भारत ऋषि-मुनियों, ज्ञानी-ध्यानियों तथा विरक्त संत महात्माओं के कारण ही संसार भर में जगद्गुरु के रूप में विख्यात रहा है। शंकराचार्यजी द्वारा स्थापित चार पीठों गोवर्धनमठ (पुरी), ज्योर्तिमठ (बद्रीकाश्रम), श्रंगेरी मठ तथा शारदा पीठ (द्वारिका) में त्यागी, तपस्वी तथा विद्वान आचार्यों की गौरवपूर्ण परंपरा रही है।
इन्हीं आचार्यों में ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती का अग्रणी स्थान रहा है।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी उन शंकराचार्यों में हैं, जिनसे दीक्षा ग्रहण कर स्वामी करपात्री जी महाराज, स्वामी अखंडानंद सरस्वती, शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती, स्वामी परमानंद सरस्वती जैसी विभूतियां अपने को गौरवान्वित अनुभव करती थीं। संसार में योग का परचम फैलाने वाले महर्षि महेश योगी भी स्वामी ब्रह्मानंद जी महाराज के ही शिष्य थे।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती का जन्म अयोध्या नगरी के ग्राम गाना में मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, २१ दिसम्बर सन् १८९० को एक विद्वान मिश्र ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आठ वर्ष की अवस्था में ही यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न होते ही बालक ब्रह्मानंद को काशी भेजकर संस्कृत विघालय में प्रवेश दिला दिया गया। संस्कृत और हिंदी का अध्ययन करते समय मन में सांसरिक मोहजाल में न फंसकर सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के पुनीत कार्य में समर्पित होने का संकल्प ले लिया। इसके लिये साधना और तपस्या को आवश्यक मानकर वे हिमालय जा पहुंचे।
ब्रह्मानंद के परिवार वालों को जब पता चला कि वह काशी में विालय छोड़कर हिमालय की ओर चले गए हैं तो उनकी खोज की गई। एक बार तो उन्हें पकड़कर गांव ले जाया गया। किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया-'मैं सांसारिक प्रपंचों में न पड़कर तत्व ज्ञान पाने का संकल्प ले चुका हूं।' माता स्वयं धर्म शास्त्रों की ज्ञाता थी। उन्होंने ब्रह्मानंद को विदा करते हुए कहा-'जाओ, साधना करो तत्व ज्ञान अर्जित करो भगवान का भजन करो किंतु दर-दर भिक्षा मांग कर पेट भरने वाले साधु न बन जाना।'
वे पुनः हिमालय की ओर चल पड़े श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य जी के दीक्षित शिष्य दंडी स्वामी कृष्णानंद सरस्वती उन दिनों उत्तरकाशी में साधनारत थे। उन्होंने इन्हें अनेक शास्त्रों का अध्ययन कराया। योगाभ्यास के साथ-साथ भगवद्भक्ति और साधना का मार्ग दिखाया। २५ वर्ष की आयु में उत्तरकाशी से ऋषिकेश पहुंचे। स्वामी कृष्णानंदजी से उनका ब्रह्म चैतन्य ब्रह्मचारी नामकरण कर दीक्षा दी। प्रयाग में कुंभ पर्व पर स्वामी कृष्णानंद ने ३६ वर्ष की आयु में उन्हें संन्यास की दीक्षा देकर स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती नामकरण किया।
उनके विरक्त जीवन, तेजस्वी व्यक्तित्व तथा प्रभावशाली प्रवचनों ने कुछ ही समय में उन्हें देश व्यापी ख्याति दिला दी। काशी, हरिद्वार, प्रयाग, पुरी व रामेश्र्वरम् आदि स्थानों की यात्रा कर जब वे उपस्थित जनसमूह को सनातन धर्म के सिद्धांतों से अवगत कराते तो श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो उठते।
शंकराचार्य द्वारा स्थापित ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ पर १६५ वर्षों से कोई शंकराचार्य पद पर आरूढ़ नहीं थे। पर तीनों पीठ के शंकराचार्यों के विचार-विमर्श के बाद १ अप्रैेल १९४१ को उनका अभिषेक कर वहां के शंकराचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने जोशी मठ में ज्योतिर्मठ आश्रम की स्थापना कराई। सन् १९५३ में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रयाग पहुंचकर शंकराचार्यजी से आर्शीवाद लिया तथा धर्म प्रचार की योजना के प्रति सहमति व्यक्त की। राष्ट्रपति ने कहा था-श्री शंकराचार्य भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की त्रिवेणी हैं।
शंकराचार्य जी ने कलकत्ता में आयोजित एक महायज्ञ समारोह में प्रवचन में संस्कारों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था-संस्कार ही कर्म का बीज है और वही सृष्टि का कारण है। जीव संस्कारों से दीक्षित होकर ही मानव जीवन को सफल बना सकता है। यदि कोई देश अपने देश के आध्यात्म विचारों तथा संस्कारों को त्याग देता है तो वह निष्प्राण हो जाता है। शंकराचार्यजी वेदों की सभी शाखाओं के पठन-पाठन संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार तथा धर्म और संस्कृति के संवर्धन के लिए पूरी कर्मठता से सक्रिय रहे।
२० मई १९५३ को उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उनके द्वारा लिखित अनेक ग्रंथ आज भी धर्म और संस्कृति की अजस्र प्रेरणा देने में सक्षम हैं।
इन्हीं आचार्यों में ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती का अग्रणी स्थान रहा है।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी उन शंकराचार्यों में हैं, जिनसे दीक्षा ग्रहण कर स्वामी करपात्री जी महाराज, स्वामी अखंडानंद सरस्वती, शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती, स्वामी परमानंद सरस्वती जैसी विभूतियां अपने को गौरवान्वित अनुभव करती थीं। संसार में योग का परचम फैलाने वाले महर्षि महेश योगी भी स्वामी ब्रह्मानंद जी महाराज के ही शिष्य थे।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती का जन्म अयोध्या नगरी के ग्राम गाना में मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, २१ दिसम्बर सन् १८९० को एक विद्वान मिश्र ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आठ वर्ष की अवस्था में ही यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न होते ही बालक ब्रह्मानंद को काशी भेजकर संस्कृत विघालय में प्रवेश दिला दिया गया। संस्कृत और हिंदी का अध्ययन करते समय मन में सांसरिक मोहजाल में न फंसकर सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के पुनीत कार्य में समर्पित होने का संकल्प ले लिया। इसके लिये साधना और तपस्या को आवश्यक मानकर वे हिमालय जा पहुंचे।
ब्रह्मानंद के परिवार वालों को जब पता चला कि वह काशी में विालय छोड़कर हिमालय की ओर चले गए हैं तो उनकी खोज की गई। एक बार तो उन्हें पकड़कर गांव ले जाया गया। किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया-'मैं सांसारिक प्रपंचों में न पड़कर तत्व ज्ञान पाने का संकल्प ले चुका हूं।' माता स्वयं धर्म शास्त्रों की ज्ञाता थी। उन्होंने ब्रह्मानंद को विदा करते हुए कहा-'जाओ, साधना करो तत्व ज्ञान अर्जित करो भगवान का भजन करो किंतु दर-दर भिक्षा मांग कर पेट भरने वाले साधु न बन जाना।'
वे पुनः हिमालय की ओर चल पड़े श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य जी के दीक्षित शिष्य दंडी स्वामी कृष्णानंद सरस्वती उन दिनों उत्तरकाशी में साधनारत थे। उन्होंने इन्हें अनेक शास्त्रों का अध्ययन कराया। योगाभ्यास के साथ-साथ भगवद्भक्ति और साधना का मार्ग दिखाया। २५ वर्ष की आयु में उत्तरकाशी से ऋषिकेश पहुंचे। स्वामी कृष्णानंदजी से उनका ब्रह्म चैतन्य ब्रह्मचारी नामकरण कर दीक्षा दी। प्रयाग में कुंभ पर्व पर स्वामी कृष्णानंद ने ३६ वर्ष की आयु में उन्हें संन्यास की दीक्षा देकर स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती नामकरण किया।
उनके विरक्त जीवन, तेजस्वी व्यक्तित्व तथा प्रभावशाली प्रवचनों ने कुछ ही समय में उन्हें देश व्यापी ख्याति दिला दी। काशी, हरिद्वार, प्रयाग, पुरी व रामेश्र्वरम् आदि स्थानों की यात्रा कर जब वे उपस्थित जनसमूह को सनातन धर्म के सिद्धांतों से अवगत कराते तो श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो उठते।
शंकराचार्य द्वारा स्थापित ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ पर १६५ वर्षों से कोई शंकराचार्य पद पर आरूढ़ नहीं थे। पर तीनों पीठ के शंकराचार्यों के विचार-विमर्श के बाद १ अप्रैेल १९४१ को उनका अभिषेक कर वहां के शंकराचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने जोशी मठ में ज्योतिर्मठ आश्रम की स्थापना कराई। सन् १९५३ में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रयाग पहुंचकर शंकराचार्यजी से आर्शीवाद लिया तथा धर्म प्रचार की योजना के प्रति सहमति व्यक्त की। राष्ट्रपति ने कहा था-श्री शंकराचार्य भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की त्रिवेणी हैं।
शंकराचार्य जी ने कलकत्ता में आयोजित एक महायज्ञ समारोह में प्रवचन में संस्कारों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था-संस्कार ही कर्म का बीज है और वही सृष्टि का कारण है। जीव संस्कारों से दीक्षित होकर ही मानव जीवन को सफल बना सकता है। यदि कोई देश अपने देश के आध्यात्म विचारों तथा संस्कारों को त्याग देता है तो वह निष्प्राण हो जाता है। शंकराचार्यजी वेदों की सभी शाखाओं के पठन-पाठन संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार तथा धर्म और संस्कृति के संवर्धन के लिए पूरी कर्मठता से सक्रिय रहे।
२० मई १९५३ को उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उनके द्वारा लिखित अनेक ग्रंथ आज भी धर्म और संस्कृति की अजस्र प्रेरणा देने में सक्षम हैं।
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