29 अप्रैल 2012

किनारा

मैं धड़कते दिल से डाकिये का इंतज़ार कर रही थी। मैं ही क्यों? माँ और पिताजी भले ही ऊपर से शांत दिखाई पद रहे थे, लेकिन मैं जानती हूँ कि वे अन्दर से कितने बेचैन थे।
  बात यह थी कि पिछले हफ्ते सुशांत मुझे देखने आए थे और आज उन का जवाब आने की उम्मीद थी। वैसे अपनी शादी के बारे में मैं कुछ निराश और तटस्थ सी हो गयी हूँ। लेकिन मेरे कारण पिताजी को जो चिंता थी, उस से मेरा मन ज्यादा ही व्यथित होता था। मेरे कारण माँ भी कहीं बाहर ज्यादा उठाने बैठने नहीं जाती थीं।
  अडोसपड़ोस की स्त्रियाँ अकसर मुझ से कहतीं, "अरे, शादी क्यों नहीं करती, कुसुम? तेरे छोटे भाई और दोनों छोटी बहनों की शादी हो गयी और तू किस राजकुमार का इंतज़ार कर रही है?"
  "कुसमम, तेरे जैसी सुन्दर और गुणवती लडकी की 30 साल की उम्र तक शादी नहीं हुई? कुछ अटपटा सा लगता है। सचसच बता, क्या बात है?"
   उन्हें मैं कैसे समझाऊँ कि मैं खुद इस बात से परेशान हूँ। मांबाप की मैं लाडली पहली सन्तान थी। रंगरूप सुन्दर, खानदान अच्छा, पढीलिखी। जब मेरी शादी की उम्र हुई, पिताजी कौतुक से कहते, "कुसुम के लिए मैं राजकुमार ही खोजूंगा।"
  "यह लड़का आई.ए.एस. है तो क्या हुआ, रंग तो काला है..." "यह डाक्टर लड़का होशियार है, लेकिन ठिगना है..." "इस लड़के का खानदान अपने बराबरी का नहीं है," कह कर कितने ही लड़के उन्होंने किसी न किसी वजह से नापसंद कर दी। 
 मेरी उम्र बढ़ती चली गयी। हमारी शर्तें भी कम हो गयी। लेकिन हमारी इच्छापूर्ति न हुई। इस दरम्यान भाई और दो बहनों की शादी हो गई। उन का सुखी संसार बसा। लेकिन मैं जहाँ की तहां रही। बड़ी उम्र की कारण अब लड़के मुझे नकारने लगे। समय काटने के लिए मैं ने चित्रकला और शास्त्रीय संगीत का अभ्यास शुरू कर दिया।
  गेट खुलने की आवाज आते ही पिताजी बाहर गए। मैं ने अपने कमरे से देखा, सचमुच डाकिया था। पिताजी के हाथ में उस ने लिफाफा दिया। सांस रोक कर मैं कमारे में ही खादी रही, "अरे कुसुम, तू ने बाजी मार ली," कह कर खुस हो कर पिताजी के हंसने का मैं इन्त्ताजार कर रही थी। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तो मैं समझ गई कि इनकार है। मन को ठेस पहुँची, थोड़ी देर बाद मन स्थिर किया और ऊपरी उत्साह से हाल में गई।
  माँ और पिताजी उदास बैठे थे।
  "माँ, मैं ने कल जो चित्र बनाया था, उस को दिखाना भूल गई। अभी ले आती हूँ।"
  मैं चित्र लाई। माँ और पिताजी ने उस की तारीफ़ की, तब मैं ने कहा, "माँ, आप को कमलाजी ने मदद के लिए जल्दी बुलाया है। आप दोनों जाइए न?"
  "कमलाजी का और हमारा निकट का सम्बन्ध अहि। उन की इकलौती बेटी मंजू का ब्याह है। जितनी मदद हम से होगी, उतने तो करेंगे ही, "पिताजी बोले, "लेकिन आज कुछ सुस्ती लग रही है।"
  "नहीं पिताजी, आप का जाना जरूरी है। आप दोनों जाइए। शादी के वक्त मैं आउंगी। शाम को 6 बजे शादी है न।"
  "हाँ बेटी," पिताजी ने कहा।
  "कुसुम, तुम को भी वहीं दोपहर का खाना खाना है," माँ ने कहा।
  "माँ, मैं घर पर ही कुछ बना लूंगी और शाम को वहां आउन्गीए।"
  माँ सब समझ गई थीं। कुछ ज्यादा बोलीं नहीं। थोड़ी देर बाद माँ और पिताजी दोनों कमलाजी के यहाँ चले गए।
  उन के जाने के बाद मेरा मन घोर निराशा से भर गया, "उफ़, मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?" असहाय सी मैं बिस्तर पर पड़े चुपचाप आंसू बहा रहे थी। पहला आवेग थमने के बाद मेरा मन कहने लगा, "अगले पगली, उठ, शादी ही जीवन का सर्वस्व नहीं है। उस तरफ का मार्ग बंद है तो दुखी होने की, घबराने की क्या जरूरत है? सुखी जीवन के अनेक मार्ग है। उन में से एकाध चुन ले। मुझ को गायन तथा चित्रकला का शौक है उसी से अपना दिल लगा ले। उठउठ, अपने जीवन के प्रवाह को चट्टान से टकराने से क्या लाभ? दूसरा सुगम मार्ग अपना ले। अब उठ और अपना जीवन नए मोड़ पर उत्साह से ले चल।"
  आश्चर्य, इस बोध से मैं चकित हुई। मेरे मन का बोझ हल्का हुआ। सच तो है कि तीव्र निराशा के बाद जीवन की आशाकिरण किखती है।
  मैं स्फूर्ति से उठी, शैम्पू से बाल धोए। नहाने से मन प्रफुल्लित हुआ। हेयर ड्रायर से बाल सुखाए। मेकप कर के हलकी गुलाबी रंग की शिफोर की सादी पहनी। आईने में अपना चेहरा देख कर मैं खुश हुई। गाना गुनगुनाते हुए हाल में गई। मेरी बनाई हुए कलाकृति वहीँ मेज पर रखी थी। उसको बड़े स्नेह से देखा मैं ने।
  इतने में दरवाजे की घंटी बजी।
दरवाजा खोला तो देखा कमलाजी का लड़का समीर और एक युवक खडा था।
  "कुसुम दीदी, यह हैं मेरे भाई अभय। आप से मिलाने आए हैं," समीर ने कहा।
  नमस्कार का आदानप्रदान हुआ।
  "आइये, बैठिये।"
  "दीदी, घर में काम है, मैं जाता हूँ। अभय भैया बैठेंगे। बाद में आप कार से उन्हें ले आइये। और हाँ, माँ ने कहा है कि आज आप को हमारे यहाँ ही खाना है। जरूर आइयेगा।" कह कर समीर चला गया।
  "मुझे पहचाना?" अभय हंस कर पूछ रहा था। मैं उसे देख रही थी। उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी, लेकिन कुछ याद नहीं आया।
  "नहीं पहचाना न? मैं अभय हूँ। 20 साल पहले आप के पिताजी और मेरे पिताजी जबलपुर में साथ थे। दोनों के बंगले एकदूसरे से लगे हुए थे। आप करीब 9-10 साल की थीं और मैं 12 साल का था। मेरी छोटी बहन सुधा के साथ खेलने आप आती थीं। अब कुछ याद आया?"
  मुझे कुछ धुंधली याद आई, "अरे, तू हम को फल तोड़ के देता था न?"
  "चलो, कुछ थोडाबहुत तो पहचाना।" कह कर अभय हंस पडा, उस का गोराचिट्टा रंग, ऊंचापूरा गँठीला बदन, प्रसन्न व्यक्तित्व देख कर मैं बहुत प्रभावित हुई। उस के साथ बचपन की बातें कर के बहुत अच्छा लग रहा था।
  "अभय, पहले बता, तुझे कैसे पता चला कि मैं यहाँ हूँ और तू ने मुझे कैसे पहचाना?"
  "बहुत सरल तरीके से। कमलाजी मेरी सगी मौसी हैं। इसलिए मंजू की शादी में माँ और पिताजी के साथ मैं भी आया।
कमलाजी के यहाँ तुम्हारे पिताजी से भेंट हुई। बातचीत के दौरान मैं ने तुम्हारे बारे में पूछा, तब सब पता चला और तुम से मिलाने आ गया।"
 "इतने साल बाद मेरा नाम कैसे याद आया?"
  "कोइ अचरज की बात नहीं। बचपन में कुसुम नाम की गुडिया सी लडकी ने मेरे मन पर चाप छोटी थी। वह काल प्रवाह में धूमिल अवश्य हुई थी, पर आज तुम्हारी माँ और पिताजी से मिलाने के बाद एकदम साफ़ हुई। वह छोटी गुडिया अब कैसी दिखती होगी, यह जानने के लिए मैं बड़ा उत्सुक था और एकाएक यहाँ आ गया।"
  "अब आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं? सब बताइए न।" बचपन की बातें चली थीं, तब 'तुम' संबोधन सहज रूप से बोला गया। लेकिन संभाषण का रूख जब वर्त्तमान पर आया, तब अभय को युवक के रूप में देख कर 'तुम' की जगह 'आप' संबोधन आदतन आ गया।
  अभय हंस पडा, "अरे, उम्र में बड़ा हुआ तो क्या हुआ, मैं तो पुराना ही 'तुम' वाला अभय हूँ। 'आप' सम्भोधन की औपचारिकता की जरूरत नहीं।"
  मेरे चेहरे पर भी मुस्कराहट आ गई। किंचित लजाते हुए मैं ने कहा, "अच्छा बाबा, 'तुम' कहूंगी। अब सब बताओ।"
  "मेरे पिताजी की बदली जबलपुर से इंदौर हो गई। वहीं पर मैं ने एम.बी.बी.एस. और एम.दी. की डिगरी हासिल की। स्वर्ण पदक भी मिला। फिर छात्र के रूप में वीजा से लेकर 25 साल की उम्र में अमरीका गया। मुझे शोध में रुचि है। अमरीका में शोध ही कर रहा हूँ। अपने अमरीकी प्राध्यापकों की मदद से बहुत संघर्ष के बाद पिचले साल मुझे ग्रीन कार्ड मिल गया। शोध की सुविधाएं अमरीका में बहुत ज्यादा हैं, इसलिए वहीँ रहना चाहता हूँ। इस साल 1 महीने के लिए भारत आया हूँ," फिर रूक कर बोला, "इतना जीवन परिचय काफी है न?"
  मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि इस की शादी कब हुई। पत्नी कैसी है? यह सब जानने के इच्छा थी, लेकिन न मालूम क्यों मैं यह सीधा सवाल नहीं पूछ सकी। इधरउधर की कुछ बातें होने लगीं। फिर मुझ से रहा न गया।
  "पत्नी भी साथ आई है न?"
  "अरे, पत्नी हो तो साथ आएगी। हम तो अभी कोरा कागज़ ही हैं।"
  फिर कुछ गंभीर ह कर स्थिर दृष्टि से मुझे देख कर वह बोला, "पत्नी की खोज के लिए ही यहाँ आया हूँ।"
  मैं एकदम सकुचाई। मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। अभय का 'यहाँ' का क्या मतलब-हिन्दुस्तान में या मेरे यहाँ? इस विचार सेमिन स्तब्ध हो गई। मेरे मन में आशा की किरणें चमकने लगीं। अभय का जादू मुझ पर हावी होने लगा था। उस की स्निग्ध और गंभीर नजर मुझ पर टिकी थी। अपनी आँखों का भाव छिपा कर मैं ने पलकें झुका लीं। दोनों की स्तब्धता और आँखों के भाव बहुत कुछ कह गए।
  थोड़ी देर में संयत हो कर मैं ने सहज ढंग से कहा, "अभय, मैं आजकल चित्रकला में रुचि ले रही हूँ। मेरे बनाए चित्र देखोगे?" कह कर मैं हाल में रखी कलाकृति के पास गई। मेरे पीचेपीचे अभय भी आया।
  उस की निकटता मुझे उत्तेजित करने लगी। मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। मैं मुग्ध सी खडी रही। डर लग रहा था कि मेरे मन में उभरने वाली प्रणयभावना का अंदाजा कहीं अभय को न लगे। तभी पीछे से अभय ने कहा, "कुसुम, तुम से कुछ पूछना है। उस का मृदु आतुर स्वर सुन कर मेरा मन खुशी से नाचने लगा। लचीली आँखों से मैं ने उस की तरफ देखा।
  "कुसुम, तुम मेरी पत्नी बनोगी।"
  मुझे लगा जैसे कोइ दोनों हाथों से मुह पर खुशियाँ बिखेर रहा है। मेरी पलकें झुक गईं। शब्दों की स्वीकृति की जरूरत ही नहीं थी। मंद मधुर, मुसकराते हुए उस ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, "अपने प्रश्न का उत्तर 'हाँ' समझूं?"
  मैं ने कब 'हाँ' कहा, कैसे और कब उस के बाहुपाश में बंध गई, मुझे पता न चला।  

                                                                                                                                                                              - कमल भालेराव