प्रेमचन्द
जिस वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई दुनिया कौप रही थी , उन्हीं का रक्त आज कुस्तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्तुनतुनिया जो सौ साल पहले तुर्को के आंतक से राहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्त से अपना कलेजा ठण्डा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए खडा है।
तैमुर ने विजय से भरी आखें उठाई और सेनापति यजदानी की ओर देख कर सिंह के समान गरजा- क्या चाहतें हो जिन्दगी या मौत
यजदानी ने गर्व से सिर उठाकार कहा- इज्जत की जिन्दगी मिले तो जिन्दगी, वरना मौत।
तैमूर का क्रोध प्रचंण्ड हो उठा उसने बडे-बडे अभिमानियों का सिर निचा कर दिया था। यह जबाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताव न थी । इन एक लाख आदमियों की जान उसकी मुठठी में है। इन्हें वह एक क्षण में मसल सकता है। उस पर इतना अभ्िमान । इज्जत की जिदन्गी । इसका यही तो अर्थ हैं कि गरीबों का जीवन अमीरों के भोग-विलास पर बलिदान किया जाए वही शराब की मजजिसें, वही अरमीनिया और काफ की परिया। नही, तैमूर ने खलीफा बायजीद का घमंड इसलिए नहीं तोडा है कि तुर्को को पिर उसी मदांध स्वाधीनता में इस्लाम का नाम डुबाने को छोड दे । तब उसे इतना रक्त बहाने की क्या जरूरत थी । मानव-रक्त का प्रवाह संगीत का प्रवाह नहीं, रस का प्रवाह नहीं-एक बीभत्स दश्य है, जिसे देखकर आखें मुह फेर लेती हैं दृश्य सिर झुका लेता है। तैमूर हिंसक पशु नहीं है, जो यह दृश्य देखने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दे।
वह अपने शब्दों में धिक्कार भरकर बोला-जिसे तुम इज्जत की जिन्दगी कहते हो, वह गुनाह और जहन्नुम की जिन्दगी है।
यजदानी को तैमुर से दया या क्षमा की आशा न थी। उसकी या उसके योद्वाओं की जान किसी तरह नहीं बच सकती। पिर यह क्यों दबें और क्यों न जान पर खेलकर तैमूर के प्रति उसके मन में जो घणा है, उसे प्रकट कर दें ? उसके एक बार कातर नेत्रों से उस रूपवान युवक की ओर देखा, जो उसके पीछे खडा, जैसे अपनी जवानी की लगाम खींच रहा था। सान पर चढे हुए, इस्पात के समान उसके अंग-अंग से अतुल कोध्र की चिनगारियों निकल रहीं थी। यजदानी ने उसकी सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्यान में कर ली और खून के घूट पीकर बोला-जहापनाह इस वक्त फतहमंद हैं लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दू कि अपने जीवन के विषय में तुर्को को तातरियों से उपदेश लेने की जरूरत नहीं। पर जहा खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहा उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है। अगर तलवार ही सभ्यता की सनद होती, तो गाल कौम रोमनों से कहीं ज्यादा सभ्य होती।
तैमूर जोर से हसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिए। तैमूर का ठहाका मौत का ठहाका था या गिरनेवाला वज्र का तडाका ।
तातारवाले पशु हैं क्यों ?
मैं यह नहीं कहता।
तुम कहते हो, खुदा ने तुम्हें ऐश करने के लिए पैदा किया है। मैं कहता हू, यह कुफ्र है। खुदा ने इन्सान को बन्दगी के लिए पैदा किया है और इसके खिलाफ जो कोई कुछ करता है, वह कापिर है, जहन्नुमी रसूलेपाक हमारी जिन्दगी को पाक करने के लिए, हमें सच्चा इन्सान बनाने के लिए आये थे, हमें हरा की तालीम देने नहीं। तैमूर दुनिया को इस कुफ्र से पाक कर देने का बीडा उठा चुका है। रसूलेपाक के कदमों की कसम, मैं बेरहम नहीं हू जालिम नहीं हू, खूखार नहीं हू, लेकिन कुफ्र की सजा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है।
उसने तातारी सिपहसालार की तरफ कातिल नजरों से देखा और तत्क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौतकर यजदानी के सिर पर आ पहुचा। तातारी सेना भी मलवारें खीच-खीचकर तुर्की सेना पर टूट पडी और दम-के-दम में कितनी ही लाशें जमीन पर फडकने लगीं।
सहसा वही रूपवान युवक, जो यजदानी के पीछे खडा था, आगे बढकर तैमूर के सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बधी हुई मुटिठयों में मसलता हुआ बोला-ऐ अपने को मुसलमान कहने वाले बादशाह । क्या यही वह इस्लाम की यही तालीम है कि तू उन बहादुरों का इस बेददी से खून बहाए, जिन्होनें इसके सिवा कोई गुनाह नहीं किया कि अपने खलीफा और मुल्कों की हिमायत की?
चारों तरफ सन्नाटा छा गया। एक युवक, जिसकी अभी मसें भी न भीगी थी; तैमूर जैसे तेजस्वी बादशाह का इतने खुले हुए शब्दों में तिरस्कार करे और उसकी जबान तालू से खिचवा ली जाए। सभी स्तम्भित हो रहे थे और तैमूर सम्मोहित-सा बैठा , उस युवक की ओर ताक रहा था।
युवक ने तातारी सिपाहियों की तरफ, जिनके चेहरों पर कुतूहलमय प्रोत्साहन झलक रहा था, देखा और बोला-तू इन मुसलमानों को कापिर कहता है और समझाता है कि तू इन्हें कत्ल करके खुदा और इस्लाम की खिदमत कर रहा है ? मैं तुमसे पूछता हू, अगर वह लोग जो खुदा के सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करतें, जो रसूलेपाक को अपना रहबर समझते हैं, मुसलमान नहीं है तो कौन मुसलमान हैं ?मैं कहता हू, हम कापिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्या इस्लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है खुदाने अगर तूझे ताकत दी है, अख्ितयार दिया है तो क्या इसीलिए कि तू खुदा के बन्दों का खून बहाए क्या गुनाहगारों को कत्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जाएगा। तूने कितनी बेहरमी से सत्तर हजार बहादुर तुर्को को धोखा देकर सुरंग से उडवा दिया और उनके मासूम बच्चों और निपराध स्त्रियों को अनाथ कर दिया, तूझे कुछ अनुमान है। क्या यही कारनामे है, जिन पर तू अपने मुसलमान होने का गर्व करता है। क्या इसी कत्ल, खून और बहते दरिया में अपने घोडों के सुम नहीं भिगोए हैं, बल्िक इस्लाम को जड से खोदकर पेक दिया है। यह वीर तूर्को का ही आत्मोत्सर्ग है, जिसने यूरोप में इस्लाम की तौहीद फैलाई। आज सोपिया के गिरजे में तूझे अल्लाह-अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इस्लाम का स्वागत करने को तैयार है। क्या यह कारनामे इसी लायक हैं कि उनका यह इनाम मिले। इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूरेजी से इस्लाम की खिदमत कर रहा है। एक दिन तूझे भी परवरदिगार के सामने कर्मो का जवाब देना पडेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जाएगा, क्योंकि अगर तूझमें अब भी नेक और बद की कमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ। तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिए और मैं जानता हू, तूझे जसे जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा।
खलीफा अभी सिर झुकाए ही थी की यजदानी ने कापते हुए शब्दों में अर्ज की-जहापनाह, यह गुलाम का लडका है। इसके दिमाग में कुछ पितूर है। हुजूर इसकी गुस्ताखियों को मुआफ करें । मैं उसकी सजा झेलने को तैयार हूँ।
तैमूर उस युवक के चेहरे की तरफ स्थिर नेत्रों से देख रहा था। आप जीवन में पहली बार उसे निर्भीक शब्दों के सुनने का अवसर मिला। उसके सामने बडे-बडे सेनापतियों, मंत्रियों और बादशाहों की जबान न खुलती थी। वह जो कुछ कहता था, वही कानून था, किसी को उसमें चू करने की ताकत न थी। उसका खुशामदों ने उसकी अहम्मन्यता को आसमान पर चढा दिया था। उसे विश्वास हो गया था कि खुदा ने इस्लाम को जगाने और सुधारने के लिए ही उसे दुनिया में भेजा है। उसने पैगम्बरी का दावा तो नहीं किया, पर उसके मन में यह भावना दढ हो गई थी, इसलिए जब आज एक युवक ने प्राणों का मोह छोडकर उसकी कीर्ति का परदा खोल दिया, तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी। उसके मन में क्रोध और हिंसा की जगह ऋद्वा का उदय हुआ। उसकी आंखों का एक इशारा इस युवक की जिन्दगी का चिराग गुल कर सकता था । उसकी संसार विजयिनी शक्ित के सामने यह दुधमुहा बालक मानो अपने नन्हे-नन्हे हाथों से समुद्र के प्रवाह को रोकने के लिए खडा हो। कितना हास्यास्पद साहस था उसके साथ ही कितना आत्मविश्वास से भरा हुआ। तैमूर को ऐसा जान पडा कि इस निहत्थे बालक के सामने वह कितना निर्बल है। मनुष्य मे ऐसे साहस का एक ही स्त्रोत हो सकता है और वह सत्य पर अटल विश्वास है। उसकी आत्मा दौडकर उस युवक के दामन में चिपट जाने के लिए अधीर हो गई। वह दार्शनिक न था, जो सत्य में शंका करता है वह सरल सैनिक था, जो असत्य को भी विश्वास के साथ सत्य बना देता है।
यजदानी ने उसी स्वर में कहा-जहापनाह, इसकी बदजबानी का खयाल न फरमावें।
तैमूर ने तुरंत तख्त से उठकर यजदानी को गले से लगा लिया और बोला-काश, ऐसी गुस्ताखियों और बदजबानियों के सुनने का पहने इत्तफाक होता, तो आज इतने बेगुनाहों का खून मेरी गर्दन पर न होता। मूझे इस जबान में किसी फरिश्ते की रूह का जलवा नजर आता है, जो मूझ जैसे गुमराहों को सच्चा रास्ता दिखाने के लिए भेजी गई है। मेरे दोस्त, तुम खुशनसीब हो कि ऐस फरिश्ता सिफत बेटे के बाप हो। क्या मैं उसका नाम पूछ सकता हूँ।
यजदानी पहले आतशपरस्त था, पीछे मुसलमान हो गया था , पर अभी तक कभी-कभी उसके मन में शंकाए उठती रहती थीं कि उसने क्यों इस्लाम कबूल किया। जो कैदी फासी के तख्ते पर खडा सूखा जा रहा था कि एक क्षण में रस्सी उसकी गर्दन में पडेगी और वह लटकता रह जाएगा, उसे जैसे किसी फरिश्ते ने गोद में ले लिया। वह गदगद कंठ से बोला-उसे हबीबी कहते हैं।
तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे ऑंखों से लगाता हुआ बोला-मेरे जवान दोस्त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो, मैं वह गुनाहगार हू, जिसने अपनी जहालत में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा, इसलिए कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब है। आज मूझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्लाम को कितना नुकसान पहुचा। आज से मैं तुम्हारा ही दामन पकडता हू। तुम्हीं मेरे खिज्र, तुम्ही मेंरे रहनुमा हो। मुझे यकीन हो गया कि तुम्हारें ही वसीले से मैं खुदा की दरगाह तक पहुच सकता हॅ।
यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुई थी। उस कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था।
युवक ने सिर झुकाकर कहा- यह हुजूर की कदरदानी है, वरना मेरी क्या हस्ती है।
तैमूर ने उसे खीचकर अपनी बगल के तख्त पर बिठा दिया और अपने सेनापति को हुक्म दिया, सारे तुर्क कैदी छोड दिये जाए उनके हथियार वापस कर दिये जाए और जो माल लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बाट दिया जाए।
वजीर तो इधर इस हुक्म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकडे हुए अपने खीमें में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबन्ध करने लगा। और जब भोजन समाप्त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर कह सुनाई, जो आदि से अंत तक मिश्रित पशुता और बर्बरता के कत्यों से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुदा को कौन मुह दिखाएगा। रोते-रोते हिचकिया बध गई।
अंत में उसने हबीब से कहा- मेरे जवान दोस्त अब मेरा बेडा आप ही पार लगा सकते हैं। आपने राह दिखाई है तो मंजिल पर पहुचाइए। मेरी बादशाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मूझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्ते पर लिए जाता था । मेरी आपसे यही इल्तमास (प्रार्थना) है कि आप उसकी वजारत कबूल करें। देखिए , खुदा के लिए इन्कार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का नहीं रहूगा।
यजदानी ने अरज की-हुजूर इतनी कदरदानी फरमाते हैं, तो आपकी इनायत है, लेकिन अभी इस लडके की उम्र ही क्या है। वजारत की खिदमत यह क्या अंजाम दे सकेगा । अभी तो इसकी तालीम के दिन है।
इधर से इनकार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यजदानी इनकार तो कर रहे थे, पर छाती फूली जाती थी । मूसा आग लेने गये थे, पैगम्बरी मिल गई। कहा मौत के मुह में जा रहे थे, वजारत मिल गई, लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्थिर चिंत का क्या ठिकाना आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार है, कल नाराज हो गए तो जान की खैरियत नही। उन्हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, फिर भी जी डरता था कि वीराने देश में न जाने कैसी पडे, कैसी न पडे। दरबारवालों में षडयंत्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है; लेकिन वह तजरबा कहा से लाएगा, जो उम्र ही से आता है।
उन्होंने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक दिन की मुहलत मांगी और रूखसत हुए।
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हबीब यजदानी का लडका नहीं लडकी थी। उसका नाम उम्मतुल हबीब था। जिस वक्त यजदानी और उसकी पत्नी मुसलमान हुए, तो लडकी की उम्र कुल बारह साल की थी, पर प्रकति ने उसे बुदी और प्रतिभा के साथ विचार-स्वातंस्य भी प्रदान किया था। वह जब तक सत्यासत्य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्वीकार न करती। मां-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशांति तो हुई, पर जब तक इस्लाम की दीक्षा न ले सकती थी। मां-बाप भी उस पर किसी तरह का दबाब न डालना चाहते थे। जैसे उन्हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ रहने का भी अधिकार है। लडकी को संतोष हुआ, लेकिन उसने इस्लाम और जरथुश्त धर्म-दोनों ही का तुलनात्मक अध्ययन आरंभ किया और पूरे दो साल के अन्वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की दीक्षा ले ली। माता-पिता फूले न समाए। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है, बल्िक स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से। दो साल तक उन्हें जो शंका घेरे रहती थी , वह मिट गई।
यजदानी के कोई पुत्र न था और उस युग में जब कि आदमी की तलवार ही सबसे बड़ी अदालत थी, पुत्र का न रहना संसार का सबसे बड़ा दुर्भाग्य था। यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ही की भाति उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वह बालकों के से कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्त्र-विधा सीखती और अपने बाप के साथ अक्सर खलीफा बायजीद के महलों में जाती और राजकुमारी के साथ शिकार खेलने जाती। इसके साथ ही वह दर्शन, काव्य, विज्ञान और अध्यात्म का भी अभ्यास करती थी। यहां तक कि सोलहवें वर्ष में वह फौजी विधालय में दाखिल हो गई और दो साल के अन्दर वहा की सबसे ऊची परीक्षा पारा करके फौज में नौकर हो गई। शस्त्र-विधा और सेना-संचालन कला में इतनी निपुण थी और खलीफा बायजीद उसके चरित्र से इतना प्रसन्न था कि पहले ही पहल उसे एक हजारी मन्सब मिल गया ।
ऐसी युवती के चाहनेवालों की क्या कमी। उसके साथ के कितने ही अफसर, राज परिवार के के कितने ही युवक उस पर प्राण देते थे , पर कोई उसकी नजरों में न जाचता था । नित्य ही निकाह के पैगाम आते थे , पर वह हमेशा इंकार कर देती थी। वैवाहिक जीवन ही से उसे अरूचि थी । कि युवतियां कितने अरमानों से व्याह कर लायी जाती हैं और फिर कितने निरादर से महलों में बन्द कर दी जाती है। उनका भाग्य पुरूषों की दया के अधीन है।
अक्सर ऊचे घरानों की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था। उनके मुख से उनकी करूण कथा सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी धणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था। लड़की स्वाधीन है, उसकी इच्छा हो, विवाह करे या क्वारी रहे, वह अपनी-आप मुखतार है। उसके पास पैगाम आते, तो वह साफ जवाब दे देता – मैं इस बार में कुछ नहीं जानता, इसका फैसला वही करेगी।
यधपि एक युवती का पुरूष वेष में रहना, युवकों से मिलना-जुलने , समाज में आलोचना का विषय था, पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ही को उसके सतीत्व पर विश्वास था, हबीब के व्यवहार और आचार में उन्हें कोई ऐसी बात नजर न आती थी, जिससे उष्न्हें किसी तरह की शंका होती। यौवन की आधी और लालसाओं के तूफान में वह चौबीस वर्षो की वीरबाला अपने हदय की सम्पति लिए अटल और अजेय खड़ी थी , मानों सभी युवक उसके सगे भाई हैं।
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कुस्तुनतुनिया में कितनी खुशियां मनाई गई, हवीब का कितना सम्मान और स्वागत हुआ, उसे कितनी बधाईयां मिली, यह सब लिखने की बात नहीं शहर तवाह हुआ जाता था। संभव था आज उसके महलों और बाजारों से आग की लपटें निकलती होतीं। राज्य और नगर को उस कल्पनातीत विपति से बचानेवाला आदमी कितने आदर, प्रेम श्रद्वा और उल्लास का पात्र होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती । उस पर कितने फूलों और कितश्ने लाल-जवाहरों की वर्षा हुई इसका अनुमान तो कोई कवि ही कर सकता है और नगर की महिलाए हदय के अक्षय भंडार से असीसें निकाल- निकालकर उस पर लुटाती थी और गर्व से फूली हुई उसका मुहं निहारकर अपने को धन्य मानती थी । उसने देवियों का मस्तक ऊचा कर दिया ।
रात को तैमूर के प्रस्ताव पर विचार होने लगा। सामने गदेदार कुर्सी पर यजदानी था- सौभ्य, विशाल और तेजस्वी। उसकी दाहिनी तरफ सकी पत्नी थी, ईरानी लिबास में, आंखों में दया और विश्वास की ज्योति भरे हुए। बायीं तरफ उम्मुतुल हबीब थी, जो इस समय रमणी-वेष में मोहिनी बनी हुई थी, ब्रहचर्य के तेज से दीप्त।
यजदानी ने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा – मै अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता , लेकिन यदि मुझे सलाह दें का अधिकार है, तो मैं स्पष्ट कहता हूं कि तुम्हें इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार न करना चाहिए , तैमूर से यह बात बहुत दिन तक छिपी नहीं रह सकती कि तुम क्या हो। उस वक्त क्या परिस्थिति होगी , मैं नहीं कहता। और यहां इस विषय में जो कुछ टीकाए होगी, वह तुम मुझसे ज्यादा जानती हो। यहा मै मौजूद था और कुत्सा को मुह न खोलने देता था पर वहा तुम अकेली रहोगी और कुत्सा को मनमाने, आरोप करने का अवसर मिलता रहेगा।
उसकी पत्नी स्वेच्छा को इतना महत्व न देना चाहती थी । बोली – मैने सुना है, तैमूर निगाहों का अच्छा आदमी नहीं है। मै किसी तरह तुझे न जाने दूगीं। कोई बात हो जाए तो सारी दुनिया हंसे। यों ही हसनेवाले क्या कम हैं।
इसी तरह स्त्री-पुरूष बड़ी देर तक ऊचं –नीच सुझाते और तरह-तरह की शंकाए करते रहें लेकिन हबीब मौन साधे बैठी हुई थी। यजदानी ने समझा , हबीब भी उनसे सहमत है। इनकार की सूचना देने के लिए ही थी कि हबीब ने पूछा – आप तैमूर से क्या कहेंगे।
यही जो यहा तय हुआ।
मैने तो अभी कुछ नहीं कहा,
मैने तो समझा , तुम भी हमसे सहमत हो।
जी नही। आप उनसे जाकर कह दे मै स्वीकार करती हू।
माता ने छाती पर हाथ रखकर कहा- यह क्या गजब करती है बेटी। सोच दुनिया क्या कहेगी।
यजदानी भी सिर थामकर बैठ गए , मानो हदय में गोली लग गई हो। मुंह से एक शब्द भी न निकला।
हबीब त्योरियों पर बल डालकर बोली-अम्मीजान , मै आपके हुक्म से जौ-भर भी मुह नहीं फेरना चाहती। आपकों पूरा अख्ितयार है, मुझे जाने दें या न दें लेकिन खल्क की खिदमत का ऐसा मौका शायद मुझे जिंदगी में पिर न मिलें । इस मौके को हाथ से खो देने का अफसोस मुझे उम्र – भर रहेगा । मुझे यकीन है कि अमीन तैमूर को मैं अपनी दियानत, बेगरजी और सच्ची वफादारी से इन्सान बना सकती है और शायद उसके हाथों खुदा के बंदो का खून इतनी कसरत से न बहे। वह दिलेर है, मगर बेरहम नहीं । कोई दिलेर आदमी बेरहम नहीं हो सकता । उसने अब तक जो कुछ किया है, मजहब के अंधे जोश में किया है। आज खुदा ने मुझे वह मौका दिया है कि मै उसे दिखा दू कि मजहब खिदमत का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं। अपने बारे में मुझे मुतलक अंदेशा नहीं है। मै अपनी हिफाजत आप कर सकती हूँ । मुझे दावा है कि उपने फर्ज को नेकनीयती से अदा करके मै दुश्मनों की जुबान भी बन्द कर सकती हू, और मान लीजिए मुझे नाकामी भी हो, तो क्या सचाई और हक के लिए कुर्बान हो जाना जिन्दगीं की सबसे शानदार फतह नहीं है। अब तक मैने जिस उसूल पर जिन्दगी बसर की है, उसने मुझे धोखा नहीं दिया और उसी के फैज से आज मुझे यह दर्जा हासिल हुआ है, जो बड़े-बड़ो के लिए जिन्दगी का ख्वाब है। मेरे आजमाए हुए दोस्त मुझे कभी धोखा नहीं दे सकते । तैमूर पर मेरी हकीकत खुल भी जाए, तो क्या खौफ । मेरी तलवार मेरी हिफाजत कर सकती है। शादी पर मेरे ख्याल आपको मालूम है। अगर मूझे कोई ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे मेरी रूह कबूल करती हो, जिसकी जात अपनी हस्ती खोकर मै अपनी रूह को ऊचां उठा सकूं, तो मैं उसके कदमों पर गिरकर अपने को उसकी नजर कर दूगीं।
यजदानी ने खुश होकर बेटी को गले लगा लिया । उसकी स्त्री इतनी जल्द आश्वस्त न हो सकी। वह किसी तरह बेटी को अकेली न छोड़ेगी । उसके साथ वह जाएगी।
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कई महीने गुजर गए। युवक हबीब तैमूर का वजीर है, लेकिन वास्तव में वही बादशाह है। तैमूर उसी की आखों से देखता है, उसी के कानों से सुनता है और उसी की अक्ल से सोचता है। वह चाहता है, हबीब आठों पहर उसके पास रहे।उसके सामीप्य में उसे स्वर्ग का-सा सुख मिलता है। समरकंद में एक प्राणी भी ऐसा नहीं, जो उससे जलता हो। उसके बर्ताव ने सभी को मुग्ध कर लिया है, क्योंकि वह इन्साफ से जै-भर भी कदम नहीं हटाता। जो लोग उसके हाथों चलती हुई न्याय की चक्की में पिस जातें है, वे भी उससे सदभाव ही रखते है, क्योकि वह न्याय को जरूरत से ज्यादा कटु नहीं होने देता।
संध्या हो गई थी। राज्य कर्मचारी जा चुके थे । शमादान में मोम की बतियों जल रही थी। अगर की सुगधं से सारा दीवानखाना महक रहा था। हबीब उठने ही को था कि चोबदार ने खबर दी-हुजूर जहापनाह तशरीफ ला रहे है।
हबीब इस खबर से कुछ प्रसन्न नहीं हुआ। अन्य मंत्रियों की भातिं वह तैमूर की सोहबत का भूखा नहीं है। वह हमेशा तैमूर से दूर रहने की चेष्टा करता है। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उसने शाही दस्तरखान पर भोजन किया हो। तैमूर की मजलिसों में भी वह कभी शरीक नहीं होता। उसे जब शांति मिलति है, तब एंकात में अपनी माता के पास बैठकर दिन-भर का माजरा उससे कहता है और वह उस पर अपनी पंसद की मुहर लगा देती है।
उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्वागत किया। तैमूर ने मसनद पर बैठते हुए कहा- मुझे ताज्जुब होता है कि तुम इस जवानी में जाहिदों की-सी जिंदगी कैसे बसर करते हो हबीब । खुदा ने तुम्हें वह हुस्न दिया है कि हसीन-से-हसीन नाजनीन भी तुम्हारी माशूक बनकर अपने को खुश्नसीब समझेगी। मालूम नहीं तुम्हें खबर है या नही, जब तुम अपने मुश्की घोड़े पर सवार होकर निकलते हो तो समरकंद की खिड़कियों पर हजारों आखें तुम्हारी एक झलक देखने के लिए मुंतजिर बैठी रहती है, पर तुम्हें किसी तरफ आखें उठाते नहीं देखा । मेरा खुदा गवाह है, मै कितना चाहता हू कि तुम्हारें कदमों के नक्श पर चलू। मैं चाहता हू जैसे तुम दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहते हो , वैसे मैं भी रहूं लेकिन मेरे पास न वह दिल है न वह दिमाग । मैं हमेशा अपने-आप पर, सारी दुनिया पर दात पीसता रहता हू। जैसे मुझे हरदम खून की प्यास लगी रहती है , तुम बुझने नहीं देतें , और यह जानते हुए भी कि तुम जो कुछ करते हो, उससे बेहतर कोई दूसरा नहीं कर सकता , मैं अपने गुस्से को काबू में नहीं कर सकता । तुम जिधर से निकलते हो, मुहब्बत और रोशनी फैला देते हो। जिसकों तुम्हारा दुश्मन होना चाहिए , वह तुम्हारा दोस्त है। मैं जिधर से निकलता नफरत और शुबहा फैलाता हुआ निकलता हू। जिसे मेरा दोस्त होना चाहिए वह भी मेरा दुश्मन है। दुनिया में बस एक ही जगह है, जहा मुझे आपियत मिलती है। अगर तुम मुझे समझते हो, यह ताज और तख्त मेरे रांस्ते के रोड़े है, तो खुदा की कसम , मैं आज इन पर लात मार दूं। मै आज तुम्हारे पास यही दरख्वास्त लेकर आया हू कि तुम मुझे वह रास्ता दिखाओ , जिससे मै सच्ची खुशी पा सकू । मै चाहता हूँ , तुम इसी महल में रहों ताकि मै तुमसे सच्ची जिंदगी का सबक सीखूं।
हबीब का हदय धक से हो उठा । कहीं अमीन पर नारीत्व का रहस्य खुल तों नहीं गया। उसकी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दे। उसका कोमल हदय तैमूर की इस करूण आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया । जिसके नाम से दुनिया कापती है, वह उसके सामने एक दयनीय प्राथी बना हुआ उसके प्रकाश की भिक्षा मांग रहा है। तैमूर की उस कठोर विकत शुष्क हिंसात्मक मुद्रा में उसे एक स्िनग्ध मधुर ज्योति दिखाई दी, मानो उसका जागत विवेक भीतर से झाकं रहा हो। उसे अपना जीवन, जिसमें ऊपर की स्फूर्ति ही न रही थी, इस विफल उधोग के सामने तुच्छ जान पड़ा।
उसने मुग्ध कंठ से कहा- हजूर इस गुलाम की इतनी कद्र करते है, यह मेरी खुशनसीबी है, लेकिन मेरा शाही महल में रहना मुनासिब नहीं ।
तैमूर ने पूछा –क्यों
इसलिए कि जहा दौलत ज्यादा होती है, वहा डाके पड़ते हैं और जहा कद्र ज्यादा होती है , वहा दुश्मन भी ज्यादा होते है।
तुम्हारी भी कोई दुश्मन हो सकता है।
मै खुद अपना दुश्मन हो जाउगा । आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।
तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया। उसे अपनी मनतुष्टि का आभास हुआ। आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है इस वाक्य को मन-ही-मन दोहरा कर उसने कहा-तुम मेरे काबू में कभी न आओगें हबीब। तुम वह परंद हो, जो आसमान में ही उड़ सकता है। उसे सोने के पिंजड़े में भी रखना चाहो तो फड़फड़ाता रहेगा। खैर खुदा हापिज।
यह तुरंत अपने महल की ओर चला, मानो उस रत्न को सुरक्षित स्थान में रख देना चाहता हो। यह वाक्य पहली बार उसने न सुना था पर आज इससे जो ज्ञान, जो आदेश जो सत्प्रेरणा उसे मिली, उसे मिली, वह कभी न मिली थी।
5
इस्तखर के इलाके से बगावत की खबर आयी है। हबीब को शंका है कि तैमूर वहा पहुचकर कहीं कत्लेआम न कर दे। वह शातिंमय उपायों से इस विद्रोह को ठंडा करके तैमूर को दिखाना चाहता है कि सदभावना में कितनी शक्ति है। तैमूर उसे इस मुहिम पर नहीं भेजना चाहता लेकिन हबीब के आग्रह के सामने बेबस है। हबीब को जब और कोई युक्ित न सूझी तो उसने कहा- गुलाम के रहते हुए हुजूर अपनी जान खतरे में डालें यह नहीं हो सकता ।
तैमूर मुस्कराया-मेरी जान की तुम्हारी जान के मुकाबले में कोई हकीकत नहीं है हबीब ।पिर मैने तो कभी जान की परवाह न की। मैने दुनिया में कत्ल और लूट के सिवा और क्या यादगार छोड़ी । मेरे मर जाने पर दुनिया मेरे नाम को रोएगी नही, यकीन मानों । मेरे जैसे लुटेरे हमेशा पैदा हाते रहेगें , लेकिन खुदा न करें, तुम्हारे दुश्मनों को कुछ हो गया, तो यह सल्तश्नत खाक में मिल जाएगी, और तब मुझे भी सीने में खंजन चुभा लेने के सिवा और कोई रास्ता न रहेगा। मै नहीं कह सकता हबाब तुमसे मैने कितना पाया। काश, दस-पाच साल पहले तुम मुझे मिल जाते, तो तैमूर तवारीख में इतना रूसियाह न होता। आज अगर जरूरत पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमूरों को तुम्हारे ऊपर निसार कर दू । यही समझ लो कि मेरी रूह को अपने साथ लिये जा रहे हो। आज मै तुमसे कहता हू हबीब कि मुझे तुमसे इश्क है इसे मै अब जान पाया हूं । मगर इसमें क्या बुराई है कि मै भी तुम्हारें साथ चलू।
हबीब ने धड़कते हुए हदय से कहा- अगर मैं आपकी जरूरत समझूगा तो इतला दूगां।
तैमूर के दाढ़ी पर हाथ रखकर कहा जैसी-तुम्हारी मर्जी लेकिन रोजाना कासिद भेजते रहना, वरना शायद मैं बेचैन होकर चला जाऊ।
तैमूर ने कितनी मुहब्बत से हबीब के सफर की तैयारियां की। तरह-तरह के आराम और तकल्लुफी की चीजें उसके लिए जमा की। उस कोहिस्तान में यह चीजें कहा मिलेगी। वह ऐसा संलग्न था, मानों माता अपनी लड़की को ससुराल भेज रही हो।
जिस वक्त हबीब फौज के साथ चला, तो सारा समरकंद उसके साथ था और तैमूर आखों पर रूमाल रखें , अपने तख्त पर ऐसा सिर झुकाए बैठा था, मानों कोई पक्षी आहत हो गया हो।
6
इस्तखर अरमनी ईसाईयों का इलाका था, मुसलमानों ने उन्हें परास्त करके वहां अपना अधिकार जमा लिया था और ऐसे नियम बना दिए थे, जिससे ईसाइयों को पग-पग अपनी पराधीनता का स्मरण होता रहता था। पहला नियम जजिये का था, जो हरेक ईसाई को देना पड़ता था, जिससे मुसलमान मुक्त थे। दूसरा नियम यह था कि गिजों में घंटा न बजे। तीसरा नियम का क्रियात्मक विरोध किया और जब मुसलमान अधिकारियों ने शस्त्र-बल से काम लेना चाहा, तो ईसाइयों ने बगावत कर दी, मुसलमान सूबेदार को कैद कर लिया और किले पर सलीबी झंडा उड़ने लगा।
हबीब को यहा आज दूसरा दिन है पर इस समस्या को कैसे हल करे।
उसका उदार हदय कहता था, ईसाइयों पर इन बंधनों का कोई अर्थ नहीं । हरेक धर्म का समान रूप से आदर होना चाहिए , लेकिन मुसलमान इन कैदो को हटा देने पर कभी राजी न होगें । और यह लोग मान भी जाए तो तैमूर क्यों मानने लगा। उसके धामिर्क विचारों में कुछ उदारता आई है, पिर भी वह इन कैदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा, लेकिन क्या वह ईसाइयों को सजा दे कि वे अपनी धार्मिक स्वाधीनता के लिए लड़ रहे है। जिसे वह सत्य समझता है, उसकी हत्या कैसे करे। नहीं, उसे सत्य का पालन करना होगा, चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अमीन समझेगें मै जरूरत से ज्यादा बढ़ा जा रहा हू। कोई मुजायका नही।
दूसरे दिन हबीब ने प्रात काल डंके की चोट ऐलान कराया- जजिया माफ किया गया, शराब और घण्टों पर कोई कैद नहीं है।
मुसलमानों में तहलका पड़ गया। यह कुप्र है, हरामपरस्तह है। अमीन तैमूर ने जिस इस्लाम को अपने खून से सीचां , उसकी जड़ उन्हीं के वजीर हबीब पाशा के हाथों खुद रही है, पासा पलट गया। शाही फौज मुसलमानों से जा मिल । हबीब ने इस्तखर के किले में पनाह ली। मुसलमानों की ताकत शाही फौज के मिल जाने से बहुंत बढ़ गई थी। उन्होनें किला घेर लिया और यह समझकर कि हबीब ने तैमूर से बगावत की है, तैमूर के पास इसकी सूचना देने और परिस्थिति समझाने के लिए कासिद भेजा।
7
आधी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो दिनों से इस्तखर की कोई खबर न मिली थी। तरह-तरह की शंकाए हो रही थी। मन में पछतावा हो रहा था कि उसने क्यों हबीब को अकेला जाने दिया । माना कि वह बड़ा नीतिकुशल है , पर बगावत कहीं जोर पकड़ गयी तो मुटटी –भर आदमियों से वह क्या कर सकेगा । और बगावत यकीनन जोर पकड़ेगी । वहा के ईसाई बला के सरकश है। जब उन्हें मालम होगा कि तैमूर की तलवार में जगं लग गया और उसे अब महलों की जिन्दगीं पसन्द है, तो उनकी हिम्मत दूनी हो जाएगी। हबीब कहीं दूश्मनों से घिर गया, तो बड़ा गजब हो जाएगा।
उसने अपने जानू पर हाथ मारा और पहलू बदलकर अपने ऊपर झुझलाया । वह इतना पस्वहिम्मत क्यों हो गया। क्या उसका तेज और शौर्य उससे विदा हो गया । जिसका नाम सुनकर दुश्मन में कम्पन पड़ जाता था, वह आज अपना मुह छिपाकर महलो में बैठा हुआ है। दुनिया की आखों में इसका यही अर्थ हो सकता है कि तैमूर अब मैदान का शेर नहीं , कालिन का शेर हो गया । हबीब फरिश्ता है, जो इन्सान की बुराइयों से वाकिफ नहीं। जो रहम और साफदिली और बेगरजी का देवता है, वह क्या जाने इन्सान कितना शैतान हो सकता है । अमन के दिनों में तो ये बातें कौम और मुल्क को तरक्की के रास्त पर ले जाती है पर जंग में , जबकि शैतानी जोश का तूपान उठता है इन खुशियों की गुजाइंश नही । उस वक्त तो उसी की जीत होती है , जो इन्सानी खून का रंग खेले, खेतों –खलिहानों को जलाएं , जगलों को बसाए और बस्ितयों को वीरान करे। अमन का कानून जंग के कानून से जूदा है।
सहसा चौकिदार ने इस्तखर से एक कासिद के आने की खबर दी। कासिद ने जमीन चूमी और एक किनारें अदब से खड़ा हो गया। तैमूर का रोब ऐसा छा गया कि जो कुछ कहने आया था, वह भूल गया।
तैमूर ने त्योरियां चढ़ाकर पूछा- क्या खबर लाया है। तीन दिन के बाद आया भी तो इतनी रात गए।
कासिद ने पिर जमीन चूमी और बोला- खुदावंद वजीर साहब ने जजिया मुआफ कर दिया ।
तैमूर गरज उठा- क्या कहता है, जजिया माफ कर दिया।
हाँ खुदावंद।
किसने।
वजीर साहब ने।
किसके हुक्म से।
अपने हुक्म से हुजूर।
हूँ।
और हुजूर , शराब का भी हुक्म हो गया है।
हूँ।
गिरजों में घंटों बजाने का भी हुक्म हो गया है।
हूँ।
और खुदावंद ईसाइयों से मिलकर मुसलमानों पर हमला कर दिया ।
तो मै क्या करू।
हुजूर हमारे मालिक है। अगर हमारी कुछ मदद न हुई तो वहा एक मुसलमान भी जिन्दा न बचेगा।
हबीब पाशा इस वक्त कहाँ है।
इस्तखर के किले में हुजूर ।
और मुसलमान क्या कर रहे है।
हमने ईसाइयों को किले में घेर लिया है।
उन्हीं के साथ हबीब को भी।
हाँ हुजूर , वह हुजूर से बागी हो गए।
और इसलिए मेरे वफादार इस्लाम के खादिमों ने उन्हें कैद कर रखा है। मुमकिन है, मेरे पहुचते- पहुचते उन्हें कत्ल भी कर दें। बदजात, दूर हो जा मेरे सामने से। मुसलमान समझते है, हबीब मेरा नौकर है और मै उसका आका हूं। यह गलत है, झूठ है। इस सल्तनत का मालिक हबीब है, तैमूर उसका अदना गुलाम है। उसके फैसले में तैमूर दस्तंदाजी नहीं कर सकता । बेशक जजिया मुआफ होना चाहिए। मुझे मजाज नहीं कि दूसरे मजहब वालों से उनके ईमान का तावान लू। कोई मजाज नहीं है, अगर मस्जिद में अजान होती है, तो कलीसा में घंटा क्यों बजे। घंटे की आवाज में कुफ्र नहीं है। कापिर वह है, जा दूसरों का हक छीन ले जो गरीबों को सताए, दगाबाज हो, खुदगरज हो। कापिर वह नही, जो मिटटी या पत्थर क एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों मे, दरख्तों और झाडि़यों में खुदा का जलवा पाता हो। यह हमसे और तुझसे ज्यादा खुदापरस्त है, जो मस्िदज में खुदा को बंद नहीं समझता ही कुफ्र है। हम सब खुदा के बदें है, सब । बस जा और उन बागी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा न उठा लिया गया, तो तैमूर कयामत की तरह आ पहुचेगा।
कासिद हतबुद्वि–सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज उठा और फौजें किसी समर- यात्रा की तैयारी करने लगी।
8
तीसरे दिन तैमूर इस्तखर पहुचा, तो किले का मुहासरा उठ चुका था। किले की तोपों ने उसका स्वागत किया। हबीब ने समझा, तैमूर ईसाईयों को सजा देने आ रहा है। ईसाइयों के हाथ-पाव फूले हुए थे , मगर हबीब मुकाबले के लिए तैयार था। ईसाइयों के स्वप्न की रक्षा में यदि जान भी जाए, तो कोई गम नही। इस मुआमले पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है,तो उसका जवाब तलवार से दिया जाएगा।
मगर यह क्या बात है। शाही फौज सफेद झंडा दिखा रही है। तैमूर लड़ने नहीं सुलह करने आया है। उसका स्वागत दूसरी तरह का होगा। ईसाई सरदारों को साथ लिए हबीब किले के बाहर निकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ रहा था। हबीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमूर घोड़े से उतर पड़ा और हबीब का माथा चूम लिया और बोला-मैं सब सुन चुका हू हबीब। तुमने बहुत अच्छा किया और वही किया जो तुम्हारे सिवा दूसरा नहीं कर सकता था। मुझे जजिया लेने का या ईसाईयों से मजहबी हक छीनने का कोई मजाज न था। मै आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दूगा और तब मै एक ऐसी तजवीज बताऊगा ख् जो कई दिन से मेरे जेहन में आ रही है और मुझे उम्मीद है कि तुम उसे मंजूर कर लोगें। मंजूर करना पड़ेगा।
हबीब के चेहरे का रंग उड़ गया था। कहीं हकीकत खुल तो नहीं गई। वह क्या तजवीज है, उसके मन में खलबली पड़ गई।
तैमूर ने मूस्कराकर पूछा- तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे।
हबीब ने शरमाते हुए कहा- हक के सामने अमीन तैमूर की भी कोई हकीकत नही।
बेशक-बेशक । तुममें फरिश्तों का दिल है,तो शेरों की हिम्मत भी है, लेकिन अफसोस यही है कि तुमने यह गुमान ही क्यों किया कि तैमूर तुम्हारे फैसले को मंसूख कर सकता है। यह तुम्हारी जात है, जिसने तुझे बतलाया है कि सल्तनश्त किसी आदमी की जायदाद नही बल्िक एक ऐसा दरख्त है, जिसकी हरेक शाख और पती एक-सी खुराक पाती है।
दोनों किले में दाखिल हुए। सूरज डूब चूका था । आन-की-बान में दरबार लग गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के धार्मिक अधिकारों को स्वीकार किया।
चारों तरफ से आवाज आई- खुदा हमारे शाहंशाह की उम्र दराज करे।
तैमूर ने उसी सिलसिले में कहा-दोस्तों , मैं इस दुआ का हकदार नहीं हूँ। जो चीज मैने आपसे जबरन ली थी, उसे आपको वालस देकर मै दुआ का काम नहीं कर रहा हू। इससे कही ज्यादा मुनासिब यह है कि आप मुझे लानत दे कि मैने इतने दिनों तक से आवाज आई-मरहबा। मरहबा। दोस्तों उन हको के साथ-साथ मैं आपकी सल्तश्नत भी आपको वापस करता हू क्योंकि खुदा की निगाह में सभी इन्सान बराबर है और किसी कौम या शख्स को दूसरी कौम पर हुकूमत करने का अख्तियार नहीं है। आज से आप अपने बादशाह है। मुझे उम्मीद है कि आप भी मुस्लिम आजादी को उसके जायज हको से महरूम न करेगें । मगर कभी ऐसा मौका आए कि कोई जाबिर कौम आपकी आजादी छीनने की कोशिश करे, तो तैमूर आपकी मदद करने को हमेशा तैयार रहेगा।
9
किले में जश्न खत्म हो चुका है। उमरा और हुक्काम रूखसत हो चुके है। दीवाने खास में सिर्फ तैमूर और हबीब रह गए है। हबीब के मुख पर आज स्मित हास्य की वह छटा है,जो सदैव गंभीरता के नीचे दबी रहती थी। आज उसके कपोंलो पर जो लाली, आखों में जो नशा, अंगों में जो चंचलता है, वह और कभी नजर न आई थी। वह कई बार तैमूर से शोखिया कर चुका है, कई बार हंसी कर चुका है, उसकी युवती चेतना, पद और अधिकार को भूलकर चहकती पिरती है।
सहसा तैमूर ने कहा- हबीब, मैने आज तक तुम्हारी हरेक बात मानी है। अब मै तुमसे यह मजवीज करता हू जिसका मैने जिक्र किया था, उसे तुम्हें कबूल करना पड़ेगा।
हबीब ने धड़कते हुए हदय से सिर झुकाकर कहा- फरमाइए।
पहले वायदा करो कि तुम कबूल करोगें।
तो आपका गुलाम हू।
नही तुम मेरे मालिक हो, मेरी जिन्दगी की रोशनी हो, तुमसे मैने जितना फैज पाया है, उसका अंदाजा नहीं कर सकता । मैने अब तक सल्तनत को अपनी जिन्दगी की सबसे प्यारी चीज समझा था। इसके लिए मैने वह सब कुछ किया जो मुझे न करना चाहिए था। अपनों के खून से भी इन हाथों को दागदार किया गैरों के खून से भी। मेरा काम अब खत्म हो चुका। मैने बुनियाद जमा दी इस पर महल बनाना तुम्हारा काम है। मेरी यही इल्तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीन हो जाओ, मेरी जिन्दगी में भी और मरने के बाद भी।
हबीब ने आकाश में उड़ते हुए कहा- इतना बड़ा बोझ। मेरे कंधे इतने मजबूत नही है।
तैमूर ने दीन आग्रह के स्वर में कहा- नही मेरे प्यारे दोस्त, मेरी यह इल्तजा माननी पड़ेगी।
हबीब की आखों में हसी थी, अधरों पर संकोच । उसने आहिस्ता से कहा- मंजूर है।
तैमूर ने प्रफुल्लित स्वर में कहा – खुदा तुम्हें सलामत रखे।
लेकिन अगर आपको मालूम हो जाए कि हबीब एक कच्ची अक्ल की क्वारी बालिका है तो।
तो वह मेरी बादशाहत के साथ मेरे दिल की भी रानी हो जाएगी।
आपको बिलकुल ताज्जुब नहीं हुआ।
मै जानता था।
कब से।
जब तुमने पहली बार अपने जालिम आखों से मुझें देखा ।
मगर आपने छिपाया खूब।
तुम्हीं ने सिखाया । शायद मेरे सिवा यहा किसी को यह बात मालूम नही। आपने कैसे पहचान लिया।
तैमूर ने मतवाली आखों से देखकर कहा- यह न बताऊगा।
यही हबीब तैमूर की बेगम हमीदों के नाम से मशहूर है
05 मार्च 2010
दिल की रानी
Posted by Udit bhargava at 3/05/2010 05:12:00 am
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