प्राचीन समय में साँची भी बेसनगर का महत्वपूर्ण अंग था। प्राचीन समय में साँची भी बेसनगर का महत्वपूर्ण अंग था। बेसनगर स्थित हिलियोडोरस स्तम्भ (खाम्बबा) से वैष्णव धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त होती है तथा ऐसा भी ज्ञात होता है क़ी विदिशा में भागभद्र के दरबार में तक्षिला से यावंदूत हिलियोडोरस और उसने वैष्णव धर्म की अच्छाइयों को देखकर भागवत धर्म स्वीकार कर विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया तथा गरुड़ स्तम्भ की स्थापना की थी। मगध के शासक पुष्यमित्र शंगु के समय विदिशा पश्चिम क्षेत्र की राजधानी मानी जाती थी। शंगुकाल में साँची के स्तूप का विकास हुआ था। विदिशा (बेसनगर) में हाती दांत का कार्य अधिक होता था। साँची स्तूप की चारों दिशाओं में तोरण द्वार निर्मित किये गए जो हीनयान कला के महत्वपूर्ण उदहारण मानेज जाते हैं। कालिदास रचित मेघदूत तथा मालविकाग्निमित्रम में इस क्षेत्र की भौगोलिक तथा तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है। उन्होंने वेत्रवती (बेतवा) का बहुत सुंदर वर्णन किया है।
बेसनगर का क्षेत्र सातवाहन, कुषाण, पद्मावती (पवाया) के भारशिव नागवंशी शाशकों के अंतर्गत रहकर बहुत ही विकसित हुआ। गुप्तकाल में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वित्य की मालवा विजय के उपलक्ष्य में विदिशा के निकट उदयगिरी में गुफाओं का निर्माण हुआ जिनके अभिलेख गुफाओं में देखने को मिलते हैं। बेसनगर के दुर्जनपुर से प्राप्त रामगुप्त के समय की तीन जैन प्रतिमाओं की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख से गुप्त सम्राट रामगुप्त के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी मिली है। विदिशा के भैसला नाम से यह निष्कर्ष निकाला गया क़ी बेतवा के तट पर भिल्ल्स्वामी (सूर्य) का विशाल मन्दिर था, परन्तु यह मन्दिर कहाँ था, ज्ञात नहीं हो सका है।
दसवीं-ग्यारवीं शताब्दी के पश्चात विदिशा बेसनगर से हटकर वर्तमान विदिशा क्षेत्र में बस गया, जिसका विकसित स्वरुप आज विधमान है। प्रतिहार, परमार तथा मालवा के सुल्तानों के पश्चात विदिशा का यह क्षेत्र ग्वालियर के मराठा शासकों (सिंधिया) के अंतर्गत आकर बहुत विकसित हुआ। नया विदिशा बसने का एक प्रमुख कारण यह भी माना जाता है कि बेस तथा में निरंतर बाढ़ आती रही। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इस क्षेत्र में कई स्थानों पर किये गए पुरातात्विक उत्खनन से ये तथ्य उजागर हुए हैं। साथ ही मिटटी की विभिन्न परतों में जले हुए अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। इन उत्खननों से प्राचीन इतिहास के विषय में ठोस प्रमाण मिले, जिनसे विभिन्न युगों क़ी सभ्यताएं प्रकाश में आई हैं।
आजादी से पूर्व ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग द्वार किया गए उत्खनन से प्राप्त पुरावशेष ग्वालियर, विदिशा तथा अन्य संग्राहलयों में देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र की विश्व प्रसिद्ध प्रतिमाएं भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में भी देखी जा सकती हैं। इनमें प्रमुख शंगुकल कल्पवृक्ष तथा यक्षी प्रतिमा है। शैली के आधार पर ये प्रतिमाएं लगभग बाईस सौ बर्ष प्राचीन मानी जाती हैं।
बेसनगर क्षेत्र में समय-समय पर किये गए पुरातात्विक सर्वेक्षण के आधार पर यह तो निश्चित हो गया है क़ी पाषाणकालीन संस्कृति के अवशेषों से लेकर मध्यकालीन संस्कृति तक के अवशेष लगातार क्रमबद्ध प्रकाश में आये। शिलाश्रयों तथा उनके आसपास पूर्व, मध्य तथा उत्तर पुरापाषाण्कालीन उपकरण प्रचुर मात्रा में पाए गए हैं।
मध्यप्रदेश में विशेष रूप से बेसनगर क्षेत्र के अंतर्गत ताम्राश्मकालीन अवशेषों में आहाड सभ्यता के अवशेषों एवं उस समय के मृदभाण्डों का मिलना महत्वपूर्ण माना गया है, परन्तु बेसनगर से महाभारतकालीन चित्रित धूसर मृदभाण्डों का मिलना भी महत्वपूर्ण है। पलवल, दिल्ली, मथुरा, कुरुक्षेत्र, अहिछ्त्र, हस्तिनापुर, रुपड, कोटला निहंग, मुरैना जिले में कोटवार, गिलुलीखेडा इत्यादि स्थलों पर चित्रित धूसर मृदभाण्ड उत्खनन से एवं ऊपरी सतह पर पर्याप्त मात्र में मिलते हैं। उज्जैन के आस-पास वैश्य टेकरी क्षेत्र में तथा संदीपनी आश्रम के आसपास भी ऊपरी सतह पर इस प्रकार के मृदभाण्ड सर्वेक्षण के दौरान प्राप्त हुए हैं। ये मृदभाण्ड लौह युग अथवा महाभारतकालीन संस्कृति के विकास के सूचक हैं। परन्तु बेसनगर में चित्रित धूसर मृदभाण्डों उत्खनन में मिलना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। हरियाण, पंजाब में हडप्पाकालीन मृदभाण्डों के साथ चित्रित धूसर मृदभाण्ड मिलना आश्चर्यजनक होने के साथ-साथ महत्वपूर्ण भी हैं। बेसनगर में तम्राश्मयुगीन संस्कृति के मृदभाण्डों के साथ चित्रित धूसर मृदभाण्डों का मिलना भी उतना ही आश्चर्यजनक है, जो ताम्राश्मयुग की समाप्ति के साथ साथ लौह युग अथवा महाभारतकालीन संस्कृति का प्रारंभ दर्शाता है।
इसके साथ ही पुरातात्विक सर्वेक्षण के अंतर्गत मुरैना जिले में एक ओर कायथा मृदभाण्ड मिले हैं वहीँ दूसरी ओर इस मुरैना जिले में चित्रित धूसर मृदभाण्ड भी प्राप्त हुए हैं। वाकणकर कायथ को हड़प्पा से पहले हा मानते थी। यदि हम विचार करें तो बेसनगर उत्खनन से स्पष्ट हो गया है कि यहां ताम्राश्मयुगीन मृदभाण्डों के साथ चित्रित धूसर मृदभाण्ड भी प्रप्त होते हैं। एक ओर बेतवा तट पर स्थित रंगई स्थल से आहाड, मालवा, नवाश्मयुगीन "सेल्ट" मिला है, वहीँ दूसरी ओर बेतवा तट पर ताम्राश्मयुगीन संस्कृति के मृदभाण्ड, नवाश्मयुगीन "सेल्ट" तथा चित्रित धूसर मृदभाण्ड मिले हैं। यह हो सकता है क़ी ताम्राश्मयुगीन संस्कृति के अंतिम चारण के साथ ही चित्रित धूसर मृदभाण्डों का प्रयोग प्रारम्भ हो गया हो। बेसनगर के पश्चिम में शुंगकालीन सुरक्षा दीवार के नीचे स्तर पर जो मौर्यकाल तथा उसके पहले का स्तर है, उसके भी नीचे केवल चित्रित धूसर मृदभाण्डों के तुकडे, जो उत्तम श्रेणी के थे, प्राप्त हुए। रंगी उत्खनन में वाकणकर बेसनगर आये थे। उनका कहना था क़ी यहाँ कायथा मृदभाण्ड मिलना चाहिए, परन्तु न मिलने पर उन्होंने बताया क़ी भविष्य में उत्खनन किया जाए तो कायथा मृदभाण्ड अवश्य मिल सकते हैं।
बेसनगर से एक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई है, क़ी उत्तरी काले ओपदार मृदभाण्ड मौर्यकाल तथा कुछ बाद तक इनका निर्माण होना बंद हो गया था। इनके टूट जाने पर इन्हें ताम्बे क़ी रिबित तथा पत्ती से जोड़ा जाता था। उत्खनन में इन मृदभाण्डों की भग्न पत्ती भी प्राप्त हुई, जिससे बह जोड़े गए थे। बेसनगर कई बार बाढ़ तथा अग्निकां से उजड़ा तथा पुनः बसा, जिसका प्रमाण यहाँ युगयुगीन टीले हैं। यहाँ के निवासी बहादुर थे, फिर भी बाढ़, अग्निकां तथा युद्ध की बार-बार परेशानी के पश्चात वर्तमान विदिशा में विशाल दुर्ग का परकोटा निर्मित पर बस गए थे, जिसके प्रमाण प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। इसके बावजूद भी खाम्बाबा क्षेत्र में बसावट निरंतर वर्तमान युग तक चलती रही।
एक टिप्पणी भेजें