28 फ़रवरी 2010

होलीः संतान कष्ट करें दूर

हंसी मजाक और रंग-गुलाल से प्रेम को जाहिर करने का त्योहार है होली। ज्योतिष और धर्मशास्त्र में होली का बड़ा महत्व है। होलिका दहन के एक माह पहले डंडा रोपण किया जाता है और आठ दिन पहले से होलाष्टक लग जाते हैं, जिनमें सारे मांगलिक कार्य बंद हो जाते हैं। फाल्गुन मास में प्राय: मीन का सूर्य रहता है तथा चंद्रमा पूर्णिमा को सूर्य की राशि सिंह के करीब रहता है और प्राय: समसप्तक योग बना करता है, जो आमजन में खुशियों का दरिया बहाने वाला होता है।

होली का त्योहार इंसान को धरातल पर रहते हुए खुशियां मनाने की प्रेरणा भी देता है। इसके साथ ही दिल में दबे बुरे विचारों एवं बुरे व्यवहार के कारण आई मानसिक परेशानियों को दूर कर समान भाव से समाज एवं परिवार में रहने की सीख देता है। यह त्योहार भीतर छिपे अहंकार को जलाकर प्यार में डुबकी लगाने की प्रेरणा भी देता है।

भक्त प्रहलाद की रक्षा प्रभु कृपा से हुई थी, इसीलिए छोटे बच्चों को नजर लगने, बीमार होने या अन्य समस्याओं से मुक्ति के लिए भी होलिका दहन काल एवं होली का त्योहार महत्वपूर्ण होता है। अक्सर बीमार रहने वाले छोटे बच्चों के अलावा ऐसे बच्चे, जिन्हें भूख नहीं लगती है, रोते बहुत हैं, उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए उन्हें होली दहन से दूर रखें। जब होली जलने लगे तो होली की तपन का स्पर्श कराना चाहिए। जलते बड़कूले घर लाकर अग्नि को लगातार रखने से घर से रोग एवं शोक दूर हो जाते हैं।

होली रंगों का त्योहार है और रंग विभिन्न ग्रहों से प्रभावित रहते हैं। एक के हाथ से दूसरे के चेहरे या शरीर पर किया जाने वाले प्रेम लेप आपस में ग्रहों से उत्पन्न बाधाओं को दूर करता है। यह मानसिक, शारीरिक एवं सामाजिक व्यवसाय में सकारात्मक परिणाम प्रदान करने वाला भी होता है। शनि की प्रधानता, अश्लीलता या मानसिक अस्थिरता के कारण चंद्रमा का सहयोग अंतमरुखी भी बना देता है। ऐसी स्थिति में अनेक लोग आनंद की अनुभूति से दूर होकर अपने आप को सबसे बचाने का प्रयास करते हैं। होली की शिखा का प्रवाह रात्रि में जिस दिशा में जाता है, उस दिशा में अनिष्ट एवं प्राकृतिक प्रकोप, राजदोष आदि की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।

वेद में विभिन्न यज्ञों का उल्लेख मिलता है, जिनमें चातुर्मास्य इष्टि भी प्रमुख है। यह यज्ञ चार-चार महीने के अंतर से किया जाता है। फाल्गुन मास में किया जाने वाला यज्ञ इस पूर्णिमा में किया जाता है। इसमें नवीन फसल की आहुति देकर शेष अन्न को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की परंपरा है। हम होली पर नए अन्न को भूनकर ग्रहण करते हैं। यही भुना अन्न होलका नाम से जाना जाता है और इसी के आधार पर यह पर्व होलिका कहलाता है।

होलिका के मध्य रोपा गया होलिका का डंडा प्रहलाद का सूचक है और यही वैदिक यज्ञस्तंभ का भी प्रतीक कहा गया है। होली के दिन प्रदीप्त अग्नि ऋतु संधि में उत्पन्न संक्रामक रोगों का नाश करती है। इस अवसर पर किए जाने वाले हास-परिहास व नृत्य गीत आदि के कार्यक्रम स्फूर्तिदायक होते हैं। इस दिन होलिका की अग्नि में दूध के छींटे देने, नारियल व अनार चढ़ाने का भी विधान है। दूसरे दिन चंडाल दर्शन कर स्नान करने से वर्ष भर शारीरिक व मानसिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है। इस दिन देवपितृतर्पण करके दुष्टों के विनाश के लिए होलिका की भस्म को प्रणाम करना चाहिए।