प्रख्यात संत, जगतगुरु मलूकदास महाराज का भक्तिकालीन निर्गुणवादी भक्त कवियों में प्रमुख स्थान है। वे रामानंदी संप्रदाय के ख्ख् वें आचार्य थे। उनमें जन्मसिद्ध चकत्कारिता व विलक्षण साधुता थी। उनके अंदर विश्व कल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने अपनी काव्य रचनाओं के द्वारा देशभर में सत्यम, शिवम, सुंदरम की अलग जगाई।
आजीवन संपूर्ण सृष्टि को भगवत स्वरूप मानकर संत प्रवर उसकी तन-मन से सेवा में वे जुटे रहे।
संत प्रवर मलूकदास जी महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले केग्राम कड़ा माणिकपुर में संवत क्म्फ्क् की वैशाख कृष्ण पंचमी (गुरुवार) को हुआ था। उन्होंने जो भी शिक्षा प्राप्त की, वह स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण के द्वारा प्राप्त की। उनमें बाल्यावस्था में ही कविता लिखने का गुण विकसित हो चुका था।
महाराजश्री को उनके पिता ने जीविकोपार्जन हेतु कंबल के व्यवसाय में लगाया, परंतु उसमें उनका मन नहीं रमा। वह संतों और निर्धनों को कंबल मुफ्त में ही दे दिया करते थे। उनके पास जो भी याचक आता था, उसे वे निराश वापस नहीं करते थे। वह अभ्यागतों की यथाशक्ति अन्न-वस्त्र से सेवा किया करते थे। वे जब संतों की सेवा करते थे, तो उनके प्रताप से पहले से ही मौजूद वस्तुएं शतगुणित हो जाती थीं। वह एक टिक्कर में से ही लाखों व्यक्तियों को प्रसाद दे दिया करते थे। उनके भंडार में कभी भी किसी चीज की कमी नहीं होती थी। उन्होंने अनगिनत निर्धन कन्याओं के हाथ पीले करवाए। अनेक विधवाओं का पालन-पोषण किया। गांव में जब प्लेग फैला, तो प्लेग पीड़ितों की अहर्निश सेवा की। वह अपने आश्रम में कोढ़ी व्यक्तियों को भी प्रश्रय देकर उनके घावों की मरहम-पट्टी कर दिया करते थे। उन्होंने व्यापक जनहित में निजी खर्च से सड़कों का निर्माण कार्य तक कराया। वस्तुतः वह निष्काम भाव से परमार्थ में लगे रहे।
बाबा मलूकदास मूर्ति पूजा और आडंबरों के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि दूसरे व्यक्तियों की पीड़ा को जानना और उसे दूर करना ही सच्ची सेवा, सच्चा धर्म है। यही सच्चे संत व पीर की पहचान है। वह मोक्ष प्राप्ति का साधन भी दया भाव को ही मानते थे। वह कहा करते थे कि सेवा भाव के द्वारा नर और नारायण दोनों ही प्राप्त हो जाते हैं।
महाराजश्री कर्मयोगी संत थे। वह जाति-पांति के घोर विरोधी थे। उनकी वाणी अत्यंत सिद्ध थी। वे त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने समूचे देश में भ्रमण करते हुए वैष्णवता और रसोपासना का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दू व मुसलिम दोनों ही उनके शिष्य थे। आचार्य मलूकदास के पास सत्संग हेतु लोगों का तांता लगा रहता था। संत तुलसीदास तक ने कई दिनों तक उनका आतिथ्य स्वीकार किया था। मुगल शासक औरंगजेब भी उनके सत्संग से अत्यंत प्रभावित था। उसने उनके आदेश पर गैर-मुसलिमों पर स्वयं लगा निर्धारित जाजिया कर वापस ले लिया था। किंवदंती है कि भगवान राम ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे।
संत शिरोमणि मलूकदास महाराज अपनी इच्छा से संवत क्स्त्रफ्ऽ में अपने जन्म के ही माह, तिथि, समय व वार को क्०त्त् वर्ष की आयु में भगवत धाम को गमन कर गए। बताया जाता है कि मलूकदास महाराज का पंच भौतिक शरीर उनके देहत्याग के उपरांत जगन्नाथपुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के समक्ष सच्चिदानंद स्वरूप में प्रकट हो गया था और उन्होंने उनसे उनकी सन्निधि में रहने की इच्छा प्रकट की थी। इस प्रार्थना को जगन्नाथ प्रभु ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। तब से आजतक जगन्नाथ प्रभु के गर्भ गृह केपनाले के पास मलूकदास महाराज का स्थान विमान है और उनके नाम का रोट अभी भी वहां आनेवाले भक्तों को प्रसादस्वरूप दिया जाता है। वृंदावन में वंशीवट क्षेत्र स्थित मलूक पीठ में संत प्रवर मलूकदास जी महाराज की जाग्रत समाधि है।
आजीवन संपूर्ण सृष्टि को भगवत स्वरूप मानकर संत प्रवर उसकी तन-मन से सेवा में वे जुटे रहे।
संत प्रवर मलूकदास जी महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले केग्राम कड़ा माणिकपुर में संवत क्म्फ्क् की वैशाख कृष्ण पंचमी (गुरुवार) को हुआ था। उन्होंने जो भी शिक्षा प्राप्त की, वह स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण के द्वारा प्राप्त की। उनमें बाल्यावस्था में ही कविता लिखने का गुण विकसित हो चुका था।
महाराजश्री को उनके पिता ने जीविकोपार्जन हेतु कंबल के व्यवसाय में लगाया, परंतु उसमें उनका मन नहीं रमा। वह संतों और निर्धनों को कंबल मुफ्त में ही दे दिया करते थे। उनके पास जो भी याचक आता था, उसे वे निराश वापस नहीं करते थे। वह अभ्यागतों की यथाशक्ति अन्न-वस्त्र से सेवा किया करते थे। वे जब संतों की सेवा करते थे, तो उनके प्रताप से पहले से ही मौजूद वस्तुएं शतगुणित हो जाती थीं। वह एक टिक्कर में से ही लाखों व्यक्तियों को प्रसाद दे दिया करते थे। उनके भंडार में कभी भी किसी चीज की कमी नहीं होती थी। उन्होंने अनगिनत निर्धन कन्याओं के हाथ पीले करवाए। अनेक विधवाओं का पालन-पोषण किया। गांव में जब प्लेग फैला, तो प्लेग पीड़ितों की अहर्निश सेवा की। वह अपने आश्रम में कोढ़ी व्यक्तियों को भी प्रश्रय देकर उनके घावों की मरहम-पट्टी कर दिया करते थे। उन्होंने व्यापक जनहित में निजी खर्च से सड़कों का निर्माण कार्य तक कराया। वस्तुतः वह निष्काम भाव से परमार्थ में लगे रहे।
बाबा मलूकदास मूर्ति पूजा और आडंबरों के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि दूसरे व्यक्तियों की पीड़ा को जानना और उसे दूर करना ही सच्ची सेवा, सच्चा धर्म है। यही सच्चे संत व पीर की पहचान है। वह मोक्ष प्राप्ति का साधन भी दया भाव को ही मानते थे। वह कहा करते थे कि सेवा भाव के द्वारा नर और नारायण दोनों ही प्राप्त हो जाते हैं।
महाराजश्री कर्मयोगी संत थे। वह जाति-पांति के घोर विरोधी थे। उनकी वाणी अत्यंत सिद्ध थी। वे त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने समूचे देश में भ्रमण करते हुए वैष्णवता और रसोपासना का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दू व मुसलिम दोनों ही उनके शिष्य थे। आचार्य मलूकदास के पास सत्संग हेतु लोगों का तांता लगा रहता था। संत तुलसीदास तक ने कई दिनों तक उनका आतिथ्य स्वीकार किया था। मुगल शासक औरंगजेब भी उनके सत्संग से अत्यंत प्रभावित था। उसने उनके आदेश पर गैर-मुसलिमों पर स्वयं लगा निर्धारित जाजिया कर वापस ले लिया था। किंवदंती है कि भगवान राम ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे।
संत शिरोमणि मलूकदास महाराज अपनी इच्छा से संवत क्स्त्रफ्ऽ में अपने जन्म के ही माह, तिथि, समय व वार को क्०त्त् वर्ष की आयु में भगवत धाम को गमन कर गए। बताया जाता है कि मलूकदास महाराज का पंच भौतिक शरीर उनके देहत्याग के उपरांत जगन्नाथपुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के समक्ष सच्चिदानंद स्वरूप में प्रकट हो गया था और उन्होंने उनसे उनकी सन्निधि में रहने की इच्छा प्रकट की थी। इस प्रार्थना को जगन्नाथ प्रभु ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। तब से आजतक जगन्नाथ प्रभु के गर्भ गृह केपनाले के पास मलूकदास महाराज का स्थान विमान है और उनके नाम का रोट अभी भी वहां आनेवाले भक्तों को प्रसादस्वरूप दिया जाता है। वृंदावन में वंशीवट क्षेत्र स्थित मलूक पीठ में संत प्रवर मलूकदास जी महाराज की जाग्रत समाधि है।
गुरुदेव ! यूनिकोड में लिखें।
जवाब देंहटाएंकौन सा फाण्ट है यह? इसे यूनिकोड में बदलने के बाद ब्लॉगस्पॉट के टेक्स्ट बक्से में डालिये और उसके बाद पब्लिश कीजिये।
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