ऋतु ने एक बार सारे घर में घूम कर देखा। कहीं कोई गंवारपन नहीं दिखाई दिया। दीवार पर टंगी घड़ी तथा कलाकृतियाँ, खिड़की पर रखा नन्हा कैक्टस का गमला, बाहर रखे बोनसाई पौधे। सभी कुछ तो आधुनिक था। अब कोई घर देख कर यह नहीं कह सकता था की घर में कोई पिछडापन है।
उस ने घड़ी देखी, "ओह, मार्गरेट के आने में बस आधा घंटा रह गया है।" पता नहीं इस नई मेहमान के आने की खबर से उस के दिल में क्यों धुकधुक हो रही थी? एक तो आने वाले ईसाई थीं, ऊपर से गोआ की रहने वालीं। इसलिए वह अपने व्यक्तित्व के साथसाथ घर की साजसंवार के प्रति अतिरिक्त सजग हो उठी थी। अन्दर रखी हुई सजावट की वस्तुएं निकाली थीं। कुशन, परदे, यहाँ तक की तकिये के गिलाफ तक बदल दिए थे।
एक बार फिर वह श्रृंगार मेज के सामने खडी हो गयी। कितने महीनों बाद उस ने भिड़ी पहनी थी। कमर में 'सफ़ेद धातु' की चेन भी बांधी थी, वरना शादी के बाद मन कैसाकैसा हो जाता है। लड़कपन की पोशाक पहनने में स्वयं ही संकोच होने लगता है। हालांकि अनिल को कोई मतलब नहीं था। उस की बला से कुछ भी पहनो, फिर भी भिड़ी रात में कहीं बाहर जाते समय ही पहन पाती थी।
उस ने सोचने की कोशिश की कि मार्गरेट कैसी होंगी। उम्र तो उन की 40 वर्ष के आसपास होगी, क्योंकि उन के पति डेविड भी कम से कम 45-46 वर्ष के लगते हैं। देखने में भी वह जरूर चुस्त होंगी, क्योंकि डेविड भी तो कम आकर्षण नहीं हैं। अच्छा तो भिड़ी पहन कर आएंगी या भिड़ी पेंट पहन कर या जींस पहन कर?
धत, तीन दिनों से मार्गरेट किस कदर उस के दिमाग पर छाई हुई हैं। कितनी बार उस ने इस बात को दिमाग से झटकना चाहा है की मार्गरेट उस के घर आने वाली हैं, किन्तु हर बार वह दिमाग में घुसती ही जा रही है। वह भी क्या करे? डेविड से उन के बारे में व उन के परिवार की शानशौकत के बारे में इतना सुना है की वह उन्हें बिना देखे ही मोहित हो गयी थी। चाचाजी हमेशा बताते रहते थे आजादी से पहले मार्गरेट के पिता किस तरह अंग्रेज अफसरों के साथ शिकार पर जाया करते थे। उन लोगों के परिवार के साथ उन के परिवार का दिन भर का उठनाबैठना था।
तभी तो वह तीन दिनों से परेशान थी की मार्गरेट यहाँ आ कर उस में या उस के घर में कोई गंवारूपन न नोट कर लें। मन ही मन उस ने उन से बात करने के लिए बेहतर से बेहतर अंगरेजी वाक्य छांट रखे थे। वह किसी पब्लिक स्कूल में नहीं पड़ पाई तो क्या, लेकिन अंगरेजी माध्यम के अच्छे स्कूल में तो पढी हुई थी।
अनिल और डेविड का परिचय तो बहुत पुराना था। वह नौकरी की खातिर गोआ से इतनी दूर चले आए थे। उन की पत्नी बच्चों के साथ गोआ में निजी मकान में अपनी बूढ़े सासससुर के कारण रह रही थीं।उन की कनपटियों के पास के कुछ सफ़ेद बाल उन की उम्र की चुगली खाते थे, वरना उन के अलमस्त व्यक्तित्व का उम्र से कोई लेनादेना नहीं था।
"चीं...चीं...चीं..." चिडियानुमा घंटी बजी। वह हाथ का कंघा छोड़ झटपट दरवाजे की तरफ भागी। उफ़! मार्गरेट इतनी जल्दी आ गईं। वह जल्दी में बैठक में कोने की मेज से टकरा गई। मेज के उलटने से उस पर रखी एश ट्रे गिर गई। उस ने एश ट्रे को झटपट मेज पर रख कर दरवाजा खोला।
दरवाजे पर खड़े डाकिए ने उस के हाथ में तीन पत्र थमा दिए। उन ने झल्ला कर जोर से दरवाजा बंद कर दिया।
तीनों पत्र पढने के बाद फिर सोचा, चलो रसोई में एक चक्कर लगा आए। सूप, उबली हुई सब्जियां व अंडे तैयार थे। पुडिंग बना कर भी फ्रिज में रख दी थी।
उन लोगों के आने पर सैंडविच तो शान्ति सेक देगी। रसोई का एक चक्कर लगा कर वह खुश हो गई। कितना मजा है यूरोपीय खाना बनाने में। न मेहनत, न कोई झंझट। अगर हिन्दुस्तानी खाना बनाया होता तो अब तक तो वह रसोई में ही लगी होती। रसोई भी तो कितनी साफसुथरी लग रही है। नहीं तो इस में मसाले व इलायची की खुशबू ही भरी होती।
बहुत दिनों पहले देखी किसी अंगरेजी फिल्म की नायिका की तरह वह ऊंची एडी के सैंडिल को खटखट करती चलती बैठक में 'शिक' पत्रिका ले कर बैठ गई। हाथ पत्रिका को उलटपुलट रहे थे, लेकिन अभी भी उस के दिल में मार्गरेट के आने की उत्तेजना भरी हुई थी।
"चीं...चीं...चीं..." इस बार दरवाजे पर अनिल, डेविड व साथ में एक महिला साड़ी में लिपटी, माथे पर सिन्दूर की बिंदी लगाए खडी हुई थी. वह खीज उठी। "उफ़, सारी मेहनत पर पानी फिर गया। आखिर मार्गरेट नहीं आईं।"
वह उन से चहक कर "हाय!" कहे इस से पहले ही उस महिला ने हाथ जोड़ कर कहा, नमस्ते, ऋतुजी, मैं मार्गरेट हूँ।"
उसे सहज होने में कुछ सेकण्ड लगे, "नमस्ते, आइये...आइये।"
ऋतु को गुस्सा आया। यह तो हिन्दुस्तानी में ही बात कर रही है। इस के छांट कर रेट हुए अंगरेजी वाक्यों का क्या होगा?
ऋतु उन की ओर लगातार कनखियों से देखती जा रही थी। जिस शिष्टाचार को सिखाने में उस के मांबाप ने जान लगा दी, मार्गरेट उन में से एक का भी पालन नहीं कर रहीं थी।
उफ़, मेज पर बैठते ही उन्होंने गिलास फूल की तरह सजा नेपकिन टांगों पर न बिछा कर बेदर्दी से मेज पर पटक दिया था। प्लेट के एक तरफ रखे हुए छुरीकांटे को उन्होंने छुआ भी नहीं था। सैंडविच हाथ में ले कर आराम से खा रही थीं।
"ओह", वह झुंझला उठी। कहाँ तो वह कल्पना कर रही थी की मार्गरेट धीमे से खाने की मेज की कुरसी खिसका कर आहिस्ता से उस पर बैठेंगी। उँगलियों की पोरों से नेपकिन उठा कर अपनी टांगों पर फैला कर बातों के बीच धीमेधीमे सूप सिप करेंगी। बाद में नजाकत से छुरीकांटे से सेंडविच खाएंगी। खैर, इतना न सही, कम से कम पुडिंग की ही तारीफ़ कर दें।
जब उस से रहा नहीं गया तब वह पूछ बैठी, "क्या आप को खाना पसंद नहीं आया?"
"ऐसी बात नहीं है, सब चीजें बहुत स्वादिष्ट हैं। ख़ास तौर से यह पुडिंग, लेकिन हमें तो उम्मीद थी की आप के यहाँ आज तो पूरी, बटाटा वाली कचौरी व खीर खाने को मिलेगी। मुझ को तो वही पसंद आता है। घर में भी मैं रोटी बनाती हूँ। ब्रेड से अधिक पौष्टिक होती है।"
उसे लगा उस के चेहरे का मेकप एकदम से किसी ने पोंछ दिया हो। वह तो तीन दिन से परेशान होती रही की कौनकौन सा यूरोपीय भोजन बनाए और मेम साहब हैं की अभी भी पूरी कचौरी के ज़माने में रह रही हैं।
"एक दिन हम आप के घर पूरी कचौरी खाने फिर आएँगे। और हाँ, कल आप सुबह हमारे साथ नाश्ता करने आइये आप लोगों को हलुआ और पिजा बना कर खिलाऊँगी।" फिर वह शालीनता से नमस्ते कर के चल दीं।
हलुआ और पिजा ! क्या अद्भुद संगम है, हिन्दुस्तानी और यूरोपीय खाने का। वह विस्मित थी। वह क्यों बावली बनी, पश्चिम सभ्यता के पीछे भागती जा रही है? क्यों नहीं उस ने समन्वय ढूँढने की कोशिश की? मार्गरेट का यह संतुलन सचमुच मोहक है।
वह खिसियाई हुई बाहर जाती हुई मार्गरेट को देख रही थी। उस का मन हुआ की जोरजोर से चीख कर वह तीन दिन से रटे हुए अंगरेजी वाक्यों में कुछ हिन्दी वाक्य मिला कर उन्हें अंगरेजी में जोर से सुना दे।
- नीलम कुलश्रेष्ठ
उस ने घड़ी देखी, "ओह, मार्गरेट के आने में बस आधा घंटा रह गया है।" पता नहीं इस नई मेहमान के आने की खबर से उस के दिल में क्यों धुकधुक हो रही थी? एक तो आने वाले ईसाई थीं, ऊपर से गोआ की रहने वालीं। इसलिए वह अपने व्यक्तित्व के साथसाथ घर की साजसंवार के प्रति अतिरिक्त सजग हो उठी थी। अन्दर रखी हुई सजावट की वस्तुएं निकाली थीं। कुशन, परदे, यहाँ तक की तकिये के गिलाफ तक बदल दिए थे।
एक बार फिर वह श्रृंगार मेज के सामने खडी हो गयी। कितने महीनों बाद उस ने भिड़ी पहनी थी। कमर में 'सफ़ेद धातु' की चेन भी बांधी थी, वरना शादी के बाद मन कैसाकैसा हो जाता है। लड़कपन की पोशाक पहनने में स्वयं ही संकोच होने लगता है। हालांकि अनिल को कोई मतलब नहीं था। उस की बला से कुछ भी पहनो, फिर भी भिड़ी रात में कहीं बाहर जाते समय ही पहन पाती थी।
उस ने सोचने की कोशिश की कि मार्गरेट कैसी होंगी। उम्र तो उन की 40 वर्ष के आसपास होगी, क्योंकि उन के पति डेविड भी कम से कम 45-46 वर्ष के लगते हैं। देखने में भी वह जरूर चुस्त होंगी, क्योंकि डेविड भी तो कम आकर्षण नहीं हैं। अच्छा तो भिड़ी पहन कर आएंगी या भिड़ी पेंट पहन कर या जींस पहन कर?
धत, तीन दिनों से मार्गरेट किस कदर उस के दिमाग पर छाई हुई हैं। कितनी बार उस ने इस बात को दिमाग से झटकना चाहा है की मार्गरेट उस के घर आने वाली हैं, किन्तु हर बार वह दिमाग में घुसती ही जा रही है। वह भी क्या करे? डेविड से उन के बारे में व उन के परिवार की शानशौकत के बारे में इतना सुना है की वह उन्हें बिना देखे ही मोहित हो गयी थी। चाचाजी हमेशा बताते रहते थे आजादी से पहले मार्गरेट के पिता किस तरह अंग्रेज अफसरों के साथ शिकार पर जाया करते थे। उन लोगों के परिवार के साथ उन के परिवार का दिन भर का उठनाबैठना था।
तभी तो वह तीन दिनों से परेशान थी की मार्गरेट यहाँ आ कर उस में या उस के घर में कोई गंवारूपन न नोट कर लें। मन ही मन उस ने उन से बात करने के लिए बेहतर से बेहतर अंगरेजी वाक्य छांट रखे थे। वह किसी पब्लिक स्कूल में नहीं पड़ पाई तो क्या, लेकिन अंगरेजी माध्यम के अच्छे स्कूल में तो पढी हुई थी।
अनिल और डेविड का परिचय तो बहुत पुराना था। वह नौकरी की खातिर गोआ से इतनी दूर चले आए थे। उन की पत्नी बच्चों के साथ गोआ में निजी मकान में अपनी बूढ़े सासससुर के कारण रह रही थीं।उन की कनपटियों के पास के कुछ सफ़ेद बाल उन की उम्र की चुगली खाते थे, वरना उन के अलमस्त व्यक्तित्व का उम्र से कोई लेनादेना नहीं था।
"चीं...चीं...चीं..." चिडियानुमा घंटी बजी। वह हाथ का कंघा छोड़ झटपट दरवाजे की तरफ भागी। उफ़! मार्गरेट इतनी जल्दी आ गईं। वह जल्दी में बैठक में कोने की मेज से टकरा गई। मेज के उलटने से उस पर रखी एश ट्रे गिर गई। उस ने एश ट्रे को झटपट मेज पर रख कर दरवाजा खोला।
दरवाजे पर खड़े डाकिए ने उस के हाथ में तीन पत्र थमा दिए। उन ने झल्ला कर जोर से दरवाजा बंद कर दिया।
तीनों पत्र पढने के बाद फिर सोचा, चलो रसोई में एक चक्कर लगा आए। सूप, उबली हुई सब्जियां व अंडे तैयार थे। पुडिंग बना कर भी फ्रिज में रख दी थी।
उन लोगों के आने पर सैंडविच तो शान्ति सेक देगी। रसोई का एक चक्कर लगा कर वह खुश हो गई। कितना मजा है यूरोपीय खाना बनाने में। न मेहनत, न कोई झंझट। अगर हिन्दुस्तानी खाना बनाया होता तो अब तक तो वह रसोई में ही लगी होती। रसोई भी तो कितनी साफसुथरी लग रही है। नहीं तो इस में मसाले व इलायची की खुशबू ही भरी होती।
बहुत दिनों पहले देखी किसी अंगरेजी फिल्म की नायिका की तरह वह ऊंची एडी के सैंडिल को खटखट करती चलती बैठक में 'शिक' पत्रिका ले कर बैठ गई। हाथ पत्रिका को उलटपुलट रहे थे, लेकिन अभी भी उस के दिल में मार्गरेट के आने की उत्तेजना भरी हुई थी।
"चीं...चीं...चीं..." इस बार दरवाजे पर अनिल, डेविड व साथ में एक महिला साड़ी में लिपटी, माथे पर सिन्दूर की बिंदी लगाए खडी हुई थी. वह खीज उठी। "उफ़, सारी मेहनत पर पानी फिर गया। आखिर मार्गरेट नहीं आईं।"
वह उन से चहक कर "हाय!" कहे इस से पहले ही उस महिला ने हाथ जोड़ कर कहा, नमस्ते, ऋतुजी, मैं मार्गरेट हूँ।"
उसे सहज होने में कुछ सेकण्ड लगे, "नमस्ते, आइये...आइये।"
ऋतु को गुस्सा आया। यह तो हिन्दुस्तानी में ही बात कर रही है। इस के छांट कर रेट हुए अंगरेजी वाक्यों का क्या होगा?
ऋतु उन की ओर लगातार कनखियों से देखती जा रही थी। जिस शिष्टाचार को सिखाने में उस के मांबाप ने जान लगा दी, मार्गरेट उन में से एक का भी पालन नहीं कर रहीं थी।
उफ़, मेज पर बैठते ही उन्होंने गिलास फूल की तरह सजा नेपकिन टांगों पर न बिछा कर बेदर्दी से मेज पर पटक दिया था। प्लेट के एक तरफ रखे हुए छुरीकांटे को उन्होंने छुआ भी नहीं था। सैंडविच हाथ में ले कर आराम से खा रही थीं।
"ओह", वह झुंझला उठी। कहाँ तो वह कल्पना कर रही थी की मार्गरेट धीमे से खाने की मेज की कुरसी खिसका कर आहिस्ता से उस पर बैठेंगी। उँगलियों की पोरों से नेपकिन उठा कर अपनी टांगों पर फैला कर बातों के बीच धीमेधीमे सूप सिप करेंगी। बाद में नजाकत से छुरीकांटे से सेंडविच खाएंगी। खैर, इतना न सही, कम से कम पुडिंग की ही तारीफ़ कर दें।
जब उस से रहा नहीं गया तब वह पूछ बैठी, "क्या आप को खाना पसंद नहीं आया?"
"ऐसी बात नहीं है, सब चीजें बहुत स्वादिष्ट हैं। ख़ास तौर से यह पुडिंग, लेकिन हमें तो उम्मीद थी की आप के यहाँ आज तो पूरी, बटाटा वाली कचौरी व खीर खाने को मिलेगी। मुझ को तो वही पसंद आता है। घर में भी मैं रोटी बनाती हूँ। ब्रेड से अधिक पौष्टिक होती है।"
उसे लगा उस के चेहरे का मेकप एकदम से किसी ने पोंछ दिया हो। वह तो तीन दिन से परेशान होती रही की कौनकौन सा यूरोपीय भोजन बनाए और मेम साहब हैं की अभी भी पूरी कचौरी के ज़माने में रह रही हैं।
"एक दिन हम आप के घर पूरी कचौरी खाने फिर आएँगे। और हाँ, कल आप सुबह हमारे साथ नाश्ता करने आइये आप लोगों को हलुआ और पिजा बना कर खिलाऊँगी।" फिर वह शालीनता से नमस्ते कर के चल दीं।
हलुआ और पिजा ! क्या अद्भुद संगम है, हिन्दुस्तानी और यूरोपीय खाने का। वह विस्मित थी। वह क्यों बावली बनी, पश्चिम सभ्यता के पीछे भागती जा रही है? क्यों नहीं उस ने समन्वय ढूँढने की कोशिश की? मार्गरेट का यह संतुलन सचमुच मोहक है।
वह खिसियाई हुई बाहर जाती हुई मार्गरेट को देख रही थी। उस का मन हुआ की जोरजोर से चीख कर वह तीन दिन से रटे हुए अंगरेजी वाक्यों में कुछ हिन्दी वाक्य मिला कर उन्हें अंगरेजी में जोर से सुना दे।
- नीलम कुलश्रेष्ठ
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