एक गुरु के अखाड़े में अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी जाती थी। वहां दूर-दूर से नौजवान आते थे। उन में से लक्ष्मण नाम का एक शिष्य गुरु का विशेष प्रिय था क्योंकि तलवारबाजी में वह सबसे होशियार और फुर्तीला था। शिक्षा समाप्त करने के बाद उसने तलवारबाजी में बहुत नाम और दाम कमाया लेकिन उसके मन में एक दुख था कि इतनी शोहरत के बाद भी लोग उसे गुरु के शिष्य के रूप में ही जानते थे। सारा यश उसे नहीं, गुरु को मिलता था। एक बार उसने सोचा कि यदि वह गुरु को पराजित कर दे तो लोग गुरु को भूल कर उसका नाम याद करने लगेंगे।
एक दिन उसने अखाड़े में जाकर गुरु से कहा, 'गुरुवर, मैंने कुछ ऐसी नई विद्याएं सीख ली हैं कि आप देखेंगे तो अचरज में पड़ जाएंगे। आप से द्वंद्व युद्घ करके मैं अपना कौशल आप को दिखाना चाहता हूं।' गुरु समझ गए कि शिष्य अहंकार में अंधा हो गया है। उन्होंने कहा, 'तुम चाहते हो तो ऐसा ही होगा। एक महीने बाद हम तुमसे द्वंद्व युद्घ करेंगे।' कुछ दिनों के बाद लक्ष्मण अखाड़े में आया। वहां उसे मालूम हुआ कि गुरु जी चार हाथ लंबी म्यान बनवा रहे हैं। यह सुन कर उसने आठ हाथ की लंबी तलवार बनवा ली। निश्चित समय पर गुरु चार हाथ लंबी म्यान लेकर और शिष्य आठ हाथ लंबी म्यान लेकर अखाड़े में आया।
द्वंद्व युद्घ का संकेत मिलते ही शिष्य ने जब अपनी लंबी म्यान से लंबी तलवार निकाल कर हमला किया, तो गुरु ने लंबी म्यान से छोटी तलवार निकाल कर फुर्ती से उसके गले पर लगा दी। गुरु की छोटी तलवार देख कर शिष्य भौंचक रह गया और घबराहट में गिर गया। वह अपने गुरु से पराजित हो चुका था। गुरु ने कहा, 'तुमने सुनी सुनाई बातों में आकर लंबी तलवार बनवा ली। तुम यह भूल गए कि छोटी तलवार से ही फुर्ती से हमला किया जा सकता है, लंबी तलवार से नहीं। अहंकार हमारे ज्ञान पर पानी फेर देता है।'
09 दिसंबर 2009
गुरु और शिष्य
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:30:00 am
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