाया, तुम्हारे पते का मतलब है, तुम्हारे देह के भीतर जो आत्मा बैठी है, उसका पता। जिस दिन तुमको उसका पता मिल जाएगा, उस दिन मां बिना बुलाए तुम्हारे पास आ जाएंगी।
अचानक श्रीमंत को सब कुछ समझ में आ गया। वह रामकृष्ण के चरणों पर गिर कर रोने लगा, उसका सारा अहंकार पिघल गया। उस दिन से वह अपना सही ठिकाना ढूंढने के लिए एक साधक की तरह जीवन बिताने लगा।