महज चार वर्ष की आयु में बालक तेग बहादुर ने अपने तन के बेशकीमती वस्त्र एक निर्वस्त्र गरीब बालक को पहनाकर उसकी गरीबी को ढांपा। उन्हीं तेग बहादुर जी ने करीब पचपन वर्ष की अवस्था में हिंदू धर्म की रक्षा के लिए दिल्ली के चांदनी चौक में अपनी अमर, अद्वितीय बलिदान रूपी चादर से हिंदुस्तान की अस्मिता को ढांपा।
धर्म की लाज बचाई। गुरुदेव की इस बेमिसाल कुरबानी पर भावविभोर होकर लिखा कवि सेनापति ने-
परहित के लिए त्याग के उच्चतम आदर्श और करुणा के सागर गुरु तेग बहादुर जी का जीवन एक सिपाही के रूप में प्रारंभ हुआ और समापन एक गंभीर, शांत, सहिष्णु और लोकोपकारी शहीद के रूप में। खुद पिता गुरु हरिगोबिंद शस्त्र के महाबली थे। सो, उन्होंने पुत्र तेगबहादुर को शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दिलाई। बाल्यावस्था में तलवार से इस शस्त्रविा के खूब जौहर दिखाए तेग बहादुर ने करतारपुर की जंग में। मोह लिया पिता का मन। तेग के धनी होते हुए भी वे गुरु अर्जन देव जी की तरह शांत, उदात्त, बलिदानी पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए। परधर्म की रक्षा के लिए गुरुदेव ने अपना शीश दे दिया, लेकिन स्वाभिमान नहीं छोड़ा।
करीब साढ़े ग्यारह वर्ष की अवस्था में तेग बहादुर जी का विवाह करतारपुर निवासी श्री लालचंद खत्री की सुपुत्री नानकी जी के साथ हुआ। गृहस्थी में भी वे वैरागी रहे। एकदम सादा जीवन। सांसारिक मोहमाया, लालसा, तृष्णा से कोसों दूर। सर्वदा एकांत में रहते। जुड़े रहते उस हरि के साथ और करते अपने मन को दृढ़। गुरु तेग बहादुर ने सभी संसारी वृत्तियों को वश में कर लिया था। पिता गुरु हरिगोबिंद जी ने देहावसान से पूर्व तेग बहादुर की बजाय श्री हरिराय जी को गुरु गद्दी सौंपी, तो रंचमात्र भी विरोध-विवाद न किया शांति और सहिष्णुता के मसीहा, पुत्र तेग बहादुर ने। धार्मिक आजादी के परम मुद्दई गुरु तेग बहादुर जी के व्यक्तित्व और वाणी का मूल वाक्य था-
यानी न किसी से डरो और न किसी को डराओ। डरा हुआ मनुष्य कायर होता है और डराने वाला अत्याचारी। गुरुजी अच्छी तरह जानते थे कि डरपोक व्यक्ति कोई भी सकारात्मक कार्य नहीं कर सकता, फिर उससे जुल्म के खिलाफ अड़ने और लड़ने की उम्मीद करना, तो बहुत दूर की बात है। अतः उक्त उपदेश के जरिए उन्होंने लोगों को न केवल सहृदय और सबल बनने का आह्वान किया, बल्कि खुद भी उस पर व्यावहारिक रूप से अमल करके दिखाया। उन्होंने अपने आदर्शों से भारत जन को नई राह दिखाई।
धर्म की लाज बचाई। गुरुदेव की इस बेमिसाल कुरबानी पर भावविभोर होकर लिखा कवि सेनापति ने-
'प्रगट भए गुरु तेग बहादुर।
सगल सृष्टि पै ढापी चादर॥
करम धरम की जिनि पत राखी।
अटल करी कलजुग में साखी॥'
छठे गुरु श्री गुरु हरिगोबिंद जी के सबसे छोटे पुत्र और पांचवें गुरु तथा सिख धर्म के प्रथम शहीद श्री गुरु अर्जन देव जी के पौत्र गुरु तेग बहादुर जी बचपन से ही ईश्वर-भक्ति में तल्लीन रहते थे। शुरू से ही गंभीर स्वभाव, विचारशील साधु प्रवृत्ति और प्रकृति वाले तथा त्याग की भावना के मालिक थे तेग बहादुर। महज पांच वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने समाधि लगाना सीख लिया। बिना हिले-डुले वह घंटों ईश्वर के ध्यान में जुड़कर बैठे रहते। कई बार माता को पुत्र की साधु-वृत्ति पर चिंता होने लगती। पर उनके पिता गुरु हरगोविंद उन्हें मुस्करा कर समझाते, 'बहुत बड़ा काम करना है हमारे इस पुत्र को। उस कार्य की अभी से तैयारी कर रहा है।परहित के लिए त्याग के उच्चतम आदर्श और करुणा के सागर गुरु तेग बहादुर जी का जीवन एक सिपाही के रूप में प्रारंभ हुआ और समापन एक गंभीर, शांत, सहिष्णु और लोकोपकारी शहीद के रूप में। खुद पिता गुरु हरिगोबिंद शस्त्र के महाबली थे। सो, उन्होंने पुत्र तेगबहादुर को शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दिलाई। बाल्यावस्था में तलवार से इस शस्त्रविा के खूब जौहर दिखाए तेग बहादुर ने करतारपुर की जंग में। मोह लिया पिता का मन। तेग के धनी होते हुए भी वे गुरु अर्जन देव जी की तरह शांत, उदात्त, बलिदानी पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए। परधर्म की रक्षा के लिए गुरुदेव ने अपना शीश दे दिया, लेकिन स्वाभिमान नहीं छोड़ा।
करीब साढ़े ग्यारह वर्ष की अवस्था में तेग बहादुर जी का विवाह करतारपुर निवासी श्री लालचंद खत्री की सुपुत्री नानकी जी के साथ हुआ। गृहस्थी में भी वे वैरागी रहे। एकदम सादा जीवन। सांसारिक मोहमाया, लालसा, तृष्णा से कोसों दूर। सर्वदा एकांत में रहते। जुड़े रहते उस हरि के साथ और करते अपने मन को दृढ़। गुरु तेग बहादुर ने सभी संसारी वृत्तियों को वश में कर लिया था। पिता गुरु हरिगोबिंद जी ने देहावसान से पूर्व तेग बहादुर की बजाय श्री हरिराय जी को गुरु गद्दी सौंपी, तो रंचमात्र भी विरोध-विवाद न किया शांति और सहिष्णुता के मसीहा, पुत्र तेग बहादुर ने। धार्मिक आजादी के परम मुद्दई गुरु तेग बहादुर जी के व्यक्तित्व और वाणी का मूल वाक्य था-
'भै काहू कउ देत नहि,
नहि भै मानत आनि॥'
यानी न किसी से डरो और न किसी को डराओ। डरा हुआ मनुष्य कायर होता है और डराने वाला अत्याचारी। गुरुजी अच्छी तरह जानते थे कि डरपोक व्यक्ति कोई भी सकारात्मक कार्य नहीं कर सकता, फिर उससे जुल्म के खिलाफ अड़ने और लड़ने की उम्मीद करना, तो बहुत दूर की बात है। अतः उक्त उपदेश के जरिए उन्होंने लोगों को न केवल सहृदय और सबल बनने का आह्वान किया, बल्कि खुद भी उस पर व्यावहारिक रूप से अमल करके दिखाया। उन्होंने अपने आदर्शों से भारत जन को नई राह दिखाई।
एक टिप्पणी भेजें