13 अप्रैल 2010

चमत्कारी चिकित्सक देववैध - अश्विनीकुमार

स्वर्ग लोक के वैध, देवगुणों में श्रेष्ठ सूर्य पुत्र अश्विनी कुमारों ने सर्प्रथम दक्षप्रजापति से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की, फिर चिकित्सकों की ज्ञानव्रीही के लिये 'अश्विनीकुमार संहिता' के रचना की, जिसमें आयुर्वेदके सभी अंगों-उपांगों को समाहित किया। देवताओं ने इन दयालु अश्विनी कुमारों को चिकित्सा का पूरा भार सौंप दिया - 'अथ भूतदयां प्रति' आयुर्वेद का यः सिधांत उनके जीवन में स्वभाव बनकर समाया हुआ था। वे हर रोगग्रस्त प्राणी को खोज-खोज कर उसका शारीरिक और मानसिक उपचार किया करते थे। कुशल चिकित्सक और शल्यक्रिया विशेषज्ञ के रूप में इनके विषय में अनेक कथाएँ प्रचलित है।

एक बार भैरव जी ने क्रोधित होकर ब्रह्माजी का सिर काट दिया। देव लोक में शोक चा गया, तब देवताओं ने अश्विनी कुमारों को बुलाया। उन्होंने शल्यक्रिया करके ब्रह्माजी का सिर फिर से जोड़ दिया- इसी कारन उस दिन से दोनों अश्विनी कुमार यज्ञ में भाग पाने के अधिकारी बन गए।

एतैश्चान्यैग्च बहुभि: कर्मभिभिर्षजां वरौ।
बभूवतुभृर्शं पूज्याविन्द्रादीनां दिवौकसाम्॥


"सुर्यपुत्र अशिविनी कुमार आयुर्वेद के सभी अंगों में निपूर्ण थे। जब भी कोई देव, गंधर्व अथवा मानव शारीरिक अस्वस्थता, दुर्बलता और वृद्धावस्था के कारण कष्ट महसूस करता तो वह अश्विनी कुमार को ही स्मरण करता, वे कभी किसी को निराश नहीं करते, ऐसे थे अश्विनी कुमार। "

दीर्घतमा नामक एक सूक्तद्रष्टा ऋषि थे। वे जन्म से अंधे थे। जब वे जर्जर-वृद्ध हो गए तो नौकर-चाकर भी उनकी सेवा करते-करते ऊब गए। इसलिये उनसे छुटकारा पाने के लिये नौकरों ने उन्हें आग में झोंक दिया। ऋषि दीर्घतमा ने अश्विनी कुमारों का स्मरण किया। उन दोनों ने पहुंचकर ऋषि को बचा लिया। फिर नौकरों ने उद्विग्र होकर तलवार से उनका सिर ही काट डाला। लेकिन अश्विनी कुमारों ने वहां भी पहुँचार दूर पड़े दीर्घतमा के सिर को जोड़ दिया और उन्हें फिर भला-चंगा बना दिया।

अंधों को आँख
एक बार उपमन्यु ऋषि ने अनजाने में आग (मदार) के पत्ते खा लिये। इससे उनके पेट में आग की ज्याला उत्पन्न हो गयी जिससे उनके आँखों की रौशनी नस्त हो गयी। बेचारे अंधे हो गए। अंधा होने के कारन वे कुएं में गिर पड़े। शाम हो गयी, उनके गुरु आयोद धौम्य उपमन्यु के आने का इंतज़ार करते रहे। काफी रात गुजर जाने के बाद भी उपमन्यु नहीं आये तो गुरु उनको खोजने के लिये जंगले में निकल गए और उपमन्यु को बुलाने लगे।

उपमन्य ने कुँए में से ही आवाज लगाईं- 'गुरूजी मैं कुएं में गिर पडा हूँ। निकल नहीं सकता,' जब गुरूजी को यह मालूम हुआ कि आक के पत्ते खाने से उसकी आँखें खराब हो गयी हैं तो उन्होंने कहा कि तुम देववैध अश्विनी कुमार की स्तुति करो, वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे, उपमन्यु ने मंरों द्वार अश्विनी कुमारों की स्तुति की, दयालु अश्विनी कुमार स्तुति सुनकर तुरंत वहां आ गए और उपमन्यु की आँखें ठीक करा दीं।

इसी प्रकार ऋजाश्व के दोनों नेत्रों की ज्योति जब ख़त्म हो गयी थी, तब अश्विनी कुमारों ने ही चिकित्सा करके ऋजाश्व की आँखें ठीक की थी। जब असुरों ने कण्व ऋषि की आँखों को आग से झुलसा दिया था तब अश्विनी कुमारों ने ही उनकी आँखों को ठीक किया था।

यौवन देने वाले अश्विनी कुमार
महर्षि भृगु के पुत्र च्यवन ऋषि जब अत्यधिक वृद्ध हो गए, उनका उठना-बैठना, चलना-फिरना बंद हो गया। युवा पत्नी सुकन्या उनकी सेवा में दिन-रात लगी रहती थी। उसका धर्म एक माता पति सेवा था। उन्हीं दिनों रोगी मानवों की खोज में दोनों अश्विनी कुमार पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। वे च्यवन ऋषि की दयनीय दशा देखकर द्रवित हो गयी। वे च्यवन ऋषि को तरुण अवस्था और मनोवांछित रूप प्रदान किया।

वंदन ऋषि अश्विनीकुमार के उपासक थे। वे प्रतिदिन उनकी स्तुति किया करते थे। जब बुढापे का लक्षण इनके अंग-प्रत्यंग पर लक्षित होने लगा तो उन्होंने अश्विनी कुमारों से प्रार्थना की कि वे इनके बुढापे को हटा दें। परम दयालु अश्विनी कुमारों ने उनकी प्रार्थना सुनकर शीघ्र ही उनके पास पहुंचे। फिर उन्होंने वंदन ऋषि के शरीर के शिथिल अंगों को वैसे ही नया बना दिया जैसे कोई शिल्पी पुराने रथ को उसके आव्यवों को इधर-उधर घटा-बढा कर नया बना देता है। उन्होंने ऋषि को नवयौवन तो प्रदान किया ही, साथ ही उनकी आयु भी बढ़ा दी।

इसी तरह कुष्ठ रोग से ग्रसित कुक्षिवान ऋषि की कन्या घोषा को कुष्ठ से छुटकारा दिलाकर उसे रूप-यौवन प्रदान किया। अश्विनी कुमारों ने श्याव ऋषि के कुष्ठ को भी चिकित्सा कर के दूर किया तथा उनकी त्वचा को सुन्दर बनाया, ऐसे थे परम दयालु रोगियों के हितैषी देववैध अश्विनी कुमार। किसी भी रोगी की दीनता और कष्ट को देखकर वे तुरंत उसका निवारण करते थे।

कुशल चिकित्सक अश्विनी कुमार
जब देवता और दैत्यूं का युद्ध हुआ, तब उसमें जिन देवताओं को दैत्यों ने घावत कर दिया था, उन सब को इन्हीं अश्विनी कुमारों ने तत्क्षण चिकित्सा करके घाव से रहित अर्था चंगा किया था, उस समय उन दोनों का वह चिकित्सा कार्य अत्यंत-चमत्कारी प्रतीत हुआ था।

जब इन्द्र की भुजा का स्तंभन (जकड गयी थी) हो आया था, तब उसकी भी चिकित्सा इन्हीं अश्विनी कुमारों ने की थी और जब चन्द्रमा सोम लोग से गिर पड़े थे, तब इन्हीं दोनों ने चिकित्सा करके उन्हें ठीक किया था।

जब पूषा नामक सूर्य के दांत टूट गए और भाग नामक सूर्य के नेत्र फूट गए थी तब अश्विनी कुमारों ने ही उनकी शल्य चिकित्सा की थी। जब चंद्रमा को राजयक्ष्मा (क्षय) रोग हो गया था तब उसकी चिकित्सा अश्विनी कुमारों ने ही की।

इन्हीं सब महत्वपूर्ण कार्यों के करने के कारण वैधों में श्रेष्ठ ये दोनों अश्विनी कुमार इन्द्रादि देवताओं के अत्यंत पूज्य हुए।