धर्माचार्य, साधु-संत तथा मठ-मंदिर नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए प्रयास क्यों नहीं करते?
मैं स्वंय यह अनुग्रह करता हूं। आज धर्माचार्यों व साधु-संतो को जगदगुरू शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ आदि की तरह धर्म व संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। मगर धर्माचार्यों की कथनी-करनी के अंतर ने उन्हें प्रभावहीन व तेजहीन बना डाला है, इसी कारण उनका प्रभाव नहीं पड़ता।
इसके बावजूद अभी भी देश में बहुत से आचार्य हैं, मठ-मंदिर हैं जो धर्म-संस्कृति के प्रचार में लगे हैं और सेवा, परोपकार आदि पुनीत कार्यों में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। अनेक धर्माचार्य तथा कथा-व्यास अपने कार्यक्रमों से प्राप्त धन को अस्पतालों, वनवासी क्षेत्रों में चलाए जा रहे सेवा प्रकल्पों, संस्कृत के अध्ययन, गोसेवा आदि कार्यो पर व्यय करे हैं।
ह्नआपके धार्मिक पुनर्जागरण के इतने प्रयासों के बावजूद दुनिया नैतिक मूल्यों के संकट से ग्रस्त है, क्यों?
अतिभौतिकता के कारण धार्मिक व नैतिक मर्यादाओं का हनन होता है। पहले लोग अपनी महान संस्कृति व परंपराओं के अनुरूप सरल व सात्विक जीवन बिताते थे। धार्मिक संस्कारों के कारण पाप कर्म करने, अन्याय व बेइमानी करने से डरते थे। उन्हें विश्वास था कि परमात्मा उनके कर्मो को देखता है। अच्छे कर्म करने से लोक-परलोक में सुख मिलेगा, पाप कर्म करने से नरक की यातनाएं भोगनी पड़ेंगी। दूसरी बात यह है कि स्वाधीनता के बाद हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बच्चों और युवा पीढ़ी को धार्मिक संस्कार देने बंद कर दिए गए।
कुछ बुद्धिजीवी आरोप लगाते हैं कि एक ओर देश में करोड़ों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है, दूसरी ओर भव्य धार्मिक कार्यक्रमों पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। इसे अपव्यय बताते हुए वे इसे रोकने की मांग करते हैं।
ऐसी सोच उन लोगों की होती है जिनकी दृष्टि में नैतिक मूल्य व धर्म-संस्कृति का कोई महत्व नहीं होता। यदि अपव्यय रोकने की बात है तो ये सेकुलर सोच के बुद्धिजीवी उन कार्यक्रमों का विरोध क्यों नहीं करते जिनके जरिए करोड़ों रुपये खर्च करके बच्चों, युवाओं व महिलाओं के सामने प्रदूषित विचार, प्रदूषित दृश्य परोसे जा रहे हैं। मीडिया द्वारा प्रसारित इन विकृतियों व अश्लील दृश्यों को रोकने के लिए क्या उन्होंने कोई आवाज उठाई है? यदि धर्म प्रचार व मठ-मंदिरों पर व्यय से चिंतित इन बुद्धिजीवियों को वास्तव में गरीबों की चिंता है तो सबसे पहले शराबखानों को बंद कराने की मांग करनी चाहिए। नवधनाढ्य वर्ग लाखों रुपये अपने दुर्व्यसनों पर व्यय कर देता है। क्या ये बुद्धिजीवी कभी उन्हें इनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं?
हरिद्वार में भारत माता मंदिर की स्थापना की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
मैं प्रारम्भ से ही धर्म और राष्ट्र को एक दूसरे का प्रेरक मानता रहा हूं। धर्म संस्कारों को बनाता है। राष्ट्रभाव राष्ट्र और स्वधर्म पर बलिदान की प्रेरणा देता है, ऐसा मेरा स्पष्ट मत है। मैंने अनुभव किया कि स्वाधीनता के बाद बच्चों को राष्ट्रभक्ति तथा धर्म-संस्कृति के संस्कारों से वंचित करने के कारण राष्ट्रभक्ति की भावना शिथिल पड़ी है। मेरा सपना था कि देश में पुनः राष्ट्रभक्ति की भावना पनपे तथा देश की महान विभूतियों की स्मृति में एक अनूठे भारत माता मंदिर की स्थापना की जाए। मंदिर में जहां भारत माता की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई है, वहीं देश भक्त राष्ट्र सेनानियों की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। मातृ मंदिर में वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक की महान माताओं की मूर्तियां हैं। संत मंदिर में विभिन्न संप्रदायों के धर्माचार्यों, संत-महात्माओं, ऋषि-मुनियों की प्रतिमाएं हैं तो शक्ति मंदिर, विष्णु मंदिर तथा शिव मंदिर में अवतारों व देवी-देवताओं को श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रतिष्ठापित किया गया है। मेरी इच्छा थी कि पूरे देश के श्रद्धालु जब तीर्थयात्रा करते हुए हरिद्वार पहुंचे तो उन्हें वहां भारत माता मंदिर में अनेकता मे एकता की अनुभूति हो।
युवा पीढ़ी को पुनः संस्कारित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
सबसे पहले पाठ्य पुस्तकों में महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग, इतिहास की प्रेरक घटनाओं का समावेश किया जाना चाहिए जिससे युवा पीढ़ी को धर्म-संस्कृति व राष्ट्रभक्ति के महत्व से परिचित कराया जा सके। दूरदर्शन तथा मीडिया के जरिए दर्शकों को अश्लील सामग्री पहुंचाई जा रही है। इसे प्रभावी ढंग से रोका जाना चाहिए। युवा पीढ़ी को वृद्धों, माता-पिता तथा राष्ट्र के प्रहरियों का सम्मान करने की प्रेरणा दी जानी चाहिए। ये सारे काम शिक्षा व्यवस्था में सुधार से ही हो सकते हैं।
मैं स्वंय यह अनुग्रह करता हूं। आज धर्माचार्यों व साधु-संतो को जगदगुरू शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ आदि की तरह धर्म व संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। मगर धर्माचार्यों की कथनी-करनी के अंतर ने उन्हें प्रभावहीन व तेजहीन बना डाला है, इसी कारण उनका प्रभाव नहीं पड़ता।
इसके बावजूद अभी भी देश में बहुत से आचार्य हैं, मठ-मंदिर हैं जो धर्म-संस्कृति के प्रचार में लगे हैं और सेवा, परोपकार आदि पुनीत कार्यों में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। अनेक धर्माचार्य तथा कथा-व्यास अपने कार्यक्रमों से प्राप्त धन को अस्पतालों, वनवासी क्षेत्रों में चलाए जा रहे सेवा प्रकल्पों, संस्कृत के अध्ययन, गोसेवा आदि कार्यो पर व्यय करे हैं।
ह्नआपके धार्मिक पुनर्जागरण के इतने प्रयासों के बावजूद दुनिया नैतिक मूल्यों के संकट से ग्रस्त है, क्यों?
अतिभौतिकता के कारण धार्मिक व नैतिक मर्यादाओं का हनन होता है। पहले लोग अपनी महान संस्कृति व परंपराओं के अनुरूप सरल व सात्विक जीवन बिताते थे। धार्मिक संस्कारों के कारण पाप कर्म करने, अन्याय व बेइमानी करने से डरते थे। उन्हें विश्वास था कि परमात्मा उनके कर्मो को देखता है। अच्छे कर्म करने से लोक-परलोक में सुख मिलेगा, पाप कर्म करने से नरक की यातनाएं भोगनी पड़ेंगी। दूसरी बात यह है कि स्वाधीनता के बाद हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बच्चों और युवा पीढ़ी को धार्मिक संस्कार देने बंद कर दिए गए।
कुछ बुद्धिजीवी आरोप लगाते हैं कि एक ओर देश में करोड़ों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है, दूसरी ओर भव्य धार्मिक कार्यक्रमों पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। इसे अपव्यय बताते हुए वे इसे रोकने की मांग करते हैं।
ऐसी सोच उन लोगों की होती है जिनकी दृष्टि में नैतिक मूल्य व धर्म-संस्कृति का कोई महत्व नहीं होता। यदि अपव्यय रोकने की बात है तो ये सेकुलर सोच के बुद्धिजीवी उन कार्यक्रमों का विरोध क्यों नहीं करते जिनके जरिए करोड़ों रुपये खर्च करके बच्चों, युवाओं व महिलाओं के सामने प्रदूषित विचार, प्रदूषित दृश्य परोसे जा रहे हैं। मीडिया द्वारा प्रसारित इन विकृतियों व अश्लील दृश्यों को रोकने के लिए क्या उन्होंने कोई आवाज उठाई है? यदि धर्म प्रचार व मठ-मंदिरों पर व्यय से चिंतित इन बुद्धिजीवियों को वास्तव में गरीबों की चिंता है तो सबसे पहले शराबखानों को बंद कराने की मांग करनी चाहिए। नवधनाढ्य वर्ग लाखों रुपये अपने दुर्व्यसनों पर व्यय कर देता है। क्या ये बुद्धिजीवी कभी उन्हें इनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं?
हरिद्वार में भारत माता मंदिर की स्थापना की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
मैं प्रारम्भ से ही धर्म और राष्ट्र को एक दूसरे का प्रेरक मानता रहा हूं। धर्म संस्कारों को बनाता है। राष्ट्रभाव राष्ट्र और स्वधर्म पर बलिदान की प्रेरणा देता है, ऐसा मेरा स्पष्ट मत है। मैंने अनुभव किया कि स्वाधीनता के बाद बच्चों को राष्ट्रभक्ति तथा धर्म-संस्कृति के संस्कारों से वंचित करने के कारण राष्ट्रभक्ति की भावना शिथिल पड़ी है। मेरा सपना था कि देश में पुनः राष्ट्रभक्ति की भावना पनपे तथा देश की महान विभूतियों की स्मृति में एक अनूठे भारत माता मंदिर की स्थापना की जाए। मंदिर में जहां भारत माता की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई है, वहीं देश भक्त राष्ट्र सेनानियों की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। मातृ मंदिर में वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक की महान माताओं की मूर्तियां हैं। संत मंदिर में विभिन्न संप्रदायों के धर्माचार्यों, संत-महात्माओं, ऋषि-मुनियों की प्रतिमाएं हैं तो शक्ति मंदिर, विष्णु मंदिर तथा शिव मंदिर में अवतारों व देवी-देवताओं को श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रतिष्ठापित किया गया है। मेरी इच्छा थी कि पूरे देश के श्रद्धालु जब तीर्थयात्रा करते हुए हरिद्वार पहुंचे तो उन्हें वहां भारत माता मंदिर में अनेकता मे एकता की अनुभूति हो।
युवा पीढ़ी को पुनः संस्कारित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
सबसे पहले पाठ्य पुस्तकों में महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग, इतिहास की प्रेरक घटनाओं का समावेश किया जाना चाहिए जिससे युवा पीढ़ी को धर्म-संस्कृति व राष्ट्रभक्ति के महत्व से परिचित कराया जा सके। दूरदर्शन तथा मीडिया के जरिए दर्शकों को अश्लील सामग्री पहुंचाई जा रही है। इसे प्रभावी ढंग से रोका जाना चाहिए। युवा पीढ़ी को वृद्धों, माता-पिता तथा राष्ट्र के प्रहरियों का सम्मान करने की प्रेरणा दी जानी चाहिए। ये सारे काम शिक्षा व्यवस्था में सुधार से ही हो सकते हैं।
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