इस संसार में यदि सबसे बड़ा कोई संगीतकार है, तो वो हैं श्री कृष्ण। जिस प्रकार से सत्व, रज और तम -तीनों गुणों के समन्वय को प्रकृति कहा गया है। उसी प्रकार से गायन, वादन और नृत्य -इन तीनों में जो पारंगत हो उसे संगीतकार कहते हैं। कृष्ण गायन में कुशल हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में उन्होंने जो गाया वह भगवद् गीता के रूप में आज हमारे पास है। वादन में श्रीकृष्ण कुशल हैं, जब बांसुरी वादन करते हैं, तब जड़ चेतन और चेतन जड़ हो जाता है। नृत्य में भी कुशल हैं। उन्होंने गोपियों के साथ वृंदावन में रास रचाया। इसीलिए हम कहते हैं कि कृष्ण सबसे बड़ा संगीतकार है।
एक चीज और, कृष्ण तटस्थ नहीं वह पक्षधर हैं। जब समाज में धर्म की हानि हो रही हो, अधर्म पुष्ट हो रहा हो, सज्जन कष्ट झेल रहे हों, दुर्जन आनंद भोग रहे हों, ऐसे में कृष्ण तटस्थ नहीं रह
पांच थे और कौरव सौ, लेकिन कौरवों के अत्याचार को कृष्ण देखते नहीं रहे, उन्होंने अर्जुन को युद्घ के लिए ललकार यानी अधर्म के खिलाफ संघर्ष के लिए खड़ा किया। उन्होंने कहा, अर्जुन तू यहां अन्याय के लिए युद्घ के मैदान में खड़ा है। हस्तिनापुर की सत्ता हासिल करने के लिए नहीं। आज का भी यही सत्य है।
कोई गुंडा किसी निर्दोष व्यक्ति को पीट रहा हो और वह चिल्ला-चिल्ला कर मदद की गुहार कर रहा हो और वहां खड़े लोग देखते रहें कि हम तो निष्पक्ष हैं और वह गुंडा उस निर्दोष का कत्ल कर दे, तो सही मायने में उस कत्ल में तटस्थ समाज के लोग भी उतने ही दोषी हैं, जितना कि वह गुंडा। और आज यही हो रहा है कि सज्जन समाज तटस्थ होकर देख रहा है। यह कृष्ण के अनुयायियों का काम नहीं है। कृष्ण न तो रागी हैं और न ही वीतरागी, सही मायने वो अनुरागी हैं। कृष्ण अनासक्त बनना हमें सिखाते हैं। जब अनासक्त हो जाएंगे फिर जहां रहोगे वहीं आनंद बरसने लगेगा। सांसारिक कार्य करते हुए भी मस्त रहोगे। जीव को वस्तु नहीं, बल्कि उसकी आसक्ति उसे बांधती है।
वृंदावन में गोपियों के साथ रास रचाते और कालिया नाग को नाथ कर उसके ऊपर नृत्य करते हैं। बड़ा अद्भुत चरित्र है कृष्ण का। राम का अनुसरण कठिन है और कृष्ण को समझना कठिन है। कृष्ण एक प्रश्न हैं, राम एक पूर्णविराम हैं। अगर उनका अनुसरण करेंगे, तो विश्राम और शांति पाएंगे। देखो, कृष्ण कितने विचित्र हैं। जन्मे जेल में और काम करते हैं मुक्ति देने का। खुद अर्जुन को उपदेश देते हैं कि रणभूमि छोड़ कर भागा नहीं जाता और स्वयं जरासंध को देख भाग खड़े होते हैं।
कृष्ण के जीवन में विधायक दृष्टिकोण अद्भुत है। इसलिए तो उनका चरित्र सबको प्रिय है। सबको लुभाता है। तुम पार्थ तो बनो, वो तम्हारे सारथी होने के लिए लालायित हैं, तैयार हैं। बस देरी तुम्हारी ओर से ही हो रही है। उन्होंने तो बांसुरी की मीठी तान छेड़ रखी है। तुम सुनो तो सही, तुम अपने को उस स्थिति में तो लाओ।
एक बात सदैव ध्यान रखना, कृष्ण हमारे साथ हैं। लेकिन वो सिर्फ हमारे लिए ही हैं ऐसी गलतफहमी में जीवन में हाथ पर हाथ धरे मत बैठे रहना। हम पार्थ बनेंगे तब वो हमारे सारथी बनेंगे। पार्थ बनना मतलब पुरुषार्थ के लिए सदैव तत्पर रहना। कई लोग प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहते हैं, अरे भई, तुम्हारा प्रारब्ध मूर्छित है तो उस पर अपने पुरुषार्थ के पसीने की बूंदें छिड़क कर उसे जागृत करो। जीवन में प्रारब्ध के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वाले मनुष्य कुछ नहीं कर सकते, यही संदेश श्रीकृष्ण देते हैं।
हम सबकी यात्रा का प्रारंभ बंधन से हुआ और सबको मुक्त होना है। मोक्ष ही तो जीवन का लक्ष्य है। कारागृह में सबका जन्म होता है। जन्म के साथ ही बंधन है। कंस मरेगा तब कारागृह से मुक्त होंगे। कंस यानि देहाभिमान। देहाभिमान का नाश सद्विद्या से होगा और सद़विद्या की प्राप्ति सद्गुरु से होगी और कृष्ण जगद्गुरु हैं।
09 दिसंबर 2009
कृष्ण एक प्रश्न हैं, राम एक पूर्णविराम
Labels: देवी-देवता
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 07:50:00 am
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