15 मई 2011

समाज सुधारक थे श्रीमद शंकरदेव

असम के महान संत श्रीमद्‌ शंकरदेव का जन्म नौगांव जिले के अली पुखरी में १४४९ में हुआ था। उनका जीवन अनेक अनूठी घटनाओं से पूर्ण था। अपने दूरदर्शी प्रयास से उन्होंने अनेक जाति-वर्गों में विभाजित पूर्वोत्तर में भक्ति रस की जो धारा प्रवाहित की और जनसाधारण को कल्याण की राह दिखाई, वह अतुलनीय है।

शंकरदेव के पूर्वज चंडीवर भूइयां पहले बंगाल आकर बसे थे और वहां से असम आ गए थे। उनके वशंजों ने मध्य असम के विभिन्न भागों में भूइयां-राज्यों की स्थापना की थी। शंकरदेव के पिता शिरोमणि भूइयां कुसुंबर अली पुखरी में आकर बस गए थे।

शंकरदेव की माता का नाम सत्यसंधा था। बचपन में ही शंकर को माता-पिता की स्नेह-छाया से वंचित होना पड़ा।

वे ब्रजावली भाषा में भक्ति-पद की रचाना करने लगे। काशी, वृंदावन, मथुरा, जगन्नाथ पुरी, बद्रीनाथ आदि स्थानों की उन्होंने यात्रा की। तीर्थाटन से लौटने के बाद वे ग्रंथ लेखन और भक्ति धर्म का प्रचार करने में जुट गए। उन्हें अनेक शिष्यों के साथ माधवदेव जैसा प्रतिभाशाली शिष्य मिल गया। दोनों जनसाधारण के बीच धर्म का प्रचार करने लगे। ११९ वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर का परित्याग किया।
शंकरदेव मूलतः संत और धर्म प्रचारक-सुधारक थे। उन्होंने समाज-व्यवस्था की त्रुटियों की तरफ ध्यान दिया था। उन्होंने राज्याश्रय प्राप्त तत्कालीन ब्राह्मणों-पुरोहितों का अहंकार देखा, जो जनजातीय लोक-संस्कृति को हिकारत की नजरों से देखते थे। यही वजह है कि इन सब खामियों को दूर करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया।
शंकरदेव ने धर्म वंचित, शोषित, अशिक्षित, अंत्यज, शूद्र, जनजातीय जनों को धर्म-ज्ञान देने के लिए संस्कृत भाषा की दीवार तोड़ते हुए जनसाधारण की भाषा में मौलिक कृतियों की रचना की।

"शंकरदेव की प्रमुख कृतियां विशुद्ध असमिया भाषा में -काव्यः हरिशचंद्र उपाख्यान एवं रुक्मिणी हरण काव्य -भक्ति पद : कीर्तन घोष, भक्ति प्रदीप, गुणमाला ब्रजावली भाषा में - प्रगीत पद- बरगीत - टीकाः शंकरदेव ने भक्ति तत्व संबंधी संस्कृत ग्रंथ भक्ति रत्नावली की टीका भी लिखी थी। अनूदित कृतियां शंकरदेव ने उत्तर कांड रामायण तथा श्रीमद्‌ भागवत के कई स्कंधों का असमिया भाषा में अनुवाद भी किया।" उनका पालन-पोषण दादी खेरसुती ने किया। बारह वर्ष की आयु में शंकर महेंद्र कंदली की संस्कृत पाठशाला में अध्ययन करने लगे। विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन के माध्यम से उनके मन में तत्व-ज्ञान की ज्योति जल उठी। अल्प समय में ही अतुल शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर वे घर लौटे, परंतु उनका मन भक्ति में रम गया था।

आम लोगों की दशा पर उन्होंने ध्यान दिया और अनुभव किया कि भक्ति की राह पर चलकर ही उनको उचित मार्गदर्शन मिल सकता है। परिवार के सदस्यों के आग्रह पर उन्होंने सूर्यावती से विवाह किया। सांसारिक कर्मों से उदासीन होकर वे चिंतन-लेखन में जुट गए। इन्हीं दिनों उन्होंने चिह्न यात्रा नाटक की रचना की और उसका मंचन किया। फिर वे अपने साथियों के साथ बारह वर्षों तक भ्रमण करते रहे। इस दौरान जहां उन्होंने तीर्थ स्थानों की यात्रा की, वहीं कई संतों के संपर्क में भी आए। उन्हें श्रीमद्‌भागवत पर आधारित कृष्ण भक्ति का प्रचार करने की प्रेरणा मिली।
 

वे ब्रजावली भाषा में भक्ति-पद की रचाना करने लगे। काशी, वृंदावन, मथुरा, जगन्नाथ पुरी, बद्रीनाथ आदि स्थानों की उन्होंने यात्रा की। तीर्थाटन से लौटने के बाद वे ग्रंथ लेखन और भक्ति धर्म का प्रचार करने में जुट गए। उन्हें अनेक शिष्यों के साथ माधवदेव जैसा प्रतिभाशाली शिष्य मिल गया। दोनों जनसाधारण के बीच धर्म का प्रचार करने लगे। ११९ वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर का परित्याग किया।

शंकरदेव मूलतः संत और धर्म प्रचारक-सुधारक थे। उन्होंने समाज-व्यवस्था की त्रुटियों की तरफ ध्यान दिया था। उन्होंने राज्याश्रय प्राप्त तत्कालीन ब्राह्मणों-पुरोहितों का अहंकार देखा, जो जनजातीय लोक-संस्कृति को हिकारत की नजरों से देखते थे। यही वजह है कि इन सब खामियों को दूर करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया।

शंकरदेव ने धर्म वंचित, शोषित, अशिक्षित, अंत्यज, शूद्र, जनजातीय जनों को धर्म-ज्ञान देने के लिए संस्कृत भाषा की दीवार तोड़ते हुए जनसाधारण की भाषा में मौलिक कृतियों की रचना की।