20 मार्च 2012

जब मैंने अपने जालिम पति को खुश करना चाहा

जब मैं ने डा.अनिता श्रीवास्तव का "पति को खुश करने के अचूक नुस्खे" लेख पढ़ा तो मन खुशी से झूम उठा। मेरे दिल के मुरझाए फूल खिल उठे। मेरे पतझड़ जैसे जीवन में लगने लगा की वसंत ऋतु का आगमन शुरू होने लगा है। विश्वास कीजिये, तब से रक्त संचार की गति सामान्य गति से तीव्र हो गई।
   मैं भी उस दिन को कोस रही हूँ की पहली रात मैं ने बिल्ला क्यों नहीं मारा। क्यों मैं लाज की मारी छुईमुई कली बनी बैठी रही? काश, मैं बिल्ला मार पाती। खैर, जो हुआ सो हुआ, अब क्या होना है, उस पर विचार किया जाए। मैं ने ठान ली की जैसे भी हो, अब तो हर सम्भव तरीके से अपने पति को खुश रखना है, बस फिर क्या था? सोच लिया की इन अचूक फार्मूलों से मेरे पति बच नहीं पाएंगे, और मैं? मेरा सर कढाही में और पाचों उंगलिया घी में होंगी।
   सोचा, शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। क्यों न आज से ही यह कार्य शुरू किया जाए? बस फिर क्या था, सोचने की देर थी की बदन में अजीब तरह की स्फूर्ति आ गयी। पैरों में हलचल मच गई। यानी आज तो घर की सफाई सुव्यवस्थित और जाले, वगैरहवगैरह सब साफ़ हो गए। हम भी हैरान हो गए की जो काम पांच बरस में नहीं हो पाया, वह केवल पांच मिनटों में कैसे निबट गया। खैर, यह सब करने के बाद पुरानी पत्रिकाएँ निकालीं, सौन्दर्य नुसखे ढूंढें और पढ़पढ़ कर वही दिया, जो लिखा था-यानी लिपाईपुताई, रगड़ाई, रंगाई सारे काम एक साथ। अब हाथ छिले चाहे पाँव, चाहे खून ही निकल आए। भई, जब कार्य पहली बार शुरू किया तो वह ठीक ढंग से होना चाहिए।
   रूप तो अब काफी निखर चुका था। थोड़ा सा मेकप भी किया। आज वही साडी पहन ले जो इन्हें कभी प्रिय होती थी और मुझे अप्रिय। मगर इन्हें खुश जो करना था। बालों में नई शैली की केशसज्जा कर डाली। शीशे के आगे खडी थी। यकीन नहीं आ रहा था की मैं सचमुच सुन्दर लग रही हूँ। अब तो इंतज़ार था उन के आने का। कम्बखत सूरज को भी आज ही देर से ढलना था और मुई सुई थी की छः पर ही नहीं आ रही थी। आखिर अंदरबाहर आतेजाते सुई हम पर मेहरबान हुई। और ठीक छः बजे मेरा दिल भी बुरी तरह धड़क रहा था। सोचा, आज तो जालिम पति बड़े प्यार से आँखों में आखें डाल कर कहेंगे, "प्रिय, बड़ा गजब ढा रही हो, क्या इरादा है?" और मैं शरमा कर कह दूंगी, वही सब जो कहते होंगे। तभी हमारे खटारे से स्कूटर की आवाज सुनाई पडी, पर मुझे अन्य दिनों की तरह फटे बांस के सुर जैसी नहीं लग रही थी, बल्कि यों लग रहा था जैसी मीठी ध्वनी कानों पर पड़ रही हो।
   जनाब ने अन्दर प्रवेश किया और मुझे देखते ही अवाक रह गए। कहने लगे, "माफ़ करना, मैं गलती से इस घर में घुस आया, श्रीमतीजी," जाने लगे तो मैं ने कहा, "अजी, मुझे और अपने घर को नहीं पहचाना? मैं हूँ तुम्हारी..."
   उन्होंने खूंखार नजरों से देखा और अन्दर चले गए। मैं कुछ सोचती की उन की भयंकर...नहीं...नहीं बड़ी प्यार भरी आवाज सुनाई पडी। दासी तो एकदम तैयार थी हुजूर के लिए। मेरे रोबीले पति ने कड़क कर कहा, "यह तुम्हें क्या सूझी थी श्रृंगार करने की? इतने सालों तक क्या सोई थीं? जाओ और खिचडी बना दो, पेट गड़बड़ हो रहा है।"
   लो, बस पेट को भी आज ही ख़राब होना था, जब की उन की पसंद की तरकारी मैं ने कितने प्यार और मेहनत से बनाई थी। अब क्या करूंगी उस का? बर्तन वाली माई भी नहीं ले जाएगी। मैं ने फिर मन को ढाढस बंधाया। कोई बात नहीं, अब तो रोज वही तरकारी ही बनेगी। मैं तो अचार से भी खा लूंगी। आखिर उन्हें खुश जो करना है।
   मैं तो फार्मूले पर फार्मूले पढ़े जा रही थी, मगर जादुई असर नहीं हो रहा था।
   मैं भी हिम्मत हारने वालों में से नहीं हूँ। एक दिन उन के यही दोस्त आ धमके जिन की शक्लों से मुझे बड़ी चिढ थी। यह मुझे टेढ़ी आँख भी न भाते थे। दोस्त क्या वे, आफत थे। उन्हें देख कर मैं नाक भौं सिकोड़ती की मुझे याद आया की पति को खुश रखना है। शायद यही नुसखा कामयाब हो जाए। उन को एक मीठी मुस्कान के साथ अन्दर लाई, चाय पिलाई, पकौड़े खिलाए, फिर हाथ के बने गुलाब जामुन। रात को भी बगैर खाए नहीं जाने दिया। मित्र हैरान परेशान, डरेडरे, बारबार यही दोहरा रहे थे, "भाभीजी, तबीयत तो ठीक है न?" मैं कहती जा रही थी, "अरे, तबीयत को क्या हुआ, आप के सामने हूँ।"
   मैं तो अपना कार्य पूरे लगन से करती जा रही थी। आज 100 प्रतिशत तो नहीं 50 प्रतिशत यकीन था की मेरे पति वाहवाह कर उठेंगे, कहेंगे, पत्नी हो तो ऐसी, जो मेरे आने वालों का इतना ख़याल रखती है।
    सोचसोच कर फूली नहीं समा रही थी की दोस्तों के जाते ही वह गरजे, "ये क्या हो गया है तुम्हें? क्या जरूरत थी इतना महँगा नाश्ता कराने की? बड़ी हंसहंस कर बतिया रही थें, ठीक है दुआसलाम हुई, यह क्या की उन्हीं पर चिपक गई।"
   लीजिए, सुना आप ने? मेरे किए कराए पर पानी फिर गया। छि:, बेकार हाथ भी दुखाए गुलाबजामुन बनाने में। कितने कठोर हैं यह। गुस्सा भी आ रहा था, मगर सोचा, अभी कुछ फार्मूले बाकी हैं। मुझे ऐसे हालात देख कर लग रहा था मंजीर दूर छूटती जा रही है। फिर भी मंजिल पाने की लालसा ने मुझे प्रोत्साहित किया। मैं फिर बड़ी।
   यानी वक्त आ गया "हाँ" में "हाँ" करने का। तू कहे दिन में तारे हैं तो बिलकुल सही, तो कहे रात में सूरज उग आया है तो भी सही। पर हफ्ते गुजर गए, उन्होंने ऐसा वैसा नहीं कहा। शायद आप के पति ने जरूर कहा होगा, आप के पति शायद इतने जालिम नहीं है, पर यहाँ तो नैया डूब रही थी।
   न जाने क्यों, न परिस्थति साथ दे रही थी, न फार्मूले, न ये जालिम पति। कैसे और किस काम से पति खुश होंगे, सोचसोच कर दिमाग की नसें तन गई थीं।
   खैर, अगला फार्मूला एक नजर में पढ़ा और पति के दफ्तर से आते ही उन की बाहों में बाहें डालते उन की आँखों का जाम पीने जा रही थी की उन्होंने हाथ छुडा कर झल्लाते हुए कहा, "आजकल तुम्हारा दिमाग घूम गया है। न जाने कैसी कैसी हरकतें करती हो? आज जा कर अपना दिमाग एक्सरे करा आओ।" आप अच्छी तरह मेरी स्थति समझ सकते हैं। मुझे गश आ गया और सचमुच डाक्टर आ गया, पर  मुझे कुछ हुआ होता तब न। इलाज किस चीज का होता?
   मैं ने टूटे दिल से थके लफ्जों में खुद से कहा, 'आखिरी बार कोशिश कर लो, शायद सफलता आप के कदम चूमे! उन का यानी उन्हीं का जन्म दिन आ गया और मैं झटपट एक कमीज और पैंट का कपड़ा खरीद लाई। शाम को उन के आते ही शुभकामनाओं सहित उन्हें भेंट दी। वह तपाक से बोले, "खर्च करना कोई तुम से सीखे।" भेंट खोली गई। मैं ने सोचा, अब तो जरूर खुश होंगे। पर सुनने को मिला, "यह क्या चटक रंग उठा लाई? क्या मैं यह पहनूंगा? दे देना अपने भाई को, उस पर अच्छा लगेगा।"
   बस, मेरा टूटा दिल जोर से गा उठा, "दिल के टुकडे टुकडे कर के जनाब चल दिए।"
   सभी प्रयत्न कर चुकी हूँ। एक वह हैं, एकदम उसी पटरी पर चल रहे हैं, जहाँ चलते थे।
   अगर कोई और फार्मूला आप के पास हो तो जरूर खबर करें, जिस से मेरे टेढ़े पति सीधे हो जाएं। मेरा सर कढाई और पाँचों उंगलिया घी में हों।
    

1 टिप्पणी:

  1. jab aapne apne pati ko jaalim kah diya tabhi se aap apne pati ki najaro me jaalim ho gayi. Aapko unhe usi rup me dekhana hoga jis rup me aap apne ko dekhna chahati ho

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