02 फ़रवरी 2011

समय रहते संभल जाओ...

कहा जा रहा है कि हम जीवों की महाविलुप्ति के दौर से गुजर रहे है। वैज्ञानिकों का अनुमान है हर साल पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों और पौधों की कम से कम सौ प्रजातियाँ हमेशा के लिये हमसे बिछुड जाया करेंगी। साथ ही वे चेतावनी देते हैं कि जिन कारणों से तेजी से जीवों की विलुप्तियाँ हो रही हैं, वहीं कारण धीरे-धीरे पृथ्वी को मानव जाती के आवास लायक नहीं रहते देंगे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम आर्थिक विकास या अंधाधुंन प्रकृति का विनाश तथा पर्यावरण की रक्षा के बीच एक सही फैसला लेने में देर कर देते हैं, तो मानव जाती की इस नियत को शायद ताला नहीं जा सकेगा। संसार भर के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र के कई महारथी वैज्ञानिकों की इस चेतावनी को ख़ास महत्व नहीं देते हैं। कुछ का कहना है कि विश्व के भविष्य की यह भयावह तस्वीर सिर्फ आकड़ों और सिद्धांतों की उपज है, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। कई लोग यह तर्क देते हैं कि विलुप्ति से हमने घबराना नहीं चाहिए। जीवों की विलुप्ति तो प्रकृति के विकास का नियम है। मानव के धरती पर आने से पहले भी ढेर सारे जीवन ख़त्म हुए हैं। डायनासौर आखिर एक झटके में संसार भर से मिट गए थे। फिर भी धरती रही और जीवन फलता-फूलता रहा। यही सही है कि धरती पर जीवन के लगभग चार अरब सालों के इतिहास में कई बार जीवों का अस्तित्व के गंभीर संकट पैदा हुए हैं।

ऐसे ही एक संकट के दौरान डायनासौर ख़त्म हुए। पर उन प्राकृतिक विलुप्तियों और आज के पर्यावरण के संकट के बीच कई बुनियादी भिन्नताएं हैं। प्रकृति में जीवों का विकास तभी होता है जब विश्व में प्राकृतिक उथल-उथल या मौसम में भारी बदलाव के दौरान कुछ अयोग्य प्रजातियाँ नई परिस्थिति में ख़त्म हो जाती है। तब अन्य प्रजातियाँ उनके द्वारा खाली किये गए स्थान को भारती है। उल्का पिण्डो की चोट या मौसम में आए बदलाव के कारण डायनासौर जब ख़त्म हुए तो उनसे रिक्त हुए हर स्थान को स्तनपायी वर्ग के विभिन्न प्राणियों ने भर दिया। कहा जाता है कि सभी डायनासौर एकाएक ख़त्म हुए थे पर आज की विलुप्तियों के मुकाबले में देखा जाए तो उनका खात्मा एक लम्बे समय के दौरान हुआ. जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलता है कि डायनासौर की विलुप्ति की औसत डर एक हजार वर्ष में एक प्रजाति से अधिक नहीं रही। प्रकृति में नई प्रजातियों आ विकास काफी लम्बे समय में होता है। पिछले एक हजार वर्षों के दौरान जीवन की एक हजार से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हुई है। इस दौर की विलुप्तियों में ख़ास बात यह है कि इन सभी जीवों का खात्मा सिर्फ एक प्राणी, मानव की तथाकथित सफलता के एवज में हुआ।

हालांकि पिछले तीन सौ सालों के दौरान औजारों और टेक्नोलाँजी के अभूतपूर्व विकास के कारण इंसान ने धरती के लगभग हर हिस्से को अपनी आर्थिक गतिविधियों की चपेट में ले लिया है और इस दौरान पर्यावरण के विनाश और जीवों की विलुप्ति की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। पर हाल के अध्ययन बताते है कि प्रागैतिहासिक काल से ही जहाँ-तहाँ मानव के कदम पड़े वहां प्रकृति और प्रजातियों का विनाश शुरू हो गया। संसार भर में कही भी इतने कम समय में इतनी सारी प्रजातियाँ एक साथ ख़त्म नहीं हुई। हांलांकि इन विलुप्तियों में इंसान की भूमिका कितनी थी और मौसम के बदलाव की कितनी, यह स्पष्ट रूप से कहना सम्भव नहीं। पर जीवाश्मों के अध्ययन और हाल में खोजे गए पुरावशेषों से यही पता चलता है कि अमेरिकी उपमहाद्वीपों में जैसे-जैसे उतर से दक्षिण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उनका इलाकों में विलुप्ति की दर तेज होती गई। लगभग तीस-चालीस हजार साल पहले मानव तकनीकी रूप से इतना विकसित हो चुका था कि वह अफ्रीका और एशिया के कुछ चुने हुए क्षेत्रों से बाहर निकलकर दूर नए इलाकों में बसने लगा। दक्षिणी फ्रांस और स्पेन में मिले करो-मैगरण मानव द्वारा बनाए गए गुफा चित्रों से पता चलता है कि 25 हजार वर्ष पहले यूरोप में इन्सान और विशाल प्रागैतिहासिक बायसन, चीता, भालू, शुतुरमुर्ग, जेब्रा कई तरह के जंगली घोड़े, रोएंदार गैंडा और महादंत हाथी (मैमथ) सभी एक साथ रहते थे। आधुनिक मानव ने यूरोप में उन्हें कभी नहीं देखा। आज से लगभग 10-15 हजार वर्ष पहले हिम युग के खात्मे के साथ-साथ उनका भी खात्मा हो गया। अब तक मौसम का बदलाव ही उनकी विलुप्ति का कारण समझा जाता था। पर 25 लाख वर्ष के हिमयुग के दौरान धरती कम से कम बीस बार गर्म हुई। तब ये जीवन ख़त्म क्यों नहीं हुए। नवीन पुरातात्विक खोजें मौसम के बदलाव के साथ-साथ मानव की आर्थिक गतिविधियों को भी उन पशुओं की विलुप्ति के लिये जिम्मेदार ठहराती हैं।

आदमी के पहुँचने के पहले जब भी मौसम गर्म हुआ तब जीवन उत्तर में ठन्डे प्रदेशों की ओर चले गए। पर जब लोगों ने उन प्रदेशों तक अपना डेरा जमा लिया और वहां की प्रकृति को बदलना शुरू कर दिया, तब इन पशुओं को दक्षिण के सीमित इलाकों में हे रहकर मौसम की मार सहनी पडी। औजारों का विकास और जनसंख्या वृद्धि के कारण अब अधिक पशु शिकार में भी मारे जाने लगे और वे धीरे-धीरे ख़त्म हो गए। इसी तरह उत्तरी और दक्षिणी अमरीका में भी आदमी के पहुँचने के बाद ही जीवों की विलुप्ति का एक अभूतपूर्व  सिलसिला शुरू हो गया। हिमयुग के दौरान समुद्र का काफी सारा पानी बर्फ के रूप में जमे रहने के कारण समुद्र का तल आज से काफी नीचा था। उस समय अलास्का (उत्तरी अमेरिका) और साइबेरिया के बीच समुद्र नहीं था। दोनों क्षेत्र एक जमीनी पुल द्वारा जुड़े हुए थे। सुदूर पर्व के लोग सबसे पहले इसी पुल से होकर अमेरिया पहुंचे, जो बाद में इन्डियन कहलाए। पक्षियों के मामलों में उस समय के अमेरिका की तुलना मध्य अफ्रीका के जंगल और सवाना से की जा सकते है। चीता, शेर, बड़े-बड़े रीच, जेब्रा, याक, तापिर, लम्बे दाँतों वाला बाघ, तरह-तरह के छोटे-बड़े हाथी, ऊँट और जंगली घोड़ा ये सभे पिछले 10-15 हजार साल पहले अमेरिका में तब पशुओं के कुल 33 वंश और दक्षिणी अमेरिका में 46 वंश विलुप्त हो गए संसार भर में कहीं भी इतने कम समय में इतनी सारी प्रजातियाँ एक साथ ख़त्म नहीं हुई।

हांलाकि इन विलुप्तियों में इन्सान की भूमिका कितनी थी और मौसम के बदलाव की कितनी, यह स्पष्ट रूप से कहना सम्भव नहीं। पर जीवाश्मों के अध्ययन और हाल में खोजे गए पुरावशेषों से यही पता चलता है कि अमेरिकी उपमहाद्वीपों में जैसे-जिससे इंसान उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उन इलाकों में विलुप्ति की दर तेज होती गई। ये तो रही विशेषज्ञों की बात। समुद्र के बीच में अलग-अलग द्वीपों के मानव द्वारा पशु-पक्षियों की विलुप्ति की कहानी और भी रोंगटे खडेकर देने वाली है। प्रशांत महासागर तथा समुद्रों के बीच ऐसी अनेक छोटे-छोटे द्वीप है जिनका निर्माण ज्वालामुखियों के फटने से हुआ और जो कभी भी किसी महाद्वीप का हिसा नहीं थे। इन द्वीपों में प्रकृति का ताना-बाना बहुत ही उपजाऊ है। जिसमें थोड़ा भी उलटफेर विनाश का कारण बन सकता है। साथ ही हरेक द्वीप की इकाँलाँजी अपने आप में अनूठी है। इन द्वीपों पर जीव तैरकर, उड़कर या समुद्र में तैरते मलबे के साथ बहकर वहां पहुंचे। इसलिए इन द्वीपों पर बड़े चौपाए लगभग नहीं मिलते और पक्षी तथा सरीसर्प अधिक संख्या में पाए जाते है। द्वीपों पर पहुँचने के बाद उन जीवन में भिन्नताएं विकसित हुई और वहां के विशिष्ट वातावरण पर वे निर्भर होते हुए चले गए। स्तनधारियों के आभाव में सरीसर्पों ने उनकी खाली जगह को भरते हुए विशाल आकार धारण कर लिया। जैसे गैलापेगोस का विशाल कछुआ और इंडोनेशिया के कोमोडो द्वीप का ड्रैगन। इसी तरह मांरिशस के डोडो के समान केई पक्षियों ने उड़ना छोड़ दिया।

इन द्वीपों पर मनुष्य का सबसे ज्यादा कुप्रभाव पक्षियों पर ही पडा। हालांकि पक्षियों की हड्डियां नरम होने के कारण उनके अवशेष बहुत कम बचे रह जाते है, फिर  भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि पिछले 1000 वर्षों के दौरान प्रशांत महासागर के द्वीपों में पक्षियों की कम से कम 2000 प्रजातियों मनुष्य द्वारा ख़त्म कर दी गई। आज संसार भर में पक्षियों की करीब 10,000 प्रजातियाँ बची हुई है। जो वणों के विकास और प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिस गति से उनका और उनके पर्यावरण का विनाश होता रहा है उसे देखते हुए या कहना मुश्किल है कि अगली सदी के मध्य तक दुनिया भर में कितने पक्षी बच पायेंगे। इस आशंका को गंभीरता से न लेने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्नीसवीं सड़ी की शुरूआत में उत्तरी अमेरिका में अरबों की संख्या में पाए जाने वाले पक्षी सफारी कपोत (पैसेंजर पिजन) का इंसान ने पूरी तरह से सफाया कर दिया था। इसी  प्रकार से संसार में सबसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले चौपाए अमेरिकी बायसन को कुछ ही वर्षों के अंदर ख़त्म कर दिया गया। समुद्री द्वीपों में पहु-पक्षियों की विलुप्ति में शिकार और जंगल में आग लगाकर खेती के अलावा मनुष्य द्वारा मुख्य भूमिका से वहां लाए कुत्ते, बिल्ली, चूहा, सूअर, खरगोश और नेवला जैसे पशुओं ने भी अपनी भूमिका निभाई।

आदिम पाँलिनेशियाई लोगों द्वारा आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड हवाई और अन्य द्वीपों पर लाये गए इन पशुओं के स्थानीय पर्यावरण पर पड़े भयावह परिणामों को जानने के बाद भी आधुनिक काल तक यह सिलसिला जारी रहा। आस्ट्रेलिया में बाहर से लाए गए डिंगो कुत्तों ने वहां के कई अद्भुत मासुपियल्स को ख़त्म कर दिया। क्यूवा और हैती द्वीपों में मनुष्य के साथ सबसे पहले पहुंचा चूहा। इन चूहों ने पक्षियों के अण्डों और चूजों पर दांत साफ़ किये। जब चूहों का प्रकोप बहुत बढ़ गया तो उनका दमन करने के लिये नेवलों को लाया गया। पर नेवले उनकी तरफ ध्यान न देकर कई स्थानीय पशु-पक्षियों को चोट करने में जुट गए। निश्चित तौर पर मनुष्य का अपने जन्मकाल से प्रकृति के साथ अंतर्विरोध रहा है। दरअसल मानव दूसरे जीवों से इसी मामले में अलग है कि वह अन्य पशुओं की तरह सिर्फ प्रकृति के अनुरूप अपने को नहीं ढालता है। खुद की जरूरत के मुताबिक़ वह प्रकृति को बदलता है उसमें तोड़-मरोड़ करता है। हाल के दिनों में विकास के साथ-साथ यह प्रकृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी है। पर मुसीबत यह है कि जिस प्रकृति से लड़कर और उसे वश में करके हम पशु से इंसान बने और आज सर्वशक्तिमान होने का दावा कर रहे हैं, उसी प्रकृति का हम एक अभिन्न हिस्सा भी है। बर्बाद करके मानव खुद ज़िंदा नहीं रह सकता है. एक और मामले में हम पशुओं से भिन्न है कि अपनी प्रवृत्ति के खिलाफ भी मानव सचेतन प्रयास कर सकता है। शायद प्रकृति के साथ हमारे अन्याय का घडा अभी पूरी तरह से भरा नहीं है. अगर पक्का इरादा हो तो उसे फूटने से अभी भी हम बचा सकते हैं।

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