प्रेम शब्द से सभी परिचित हैं। प्रेम का एक अर्थ शरणागति भी होता है। व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसी के भले-बुरे की चिंता भी करता है। एक मां को हमेशा अपने पुत्र के भले-बुरे की चिंता सताती है क्योंकि वह उससे प्रेम करती है। इस प्रेम में इतनी शक्ति होती है कि वह उस व्यक्ति से, जिसकी सेवा की जा रही है, कोई भी कार्य करवा सकता है। जब एक दुनियावी मां अपने बच्चे के प्रेम में वशीभूत होकर उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहती है, तो क्या भगवान जिसमें करोड़ों माताओं का वात्सल्य भरा हुआ है, प्रेम के वशीभूत होकर हमारे कार्य सुलभ नहीं कर सकते? सर्वशक्तिमान तो असंभव को संभव कर सकते हैं, उनके लिए कुछ भी करना क्या मुश्किल है? बस हमें ही उनसे प्रेम करना होगा। हमें ही उनके शरणागत होना होगा। देखो ना, दुनियावी जगत में हम अपने कुटुंब, अपने व्यापार, अपनी सेहत, इत्यादि का निरंतर चिंतन करते हैं क्योंकि हम इनसे प्रेम करते हैं। और तो और, हम उन्हीं के लिए जीते भी हैं। अर्थात् हम उनके शरणागत हैं। परिवार खुश तो हम भी खुश। व्यापार ठीक, तो हम भी ठीक, इत्यादि। उनकी प्रसन्नता से ही हमारी प्रसन्नता होती है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि भले ही कहने को हम अपने परिवार या व्यापार के स्वामी हैं, लेकिन ध्यान देने पर हम पाएंगे कि हम तो उनके दास हैं। जबकि शास्त्रानुसार मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है- 'कृष्ण दास'। इस बात को एक प्रसंग से समझा जा सकता है। एक बार परमपूज्यपाद श्रीमद् भक्ति बल्ल्भ तीर्थ गोस्वामी महाराज विदेश यात्रा पर गए। वहां एक कार्यक्रम के अंत में प्रश्न-उत्तर के लिए कुछ समय रखा गया। उस समय एक विदेशी सज्जन ने प्रश्न किया, 'महाराज जी, जैसा कि आपने कहा कि मनुष्य भगवान की शक्ति का अंश है, अर्थात् उनका दास है। क्या यह मान लेने से हमारे सब दुख चले जाएंगे? मैं मानता हूं कि मैं श्रीकृष्ण का दास हूं, परंतु मैं अभी भी दुखी हूं। मुझे कोई सुख नहीं है। मैं अक्सर परेशानियों से घिरा रहता हूं।' महाराज जी ने कहा कि आप जानते हैं कि आप भगवान के दास हैं, परंतु यह बात आप दिल से मानते नहीं हैं। उस व्यक्ति ने कहा, 'यह कैसे संभव है?' महाराज जी ने उन्हें उत्तर देने से पहले उसकी दिनचर्या पूछी। उसकी दिनचर्या सुनकर महाराज जी ने कहा, 'आप तो श्रीकृष्ण के दास हैं परंतु आप दासत्व तो संसार का ही कर रहे हैं। मुंह से भले ही आप खुद को को श्रीकृष्ण दास कहते हैं, परंतु व्यवहार से आप संसार के दास हैं क्योंकि आप अपना सारा समय व सारी शक्ति संसार के कार्य और वस्तुओं को पाने में ही व्यय कर रहे हैं।' 'यदि आप मानते कि आप श्रीकृष्ण के दास हैं तो आपकी दिनचर्या भगवान की सेवा अर्थात उनको प्रसन्न करने मात्र के लिए होती। कोई नौकर अगर अपने मालिक की सेवा न कर किसी अन्य की सेवा करेगा तो क्या उसका मालिक खुश होगा? मालिक क्या ऐसे नौकर को अपनी नौकरी पर रखेगा?' स्पष्ट है कि जब लोग उन सांसारिक कार्यों और ऐसे लोगों की सेवा में व्यस्त हैं जो दुख का कारण हैं या स्वयं दुखी हैं, तो वे आपको सुखी कैसे कर सकते हैं? स्थायी सुख तो भगवान की सेवा करने से ही मिलेगा क्योंकि वे ही सच्चिदानंद स्वरूप हैं। आनंद के स्त्रोत की सेवा करने से ही आनंद होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवदगीता में कहा है कि यह जगत दुखालय है। दुखालय का अर्थ होता है, दुखों का घर। जब सृष्टिकर्ता ही कह रहा है कि उसकी रचना का संसार दुखों से भरा है तो फिर हमें यहां सुख कैसे मिल सकता है? इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने स्वरूप को पहचानें और भगवान के शरणागत होकर, जन्म-मृत्यु के इस सागर से पार चले जाएं।
09 दिसंबर 2009
सुख तो सेवा से
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 07:37:00 am
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