09 दिसंबर 2009

उपकार का ऋण


काशी के पास गांव के एक गांव के पुजारी अपने बेटे के साथ मंदिर में ही रहते थे। वह पूरी तन्मयता से मंदिर का सारा काम करते थे। पुजारी चाहते थे कि उनका बेटा थोड़ा पढ़-लिख कर उनके काम में हाथ बंटाए। लेकिन बेटा चाहता था कि वह शहर में जाकर खूब धन कमाए। पढ़ाने के लिए पुजारी के पास पैसा नहीं था। किसी तरह पुजारी के कर्म से अपना गुजारा करते थे। जब गांव वालों के कानों में यह बात गई तो उन्होंने चंदा इकट्ठा करके पुजारी के बेटे को ऊंची शिक्षा दिलवाई। वह पढ़ लिख कर शहर चला गया। शहर में उसने धन और कमाया। काफी समय के बाद एक बार वह गांव आया। उसे पिता को पुजारी का काम करते देख कर बुरा लग रहा था। उसने कहा, 'पिता जी, अब आप यह काम छोड़ कर हमारे साथ चलें। पिता ने कहा, 'नहीं बेटा। मैं मंदिर छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा।'
बेटे ने कहा, 'यदि आप को मंदिर की इन पत्थर की मूर्तियों से इतना प्रेम है तो मैं इससे अच्छी मूर्ति लाकर आप को दूंगा।' इस पर पुजारी पिता ने कहा, 'बेटा, तुम सुंदर मूर्ति तो ला सकते हो लेकिन यहां का प्रेम नहीं ला कर दे सकते। यह ठीक है कि ये मूर्तियां पत्थर की है लेकिन मुझे जितनी खुशी इन मूर्तियों की सेवा करने में मिलता है उतनी खुशी कहीं और नहीं मिलेगी।' बेटे ने तब खीज कर अपने मन की बात कही, 'पिता जी, आप यहां एक सामान्य पुजारी की तरह काम करें, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। इससे हमारी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचती है।'
पुजारी पिता ने तब ने जवाबी सवाल किया, 'क्या तुम्हारी प्रतिष्ठा इन चीजों से कीमती है कि तुम्हारी पढ़ाई का खर्च गांव वालों ने चंदा इकट्ठा करके निकाला? तुम्हारी मां बीमार थी तो गांव वालों ने उसकी सेवा की। बहन की शादी गांव वालों ने की। क्या तुम अपनी प्रतिष्ठा के बल पर शहर में मुझे इतना प्रेम दिलवा सकते हो? तुम्हारी प्रतिष्ठा और अपने सुख के लिए मैं गांव के लोगों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा। बेटा, मैं तुम्हें भी यह सीख देता हूं कि सब कुछ भूल जाना लेकिन किसी का किया हुआ उपकार कभी मत भूलना।' बेटे को अब समझ में आ गया कि गरीब बाप की मानवता कितनी ऊंची है। उसके मुकाबले उसके धन और यश की बिसात ही क्या है। उसने पिता के मन के दर्द को समझा और उनसे माफी मांग कर शहर चला गया।