मंत्र..पूजन के समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चरण किया जाता है।
अहकूटा भयत्रस्तै: कृतात्व होली बालिशै:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम।।
होली बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला उत्साहपूर्ण पर्व है, बेशक यह दो दिन चलने वाला त्योहार है, लेकिन होली पर्व का शुभारंभ आठ दिन पहले ही हो जाता है, जिसे होलाष्टक विधान कहा जाता है। 22 से 28 फरवरी तक होलाष्टक रहेगा। होली के दिन यह पूर्ण होगा। मान्यता है कि होलाष्टक में शुभ कर्म नहीं किए जाते, न ही कोई मांगलिक कार्य होता है। कोई नई वस्तु नहीं खरीदी जाती, हालांकि इन होलाष्टक अर्थात आठ दिनों में मांगलिक कार्य किसी भी शास्त्र में वर्जित नहीं है, यह एक परंपरा के तहत वर्जित हुआ।
प्राचीन अष्टभुजा दुर्गा मंदिर के संचालक एवं विद्वान पंडित जयनारायण कौशिक कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण आठ दिन तक गोपियों संग होली खेले और धूलंडी के दिन अर्थात होली को रंगों में सने कपड़ों को अग्नि के हवाले कर दिया। तब से आठ दिन तक यह पर्व मनाया जाने लगा, इसका उल्लेख गर्ग संहिता में भी आता है। कालांतर में यह धारणा बनी कि इन आठ दिनों में कोई दूसरा आयोजन न हो, क्योंकि कोई मांगलिक कार्य करते समय वह सामूहिक आयोजन हो जाता है, ऐसे में बाहर निकलना भी मुश्किल होता था। धीरे-धीरे यह जनमानस में गहरे तक पैठ कर गया। लिहाजा इन दिनों मांगलिक कार्य वर्जित हो गए।
गायत्री ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के संचालक पंडित रामराज कौशिक के अनुसार इन होलाष्टक को लेकर अलग-अलग धारणाएं प्रचलित हैं। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक होलाष्टक के आठ दिन माने गए हैं। सतयुग में हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन का उल्लेख है, जिसमें ईश्वर भक्त प्रह्लाद को मारने के उद्देश्य से हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने यह षडयंत्र रचा गया लेकिन वह खुद ही भस्म हो गई। द्वापर युग में फाल्गुन मास की पूर्णिमा को भगवान श्री कृष्ण द्वारा पूतना वध का प्रसंग आता है। भगवान श्रीकृष्ण ने राक्षस प्रवृति की पूतना का वध किया, इस खुशी में लोगों ने उसकी राख व धूल को उड़ाया, यहीं से पर्व धूलंडी कहा जाने लगा।
यह पर्व राधा कृष्ण, कामदेव के पुर्नजन्म से भी जुड़ा है। होली से पहले गोबर के भरभोलिए बना कर रोजाना मूंजक की माला में आठ दिनों तक मूंजक की माला में डाला जाता है। आठवें दिन होलिका दहन में यह भरभोलियों की मूंजक से बनी माला भाइयों की मंगल कामना व प्रेतादि से बचाव की कामना करते हुए बहनें आग को समर्पित करती हैं। श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि देवताओं को अर्पित किए बिना उपज का हिस्सा रखना चोरी के समान है।
होली का पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली से आठ दिन पहले से होलाष्टक प्रारम्भ होते हैं। ऐसी मान्यता है कि होलाष्टक के दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित है। होली रंगों का त्योहार है। इस पर्व को सब वर्ण के लोग आपस का भेदभाव मिटाकर बड़े उत्साह से मनाते हैं। इस दिन सायंकाल के बाद भद्रा रहित लग्न में होलिका दहन किया जाता है। इस अवसर पर लकड़ियों तथा घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर होलिका पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है। प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा तथा दिन में होली-दहन का विधान नहीं है।
विधानः एक माला, गन्ना, पूजा की सामग्री (जल, मोली, रोली, चावल, फूल, गुलाल, गुड़), कच्चे सूत की लड़ी, जल का लोटा, नारियल, कच्चे चने की डाली, पापड़ आदि से जिस स्थान पर होली जलाई जानी है होली का पूजन करें।
कथाः इस पर्व का विशेष सम्बन्ध भक्त प्रह्लाद से है। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए अनेक उपाय किए, पर उसे वह मार न सका। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। हिरण्यकश्यप ने लकड़ियों के ढेर में आग लगवाई और प्रह्लाद को होलिका की गोद में देकर अग्नि में प्रवेश करने की आज्ञा दी। होलिका ने अग्नि में प्रवेश किया । परन्तु भगवान की कृपा से होलिका जल गई और भक्त प्रह्लाद बच गया। तभी से भक्त प्रह्लाद की स्मृति में तथा आसुरी प्रवृत्ति के नाश हेतु इस पर्व को मनाते हैं।
28 फ़रवरी 2010
होलाष्टक आसुरी प्रवृत्ति का नाश
Posted by Udit bhargava at 2/28/2010 12:29:00 pm
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