15 मई 2011

आदर्श मानवता के प्रति समर्पित संत कबीर

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥

आज से ६०० साल पहले (सन्‌ १३९८) ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा के दिन ब्रह्‌म मुहूर्त में मानवता के मसीहा संत सम्राट सदगुरु कबीर साहिब का अवतरण काशी में लहरतारा नामक स्थान में हुआ था। उनके जन्म के विषय में अलग-अलग धारणाएं हैं, लेकिन इन विभिन्न धारणाओं के पीछे न पड़ते हुए उनके द्वारा स्थापित मानवीय आदर्शों की बात करना ही उचित हो।

भारत एक बहुलवादी देश है। सदियों से यहां अनेक धार्मिक संप्रदायों का सह-अस्तित्व रहा है। यहां विभिन्न धर्मावलंबी एक-दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखते हुए उन्हें सम्मान देते आए हैं। अपवाद हो सकते हैं, किंतु सामान्य रूप से 'अनेकता में एकता' की भावना भारत में सदैव कायम रही है।

भारत में धर्मों के सह-अस्तित्व का मुख्य कारण सामान्य जन में यह सहचेतना है कि विभिन्न धर्म एक ही परमपिता तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन हैं। धर्म-पंथ भले ही अनेक हों, किंतु सभी का लक्ष्य एक है। अनेकता में एकता की समन्वयकारी दृष्टि का सभी धर्मों के संत-महात्माओं ने उपदेश दिए हैं। मुहम्मद, ईसा, नानक, बुद्ध, महावीर, कबीर से लेकर आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ और महात्मा गांधी तक सभी इस विषय में एकमत हैं कि धार्मिक संप्रदाय अनेक हो सकते हैं, किंतु धर्म एक ही है।

कबीर दास जी मूलतः संत थे। कविता तो उनकी वाणी ही थी। इसलिए उन्हें संत कवि भी कहते हैं। निर्गुण भक्ति शाखा के प्रखर व महान संत कबीरदास जी आज के जनमानस को सूफी मत के रहस्यवाद के बहुत निकट हैं, इसलिए विशेषकर भारतीय संत समाज, चाहे वह मुसलिम हो, सिख हो, हिंदू हो या अन्य, सब के सब समान रूप से प्रभावित होकर उनके आदर्श वचनामृत का रसपान करते हैं। कबीर का नाम कबीर दास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में प्रसिद्ध है। यह मध्यकालीन भारत के महापुरुष थे और इनका परिचय, प्रायः इनके जीवनकाल से ही, सफल साधक, भक्त कवि, मत-प्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है। संत कबीरदास के नाम पर कबीर पंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी लोग इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत सी चमत्कारपूर्ण कथाएं भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवन वृत्त आज तक नहीं मिल सका है, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कुछ फुटकल स्थानों के अंतः साक्ष्य का ही सहारा लिया जाता रहा है।

कबीर की सामाजिक चेतना : संतों की आध्यात्मिक परंपरा में सामाजिक चेतना का एक विशेष स्थान होता है। इसलिए कबीर की सामाजिक चेतना का पुट बड़े विस्तार से दिखाई पड़ता है। समाज से नितांत निरपेक्ष भाव की कल्पना संत साहित्य में नहीं है। रुढ़िवादिता जन्य सामाजिक विकारों का निदान कर समाज के नवीन स्वरूप के निर्माण का विधान संतों ने निरंतर किया है, उन संतों में से संत कबीर का स्थान प्रमुख है। उनकी साधना विकास की भूमिका अवश्य है, किंतु उसका सामाजिक मूल्य भी है। इस सामाजिक चेतना स्वर में संत कबीर की वाणी उनकी आत्म संस्करण की धारणा एक मूल्यवान स्वरूप ग्रहण करती है। इसलिए समाज के लिए कबीर की वाणी एक आदर्श शिक्षक के समान है।

दार्शनिक विखंडताओं, सामाजिक वर्गगत जटिलताओं, रूढ़ियों तथा धार्मिक बाह्‌याचारों से त्रस्त जन-साधारण के लिए कबीर ने एक ऐसे वर्गहीन समाज की व्यवस्था का प्रयास किया है जिसमें जीवन की सरलता और सौंदर्य की सहज परख होती है। संत कबीर के दर्शन में समाज का खंडन नहीं बल्कि मंडन है। उन्होंने जीवन में जो कुछ सीखा समाज से सीखा और जो सिखाया वह समाज को सिखाया। कबीर ने समाज का बृहद्‌ स्वरूप प्रस्तुत किया है। संत समाज ही उनकी दृष्टि में आदर्श समाज है क्योंकि संत का संतत्व उसके जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही पक्षों पर निर्भर करता है। संत जीवन की पहली कसौटी उसका लौकिक व्यवहार और स्वयं सिद्धत्व का गुण है। संत अपनी सदाचारी वृत्तियों से असंत को भी संत बना देता है। इसलिए संतों की महिमा का गुणगान कबीर ने मुक्त कंठ से किया है। (कबीर ग्रंथावली पेज ३८, ३९ साखी २ व ४)

संत और वैष्णव की कबीर दास ने सदा ही प्रशंसा की है। वैष्णव और संत दोनों ही सदाचारी हैं। सदाचार ही भक्ति की भूमिका है और भक्ति सदाचार को रंजक बनाती है। संत कबीर एक ऐसे समाज में विश्वास रखते हैं, जहां धर्मगत, संस्कारगत, व्यवसायगत और अर्थगत किसी प्रकार का विषम भाव नहीं। वे भेदभावना से ऊपर उठकर सबको समत्व की दृष्टि से देखते हैं। वे तो व्यक्ति की अंतर्निहित एकता में विश्वास रखते हैं। कबीर के उस वर्गहीन समाज में ब्राह्‌मण और शूद्र, हिंदू और मुसलमान में कोई जातिगत व धर्मगत भेद नहीं। जाति, धर्म, वर्गगत भेदभावना अनुदार और मानवता विरोधी है, छुआछूत एक भ्रम है। सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए संत कबीर ने छद्‌मवेश और पाखंडों की निंदा की, मिथ्याचारों पर अदम्य प्रहार किया, कुप्रथाओं की भर्त्सना की, निर्धन के शोषण से उपार्जित धन के बल पर विलासमय जीवन व्यतीत करने वाले पूंजीपतियों के आगे कनक और कामिनी की असारता सिद्ध की। समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को मिटाने के लिए उन्होंने संचय की मनोवृत्ति पर कुठाराघात करते हुए कहा है कि लक्षाधीश को भी अंत समय खाली हाथ जाते देखा है। संचय की यह प्रवृत्ति चिंता का कारण है और समाज में अशांति एवं विषमता फैलाती है।

संत कबीर ने सत्य, क्षमा, दया, त्याग, विश्वबंधुत्व, विनय, समता, समदृष्टि, करनी और कथनी में एकता, संतोष, दीनता आदि के द्वारा समाज को उन्नत बनाने का प्रयत्न किया। सत्य आचरण, मानव प्रेम को प्रोत्साहित करता है, क्षमा व्यक्ति को उदार और महान बनाती है, दया धर्म का मूल है, त्याग संतोष का जनक है, विश्वबंधुत्व से भेदभावना मिटती है। संत कबीर कहते हैं कि विनय से अहंकार मिटता है और समता से विषमता का नाश होता है, कथनी और करनी की एकता से जीवन संतुलित होता है, संतोष से शांति मिलती है और दीनता से मन विकारहीन होता है।

लोक धर्म : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की लोक धार्मिता का अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक संधान करते हुए संतों को लोक धर्म का बड़ा समर्थक माना है। वास्तविकता यह है कि कबीर आजन्म अपने व्यवसाय से इतने अधिक जुड़े रहे कि उनको भिक्षावृत्ति और परमुखोपजीविता से घोर घृणा होने लगी। 'आवाध राम सबै करम करिहूं' कहने वाला कबीर सामाजिक आबद्धता अथवा लोक आबद्धता को स्वीकार न करता हो, यह बात कुछ समझ में नहीं आती।

कबीर की धर्म-विषयक धारणा संकीर्णता से अछूती, व्यापक और उदार है। उनका सहज लोकधर्म स्वानुभूति पर आधारित है। भ्रम में भटकते हुए समाज को अंधविश्वासों, पाखंडों, रूढ़ियों, कोरे दार्शनिकवाद-विवादों की व्यर्थता सिद्ध करके कबीर एक ऐसे सहज धर्म को अपनाने का उपदेश देते हैं, जिसका आधार आंतरिक शुचिता, विचारों की पवित्रता, आचरण की सात्विकता है जिसमें दया, प्रेम, सेवाभाव, अहिंसा, सत्य और औदार्य गुण विमान है।

कबीर का मूलमंत्र 'मानवतावाद' है। उन्होंने जीवन पर्यंत अपनी विचारधारा को मानवतावादी दृष्टि से समलंकृत करने का प्रयास किया। उनका यह मानवतावाद मनुष्य जाति तक सीमित न रहकर पशु-पक्षी, जीव-जंतु तथा वनस्पति जगत तक प्रसारित है। युग-प्रवर्तक रामानंद से प्रेरित एवं अनुप्राणित होकर संत कबीर ने जाति-पांति की भेद भावना से ऊपर उठ 'हरि को भजै सो हरि का होई' का उद्‌घोष कर समस्त मानव जाति को समता के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। इसी मानवीय एकता के प्रतिष्ठापन के लिए उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में एक ऐसे निर्गुण ब्रह्‌म की स्थापना की जो सभी वर्ग और जाति को स्वीकार हो। उनका वह ब्रह्‌म सभी का सृजनहार है। वह सभी में और सब उसी में वास करते हैं। जब 'हरि में ही पिंड और पिंड में हरि' विमान है तो मानव मानव में ऊंच-नीच की भेद भावना को स्थान कहां?