देखा जाए तो संतान के लिए उसके माता-पिता ही सर्वप्रथम देवता हैं। माता अपनी संतान को जन्म देने से पूर्व नौ माह तक अपने गर्भ में रखकर, तरह-तरह के कष्ट सहकर उसे जन्म देती है। इसी कारण संतान के लिए पिता से भी बढ़कर माता का स्थान माना गया है। ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि उपाध्याओं से दस गुना श्रेष्ठ आचार्य, आचार्य से सौ गुना श्रेष्ठ पिता और पिता से सहस्त्र गुना श्रेष्ठ माता गौरव से युक्त होती है। संतान की उत्पत्ति में माता-पिता को जो कष्ट सहना पड़ता है, उस कष्ट की कृतज्ञता से संतान सौ वर्षो में भी विमुक्त नहीं हो सकती।
यही कारण है कि मनु महाराज ने संतान को अपने माता-पिता की सेवा करने का निर्देश दिया है और इसे ही सबसे बड़ा धर्म कहा है। माता-पिता के अलावा गुरु का स्थान भी प्रमुख होता है। गुरु ही मनुष्य को उसके कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध कराता है। अत: गुरु को भी माता-पिता के समान ही पूज्य माना गया है। मनुस्मृति में मनु लिखते हैं कि माता के प्रति भक्ति रखने से इस लोक का, पिता के प्रति भक्ति रखने से मध्य लोक का और गुरु के प्रति भक्ति रखने से लोक का सुख मिलता है। माता-पिता की सेवा के लिए ही धर्मशास्त्रों में मातृ-पितृ ऋण की व्यवस्था की गई है। पुत्र के लिए अपने माता-पिता के चरण-कमल ही महान तीर्थ के समान हैं।
03 मार्च 2010
माता-पिता की सेवा
Posted by Udit bhargava at 3/03/2010 12:36:00 am
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