भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बिहार प्रदेश में हुआ था। हम सभी जानते हैं कि वह जैन धर्म के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे। समस्त राजपाट छोड़कर आत्मा की अनुभूति और मोक्ष प्राप्त करने के लिए उन्होंने मार्ग कृष्ण दशमी को दिगंबर दीक्षा ग्रहण की और वैशाख शुक्ल दशमी को पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया।
उन्होंने आत्मकल्याण की दृष्टि से तीन सिद्धांतों अनेकांत, अहिंसा और अपरिग्रह का प्रतिपादन किया। इनमें उनका अनेकांत दर्शन एक ऐसा सिद्धांत है, जिससे विश्व की समस्त प्रमुख समस्याओं के समाधान संभव है।
अनेकांत सिद्धांत विश्व को भगवान महावीर की मौलिक देन है। किसी भी वस्तु के स्वरूप की विवेचना के संदर्भ में भारतीय दर्शन के समन्वयात्मक पक्ष का अनुशीलन करते समय सभी का ध्यान इस सिद्धांत की ओर जाता है। भगवान महावीर ने इसे अनेकांतवाद की संज्ञा से प्रतिष्ठापित किया है।
सत्य को समझने में अनेकांत बहुत सहायक है। विशिष्ट और सूक्ष्म तथ्यों को समझने के लिए इस सिद्धांत की आवश्यकता न सिर्फ अध्यात्मशास्त्र को होती है, बल्कि जीवन व्यवहार शास्त्र में भी अनेकांत की स्थान-स्थान पर आवश्यकता होती है। व्यावहारिक जीवन में इस प्रकार केअनेकांतमयी दृष्टिकोण का लाभ बहुत है। समय की कमी है, धन की कमी है, साधनों की कमी है आदि बंधन हम अपने जीवन में इतने अधिक मान लेते हैं कि हम इन कमियों से जकड़ा हुआ-सा अनुभव करते हैं।
कभी विपरीत रूप से भी विचार किया जाना चाहिए कि हमारे पास कितना समय है या कितना धन या साधन है। ज्यों-ज्यों हम इस दिशा में सोचना शुरू करेंगे, हमें लग सकता है कि आगे बढ़ने, प्रसन्न रहने और सत्कार्य करने केलिए हमारे पास बहुत कुछ है। आज के मनोवैज्ञानिक कई समस्याओं को इसी सिद्धांत के जरिए हल करते हैं।
जातिवाद की समस्या पूरे देश में जहर फैलाए हुए है। सारे चुनावी समीकरण इसी आधार पर तय होने लगे हैं। यहां देश और देश का भविष्य मुख्य नहीं है। हममें से ऐसा कोई नहीं सोचता कि जाति के मोह में हम यदि किसी गलत व्यक्ति को नेता चुनते हैं, तो सारा देश बर्बाद हो जाता है। अनेकांत सिद्धांत इस मुद्दे पर आग्रही चिंतन प्रस्तुत नहीं करता। इसका चिंतन समग्रता से है, किसी जाति विशेष से नहीं। इसका चिंतन है कि समग्र जातियों का विकास तभी संभव है, जब संपूर्ण देश का विकास हो। हमारी जातिगत अस्मिता अलग है, लेकिन देशगत अस्मिता एक है। यही बात भाषा को लेकर उत्पन्न होती है। अनेकांत सिद्धांत कहता है कि बेशक हम अपनी मातृभाषा ही बोलें, यह हमारा अधिकार है। पर अपनी भाषा दूसरों पर जबरदस्ती थोपना या दूसरी भाषाओं का अपमान करना हमारे अधिकार में नहीं है।
अनेकांत दर्शन वस्तुतः विचार के विकास की चरम रेखा है। इससे वस्तु के उसी स्वरूप का दर्शन होता है, जहां विचार समाप्त हो जाते हैं। जब तक वस्तु स्थिति स्पष्ट नहीं होती, तभी तक विवाद रहता है। केवल एकपक्षीय दृष्टि से चलने वाले विवाद या विचार अनेकांतात्मक वस्तुदर्शन केबाद अपने आप समाप्त हो जाते हैं।
उन्होंने आत्मकल्याण की दृष्टि से तीन सिद्धांतों अनेकांत, अहिंसा और अपरिग्रह का प्रतिपादन किया। इनमें उनका अनेकांत दर्शन एक ऐसा सिद्धांत है, जिससे विश्व की समस्त प्रमुख समस्याओं के समाधान संभव है।
अनेकांत सिद्धांत विश्व को भगवान महावीर की मौलिक देन है। किसी भी वस्तु के स्वरूप की विवेचना के संदर्भ में भारतीय दर्शन के समन्वयात्मक पक्ष का अनुशीलन करते समय सभी का ध्यान इस सिद्धांत की ओर जाता है। भगवान महावीर ने इसे अनेकांतवाद की संज्ञा से प्रतिष्ठापित किया है।
सत्य को समझने में अनेकांत बहुत सहायक है। विशिष्ट और सूक्ष्म तथ्यों को समझने के लिए इस सिद्धांत की आवश्यकता न सिर्फ अध्यात्मशास्त्र को होती है, बल्कि जीवन व्यवहार शास्त्र में भी अनेकांत की स्थान-स्थान पर आवश्यकता होती है। व्यावहारिक जीवन में इस प्रकार केअनेकांतमयी दृष्टिकोण का लाभ बहुत है। समय की कमी है, धन की कमी है, साधनों की कमी है आदि बंधन हम अपने जीवन में इतने अधिक मान लेते हैं कि हम इन कमियों से जकड़ा हुआ-सा अनुभव करते हैं।
कभी विपरीत रूप से भी विचार किया जाना चाहिए कि हमारे पास कितना समय है या कितना धन या साधन है। ज्यों-ज्यों हम इस दिशा में सोचना शुरू करेंगे, हमें लग सकता है कि आगे बढ़ने, प्रसन्न रहने और सत्कार्य करने केलिए हमारे पास बहुत कुछ है। आज के मनोवैज्ञानिक कई समस्याओं को इसी सिद्धांत के जरिए हल करते हैं।
जातिवाद की समस्या पूरे देश में जहर फैलाए हुए है। सारे चुनावी समीकरण इसी आधार पर तय होने लगे हैं। यहां देश और देश का भविष्य मुख्य नहीं है। हममें से ऐसा कोई नहीं सोचता कि जाति के मोह में हम यदि किसी गलत व्यक्ति को नेता चुनते हैं, तो सारा देश बर्बाद हो जाता है। अनेकांत सिद्धांत इस मुद्दे पर आग्रही चिंतन प्रस्तुत नहीं करता। इसका चिंतन समग्रता से है, किसी जाति विशेष से नहीं। इसका चिंतन है कि समग्र जातियों का विकास तभी संभव है, जब संपूर्ण देश का विकास हो। हमारी जातिगत अस्मिता अलग है, लेकिन देशगत अस्मिता एक है। यही बात भाषा को लेकर उत्पन्न होती है। अनेकांत सिद्धांत कहता है कि बेशक हम अपनी मातृभाषा ही बोलें, यह हमारा अधिकार है। पर अपनी भाषा दूसरों पर जबरदस्ती थोपना या दूसरी भाषाओं का अपमान करना हमारे अधिकार में नहीं है।
अनेकांत दर्शन वस्तुतः विचार के विकास की चरम रेखा है। इससे वस्तु के उसी स्वरूप का दर्शन होता है, जहां विचार समाप्त हो जाते हैं। जब तक वस्तु स्थिति स्पष्ट नहीं होती, तभी तक विवाद रहता है। केवल एकपक्षीय दृष्टि से चलने वाले विवाद या विचार अनेकांतात्मक वस्तुदर्शन केबाद अपने आप समाप्त हो जाते हैं।
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