09 दिसंबर 2009

सेठ की दयालुता


काशी के सेठ गंगादास भगवान शंकर के सच्चे भक्त थे। एक दिन वह गंगा में स्नान कर रहे थे कि तभी एक व्यक्ति नदी में कूदा और डुबकियां खाने लगा। चारों तरफ शोर मच गया लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उसे बचाए। कुछ देर तक सेठजी उसे डूबते देखते रहे फिर तेजी से तैरते हुए उसके पास पहुंचे और किसी तरह खींच कर उसे किनारे ले आए। सेठजी ने उसे ध्यान से देखा तो चौंक पड़े। वह उनका मुनीम नंदलाल था।
उन्होंने पूछा, 'आप को किसने गंगा में फेंका?' नंदलाल बोला, 'किसी ने नहीं, मैं तो आत्महत्या करना चाहता था।' सेठजी ने इसका कारण पूछा तो उसने कहा, 'मैंने आप के पांच हजार रुपये चुरा कर सट्टे में लगाया और हार गया। मैंने सोचा कि आप मुझे गबन के आरोप में गिरफ्तार करा कर जेल भिजवा देंगे। इससे मेरी तथा मेरे परिवार की बड़ी बदनामी होगी, इसलिए बदनामी के डर से मैंने मर जाना ही ठीक समझा।' सेठजी ने कहा, 'तुम्हें सजा तो मिलनी ही चाहिए।' नंदलाल ने विनती की, 'ऐसा मत कीजिए सेठ जी।' कुछ देर तक सोचने के बाद सेठजी ने कहा, 'तुम्हारा अपराध माफ किया जा सकता है लेकिन मेरी एक शर्त है। तुम प्रण करो कि आज से कभी किसी प्रकार का जुआ नहीं खेलोगे, सट्टा नहीं लगाओगे।'
नंदलाल ने वचन दिया कि वह अब ऐसे काम नहीं करेगा। सेठ ने कहा, 'जाओ माफ किया। पांच हजार रुपये में मेरे नाम घरेलू खर्च में डाल देना।' मुनीम भौंचक रह गया। उसने सोचा था कि अब तो उसकी नौकरी चली जाएगी। उसने पूछा, 'क्या चोरी करने के बाद भी आप मुझे नौकरी पर रख लेंगे?' सेठजी ने कहा, 'तुमने चोरी तो की है लेकिन स्वभाव से तुम चोर नहीं हो। तुमने एक भूल की है, चोरी नहीं। जो आदमी अपनी एक भूल के लिए मरने तक की बात सोच ले, वह कभी चोर हो नहीं सकता।' उसके बाद नंदलाल ने कभी कोई गलत काम नहीं किया।