इन्द्रप्रस्थ के निर्माण के पश्चात् युधिष्ठिर सुखपूर्वक राज्य करने लगे। अकस्मात् एक दिन पाण्डवों के घर देवर्षि नारद पधारे। पाण्डवों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। नारद जी पाण्डवों से बोले, "हे पाण्डवगण! तुम पाँच भाइयों के बीच एक पत्नी है, इसलिये तुम्हें कुछ ऐसा नियम बना लेना चाहिये जिससे परस्पर कलह न हो। कलह शत्रुता का मूल होता है। इस संदर्भ में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ। प्राचीन काल में सुन्द और उपसुन्द नाम के दो महाबली दैत्य थे। उनमें आपस में बहुत प्रेम था। उन्होंने पूरे त्रिलोक में विजय प्राप्त कर लिया और इन्द्रादि देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। इससे दुःखी होकर इन्द्र सहित समस्त देवतागण ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और उनसे रक्षा पाने का उपाय पूछने लगे। ब्रह्मा जी ने कहा कि जब तक उन दोनों दैत्यों में परस्पर कलह नहीं होगा, स्वयं भगवान भी उन्हें परास्त नहीं कर सकेंगे। मैं सवयं उनमें कलह कराने का उपाय सोच रहा हूँ। इतना कह कर उन्होंने एक अत्यन्त रूपमती एवं लावण्यमयी स्री की सृष्टि की। उस स्त्री का तिल-तिल सुन्दर होने के कारण उसका नाम तिलोत्तमा रखा गया। उसे देख कर समस्त दैत्य-दानव मोहित हो गये। ब्रह्मा जी ने तिलोत्तमा को सुन्द तथा उपसुन्द के पास जाकर उनमें कलह कराने का आदेश दिया। ब्रह्मा जी का आदेश पाकर तिलोत्तमा सुन्द-उपसुन्द के पास पहुँची। उसे देखते ही दोनों दैत्य कामान्ध हो उठे और उसे प्राप्त करने के लिये परस्पर लड़ने लगे। इस प्रकार भयंकर युद्ध करते हुये दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो गये।"
नारद जी के वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने कहा, "हे देवर्षि! हम सब भाई आपके कथनानुसार ही कार्य करेंगे।" नारद जी के प्रस्थान कर जाने के बाद पाँचों भाइयों ने नियम बना लिया कि प्रत्येक भाई द्रौपदी के साथ एक निश्चित काल तक रहेगा और उस काल में कोई भी दूसरा भाई उनके पास नहीं जायेगा। जो भी इस नियम की अवहेलना करेगा उसे बारह वर्षों तक अपने नगरी से निष्कासित होना पड़ेगा। इस प्रकार सभी पाण्डव अपने बनाये हुये नियम का पालन करते हुये सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।
इसी बीच एक दिन एक ब्राह्मण के गौ को कुछ लुटेरे उठा ले गये। उस ब्राह्मण ने अर्जुन के पास आकर लुटेरों के विषय में बताया और अपनी गौ वापस दिलाने की प्रार्थना किया। अर्जुन ने उसे शीघ्रातिशीघ्र न्याय देने का आश्वासन दे दिया। उस समय अर्जुन के अस्त्र-शस्त्र उस महल में रखे थे जहाँ पर युधिष्ठिर एवं द्रौपदी विहार कर रहे थे। ब्राह्मण को न्याय दिलाने तथा लुटेरों को दण्ड देने को अति आवश्यक समझ कर अर्जुन उस महल में जाकर अपना अस्त्र-शस्त्र उठा लाये और ब्राह्मण की गौ को लुटेरों से वापस दिलाया तथा लुटेरों को दण्ड भी दे दिया। इसके पश्चात् नियम का पालन करने के लिये अर्जुन बारह वर्षों के लिये निष्कासित जीवन व्यतीत करने के लिये प्रस्तुत हो गये। यह देख कर युधिष्ठिर बोले, "हे अर्जुन! आपत्तिकाल में मर्यादा का ध्यान नहीं किया जाता। ब्राह्मण को न्याय देने के कारण तुम्हारा अपराध क्षम्य हो गया है।" किन्तु अर्जुन ने उत्तर दिया, " भैया! आपके बनाये नियम की अवहेलना करके मैं पाप का भागी नहीं बनना चाहता, अतः आप मुझे बारह वर्षों तक निष्कासित जीवन व्यतीत करने की आज्ञा दीजिये।" अर्जुन के तर्कपूर्ण वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने उसे बारह वर्षों के लिये निष्कासित कर दिया।
15 अप्रैल 2010
महाभारत - अर्जुन का निष्कासन ( Mahabharat - Arjun's expulsion )
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Posted by Udit bhargava at 4/15/2010 07:30:00 pm
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