02 मार्च 2010

प्रेम, सफलता और समृद्धि 2

एक मछुआरा था । उस दिन सुबह से शाम तक नदी में जाल डालकर मछलियाँ पकड़ने की कोशिश करता रहा, लेकिन एक भी मछली जाल में न फँसी ।

जैसे -जैसे सूरज डूबने लगा, उसकी निराशा गहरी होती गयी । भगवान का नाम लेकर उसने एक बार और जाल डाला । पर इस बार भी वह असफल रहा . पर एक वजनी पोटली उसके जाल में अटकी । मछुआरे ने पोटली निकला और टटोला तो झुंझला गया और बोला -' हाय ये तो पत्थर है !' फिर मन मारकर वह नाव में चढा ।

बहुत निराशा के साथ कुछ सोचते हुए वह अपने नाव को आगे बढ़ता जा रहा था और मन में आगे के योजनाओं के बारे में सोचता चला जा रहा था । सोच रहा था 'कल दुसरे किनारे पर जाल डालूँगा । सबसे छिपकर ...उधर कोई नही जाता ....वहां बहुत सारी मछलियाँ पकड़ी जा सकती है ... । '

बहुत निराशा के साथ कुछ सोचते हुए वह अपने नाव को आगे बढ़ता जा रहा था और मन में आगे के योजनाओं के बारे में सोचता चला जा रहा था । सोच रहा था 'कल दुसरे किनारे पर जाल डालूँगा । सबसे छिपकर ...उधर कोई नही जाता ....वहां बहुत सारी मछलियाँ पकड़ी जा सकती है ... । '

मन चंचल था तो फिर हाथ कैसे स्थिर रहता ? वह एक हाथ से उस पोटली के पत्थर को एक -एक करके नदी में फेंकता जा रहा था । पोटली खाली हो गयी । जब एक पत्थर बचा था तो अनायास ही उसकी नजर उसपर गयी तो वह स्तब्ध रह गया । उसे अपने आँखों पर यकीन नही हो रहा था, यह क्या ! ये तो ‘नीलम’ था।

मछुआरे के पास अब पछताने के अलावा कुछ नही बचा था । नदी के बीचोबीच अपनी नाव में बैठा वह सिर्फ अब अपने को कोस रहा था ।

प्रकृति और प्रारब्ध ऐसे ही न जाने कितने नीलम हमारी झोली में डालता रहता है जिन्हें पत्थर समझ हम ठुकरा देते हैं।