15 मई 2011

मानवता के लिए शहीद हुए थे पांचवे पातशाह

सखत्व अथवा सिक्खी में श्री गुरु ग्रंथ साहिब, स्वर्ण मंदिर और हरमंदिर साहिब का आधार-महत्व जगजाहिर है। सिख पंथ का समूचा अक्स ही इनके बगैर अधूरा है। बल्कि ये तो सिक्खी की शिनाख्त हैं। और, यह महान व पवित्र देन बख्शी थी पंथ के पांचवें पातशाह साहिब गुरु श्री अर्जुन देव जी ने। उन्हीं की शहादत ने सिखों को बलिदानी कौम का रुतबा दिलाया था और शीश तली पर रखकर हक-सच के पक्ष में आवाज बुलंद करने की सूरमाई रिवायत भी पांचवें पातशाह की दी हुई सौगात है।

उनसे आरंभ हुआ कुर्बानियों का महान सिलसिला दूर तक गया...।

गुरु नानक देव, गुरु अगंद देव, गुरु अमरदास और गुरु रामदास के बाद पंथ की रहनुमाई करने वाले गुरु अर्जुन देव का जन्म १५ अप्रैल १५६३ को गोइंदवाल में हुआ था। गुरु की नगरी अमृतसर के जन्मदाता, चौथे पातशाह गुरु रामदास उनके पिता और मां भानी जी माता थीं। धार्मिक-ऐतिहासिक वृतांत-प्रसंगों के मुताबिक गुरु अर्जुन देव सब भाइयों से छोटे थे लेकिन सद्‌गुणों में सर्वोपरि थे। इसी वजह से गुरु रामदास जी उन्हें तरजीह देते थे। बेहद रूहानी माहौल में उनका लालन-पालन हुआ। हालांकि उस दौर में बहुतेरे सिख अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी चंद चौथे पातशाह के अग्रज पुत्र हैं सो गुरु-गद्दी उन्हीं को मिलेगी। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि पृथ्वी चंद ने बाकायदा गुरु-गद्दी पर अपनी दावेदारी भी जताई थी, लेकिन गुरु रामदास जी ने योग्यता के पैमाने पर सबको बखूबी परख कर गुरु अर्जुन देव जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और सिख पंथ की अगुवाई सौंपी। इस जिम्मेदारी का निर्वाह उन्होंने जबरदस्त शिद्दत के साथ किया।

उस दौर में 'सिख' एक नवोदित कौम थी। एक ऐसी अकाल-पंथिक लहर, जिसका तब के प्रचलित तमाम धर्मों-मजहबों पर गहरा व मुफीद असर पड़ रहा था। उस पंथिक लहर को गुरु अर्जुन देव जी ने शिखर पर पहुंचाया और दुनिया के कोने-कोने में उनके प्रचार ने लोगों पर जादुई असर किया। वह प्रथम गुरु गुरु नानक देव जी की एकत्व अथवा सबका मालिक एक अकाल पुरख' की अवधारणा को आधार बनाकर चले। उनके संतई करिश्मे ने एक अलहदा दुनिया का निर्माण किया। बड़ी तादाद में हिंदुओं-मुसलमानों ने सिक्खी को अपनाया। गद्दीनशीन होते ही गुरु अर्जुन देव जी ने पंथ के विकास और उसे नया रूप देने की कोशिशें शुरू कीं। उन्होंने श्रृंखलाबद्ध सत्संगों-कीर्तनों का अटूट सिलसिला शुरू किया। जोड़ मेलों की रिवायत को शिद्दत भी उन्हीं की हिदायतों के बाद हासिल हुई। बड़ी तादाद में और दूर-दूर से अनुयायी जोड़ मेलों में शिरकत के लिए आते और निहाल होकर लौटते। उन जोड़ मेलों का एक बड़ा मकसद 'सांझ' की अवधारणा को पुख्ता करना और इनसान को खुद की बेहतरी के लिए सादा-सच्चा जीवन बीताने का प्रशिक्षण देना भी रहता था। सांझे लंगरों की परंपरा ने सामाजिक सद्‌भाव की दिशा में क्रांतिकारी और बेहद सार्थक भूमिका निभाई।

सत्संग और गुरबाणी-कीर्तन को सिक्खी में अहम महत्व पहले दिन से ही हासिल है। गुरु अर्जुन देव जी ने इन्हें और ज्यादा कारगर बनाने में अपना शानदार योगदान दिया। वह गुरु नानक देव, गुरु अगंद देव, गुरु अमर दास और गुरु रामदास की बाणी को आधार बनाकर, अपना पवित्र संदेश संगतों को देते थे। अपने पूर्ववर्ती चारों गुरुओं की महान मौखिक-लिखित रचनाओं को तलाश कर, संकलित करना और उनका प्रारूप तैयार करना एक बेमिसाल और (तब) निहायत असंभव-सा लगने वाला कर्म था, लेकिन गुरु अर्जुन देव जी ने अपने तईं यह किया।


श्री गुरुग्रंथ साहिब सिक्खी की अनमोल विरासत है और इस विरासत की प्राप्ति का सेहरा पांचवें पातशाह के पावन सिर पर है। ज्यों-ज्यों पंथ की मान्यता दुनिया भर में बढ़ती गई, त्यों-त्यों इसके विकास के लिए नए से नए कदम भी उठाए गए। गुरु अर्जुन देव जी ने महसूस किया कि पंथ के अनुयायियों को अब एक सांझे केंद्रीय मंदिर और सांझे धार्मिक ग्रंथ की जबरदस्त दरकार है।

इसलिए उन्होंने पहले पहल सबसे उल्लेखनीय और जरूरी काम हरिमंदिर साहिब के निर्माण का किया। दुनिया में, तब से पहले और बाद, ऐसा कहीं कोई दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं है कि किसी धार्मिक स्थल के चार दरवाजे इस मंतव्य के साथ बनाए (या खोले) जाएंह्नकि इनमें हर धर्म, पंथ, महजब, जात-पांत का व्यक्ति बगैर किसी हिचकिचाहट अथवा शंका के प्रवेश कर सके। पांचवें पातशाह ने यह किया। यह भी एक दुर्लभ मिसाल है कि चारों दरवाजों की नींव, चार अलग-अलग धर्मों-मजहबों से बावस्ता व्यक्तियों ने रखी। जबकि हरमंदिर साहिब का शिलान्यास गुरु अर्जुन देव जी ने अपने समकालीन महान सूफी संत हजरत मियां मीर के हाथों करवाया। तब भी समाज के एक बड़े हिस्से में संकीर्णता हावी थी, लेकिन गुरु जी की इस हिम्मती पहलकदमी के आगे लगभग हर किसी ने अपना सिर झुका दिया था। इसलिए भी कि तब, धार्मिक सहिष्णुता की बहाली के लिए उठाया यह सबसे बड़ा कदम था। उसका असर बाकायदा आज भी कायम है और यकीनन रहती दुनिया तक रहेगा। इस कथन में अतिशयोक्ति नहीं कि हरमंदिर साहिब आज भी उस गरिमा की बखूबी हिफाजत कर रहा है। गुरु घर के चारों दरवाजे हर धर्म, मजहब, जाति और वर्ग के लोगों के लिए सदैव खुले रहते हैं।


श्री गुरुग्रंथ साहिब की रचना भी गुरु अर्जुन देव जी की अनुयायियों को दी गई एक अनमोल और अति महान सौगात है। यह इन अर्थों में भी मौलिक-महानता लिए हुए है कि इसमें महज सिख गुरुओं की पवित्र बाणी ही समाहित नहीं है, उस दौर के कई सूफी-संतों और भक्तों की बाणी भी इसमें समाहित है। और, वे सूफी-संत व भक्त विभिन्न धर्मों-मजहबों में यकीन रखते थे। समग्र-चिंतन वाले विचारों को तरजीह दी गई।


पांचवें पातशाह ने शहादत को भी नए आयाम दिए। तत्कालीन मुगल शहनशाह जहांगीर गुरु जी की विचारधारा और सद्‌कर्मों से घोर असहमति रखता था। वह चाहता था कि गुरु अर्जुन देव अपना रूहानी अभियान त्याग कर, उसकी पनाह में आ जाएं और उसकी राह अख्तियार कर लें। ऐसा कैसे संभव था? गुरु जी ने उसकी असहमतियों की रत्ती भर भी परवाह नहीं की और अपने मार्ग पर पहले की मानिंद चलते रहे। अंततः शहनशाह जहांगीर की असहमति के तेवर हिंसक गुस्से में तब्दील हो गए।

मई, १६०५ के आखिरी हफ्ते के एक दिन गुरु अर्जुन देव जी को बाकायदा गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लाहौर के यातना-शिविर में डाल कर मजबूर किया गया कि वह मुगल सम्राट की सत्ता कबूल करें और अपना रास्ता छोड़ दें। भयावह-अमानवीय यातनाएं खुशी-खुशी पांचवें पातशाह ने बर्दाश्त कीं लेकिन झुकने से साफ इनकार कर दिया। जालिमों ने उन्हें तपते तवे पर बिठाया और जिस्म पर सुलगती रेत तक डाली, लेकिन गुरु जी अपने आदर्शों से नहीं हिले। आखिरकार उन्होंने अपनी जान देकर शहादत का जाम पी लिया।

उनका शहादत दिवस आए साल निराले तरीके से मनाया जाता है। इसलिए भी कि उन्होंने समूची मानवता के लिए खुद को कुर्बान कर दिया और आह तक नहीं भरी। इस दिन दुनिया भर के सिख अनुयायी शहादत दिवस तो मनाते हैं, लेकिन शोक दिवस नहीं।