एक बार मगध के राजा चित्रांगद अपने मंत्री के साथ प्रजा के सुख-दुख का पता लगाने के लिए दौरे पर निकले। जंगल में उन्होंने एक तपस्वी को देखा। राजा ने उनके पास पहुंचकर कहा, 'मैं यहां का राजा हूं। आप सोने की कुछ मोहरें रख लीजिए और जंगल से बाहर सुखपूर्वक अपना जीवन बिताइए।' तपस्वी बोले, 'पुत्र, मैं तो एक ऋषि हूं, भला मोहरों का मेरे पास क्या काम? आप इन मोहरों को किसी निर्धन को दे दीजिए।' इस पर राजा ने कहा, 'लेकिन आपको भी तो जीविकोपार्जन के लिए धन की आवश्यकता होती होगी न? आप इन मोहरों को क्यों ठुकरा रहे हैं?' तपस्वी बोले, 'पुत्र, हम स्वर्ण रसायन से तांबे को सोना बना देते हैं। उसी से अपनी जीविका चलाते हैं।' यह सुनकर राजा हैरान रह गए।
उन्होंने तपस्वी से निवेदन किया, 'कृपया मुझे भी वह कला सिखा दीजिए। इससे हमारे राज्य में कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं होगी और मेरी प्रजा अपना सारा जीवन आराम से व्यतीत करेगी।' राजा की बात पर तपस्वी बोले, 'राजन, मैं आपको वह कला सिखा दूंगा किंतु उसके लिए आपको एक वर्ष तक मेरे साथ रह कर साधना करनी होगी।' राजा अपनी प्रजा के हित के लिए तपस्वी के साथ साधना करने को तैयार हो गए। वह एक वर्ष तक नि:स्वार्थ तपस्वी के साथ साधना करते रहे। इस बीच उन्हें यहां पर सच्चे अध्यात्म और आनंद की प्राप्ति हुई और उनका धन से मोह दूर हो गया। एक दिन तपस्वी बोले, 'आओ राजन, आज मैं आपको तांबे से सोना बनाने की कला सिखाता हूं।' तपस्वी की बात पर राजा ने कहा, 'अब मुझे स्वर्ण रसायन की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस एक वर्ष में आपने मेरे पूरे अस्तित्व को ही अमृत रसायन में परिवर्तित कर डाला है। बस आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं नि:स्वार्थ भाव से ऐसे ही प्रभु का स्मरण करते हुए अपने कार्य करूं।' तपस्वी राजा को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए।
09 दिसंबर 2009
सत्संग का प्रभाव
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:06:00 am
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