भारत में गाँवों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। प्राचीन काल से ही भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। समकालीन समय में भी गाँवों का महत्व बरकरार है लेकिन गाँवों की आंतरिक संरचना एवं शहरों से इसके आपसी संबंध में धीरे - धीरे महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है। समकालीन भारत की व्यवस्था में आज भी गाँवों का विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक महत्त्व है। इसके अपने कुछ निजी लक्षण हैं जिसमें भारतीय परंपरा के सूत्र पहचाने जा सकते हैं।
ग्रामीण समुदाय की विशेषताएँ
भारतीय ग्रामीण समुदाय की विशेषतएं नगरीय समुदायों से भिन्न हैं। भारतीय गाँवों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-
1. कृषि : उत्पादन का मुख्य आधार कृषि है। कृषि मात्र उत्पादन का तरीका ही नहीं है बल्कि जीवन शैली भी है। ग्रामीण परिवेश के सभी संबंध कृषि द्वारा प्रभावित होते हैं। जनसंख्या का एक छोटा भाग जीविकोपार्जन के लिए कृषि के अलावा दूसरे व्यवसायों पर भी निर्भर होता है परन्तु उनका व्यवसाय अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से संबंञ्ति होता है। कृषक अर्थव्यवस्था ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार होती है।
2. संयुक्त परिवार : भारतीय ग्रामीण जीवन की एक प्रमुख विशेषता उसका संयुक्त परिवार है। यद्यपि संयुक्त परिवार नगरों में भी पाए जाते हैं, परन्तु गाँवों में इनका सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व अधिक होता है।
3. जाति : जाति व्यवस्था हमेशा भारतीय ग्रामीण समुदाय का आधार रही है। सामाजिक अन्त:क्रिया, धार्मिक अनुष्ठान, व्यवसाय एवं अन्य बातें काफी सीमा तक जाति के मानकों से प्रभावित होती हैं। आज भी यह ग्रामीण जीवन में सामाजिक संस्तरण का मुख्य आधार है।
4. जजमानी व्यवस्था : जजमानी व्यवस्था ऐसी व्यवस्था है जिसमें गाँव का विभिन्न परिवार सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से दूसरे जातिगत परिवारों से संबध्द होते हैं। प्रत्येक गाँव मुख्यत: दो बड़े समूहों में विभाजित रहा है - जजमान एवं सेवाएँ उपलब्ध कराने वाली जातियाँ। पारंपरिक रूप से सेवा उपलब्ध कराने वाले सामान्यत: अन्न अथवा नकद पैसे प्राप्त करते हैं। शुभ अवसरों एवं त्योहारों पर उन्हें इसके अलावा पारिश्रमिक मिलता है। यह जजमानी व्यवस्था विभिन्न जातियों को एक वंशानुगत एवं स्थायी संबंधों में बांधे रखती है। जजमान मुख्यत: उच्च जाति के किसान परिवार के लोग माने जाते हैं। इन्हे प्रभु जाति का परिवार भी कहा जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में ब्राह्मण, राजपूत, पटेल, पटनायक, मराठा, रेड्डी, लिंगायत, नायर इत्यादि जातियाँ यजमान परिवार की भूमिका निभाती रही हैं जबकि सेवा प्रदान करने वाली मधयम एवं निम्न जाति के परिवार विभिन्न प्रकार के पारंपरिक शिल्प कला एवं तकनीक में दक्ष होती हैं। पारंपरिक पेशा से जुड़ी इन जातियों में नाई, कुम्हार, लोहार, सोनार, बढ़ई, तमोली, धोबी इत्यादि प्रमुख हैं। आधुनिक बाजार के विस्तार, नगरीकरण, औद्योगिकरण एवं उपभोक्तावाद के प्रचार के फलस्वरूप जजमानी व्यवस्था का प्रभाव दिनों - दिन कम हो रहा है।
5. पंचांग : अधिकांश भारतीय गाँवों में लोग समय का सदुपयोग पारंपरिक पंचाग के अनुसार करते हैं जो घनिष्ठ रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन से जुड़ा हुआ है। अंग्रेजी पंचांग भी परंपरिक पंचाग के साथ देखे जाते हैं परन्तु दैनिक जीवन में इनका प्रयोग बहुत कम होता है। अंग्रेजी पंचांग मूलत: सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होता है।
6. सामुदायिक भावनाएँ :गाँव के सदस्यों के बीच संबंध काफी घनिष्ठ एवं व्यक्तिगत होते हैं । सामुदायिकता की भावना गाँव की एक चिर - परिचित विशेषता है।
7. सादा जीवन : यह ग्रामीण जीवन की एक महत्तवपूर्ण विशेषता है। गाँवों में अपराध और पथ-भ्रष्ट व्यवहार जैसे चोरी, हत्या, दुराचार इत्यादि शहरों की तुलना में बहुत कम होते हैं ग्रामीण लोग भगवान से भय खाते हैं तथा परंपरावादी होते हैं। वे नगरीय जीवन के चकाचौंध एवं मोह से कम प्रभावित होते हैं तथा एक साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उनके व्यवहार एवं क्रियाकलाप गाँव की प्रथा, रूढ़ि एवं जनरीतियों से संचालित होते हैं।
8. गरीबी एवं अशिक्षा :ग्रामीण जीवन में गरीबी एवं अशिक्षा दीर्घकाल से चली आ रही है। अलाभदायक भूमि का अधिग्रहण और वितरण,बंजर एवं विखंडित भूमि के विकास की समस्या तथा खराब उत्पादन ग्रामीण जनसंख्या की गरीबी का प्रमुख कारण है। गाँवों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे रहता है और ये लोग मौलिक सुविधाओं से भी वंचित हैं। मौलिक नागरिक सुविधाएँ, स्वास्थ्य सुविधाएँ, आवागमन एवं संचार आदि की सुविधाएँ इन्हें कठिनाई से उपलब्ध होती हैं। अनेक सरकारी योजनाओं एवं ग्रामीण विकास प्रयासों के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी विद्यमान है और कृषि की उत्पादकता एवं दूसरे आर्थिक क्रियाकलाप गाँवों में निम्न स्तर के हैं।
9. मंद गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन : भारत में अधिकांश ग्रामीण समुदायों की एक मुख्य विशेषता गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन की धीमी गति रही है। व्यवसाय में बहुत आसानी से परिवर्तन संभव नहीं है। अधिकांश ग्रामीण परिवर्तन एवं सुधार को शीघ्रता से स्वीकार नहीं करते हैं। इस प्रकार, सामाजिक गतिशीलता और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भारतीय ग्रामीण परिवेश में बहुत धीमी रही है।
10. सामाजिक नियंत्रण की कठोरता : अनौपचारिक रूप से सामाजिक नियंत्रण में प्राथमिक संस्थाएँ जैसे परिवार, जाति, धर्र्म, इत्यादि की महत्तवपूर्ण भूमिका होती है। गाँवों से पारंपरिक संस्थाओं का प्रभाव अनौपचारिक लेकिन शक्तिशाली होता है। सदस्यों के लिए इन अनौपचारिक नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। इन नियमों की अवहेलना की संभावना नगण्य होती है। अवहेलना होने पर इसकी कठोरता से आलोचना होती है। इसके लिए पंचायत द्वारा दंडित भी किया जाता है।
09 मई 2010
भारतीय संस्कृति में ग्रामीण समुदाय
Posted by Udit bhargava at 5/09/2010 06:17:00 am
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
एक टिप्पणी भेजें