अनेक कपोल- कल्पित हास्य-कथाओं के नायक शेखचिल्ली वस्तुतः जाति से शेख मुसलमान थे। इनका जन्म बलूचिस्तान के एक खानाबदोश कबीले में हुआ था।
निरंतर घुमक्कड़ी का जीवन जीने के कारण शेखचिल्ली पढ़ न सके। हाँ, आये दिन की परेशानियों और अभावों ने इनको आवश्यकता से अधिक हवाई किलेबाजी अता फरमा दी।
बचपन ही से शेखचिल्ली चमत्कारों की तलाश में पीर-फकीरों के दीवाने रहे। घुमक्कड़ी का जीवन इन्हें रास नहीं आया। रात-दिन ऐशो-आराम के साधन पा लेने के सपने और तुनकमिजाज अधिकारियों और सामंतों की तरह अपने को पेश करने के हवाई पुल बांधना इनकी नियति बनती गई।
वह जमाना ही अंधविश्वासों, झाड-फूंक और गंडे-तावीजों का था। फिर जिस कबीलियाई परिवेश में शेखचिल्ली गोदी से उतर धरती पर चलने लायक बने, उसमें तो अंधविश्वासों की जडें दिमाग के हर कोने में जमी थीं। अभावों में पलता भावुक बाल शेखचिल्ली इन्हीं अंधविश्वासों की परिणति में काल्पनिक चमत्कारों के रंग भरना सीख गया।
एक किवदंती के अनुसार शेखचिल्ली क़ी इन बे-सिर-पैर की हरकतों से तंग आकर एक रात उसके कबीले वाले किसी 'सूखे करेजे' (सूखी झाड़ियों का झुण्ड) के पास इन्हें सोता छोड़कर आगे निकल गए। शेखचिल्ली के जीवन का यह एक नया मोड़ था। अब वह नितांत अकेला रह गया था।
अकेलेपन की इस भावना ने उसकी कल्पना में पंख लगा दिए। जो उससे दूर था, अप्राप्य था, उसके पास होने के सुखद सपने और भटकना ही उसका जीवन बन गया। मनचाहा पा लेने की इच्छा से उसने फकीरों, ओझाओं और टोने-टोटके करने वाले नाजूमियों के दामन पकड़ने चाहे। न जाने क्यों, जैसकि ऐसी सूरतों में अक्सर होता है, उसमें कुंठा के या कमतरी के भाव नहीं हुए। हो जाते तो आज न शेखचिल्ली होता, न उसकी कहानियां।
शेखचिल्ली क्वेटा की बंजर धरती से कुरुक्षेत्र के हरियल इलाके में कैसे और कब आये, कोई नहीं जानता। केवल यह सोचा ही जा सकता है क़ी वह उन दिनों सीमा पार से आने वाले किसी जन-प्रवाह में बहकर कुरुक्षेत्र आ पहुंचे।
कुरुक्षेत्र उन दिनों हिन्दू साधू-संतों के साथ-साथ मुस्लिम फकीरों और पीरों की शरण-स्थली बन चूका था। शेखचिल्ली भी चमत्कारों की चाह में वहां के किसी पीर के मुरीद बन गए।
उन दिनों झज्जर एक छोटी-सी रियासत थी। पंजाब के अधिकाँश भाग से मराठों का शासन समाप्त हो चुका था और मुस्लिम शासकों की हर जगह तूती बोलनी शुरू हो गयी थी। शेखचिल्ली को कुरुक्षेत्र में नयी जिंदगी तो मिल गयी, मगर उसकी कल्पनाशीलता कम होने की उपेक्षा और अधिक निखरती गयी।
उन्हीं दिनों नारनौल के रईस हाफिज नूरानी से उनकी मुलाक़ात हुई। हाफिज नूरानी शेखचिल्ली क़ी न जाने किस अदा पर फ़िदा हुए क़ी उन्हें साथ इ आये। झज्जर के नवाबी घराने से हाफिज नूरानी क़ी खाई जान-पहचान थी। उन्होंने शेखचिल्ली को नवाब के दरबार में नौकरी दिलवा दी। शादी भी करा दी क़ी शेखचिल्ली के भटकावों में थोडा ठहराव आ जाए।
झज्जर एक छोटी-सी रियासत थी। जितनी आमदनी थी, लगभग उतने ही खर्चे थे। इसलिये शेखचिल्ली को उस नौकरी से इतना तो कभी नहीं मिल सका क़ी नवाब के दुसरे मुलाजिमों के तरह मजे से खा-पी सकें। हाँ, नवाब का मुलाजिम होने के कारण लाख खामियां होने के बावजूद भी, रियासत में उनकी इज्जत थी।
कहा जाता है क़ी सन 1800 के आसपास शेखचिल्ली झज्जर रियासत छोड़कर फिर कुरुक्षेत्र वापस चले गए। फ़कीर बन गए। उस समय तक उनकी आयु अस्सी के आस पास हो चली थी। उनके दोष हाफिज नूरानी भी अल्लाह को प्यारे हो गए थे और शेखचिल्ली की बेगम भी चल बसी थीं। रियासत पर भी दुर्भाग्य के बादल उड़ने शुरू हो गए थे और अंग्रेजों ने अवध को हड़पने की तैयारियों के साथ-साथ पंजाब की और हाथ बढाने शुरू कर दिए थे।
आजादी की पहली लड़ाई से लगभग पचास वर्ष पूर्व ही कुरुक्षेत्र में शेखचिल्ली की मृत्यु हो गयी। उस समय तक उनको मानने वालों की संख्या हजारों में पहुंच चुकी थी। कुरुक्षेत्र में स्थित शेखचिल्ली का मकबरा आज भी इस बात के गवाही देता है क़ी शेखचिल्ली अपने समय की उन शक्सियतों में से थे, जिनकी मौत पर गम मनाने वालून के कमी नहीं होती और जिन्हें इतिहास के पन्नों में ज़िंदा रखने की जरूरत महसूस की जाती है।
शेखचिल्ली को अक्सर हवाई किलेवाजी में दक्ष एक कामचोर मूर्ख की तरह चित्रित किया जाता है। हवाई किलेबाजी वह बेशक थे, किन्तु यदी गंभीरता से मनन किया जाए, तो शेखचिल्ली की हवाई किलेबाजी में अनेक सामाजिक असमानताओं और अहं के बंधनों को तोड़ डालने की चत्पताहत सहज ही महसूस की जा सकती है। शेखचिल्ली का व्यक्तित्व समाज के शोषण और तिरस्कार का प्रतिबिम्ब है। वह सबकुछ पा लेने की अदम्य इच्छा है, जिसमें सचमुच पा लेने की क्षमता को समाज ने पंगु बना डाला हो। फिर भी उनके किरदार में दया, परोपकार, और संतोष के झलक पूरी परिलक्षित होती है।
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