एक बार गुरु नानक साहिब और उनके साथी रबाबी भाई मरदाना भ्रमण करते हुए एक ऐसे नगर में चले गए जहां किसी ने उन्हें बैठने तक की जगह नहीं दी। गुरु साहिब के उदासीन साधुओं वाले वेश देखकर लोगों ने उनका अपमान किया और उन पर पत्थर फेंके। गालियां भी दीं।
भाई मरदाना ने गुरु साहिब की ओर देखा, 'साहिब जी ये कैसे लोग हैं?'
गुरु जी ने गंभीरता से कहा, 'सदा बसते रहें इस नगर के लोग, और यहीं बसते रहें।
' वहां गुरु जी ने एक शबद का गायन भी किया जिस का भाव कुछ इस तरह का है, 'अगर मैं बातें करूं तो लोग कहते हैं कि बक-बक करता है। चुप रहूं, तो कहते हैं कि इसे समझ नहीं है। झुक कर रहता हूं, तो कहते हैं कि भय के कारण भक्ति करता है। चला जाऊं तो कहते हैं कि भाग गया है। कहां समय व्यतीत करूं? इसलिए परमात्मा ही मेरे सम्मान की रक्षा करेगा।'
गुरु जी और भाई मरदाना चलते हुए आगे एक और नगर में पहुंचे। लोगों को गुरु जी के पहुंचने का पता चला तो उन्होंने उनका बहुत आदर-सम्मान किया। वहां कीर्तन होने लगा, प्रभु केनाम का गायन किया जाने लगा। लोगों ने गुरु जी को ईश्वर का रूप माना और उनसे आशीष मांगा।
गुुरु जी प्रसन्न हुए और मुस्करा दिए। वहां उन्होंने आराम से रात बिताई।
सुबह गुरु जी वहां से चलने लगे तो उन्होंने कहा, 'यह नगर उजाड़ हो जाए... कोई भी यहां न रहे...।'
लोगों ने शीश झुका दिए। गुरु जी की बात को सुनकर भाई मरदाना ने पूछा- 'साहिब जी आपका यह कैसा न्याय है? जहां बैठने के लिए भी जगह न मिली, उन लोगों को आपने बसते रहने के लिए कहा, जिन लोगों ने सेवा बंदगी की उनका नगर उजाड़ बना रहे हो?
गुरु जी ने मुस्करा कर कहा-'मरदाना! ऐसा ही होना चाहिए।'
'मगर क्यों गुरुजी?' भाई मरदाना ने आश्चर्य से पूछा। गुरु जी ने कहा, 'पहले नगर के लोग किसी और नगर में जाएंगे तो वहां के लोगों को भी बुरे व्यवहार में लगाएंगे। इस नगर के लोग जहां कहीं भी रहेंगे, लोगों को अपने सदाचरण से नेक बनाएंगे। इसलिए, ऐसे स्वभाव वाले भले लोग एक ही जगह पर नहीं रहने चाहिए।'
उस समय भाई मरदाना पहले नगर के लोगों की दीन-हीन दशा के बारे में सोच रहा था। गुरु जी की बातें सुनकर कहने लगा, 'तो क्या उनका कल्याण नहीं हो सकता?'
'हो सकता है।' गुरु साहिब ने विश्वास केसाथ कहा।
'इसके लिए उन्हें क्या करना होगा?'
गुरु जी ने कहा- 'अभी तो वे लोग जीवन को खाने-पीने और मौज-मस्ती का साधन मात्र समझते हैं। जीवन केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं है। जीवन जन कल्याण के लिए है। उन्हें चाहिए, दूसरे नगर के लोगों से प्रेरणा लें। जीवन को केवल उदर पूर्ति के लिए न समझें। भले कामों में लगें। तभी उनका भला हो सकता है।'
भाई मरदाना ने गुरु साहिब की ओर देखा, 'साहिब जी ये कैसे लोग हैं?'
गुरु जी ने गंभीरता से कहा, 'सदा बसते रहें इस नगर के लोग, और यहीं बसते रहें।
' वहां गुरु जी ने एक शबद का गायन भी किया जिस का भाव कुछ इस तरह का है, 'अगर मैं बातें करूं तो लोग कहते हैं कि बक-बक करता है। चुप रहूं, तो कहते हैं कि इसे समझ नहीं है। झुक कर रहता हूं, तो कहते हैं कि भय के कारण भक्ति करता है। चला जाऊं तो कहते हैं कि भाग गया है। कहां समय व्यतीत करूं? इसलिए परमात्मा ही मेरे सम्मान की रक्षा करेगा।'
गुरु जी और भाई मरदाना चलते हुए आगे एक और नगर में पहुंचे। लोगों को गुरु जी के पहुंचने का पता चला तो उन्होंने उनका बहुत आदर-सम्मान किया। वहां कीर्तन होने लगा, प्रभु केनाम का गायन किया जाने लगा। लोगों ने गुरु जी को ईश्वर का रूप माना और उनसे आशीष मांगा।
गुुरु जी प्रसन्न हुए और मुस्करा दिए। वहां उन्होंने आराम से रात बिताई।
सुबह गुरु जी वहां से चलने लगे तो उन्होंने कहा, 'यह नगर उजाड़ हो जाए... कोई भी यहां न रहे...।'
लोगों ने शीश झुका दिए। गुरु जी की बात को सुनकर भाई मरदाना ने पूछा- 'साहिब जी आपका यह कैसा न्याय है? जहां बैठने के लिए भी जगह न मिली, उन लोगों को आपने बसते रहने के लिए कहा, जिन लोगों ने सेवा बंदगी की उनका नगर उजाड़ बना रहे हो?
गुरु जी ने मुस्करा कर कहा-'मरदाना! ऐसा ही होना चाहिए।'
'मगर क्यों गुरुजी?' भाई मरदाना ने आश्चर्य से पूछा। गुरु जी ने कहा, 'पहले नगर के लोग किसी और नगर में जाएंगे तो वहां के लोगों को भी बुरे व्यवहार में लगाएंगे। इस नगर के लोग जहां कहीं भी रहेंगे, लोगों को अपने सदाचरण से नेक बनाएंगे। इसलिए, ऐसे स्वभाव वाले भले लोग एक ही जगह पर नहीं रहने चाहिए।'
उस समय भाई मरदाना पहले नगर के लोगों की दीन-हीन दशा के बारे में सोच रहा था। गुरु जी की बातें सुनकर कहने लगा, 'तो क्या उनका कल्याण नहीं हो सकता?'
'हो सकता है।' गुरु साहिब ने विश्वास केसाथ कहा।
'इसके लिए उन्हें क्या करना होगा?'
गुरु जी ने कहा- 'अभी तो वे लोग जीवन को खाने-पीने और मौज-मस्ती का साधन मात्र समझते हैं। जीवन केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं है। जीवन जन कल्याण के लिए है। उन्हें चाहिए, दूसरे नगर के लोगों से प्रेरणा लें। जीवन को केवल उदर पूर्ति के लिए न समझें। भले कामों में लगें। तभी उनका भला हो सकता है।'
सर्वोत्तम
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