20 मई 2010

डहेलिया मनमोहक रंगों का संगम

गुलाब और गुलदाऊदी के बाद डहेलिया ही एक ऐसा फूल है जिस की सैकड़ों किस्में अलग-अलग रंगों तथा आकार में खिलती हैं। गमलों, क्यारियों एवं बार्डर में लगे इस के फूलों की छटा देखते ही बनती है।


फूलों में डहेलिया अपने रंग एवं आकार के कारण सब से आकर्षक लगता है। जब बगीचे में यह फूल खिला हो तो बगीचा खिल उठता है। नए घरों एवं उद्यानों में इसे आप भी उगा सकते हैं।

स्थान का चुनाव
डहेलिया को क्यारियों और गमलों दोनों में उगाया जा सकता है। इसे उगाने के लिये पूर्ण रूप से खुला स्थान हो, जहाँ 4 से 6 घंटे धूप आती हो। क्यारियों में कंकड़पत्थर न हों। उस की मिट्टी में गोबर की सड़ी खाद (10 किलो प्रति वर्ग मीटर ) अवश्य मिला दें। गमलों में उगाना चाहें तो मिट्टी व गोबर की खाद की बराबर मात्रा को गमलों में भर दें। ध्यान रहे गमलों का ऊपरी हिस्सा लगभग 2 से ढाई इंच खाली हो ताकि पानी के लिये स्थान हो। गमले आकार में 12 इंच या 14 के चुने।

पौधे स्वयं तैयार करें
डहेलिया के नए पौधे आप स्वयं भी तैयार कर सकते है। सब से अच्छी विधि कटिंग द्वार पौधा तैयार करना है। पुराने पौधों की शाख़ाओं के ऊपरी भाग से सितम्बर के महीने में 8 सेंटीमीटर लम्बी कटिंग काट लें। इन को मोटे रेट या बदरपुर में 2 इंच की दूरी पर डेढ इंच गहराई में लगाएं। लगाने के बाद 3 दिन तक कटिंग लगाए गए गमलों को छायादार स्थान पर रखें। इन से 15 दिन के बाद जड़ें निकल जाती हैं। इस के बाद ही इन्हें 10 से 12 इंच के गमलों में लगाते हैं।

कैसे उगायें
यदि गमलों में उगाना हो तो उस में दोमट मिटटी एवं गोबर की खाद बराबर हिस्सों में मिला कर भर दें। एक गमले में एक ही पौधा रोपें। पौध रोपने के तुरंत बाद पानी देना चाहिए। क्यारी में लगाना हो तो 45 सेंटीमीटर दूरी पर पौधे रोपें। क्यारी को 10 इंच गहरा खोद लें। इस के बाद 100 ग्राम सुपर फास्फेट, 100 ग्राम सल्फेट पोटेशियम, 25 ग्राम मैग्नेशियम सल्फेट प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र के हिसाब से दें। साथ ही फूल में चमक लाने के लिये खादी फसल में एक चम्मच मैग्नेशियम  सल्फेट को 10 लीटर पानी में घोल कर छिडकाव कर दें।

देखभाल
डहेलिया  के पौधे जब 1 फुट ऊंचे हो जाएँ तथा उन पर 8 से 12 पत्तिया आ जाएँ तब पौधे के ऊपरी भाग को हाथ से नोच दें। ऐसा करने से बगल की शाकाएं अधिक निकलेंगी तथा पौधे पर कई फूल आएँग। साथ ही पौधा घना दिकाई देगा। प्रति पौधा 4 से 6 शाखाओं को ही रखना चाहिए।

सहारा देना
 पौधों को सीधा बढ़ने और रखने के लिये सहारा देना आवश्यक होता है। सहारा देने के लिये बांस की पतली डंडियाँ जमीन अथवा गमले में गाड़ दी जाती है। पौधे को सुतली से 2 स्थानों पर बाँध देते हैं। ध्यान रखें, पौधों को सुतली या तार से ज्यादा कस कर न बांधें।

कलियों को तोड़ना

पौधों पर फूल के आकार व गुणवत्ता को देखते हुए प्रति पौधा 3 पुष्प कलिकाओं को ही रखा जाता है। केवल शीर्ष कालिका को ही रखना चाहिए, बाकी को मटर के आकार का होने पर तोड़ देते हैं। प्रदर्शनी के लिये पौधे पर 3 शाखाओं को ही रखना चाहिए, ताकि फूल का आकार बड़ा हो सके, शेष सभी सहाखाओं एवं कलिकाओं को तेज चाकू से काटते रहें।

पानी देना
गरमी पड़ने पर सप्ताह में 2 बार पाने देने की जरुरत पड़ती है। जाड़े के मौसम में 8 से 10 दिन के अन्तराल पर पौधों को पानी देना चाहिए।

गुलाब उगाइए गृहवाटिका में

गुलाब के फूल की ख़ूबसूरती की मिसाल नहीं दी जा सकती। गुलाब में जितने रंगों के फूल देखने को मिलते हैं उतने शायद किसी दूसरे फूल में नहीं। आप चाहें तो उस खूबसूरत फूल से अपनी गृहवाटिका में चार चाँद लगा सकते हैं।


फूलों का गुण हैं खिलना, खिल कर महकना, सुगंध बिखेरना, सौंदर्य देना और अपने देखने वाले को शांति प्रदान करना। फूलों की इस खूबसूरत दुनिया में गुलाब का एक ख़ास स्थान  है क्योंकि इसे सौंदर्य, सुगंध और खुशहाली  का प्रतीक  माना गया है। तभी तो इसे 'पुष्प सम्राट' की  संज्ञा दी गयी है और 'गुले-आप', यानी फूलों की रौनक भी कहा गया है। इस की भीनीभीनी मनमोहक सुगंध, सुन्दरता, रंगों की विविध किस्मों के कारण हर प्रकृति  प्रेमी इसे अपनाना चाहता है।

भारत में गुलाब हर जगह उगाया जाता है। बागबगीचों, खेतों, पार्कों, सरकारी व निजी इमारतों के अहातों में, यहाँ तक कि घरों की ग्रह-वाटिकाओं की क्यारियों और गमलों में भी गुलाब उगा कर उस का आनंद लिया जाता है।

गुलाब पूरे उत्तर भारत में, खासकर राजस्थान में तथा बिहार और मध्य प्रदेश में जनवरी से अप्रैल तक खूब खिलता है। दक्षिण भारत में खासतौर पर बंगलौर में और महारास्ट्र और गुजरात में भी गुलाब की भरपूर खेती होती है।


उगाने का समय
आमतौर पर जुलाई-अगस्त में मानसून आते ही  गुलाब लगाया जाता है। सितम्बर-अक्टूबर में तो यह भरपूर उगाया जाता है। गुलाब लगाने की सम्पूर्ण विधि और प्रक्रिया अपनाई जाए तो यह फूल मार्च तक अपने सौंदर्य, सुगंध और रंगों से न केवल हमें सम्मोहित करता है बल्कि लाभ भी देता है।

किस्में - भारत में उगाई जाने वाली गुलाब की परम्परागत किस्में हैं, जो देश के अलगअलग इलाकों में उगाई जाते हैं, विदेशों से भी अलगअलग किस्में मांगा कर उन का 'संकरण' (2 किस्मों के बीच क्रास) कर  के अनेक नई व उन्नत किस्में तैयार की गयी हैं, जो अब अपने देश में बहुत लोकप्रिय हैं।

गुलाब की विदेशी किस्में जर्मनी, जापान, फ्रास, इंग्लैण्ड, अमेरिका, आयरलैंड, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया से मंगाई गयी हैं। भारतीय गुलाब विशेषज्ञों ने देशी किस्मों में भी नयी विकसित 'संकर' (हाईब्रिड) किस्में जोड़ कर गुलाब की किस्मों की संख्या में वृद्धि की है। इस दिशा में दिल्ली स्थित भारती कृषि अनुसंधान संस्थान का अनुसंधान कार्य ख़ास उल्लेखनीय है। दक्षिण भारत में भारतीय बागबानी अनुसंधान संसथान, बंगलौर ने भी किस्मों के विकास और  वृद्धि में भरपूर कार्य किया है।

वैसे तो विश्व भर में गुलाब की किस्मों की संख्या लगभग 20 हजार से अधिक है, जिन्हें विशेषज्ञों ने विभिन्न वर्गों में बांटा है लेकिन तक्तीकी तौर पर गुलाब के 5 मुख्य वर्ग हैं, जिन का फूलों के रंग, आकार, सुगंध और प्रयोग के अनुसार विभाजन किया गया है, जो इस प्रकार  है: हाईब्रिड टीज, फ्लोरीबंडा, पोलिएन्था वर्ग, लता वर्ग और मिनिएचर वर्ग।

हाईब्रिड टीज वर्ग : यह बड़े आकार के गुलाबों का एक महत्वपूर्ण वर्ग है, जिस में टहनी के ऊपर या सिरे पर एक ही फूल खिलता है, इस वर्ग की अधिकतर किस्में यूरोप और छीन के 'टी' गुलाबों के 'संकर' (क्रास) से तैयार की गयी है, इस वर्ग की भारतीय किस्में हैं : डा. होमी भाभा, चितवन, भीम, चित्रलेखा, चंद्बंदीकली, गुलजार, मिलिंद, मृणालिनी, रक्त्गंधा, सोमा, सुरभी, नूरजहाँ, मदहोश, डा. बैंजमन पाल आदि।

फ्लोरीबंडा वर्ग : यह हाईब्रिड टीज और पोलिएन्था गुलाबों के संकर (मिलन) से विकसित किये गए गुलाबों का वर्ग है। इस के फूल उपेक्षाकृत छोटे किन्तु गुच्छों में खिलतें हैं और आकार व वजन में बढ़िया होते हैं। इस वर्ग के फूल गृहवाटिका  की क्यारियों और गमलों में ज्यादा देखने को मिलते हैं। इस किस्म की विशेषता है कि इन के पौधे कम जगह में ही उगा कर पर्याप्त फूल प्राप्त किये जा सकते हैं। ठन्डे मौसम में जब दूसरे  गुलाब नहीं खिलते हैं, इस वर्ग के फूल दिल्ली सहित उत्तर भारत के सभी राज्यों में खूब खिलते हैं। इस की मुख्य किस्में हैं : दिल्ली, प्रिन्सिस, बंजारन, करिश्मा, चन्द्रमा, चित्तचोर, दीपिका, कविता, जन्तार्मंतर, सदाबहार, लहर, सूर्यकिरण, समर, बहिश्त, आइसबर्ग, शबनम आदि।

पोलिएन्था वर्ग : इस वर्ग के गुलाब के पौधे छोटे, पत्तियां  छोटी  और फूल भी छोटे होते हैं। पौधे कलामों से उगाये जाते हैं। फूल गुच्छों  में और साल भर लगते रहते हैं। इन्हें  पोमापन  या डवार्फ  (बौने) पोलिएन्था भी कहते हैं। पौधे मजबूत होते हैं और गृहवाटिका की क्यारियों व खेतों में भरपूर खिलते हैं।
इस वर्ग की लोकप्रिय भारती किस्में हैं : प्रीती, स्वाति, इको, पिंक शावर, आइडियल, कोरल कलस्टर, आदि।

मिनिएचर वर्ग : इस के पौधे, पट्टियां  और फूल सभी छोटे  होते हैं। पौधे कलामों द्वार उगे जाते हैं। यह गमलों, पतियों आदि में उगाने की उपयुक्त किस्म है। गृहवाटिका की क्यारियों के चारों ओर बार्डर लगाने के लिये भी उपयुक्त है। गुलाब के फूल खिलने का मौसम (अक्टूबर से मार्च) में इस किस्म के गुलाब खूब खिलते हैं। विभिन्न रंगों में ये गुच्छों और डंडियों पर अलग भी उगते हैं। बेबी डार्लिंग, बेबी गोल्ड, स्टार, ग्रीन इसे, ब्यूटी सीकृत, ईस्टर मार्निंग, संड्रीलो आदि इस की लोकप्रिय किस्में हैं।

लता वर्ग : (क्लैंग्बिंग एंड रैंबलिंग रोज) : इस वर्ग के गुलाब के पौधे लताओं के रोप में बढ़ते हैं और पैराबोला पर या दीवार का सहारा पा कर बढ़ते हैं। ये साल में केवल एक बार खिलते हैं। इस की मुख्य किस्में है  : सदाबहार, समर स्नो, डा. होमी भाभा, मार्शल नील, दिल्ली वाईट पर्ल आदि।

गुलाब में जितने रंगों के फूल देखने को मिलते हैं उतने शायद किसी दूसरे फूल में नहीं। यदि सफ़ेद गुलाब हैं तो पीले, लाल, नारंगीलाल, रक्त्लाल, गुलाबी लेवेंडर रंग के दोरंगे, तींरंगे और यहाँ तक कि अब तो नीले और काले रंग के गुलाब भी पाए जाते है।

गमलों में गुलाब : निसंदेह गुलाब के पौधे गृहवाटिका में मिटटी के गमलों में आसानी से उगे जा सकते हैं, जो कम से कम 30 सेंटीमीटर घेरे के और उतने ही गहरे हों। मिनिएचर गुलाब के लिये 20 से 25 सेंटीमीटर आकार के गमले पर्याप्त हैं। गमलों को स्वाच वातावरण में रखा जाए। जैसे ही नयी कोपलें और शाखाएं अंकुरित होने लगें, उन्हें  हीसूरज ई रोशनी में रखें। दिन भर इन्हें 4-5 घंटे धूप अवश्य मिलनी चाहिए। हाँ, गरमी की कडकती धूप में 1-2 घंटे ही पर्याप्त हैं।

मिट्टी का मिश्रण : गमलों के लिये मिट्टी का मिश्रण कुछ इस तरह से रखें। 2 भाग खेत की मिटटी, एक भाग खूब सड़ी गोबर की खाद, एक भाग में सूखी हरी पत्ते की खाद (लीफ मॉल्ड) और लकड़ी  का बुरादा मिला लें। सम्भव हो तो कुछ मात्रा में हड्डी का चुरा भी मिला लें। इस से पौधों और जड़ों का अच्छा विकास होता है।

याद रहे कि गमलों में पौधों का रखरखाव वैसा ही हो, जैसी कि क्यारियों में होता है, उन की उचित निराईगुडाई में होता है। मसलन, पौधों को पूरी खुराक मिले, उन की उचित निराईगुडाई और सिंचाई हो, कीट व्याधियों से बचाव हो, गमलों के पौधों को मौसम के अनुसार समयसमय पर पानी दिया जाए और उन की कटाईछंटाई  भी की जाए। सप्ताह में एक बार गमलों की दिशा भी अवश्य बदलें और उन के तले से पानी निकलने का चित्र भी उचित रूप से खुला रखें।

                      सावधानियां                     
  • बरसात के मौसम में गमलों और क्यारियों में बहुत देर तक पानी भरा न रहने दें।
  • हर साल, पौधों की छंटाई कर, गमले के ऊपर की 2-3 इंच मिट्टी निकाल कर उस में उतनी ही गोबर की सड़ी खाद भर दें।
  • हर 2-3 साल के बाद सम्पूर्ण पौधे को मिट्टी सहित नए गमले में ट्रांसफर कर दें। चाहें तो गमले की मिट्टी बदल कर ताजा मिश्रण भरें।
  • यह प्रक्रिया सितम्बर-अक्टूबर में करें।
मात्र शौक और सजावट के लिये गुलाब का पौधा जब गमले में उगाया जाए तो किस्मों का चुनाव भी उसी के अनुसार किया जाना चाहिए। व्यावसायिक स्तर पर गुलाब की खेती करनी  हो तो वैसी ही किस्मों का चयन करें। इस बारे में प्राय: सभी बड़ी नर्सरियों में पूरी जानकारी मिल सकती है। दिल्ली में हों तो भारतीय कृषि अनुसंधान पूसा के पुष्प विज्ञान विभाग से उचित जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

जब जहाँ भी चारों ओर गुलाब खिलता है तो सब ओर इस की सुरभि व्याप्त हो जाती है। फरवरी-मार्च में गुलाब अपने पूर्ण यौवन और बहार पर होता है। आओ, इसे अपनी गृहवाटिका में उगायें और इस के सौंदर्य और महक का आनंद लें।

18 मई 2010

सुकून एवं आनन्द के लिये प्रतिदिन पन्द्रह मिनट मंत्रोचार पूजन कीजिये

प्रात: काल उठकर नित्यक्रिया से निव्रत होकर अपनी प्रतिदिन की पूजा सही विधि-विधान से करनी चाहिये। पूजा आरंभ करने से पहले हमें सभी आवश्यक सामग्री एकत्रित कर लेनी चहिये पूजा करते समय हमारा मुख पूर्व दिशा की ओर रहना चहिये।

आसन:- पूजा में आसन का महत्व अत्यधिक होता हैं। आसन सफ़ेद/लाल रंग का गर्म होना चहिये। आसन की शुद्धि अत्यधिक ध्यान देना चाहिए। पूजा के आरंभ में हमें सर्वप्रथम आसन पर बैठते समय आसन मंत्र बोलना चाहिए।

आसन मंत्र : मुलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णु सपिते।
नमो दु:स्वनाशाय सुस्वप्र फ़लदायिने ॥
ॐ अश्व्त्थाय नम:, आसनं स:।

आचमनीय मंत्र : आसन पर बैठने के बाद आचमनीय करना चाहिए। आचमनीय से हम केवल अपनी ही शुद्धि नहीं करते अपितु ब्रह्मा से लेकर trin तक प्रप्त कर देते हैं। आचमन न करने पर हमारे सारे कार्य व्यर्थ हो जाते है हमें आचमन करते समय आचमनीय मंत्र बोलना चाहिए।

आचमनीय मंत्र : त्वंक्षीर फ़लकशचैव शीतलश्च वनस्पत।
त्वमाराध्य नरोविंधात दैहिकामुष्मिकं फ़लम॥
ॐ अश्वत्थान नम: आचमनीयं समर्पयामि
(बायीं हथेली पर जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से मुहं पर जल के छींटे के लिये जो जल दिया जाता है उसे आचमन कहते है)

मूर्ती स्नान: आचमन करने के पश्चात हम पूजा आरंभ करते हुए मूर्ती स्नान हेतु स्नान मंत्र बोलते हुए भगवान को जल के छींटो से स्नान करायें।

स्नान मंत्र : चलद्दलाय वृक्षाय सर्वदाश्रित विष्णवे।
बोधितत्वाय देवाय हयश्वथाय नमो नम:।।
ॐ अश्वत्थाय नम: स्नानीयं समर्पयामि

रोली, अक्श्त एवं पुष्प चढाना: रोली तिलक लगाने के बाद पुष्प चढाये।

पुष्प मंत्र: यं दृष्टवामुच्यते रोगै: स्प्रष्ट: पापै: प्रमुच्यते॥
यदाश्रियाच्चिरंजीवी तमश्वत्थं म नमाम्यहम॥
ॐ अश्वत्थाय नम: पुष्प समर्पयामि

धूप प्रज्जवलित करना : पुष्प चढाने के पश्चात धूप प्रज्जवलित करनी चाहिये।

दीप दर्शन : धूप जलाने के बाद दीप दर्शन मंत्र बोलने के साथ दीप प्रज्जवलित करना चाहिए।

दीप दर्शन मंत्र : साज्यं च वर्ति संयुक्तं वहिनिना च योजितं मया।
देपं गृहाण देवेश ममज्ञान प्रदोभव॥
ॐ अश्वत्थाय नम: दीपं दर्शयामि।

नैवैध चढाना : दीप दर्शन करने के पश्चात भगवान को नैवैध मंत्र बोलते हुए नैवैध चढाना चाहिए।

नैवैध मंत्र : नैवैध ग्रहयतां देव भक्तिं में हय चलां कुरू।
ई च वरंदेहि परत्रेह परांगतिम।
ओम अश्वत्थाय नम: नैवैधं समर्पयामि

नैवैध अर्पित करने के बाद आचमन हेतु जल देना (किसी पात्र से भगवान की तस्वीर/मूर्ती के सामने जल की कुछ बूंदे जमीन पर गिरा दें) चाहिए।

इसके पश्चात पूजा को आगे बढाते हुए प्रतिदिन की देव मंत्रोचार पूजा गणपति मंत्र से प्रारम्भ करें।

1. गणपति मंत्र : ॐ गं गणपतेय नम:

गायत्रीमंत्र को 108 बार रुद्राक्ष की माला से करें-
2. गायत्री मंत्र : ॐ भूभुर्व: स्व: तस्य वितुर्वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात

शिव मंत्र का जप 108 बार रुद्राक्श की माला से करना चाहिये।
3. शिव मंत्र : ॐ नम: शिवाय

सूर्य मंत्र न्यूनत्म 28 बार बोलना चाहिये
4. सूर्य मंत्र : ॐ भास्कराय विदमेह दिवाकराय
धीमहि तन्नो सूर्याय प्रचोदयात

इसके बाद श्री दुर्गा देवी जी का स्मरण करते हुए हमें दुर्गा सप्तश्लोकी मंत्र बोलना चाहिये-
5. दुर्गा सप्त श्लोकी मंत्र :
ओम ग्यानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाक्रिष्य मोहाय महामाया प्रयच्छ्ति॥
दुर्गे स्म्रता हरसि भीतिमशेषजन्तो:,
स्वस्थै: स्म्रता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्रादु:खभयाहारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकारकरणाय सदाद्र्चित्ता॥
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोSस्तुते॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणें।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोSस्तु ते॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोSस्तुते॥
रोगानाशेषानपहंसि तुष्टा, रूष्टा तु कामान सकलानभीष्टान।
त्वामाश्रितानां न विपत्रराणां, त्वामाश्रिता ह्र्याश्रयतां प्रयान्ति॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम॥

श्री राम का स्मरण करते हुए हम तारक मंत्र बोलेंगे:
6. श्री राम जय-राम जय-जय राम

पूजा के अंत में हम श्री लक्ष्मी जी का ध्यान करते हुए लक्ष्मी मंत्र बोलेंगे।

7. लक्ष्मी मंत्र :- श्री महालक्षम्यै विदमहे हरि प्रियायै
धीमहि: तन्नो महालक्ष्मी प्रचोदयात।

स्वस्थ्य जीवन के दिन की शुरूआत ऐसे कीजिये

जीवन की सफ़लता के लिये स्वस्थ्य रहना महत्वपूर्ण होता है इसीलिये कहा गया है पहला सुख निरोगी काया। आयुर्वेद का भी प्रथम उद्देश्य जीवन को स्वास्थ्य रखना है जैसा कि वर्णित है।
स्वस्स्थ्यस्य स्वास्थ्य रक्षणम् आतुरस्थ विकार प्रशमनम् च ॥
प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ्य रहने का प्रयास करता है तथा इच्छा भी रखता है। स्वस्थ्य रहने हेतु केवल पौष्टिक आहार ही आवश्यक नहीं है अपितु संयमित और प्राकृतिक दिनचर्या भी अवश्यक है। पौष्टिक आहार स्वस्थ्य जीवन के लिये सहायक अवश्य है लेकिन प्राकृतिक जीवनचर्या जरूरी है। व्यक्ति को ब्रह्ममुहूर्त में उठना, स्नान, ध्यान, व्यायाम आदि सम्यक समय व मात्रा में प्राकृतिक तरीके से करना चहिये। इन सबको सही प्रकार से एक सन्तुलित मात्रा में करना ही स्वस्थ्य जीवन के लिये आवश्यक है।

आज के भागमभाग एवं व्यस्त दौर में व्यक्ति की दिनचर्या भी अस्त व्यस्त हो गई। व्यस्त दौर के कारण हम प्राकृतिक जीवनचर्या से दूर होते जा रहे हैं। किसी-किसी परिवार में ही आज के समय में प्राकृतिक दिनचर्या के फ़ायदों के बारे में निर्देश बच्चों को दिये जाते है। ज्यादातर व्यक्ति अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार दैनिक दिनचर्या बना लेते है। दिनचर्या के मामले में व्यक्ति स्वेच्छाचारी हो चुके है। स्वस्थ्य जीवन की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति को वास्तव में विचार करना चाहिए कि हमें, कब प्रात: शयन बैड त्याग करना, कब स्नान करना है, कब व्यायाम मालिश, भोजन आदि करना है। इन सब दिनचर्या विषयक बिन्दुओं की सही प्रकार से स्थूल रूप में जानकारी इस प्रकार है:-

प्रात:काल सूर्योदय से पहले जागना चाहिये
      व्यक्ति को प्रात:काल सूर्योदय पूर्व जगकर बिस्तर त्याग देना चाहिये। जैसा कि आयुर्वेद के शास्त्र अष्टांग संग्रह में लिखा हुआ है कि-
बह्मे मुहूर्त उत्तिष्ठेज्जीणाजीर्ण निरूपयन्।
रक्शार्थमायुष: स्वस्थो............................
         प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व जागना स्वस्थ्य जीवन के लिये आवश्यक है। विद्वानों के मतानुसार प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठने से व्यक्ति का शरीर स्वस्थ्य एवं फ़ुर्तीला बनता है। उपरोक्तानुसार जगने से शरीर में दिनभर ताजगी बनी रहती है। जो इन्सान देर तक सोते रहते हैं उनको सुर्य की किरणों का उक्त लाभ नहीं मिलता है। प्रात:काल उक्त समय में स्वस्छ एवं ताजी हवा बहती है जिसमें पैदल घूमना स्वस्थ्य वर्धक एवं लाभदायक होता है। योग-शास्त्र के अनुसार प्रात:काल सुषमा नाडी भी जाग्रत रहती है। जिससे स्वस्छ वायु का लाभ शरीर को मिलता है। प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व जगने के लिये आवश्यक है कि रात्रि को जल्दी सोया जावे। यदि देर से सोयेंगे तो सुबह जल्दी उठ पाना मुश्किल होगा।

          सिद्ध पुरूष एवं योगी भी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर चिरायु बने थे। स्वस्थ्य रहने के लिये व्यक्ति का सोने एवं जगने का समय निश्चित होना चाहिये। देर से सोने एवं जगने की आदतों से लोग अनेक बीमारियों से ग्रसित हो जाते है, चिकित्सकों के चक्कर लगाते हैं, आर्थिक व्यय करते हैं अत: सूर्योदय से पूर्व जगना चाहिये।

प्रात:उठकर तांबे के बर्तन में रखें पानी से आंखे धोयें
           प्रात:काल उठने के पश्चात आंखो को धोना चाहिये। इसके लियें अलग से तांबे के एक बर्तन में शाम को पानी भर कर रख देवे। प्रात:जगकर इस पानी से आंखो में धीरे-धीरे हल्के-हल्के छीटें मारना चाहिये। इससे आंखो के अन्दर मैल आदि शीघ्र निकल जात है। इससे नेत्र ज्योति ठीक बनी रहती है। प्रात:आंखें धोने से चश्मे की आवश्यकता नहीं पडती है। आंखो की अन्य कोई बीमारी भी नहीं होती है। शाम को सोते समय आंखों को पानी से धोना भी लाभदायक होता है।

रातभर तांबे के बर्तन में रखे पानी का प्रात:काल उठकर पीना चाहिये
          शौच जाने से पहले चार गिलास पानी (तांबे के बर्तन में रखा हुआ) पीना चाहिये। पेट भर कर पानी पीने से दस्त साफ़ आती है। कब्ज की शिकायत नहीं होती। मूत्र भी सही प्रकार से आता है। प्रात:काल खाली पेट पीये जाने वाले पानी को उषा पान कहा जाता है।

शौच जाने की प्रक्रिया
          जब व्यक्ति को जगने के पश्चात प्रात:काल पानी पीने के बाद यदि चाय की आदत हो तो पानी पीने के 20 मिनिट बाद चाय पीकर शौच के लिये जाना चाहिये। मल का विसर्जन बलपूर्वक नहीं करना चहिये। इससे बवासीर आदि बीमारी होने की संभावना रहती है। शौच दिन में उत्तर की और तथा रात्रि में दाक्शिन की ओर मुख करके तथा मौन रहकर करना चाहिये। जिन व्यक्तियों को शौच सही प्रकार से नहीं आता हो वे नीबू मिलाकर पानी पीयें तथा कुछ देर तक घूमने के पश्चात शौच जावें। यदि इस प्रक्रिया से दस्त साफ़ न हो तो किसी हल्की औषधि का सेवन भी कर सकते है परन्तु औषधि की आदत न बनावें।

दांतों की सफ़ाई
         टूथपेस्ट की अपेक्शा नीम की दातुन लाभप्रद एवं सुरक्शित है। दांतों को साफ़ करने के लिये नीम की दातुन उपलब्ध न हो तो अच्छी टूथब्रश से टूथपेस्ट लगाक दांतों को साफ़ करें। दांतों को भोजन के पश्चात एवं प्रात:साफ़ करना चाहिये, जिससे दांतो के रोग होने की संभावना नहीं रहती है। स्वस्थ्य जीवन हेतु दांतों की देखभाल अति आवश्यक है।

जीभ को साफ़ करना
         दांत साफ़ करने के पश्चात जीभ को भी साफ़ करना चाहिये। जिससे रात्रि में जमा जीभ का मैल साफ़ हो जावे। जीभ को साफ़ करने से मुख की दुर्गन्ध दूर होती है, तथा भोजन में रूचि बढती है। जीभ साफ़ करने के लिये बाजार में जीभी उपलब्ध है।

स्नान से पूर्व शरीर की मालिश करनी चाहिये
         शरीर को स्वस्थ एवं प्रसन्न रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को किसी उपयुक्त तेल से शरीर की मालिश अवश्य करनी चाहिये इस हेतु सरसों का तेल उपयुक्त होता है। मालिश के लिये सर्दियों में हल्का एवं सुहाता गुनगुना तैल तथा गर्मियों में ठंडा तैल काम लेना चाहिये। तेल मर्दन करने से शरीर की पुष्टि होती है, शरीर दृढ, मजबूत होता है तथा अच्छी नींद आती है। मालिश करने वाले को बुढापा देर से आता है।

प्रतिदिन कम से कम 15 मिनट योगासन करना चाहिये
         स्वस्थ्य शरीर हेतु व्यायाम अति आवश्यक है। प्रात: टहलने जाना चाहिये तथा योगासन करने चाहिये। प्रतिदिन कम से कम 15 मिनट व्यायाम करने से शरीर में रक्त संचार ठीक प्रकार से होता है व्यायाम करने से शरीर फ़ुर्तीला बनता है जठ्राग्रि प्रदीप्त होती है। मोटापा नहीं होता है। शरीर का प्रत्येक अंग मजबूत होता है।

स्नान विधि
        स्नान करने से आयु बढती हैं एवं बल वृद्धि भी होती है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को स्नान अवश्य करना चाहिये। आयुर्वेद में स्नान के महत्व को इस प्रकार बताया गया है-
दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जा बल प्रदम्। कण्डू मल श्रमस्वेद तन्द्रातृड दाहपाष्मजित॥
स्नान यथा संभव ताजा पानी से ही करना चाहिये। स्नान के पश्चात शरीर को सूती कपडे (तौलिये) से अच्छी तरह पोंछना चाहिये जिससे शरीर के रोम-कूप अच्छी तरह खुल जावें। आयुर्वेद के मन्तव्य में मुख, आंखे व कान के रोगी, दस्त रोगी को तथा भोजन के पश्चात स्नान नहीं करना चाहिये।

प्रतिदिन अपने इष्ट एवं अराध्य देव का ध्यान कीजिये
        दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की कामना रखने वाले व्यक्ति को सदाचार रूपी रसायन का सेवन करते हुए भगवान का ध्यान एवं उपासना करनी चाहिये। भगवान का ध्यान करने से मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। भगवान का ध्यान करने से मानसिक एकाग्रता एवं विश्वास की प्राप्ति होती है। अत: व्यक्ति को अपने-अपने इष्ट एवं अराध्य देव की पूजा करनी चहिये। विश्वास एवं श्रद्धा के साथ ध्यान, पूजा एवं अर्चना करनी चाहिये, जिससे आयु, विद्या एवं बल वृद्धि  होती है।

स्वस्थ्य जीवन हेतु कुछ अन्य उपयोगी टिप्स:-

1. लंच एवं डिनर के बीच की समयावधि में पर्याप्त अन्तर रखना चाहिये।
2. देर रात खान नहीं खाना चाहिये।
3. रात के खाने में गरिष्ट चीजों का उपयोग नहीं करे।
4. खाना खाने के तुरन्त बाद पानी नहीं पिये। कम से कम 45 मिनट बाद ही जल पियें।
5. खाने में अत्यन्त बारीक आटे की जगह थोडा मोटा पिसा आटा काम में लेना चाहिये। गेहूं के आटे में चना एवं जौ का आटा मिश्रित कर लेना चाहिये।
6. प्रतिदिन दाल एवं शुद्ध सलाद का सेवन अच्छा रहता है।
7. प्रात:काल नाशते में अंकुरित मूंग, मेथी, इत्यादि का सेवन करना चाहिये।
8. मैदा एवं बेसन का कम से कम उपयोग करना चाहिये।
9. प्रतिदिन छाछ का सेवन करना चाहिये।

महाभारत - मय दानव की शिल्पकला

खाण्डव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभय दान दे दिया था। इससे कृतज्ञ हो कर मय दानव ने अर्जुन से कहा, "हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अर्जुन ने उत्तर दिया, "मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम श्री कृष्ण की सेवा करो।" मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर श्री कृष्ण ने उससे कहा, "हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे भवन का निर्माण करो जैसा कि इस पृथ्वी पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।"

मयासुर ने श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने पाण्डवों को देवदत्त शंख, एक वज्र से भी कठोर रत्नजटित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया।

कुछ काल पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन किया। यज्ञ के समाप्त हो जाने के बाद भी कौरव राजा दुर्योधन अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर के अतिथि बने रहे। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन के शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा, यहाँ तक कि उसका उपहास करते हुये द्रौपदी ने कह दिया कि 'अन्धों के अन्धे ही होते हैं।' दुर्योधन अपने उपहास से पहले से ही जला-भुना किन्तु द्रौपदी के कहे गये वचन उसे चुभ गये।

प्रवेश द्वार पर निर्भर घर की उन्नति

प्राचीन ऋषियों ने भवन की बनावट, आकृति तथा मुख्य प्रवेश द्वार के माध्यम से प्रवेश होने वाली ऊर्जा के सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव का गहनता से अध्ययन किया है। आदिकाल से प्रमुख द्वार का बड़ा महत्वा रहा, जिसे हम फाटक, गेट, दरवाजा, प्रवेश द्वार आदि के नाम से जानते हैं, जो अत्यंत मजबूत व सुंदर होता है। वास्तु के अनुसार प्रमुख द्वार सदियों तक सुखद व मंगलमय अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम होते हैं। प्रवेश द्वार चाहे किसी घर का हो, फैक्ट्री, कारखाने, गोदाम, आँफिस, मन्दिर, अस्पताल, प्रशासनिक भवन, बैंक, दुकान आदि का हो, लाभ-हानि दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इससे जुड़े सिद्धांतों का सदियों से उपयोग कर मानव अरमानों के महल में मंगलमय जीवन बिताता चला आ रहा है।

मुख्य प्रवेश द्वार के जरिये शत्रुओं, हिंसक पशुओं व अनिष्टकारी शक्तियों से भी रक्षा होती है, इसे लगाते समय वास्तुपरक बातों जैसे, प्रवेश द्वार के लिये कितना स्थान छोडा जाए, किस दिशा में पट बंद हो एवं किस दिशा में खुलें तथा वे लकड़ी व लोहे किसी धातु के हों, उसमें किसी प्रकार की आवाज हो या नहीं। प्रवेश द्वार पर कैसे प्रतीक चिन्ह हों, मांगलिक कार्यों के समय किस प्रकार व किसे सजाना इत्यादि बातों पर ध्यान देना उत्तम, मंगलकारी व लाभदायक रहता है। इस बातों का ध्यान रख मानव सकारात्मक के सहारे उन्नति कर सकता है।

इनका रखें ध्यान

जिस घर में नियमों का सावधानीपूर्वक पालन किया जाता है, वहां सदैव लक्ष्मी, धन, स्वास्थय लाभ व आरोग्य रहता है.....
1. किसी भी मकान का एक प्रवेश द्वार शुभ माना जात है। अगर दो प्रवेश द्वार हों, तो उत्तर दिशा वाले द्वार का प्रयोग करें।
2. पूरब मुखी भवन का प्रवेश द्वार पूरब या उत्तर की ओर होना चहिये। इस्से सकारात्मक उर्जा प्राप्त होती है तथा दीर्घ आयु व पुत्र धन आता है।
3. पश्चिम मुखी मकान का प्रवेश द्वार पश्चिम या उत्तर पाश्चिम में किया जा सकता है, परंतु दक्षिण-पश्चिम में बिल्कुल नहीं होना चाहिए। भूखंड कोई भी मुखी हो, अगर प्रवेश द्वार पूरब की तरफ़ या उत्तर-पूरब की तरफ़ या उत्तर की तरफ़ हो तो उत्तम फ़लों में वृद्धि होती है।
4. उत्तर मुखी भवन का प्रवेश उत्तर या उत्तर-पूरब में होना चहिये। ऐसे प्रवेश द्वार से निरंतर धनी, लाभ, व्यापार और सम्मान में व्रिद्धि होती है।
5. दक्षिण मुखी भूखंड का द्वार दक्षिण या दक्षिण-पूरब में कतई नहीं बनाना चाहिए। पश्चिम या अन्य किसी दिशा में मुख्य द्वार लाभकारी है।
6. उत्तर-पश्चिम का मुख्य द्वार लाभकारी है और व्यक्ति को सहनशील बनाता है।
7. मेन गेट को ठीक मध्य (बीच) में नहीं लगाना चहिए।
8. प्रवेश द्वार को घर के अन्य दरवाजों की उपेक्षा बडा रखें।
9. प्रवेश द्वार ठोस लकडी या धातु से बना होना चाहिए। उसके ऊपर त्रिशूलनुमा छडी नहीं लगी होनी चाहिए।
10. ध्यान रखें, प्रवेश द्वार का निर्माण जल्दबाजी में नहीं करें।

विशेष बातें

सूर्यास्त व सूर्योदय होने से पहले मुख्य प्रवेश द्वार की साफ़-सफ़ाई हो जानी चाहिए। सायंकाल होते ही यहां पर उचित रोशनी का प्रबंध होना भी जरूरी है।

दरवाजा खोलते व बंद करते समय किसी प्रकार की आवाज नहीं आनी चाहिए। बरामदे और बालकनी के ठीक सामने भी प्रवेश द्वार का होना अच्छा नहीं माना गया है।

पूरब व उत्तर दिशा में अधिक स्थान छोडना शुभ है।

प्रवेश द्वार पर गणेश व गज लक्ष्मी कुबेर के चित्र लगाने से सौभाग्य व सुख में निरंतर व्रिद्दि होती है।

मांगलिक कार्यो व शुभ अवसरों पर प्रवेश द्वार को आम के पत्ते व हल्दी तथा चंदन जैसे शुभ व कल्याण्कारी वनस्पतियों से सजाना शुभ होता है।

इसे सदैव साफ़ रखना चाहिए। किसी प्रकार का कूडा या बेकार सामान प्रवेश द्वार के सामने कभी न रखें। प्रात: व सायंकाल कुछ समय के लिए दरवाजा खुला रखना चाहिए।

17 मई 2010

गहरा रहस्य छुपा है देवताओं के वाहनों में

इतने विशाल गणेश जी का वाहन चूहा ? किसी की सवारी एक नाजुक सा हंस तो किसी ने राष्ट्रीय पक्षी मोर को ही अपना वाहन बना लिया। क्या यह संभव है ? अगर यूं ही सतही दृष्टि से सोचेंगे तो शायद किसी निर्णय पर पहुंच भी नहीं पाएंगे। इसलिये जरूरत है गहन चिंतन-मनन की। मंथन से निकला नवनीत ही हमें किसी सुनिश्चत निर्णय पर पहुंचा सकता है। आइये जानिये विभिन्न देवी-देवताओं के अद्भुत.... वाहनों के विषय में ताकि चिंतन-मनन का सिलसिला चल पड़े-
- गणेश : चूहा
- शिव : नंदी बैल
- दुर्गा : सिंह
- हनुमान : ऊंट, पृथ्वी
- कार्तिकेय : मोर
- विष्णु : गरुड़
- सरस्वती : हंस
- ब्रह्मा : हंस
- गायत्री : हंस
- दत्तात्रेय : कुत्ता
- भैरव : कुत्ता
- यमराज : भैंसा
- इंद्र : ऐरावत हाथी
- सूर्य : अश्व
- मंगल : मेढ़ा
- कुबेर  : पुष्पक विमान
- कालरात्रि : गधा
- शैलपुत्री : बैल
- गणगौरी : बैल
- बुध : सूंड वाला शेर
- शुक्र : घोड़ा
- चंद्र : काला हिरण
- ब्रहस्पति : हाथी
- केतु : गिद्ध
- राहु : शेर
- शनि : कौआ

16 मई 2010

भारत में ग्रामीण-नगरीय विभाजन की मुख्य विशेषता

भारतीय संस्कृति में ग्रामीण- नगरीय विभाजन की मुख्य विशेषताओं को समझने से पहले ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय की अवधरणा पर विचार आवश्यक है। इस दृष्टि से पहली महत्तवपूर्ण बात यह है कि किसी भी मापदण्ड से इसे स्थापित नहीं किया जा सकता कि व्यवहारिक रूप से गाँव की सीमा कहाँ समाप्त होती है एवं नगर की सीमा कहाँ से आरंभ होती है। दूसरा, अधिकांश कारक जो परिवर्तन के लिए उत्तारदायी हैं गाँवों एवं नगरों में समान रूप से काम करते रहते हैं। तीसरा, भारतीय गाँव एवं नगर की अवधारणा पश्चिमी देशों के गाँव एवं नगर की अवधारणा से पूर्णतया भिन्न हैं। भारतीय संदर्भ में ग्रामीण - नगरीय विभाजन की मुख्य विशेषताओं को उपरोक्त संदर्भ में निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत् किया जा सकता है :

1. सामाजिक संगठन: गाँवों में संयुक्त परिवार की अवधरणा साधारणतया संयुक्त घर-बार को भी इंगित करता है यद्यपि नगरीय केन्द्र में यह बात नहीं है। नगरों में संयुक्त परिवार के सदस्य साधारणतया एकाकी परिवार को पसन्द करते हैं। रिश्तेदारी के संबंधों को मुख्यत: राजनीतिक या आर्थिक लाभ के लिए प्रयोग किया जाता है परन्तु सदस्यों के निजी जीवन में ये बंधन प्राय: दुर्बल ही होता है।
भारत में विवाह को अखण्ड एवं अपरिवर्तनीय बंधन माना जाता है। यह एक ञर्मिक संस्कार है। ग्रामीण परिवेश में अंतर्जातीय विवाह कम ही होते हैं। नगरों में प्रेम-विवाह, अंतर्जातीय विवाह एवं विवाह करने की उम्र में वृध्दि हो रही है। ग्रामीण समाज में पड़ोसियों का आपसी संबंध पारस्परिक सहयोग, समुदाय-भाव एवं हम की भावना पर आधारित होता है। अधिकाँश नगरों में लोग अपने पड़ोस में रहने वालों से प्राय: संबंध नहीं रखते हैं। बढ़ते व्यक्तिवाद के कारण पारस्परिक सहयोग और सहानुभूति की कमी देखी जाती है। निहित स्वार्थ और यांत्रिक प्रतिस्पर्धा इसके अन्य कारण हैं । ग्रामीण जीवन में सामाजिक स्थिति जाति पर आधारित होती है जबकि नगरीय परिवेश में जाति सहवर्ती हो सकती है। परन्तु वर्ग भिन्नता प्रधान होती है।

2। सामाजिक संबंध एवं अंत:क्रिया : ग्रामीण समाज में संबंधों का संचालन प्राथमिक समूह के द्वारा होता है। वे व्यक्तिगत, अनौपचारिक एवं स्थायी होते हैं। प्रतियोगिता कम तीव्र होती है क्योंकि ग्रामीणों में अपने स्वभाविक विकास पर जोर होता है जबकि आधुनिक नगरों में तुलनात्मक विकास पर जोर होता है। नगरीय समाज में व्यक्तिगत संबंञ् अधिकांशत: औपचारिक एवं अवैयक्तिक होते हैं। सामुदायिक शक्ति दुर्बल होती है एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता अधिक होती है।

3। सामाजिक गतिशीलता : व्यवसायिक एवं सामाजिक गतिशीलता गाँवों में जाति व्यवस्था को कठोरता से संचालित करती है। नगरीय समाज प्रदत्ता प्रस्थिति की तुलना में अर्जित प्रस्थिति पर अधिक बल देता है। नगरीय संरचना क्षैतिजीय गतिशीलता एवं ऊधर्वगामी गतिशीलता के अधिक अवसर प्रस्तुत करती है। अर्जित प्रस्थिति जन्मना जाति पर आधारित न होकर सामाजिक - आर्थिक वर्ग पर आधारित होती है।

4। सामाजिक नियंत्रण : ग्रामीण समाजों में सामाजिक नियंत्रण अनौपचारिक साञ्नों द्वारा किया जाता है जैसे जनरीतियां, रूढ़ियां, मानक निषेध एवं उपहास इत्यादि। विचलन को जाति पंचायत अथवा गाँव पंचायत की धमकी से नियंत्रित किया जाता है।नगरीय समाज में केवल जनमत, अनौपचारिक शक्ति एवं नैतिक संरचना के आधार पर ही व्यवस्था को स्थापित नहीं किया जा सकता। नगरीय समाज इतना जटिल होता है कि सामाजिक नियंत्रण विशेषज्ञों द्वारा प्रतिपादित होता है, विधायकों द्वारा निर्मित होता है, अदालतों द्वारा संगठित एवं पुलिस बल द्वारा इनका क्रियान्वयन किया जाता है। नगरीय समाज में सामाजिक नियंत्रण निरोधक की अपेक्षा सुधारात्मक होता है।

5। सामाजिक परिवर्तन : ग्रामीण परिवेश मे नवीनता की तुलना में प्रामाणिकता पर जोर होता है। प्रामाणिकता का मानक परंपरा से प्राप्त होता है। आधुनिक नगरों में नवीनता एवं मौलिकता पर जोर होता है। नगरीय केंद्रों में नवाचार, अनुकूलन एवं अनुकरण अधिक होता है क्योंकि खुलापन अधिक अवसर उपलब्ध कराता है। ऐसे परिवर्तन सरकारी ढाँचों द्वारा प्रोत्साहित होते हैं एवं नगरीय संस्थाएँ इन्हें बनाए रखती हैं।

6। सांस्कृतिक जीवन : गाँवों में सांस्कृतिक एकता होती है। सामान्य मूल्यों एवं समूह के मानदंडों को उत्सवों, ञर्मिक कर्मकाण्डों तथा सामाजिक प्रथाओं के द्वारा शक्तिशाली बनाया जाता है। आज भी भारतीय गाँव भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के वाहक एवं सभ्यता की इकाई हैं। वे आज भी परंपरागत भारतीय पंचांग द्वारा संचालित होते हैं। दूसरी तरफ, नगरीय समाज में सांस्कृतिक स्वरूप गुणात्मक रूप से परिवर्तित हुए हैं।

7। आर्थिक जीवन : ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादन का प्रमुख आधार कृषि है। कृषि आधारित कुटीर उद्योग एवं पशुपालन भी अर्थव्यवस्था का अंग होता है। नकदी फसलें, खाद्य-संस्करण एवं छोटे उद्योग भी व्यवसाय एवं आय को बढ़ाते हैं। सामान्यतया ग्रामीण लोगों की आय एवं औसत खपत का स्तर नीचा है और लोगों की जीवन पध्दति सरल है।

नगरीय समाजों में औद्योगिकी ने विकास के उत्प्रेरक का कार्य किया है। नगरों में रोजगार के अच्छे साधन उपलब्ध हैं क्योंकि यहाँ पर साक्षरता, गतिशीलता, विशेषीकरण एवं प्रशिक्षित प्ररिश्रम का विभिन्न प्रकार से उपयोग होता है। नगरीय लोगों के पास आय के अनेक स्रोत होते हैं। वे अधिकांशत: औद्योगिक क्षेत्रों एवं नौकरियों में कार्यरत हैं। नगरों की प्रौद्योगिकी एवं भौतिकवाद ने, जो कि पश्चिमीकरण एवं आधुनिकीकरण्ा से भी प्रभावित होती है, एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है जो भारत में किसी व्यक्ति का मूल्य उसकी आय एवं जीवन-शैली द्वारा निर्धारित करती है और उसके आय के स्रोतों की अवहेलना की जाती है। अन्य कारकों के साथ यह भी एक कारक है जो 'काले-धन' को नगरीय केंद्रों में बढ़ावा देता है।

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि गाँवों एवं नगरीय समुदायों में अनेक विभिन्नताएँ हैं। लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इनके मधय निरंतरता एवं विरोधाभास भी है। एस। सी. दुबे ने समकालीन भारतीय परिवेश में ग्रामीण-नगरीय विभाजन एवं संयोजन को दर्शाने का प्रयत्न किया है। यद्यपि भारत गाँवों की भूमि के रूप में जाना जाता है तथापि यहाँ नगरीय केन्द्रों की प्राचीन परंपरा रही है। यदि गाँव सहयोग के क्षेत्र हैं तो संघर्ष मुक्त भी नहीं हैं। विकास की इकाई के रूप में अब गाँवों में भी नगरों की भांति विभिन्न संस्थाएं विद्यमान हैं। राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि गाँवों एवं नगरों दोनों में विद्यमान हैं। गाँव नगरों की भाँति एक निगम समूह नहीं है। इसकी स्वयं की पहचान है, निश्चित सीमाएँ हैं (राजस्व एवं वन) और साझा सम्पदा (जैसे कुएँ एवं तालाब इत्यादि) हैं। इसमें मंदिर, मस्जिद, चर्च एवं गुरूद्वारा भी हो सकते हैं। अधिकांश जातियाँ किसी पेशे अथवा शिल्प से जुड़ी हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि एक जाति के सभी सदस्य एक ही शिल्प अथवा व्यवसाय में हों। कुछ व्यवसाय ऐसे भी हैं जो ''खुले'' हैं अथवा कोई भी उन्हें अपना सकता है। जाति की कोई बाधा नहीं होती।

गाँवों एवं नगरों के लोगों के मध्य आर्थिक, धार्मिक क्रियाएँ, राजनीतिक एवं सामाजिक आदान-प्रदान होता रहता है। जाति-पंचायत नगरों में विद्यमान नहीं है पंरतु गाँवों की तरह बड़े नगरों में नए जाति संगठन अस्तित्तव में आ गए हैं। कुछ जाति संगठन क्षेत्रीय हैं जबकि कुछ अखिल-भारतीय स्तर के भी हैं। नगरों के बाजार ने जजमानी व्यवस्था को प्रतिस्थापित कर दिया है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया ने विभिन्न गाँवों को एक दूसरे से एवं आस पास के नगरों से अच्छी तरह से जोड़ दिया है। यदि परंपरागत गाँव एवं परंपरागत नगर एक दूसरे के पूरक थे तो समकालीन गाँव एवं नगरीय केन्द्र भारतीय राज्य की पूरक इकाई हैं।

भारतीय दृष्टि से गाँव और शहर दो अलग प्रकार के समुदाय हैं। इस बात को गाँधीजी ने हिन्द स्वराज में बार-बार उठाया है। 'शहर' के बारे में पश्चिम के सांस्कृतिक मन में एक निश्चित धारणा है। वागीश शुक्ल ने पश्चिम की संस्कृति में शहर की अवधारणा को सामी (सेमेटिक) धर्मों में लोकप्रिय आदम और उसके वंशजों की कहानी से जोड़ कर समझने पर बल दिया है। बाइबिल के अनुसार पहला शहर केन ने बसाया था जो आदम की पहली संतान था और जिसके मत्थे संसार की पहली हत्या है - अपने भाई आवेल की हत्या। केन ईश्वर कृपा से वंचित है। उसी की संतानों ने संगीत वाद्यों का और ढ़लाई के कारखानों का अविष्कार किया फलस्वरूप पश्चिमी मानस में कला और प्रौद्योगिकी दोनों ही ईश्वर कृपा से वंचित हैं। टॉल्सटॉय जैसे चिंतको के मन में यही शहर है। गाँधीजी के मन में कौन सा शहर था, हम नहीं जानते। किन्तु वे उसे वैसे ही याद करते हैं जैसे बाइबिल में केन को याद किया गया है। सभ्यता का जो स्वरूप यूरोप ने प्रस्तुत किया उसमें गाँव और शहर का एक साथ रहना संभव ही नहीं है। यूरोपीय सभ्यता में एक शहर बसता है जिसमें जंगली जानवर के लिए जगह नहीं है और उसके आगे कहीं एक जंगल दिखता है जो यूरोपीय सभ्यता का एक नया शहर बनने का इंतजार कर रहा होता है। इसलिए उसमें ऐसा भूगोल ही संभव नहीं, जिसमें उदाहरण के लिए, वनवासी के लिए कोई जगह हो। यह ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक देखा जा सकता है। पारंपरिक रूप से भारत थोड़ा भिन्न रहा, यहाँ शहर और जंगल में वैसा द्वेष नहीं रहा। हर शहरी को बचपन में पढ़ने के लिए और बुढ़ापा आने पर ब्रह्म-चिन्तन के लिए, जंगल में जाना ही था। इसलिए जो हम हैं उसके अलावा कुछ और भी हैं की समझ यहाँ शुरू से थी जो अभी भी पूरी तरह गायब नहीं हुई है।

बीसवीं सदी के प्रारंभ में गाँधीजी ने भारत की ग्राम संस्कृति को उसकी वास्तविक संस्कृति घोषित किया। हम जानते हैं कि बीसवीं सदी के मध्य में, भारत के स्वतंत्र होने के समय, उन्होंने अपनी बात को फिर उठाया था। उनकी बात नहीं मानी गयी और भारत के विकास का वही मॉडल स्वीकार किया गया जो पश्चिम के विकास का मॉडल था। आज हमारा गाँव बहुत कुछ बदल चुका है। नवीनतम संचार माध्यम उसे एक दयनीय शहर में बदलने की लगभग सफल कोशिश कर चुके हैं। गाँधीजी ने इस सभ्यता को अधर्म कहा था और इसका अभिलक्षण यह बताया था कि यह शरीर सुख को जीवन का लक्ष्य समझती है। आज जब हम जीवन स्तर और उपभोक्तावादी खुले बाजार की बात करते हैं तो इस सभ्यता की ही बात करते हैं।

भारतीय सभ्यता में ग्रामीण समुदायों का महत्त्व नगरीय केन्द्रों से ज्यादा था। दोनों के कार्य अलग-अलग थे। परंपरागत भारतीय गाँव संस्कृति की पूर्णता को प्रदर्शित करते थे एवं नगर या तो प्रशासनिक इकाई अथवा धार्मिक केन्द्र होते थे। भारतीय सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नगर एक प्रमुख केन्द्र था। समकालीन भारतीय गाँवों की भूमिका अब इस प्रकार की नहीं है। अब गाँव खाद्य, श्रम एवं कच्चे उत्पादों के आपूर्तिकर्ता हैं। समकालीन भारतीय राज्य गाँवों के विकास के लिए विभिन्न कार्यक्रमों को प्रोयोजिक करता है । गाँवों का विकास श्रमिकों एवं साधनों के आपूर्तिकर्ता के रूप में किया जा रहा है। अब नगर आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की पूर्णता को प्रदर्शित करते हैं तथा ज्यादातर गाँव अब इन केन्द्रों से अपने अस्तित्व के लिए जुड़े हुए हैं। समकालीन गाँवों की भूमिका एवं स्वरूप अब उस प्रकार का नहीं रहा जैसा कुछ वर्षों पहले तक हुआ करता था; और जो महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज में वर्णित सभ्यता का आधार स्तंभ था। स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम के तहत पारंपरिक गाँवों के स्वरूप एवं स्वभाव को बदल कर आधुनिक गाँव के रूप में रूपांतरित करने का काम शुरू किया जिसमें गाँव का मुख्य काम नगरों को खाद्य, श्रम एवं कच्चे उत्पादों की आपूर्ति करना हो गया। बाद की सभी सरकारों ने इस काम को तीव्रता से आगे बढ़ाया। 15 अगस्त 1947 से भारत की आत्मा नगरों एवं आधुनिक उद्योगों में बसने लगी है और सरकारी दृष्टि में गाँव गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण के केन्द्र हैं। फलस्वरूप गाँवों को शहरों की अनुकृति बनाने का सफल/असफल प्रयास किया जा रहा है। 1990 के दशक से वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तहत एक तरफ शहरीकरण, औद्योगिकरण, सामाजिक गतिशीलता एवं स्थानांतरण (माइग्रेशन) की प्रक्रिया बहुत बढ़ गई है और नई पीढ़ी में से अधिकांश लोग गाँव छोड़कर शहरों में रहना चाहते हैं। दूसरी ओर, वैश्वीकरण की पूरक प्रक्रिया के तहत विदेशों में रहने वाले भारतीय, महानगरों में कई पीढ़ी से रह रहे परिवारों के कुछ बच्चे एवं युवा, पर्यावरण-प्रदूषण से परेशान कुछ संवेदनशील लोग तथा हिन्दी फिल्मों के कुछ प्रमुख निर्देशकों में पारंपरिक गाँवों के प्रति रूमानी एवं आर्दशवादी लगाव बढ़ता जा रहा है। इस लगाव की एक अभिव्यक्ति महँगे फार्महाउसों में पारंपरिक गाँवों के परिवेश निर्माण के रूप में सामने आ रहा है तो दूसरा इन्हीं फार्महाउसों का उपयोग पर्यटन उद्योग द्वारा ग्रामीण जीवन की अनुभूति देने के नाम पर व्यवसायिक रूप से फल-फूल रहा है। ऐसे फार्महाउसों का आकर्षण भारत के प्रति आकर्षित विदेशी, भारतीय मूल के विदेशी, महानगर में रह रहे मध्यवर्गीय छात्र-छात्राओं एवं पर्यावरण के प्रति संजीदा पेशेवर वर्गों में सबसे ज्यादा है। इसी प्रकार गाँव से जुड़ी लोक संस्कृति, लोककला, लोकनृत्य, लोकसंगीत, वेश-भूषा एवं खान-पान आदि का विविधता की अनुभूति दे सकने वाले उत्तर आधुनिक फैशन उत्पाद के रूप में व्यवसायिक एवं कलात्मक उपयोग बढ़ रहा है। इन समकालीन प्रवृतियों का भारतीय संस्कृति एवं गाँवों पर सम्मिलित प्रभाव अंत में क्या रूप लेगा यह भविष्य के गर्भ में है परंतु महात्मा गाँधी द्वारा प्रस्तुत हिन्द स्वराज का गाँव केन्द्रित सभ्यतामूलक विमर्श अपने प्रकाशन काल की तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।

15 मई 2010

जो जैसा सोचता है, वो वैसा ही....

इंसान की सोच कितनी असरकारक है, इस बारे में बहुत कम ही लोग गौर करते हैं। इन विचारों का प्रबंधन किसी इंसान को सामान्य से असामान्य बना सकता है। विचार शक्ति ,जीवन की हर सफलता एवं असफलता में सबसे अहं भूमिका निभाती है। विचारों का इंसान के जीवन में वही योगदान है जो कि किसी विशाल भवन के बनने में उसके नक्से का होता है। प्राय: इंसान आधे समय सकारात्मक सोचता है तथा बाकी आधे समय में वह ऐसे विचारों में डूबा रहता है कि, जिनसे उसका तन,मन और प्रगति बुरी तरह से लडख़ड़ा जाते हैं। यदि कोई 10 कदम पूर्व दिशा की ओर चले तथा पुन: लोटकर १० कदम पश्चिम की ओर बढ़ जाए तो प्रगति के नाम पर उसको निराशा ही हाथ लगेगी। वो जहां से चला था वहीं खड़ा मिलेगा। निराशा, निर्बलता, भय, असफलता का डर, लोगों की प्रतिक्रिया का डर तथा स्वयं को दूसरों से किसी बात में कम समझना..... ये वे ही विचार हैं जो इंसानी प्रगति के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुनिया के इतिहास में आजतक जितने भी लोग महान हुए हैं उन सभी में एक बात की १०० प्रतिशत समानता थी। वे सबके सब यह सोचते थे कि वे महान बनने के लिये ही जन्मे हैं, तथा उनके सफल होने की पूरी -पूरी संभावना है। अपनी इसी सकारात्मक सोच ने उनको सर्वोच्च सफलता का स्वाद चखाया। अत: अपने हर एक विचार पर कड़ी चोकसी रखो। कोई भी ऐसा विचार जो आपको कमजोर बनाए या मस्तिष्क में जहर घोले, उससे पहले ही उसे बहुत दूर भगा दो।

14 मई 2010

रिश्ते सुधारने के नुस्खे

दोस्तो! हर किसी की यही तमन्ना होती है कि जो उसे प्यार करे हमेशा एक सा प्यार करता रहे पर बहुत कम रिश्तों में ऐसा होता है जहाँ हमेशा खुशी और उत्साह बना रहे। एक बार रिश्ता कोई स्वरूप धारण कर लेता है तो बस उसी के इर्द-गिर्द एक बेजान मशीन की तरह वह घूमता रहता है पर हताश होने की जरूरत नहीं इस बेजान सी मशीन में फिर से जान डाली जा सकती है। यूँ तो बहुत से तरीके हैं अपने बेरंग रिश्ते में रंग भरने के लेकिन यहाँ पर उन्हीं नुस्खों को आपके लिए पेश किया जा रहा है जिसमें दोनों की खुशी बरकरार हो :

निर्जीव हुए रिश्तों में जान फूँकने का सबसे अच्छा तरीका है अपनों के साथ समय बिताना। जो लोग आपके जीवन में मायने रखते हों उनके साथ क्वालिटी टाइम यानी गुणवत्ता समय बिताना बहुत असरदार होता है। समय का अभाव है तो समय निकालें। समय चाहे थोड़ा हो पर यह अहसास करना कि उनके साथ समय बिताना आपके लिए कितना महत्वपूर्ण है, जरूरी है। कई बार दोनों अपने-अपने काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि एक-दूसरे के लिए समय निकालने की जरूरत ही नहीं समझते हैं। उनके दिमाग में एक ही बात होती है कि हम ये सब काम सिर्फ अपने लिए तो नहीं कर रहे हैं पर ऐसा करते हुए हम एक घर में रहते हुए भी अकेले से हो जाते हैं। इस अजनबीयत को तोड़ने का बस एक ही तरीका है कि सोच-समझकर समय साथ-साथ बिताएँ।

हम पूरी दुनिया की बात ध्यान से सुनते हैं और उन्हें सम्मान करते हैं पर जो हमारे अपने होते हैं हम उनकी बातों को ध्यान से सुनने की जरूरत ही नहीं समझते और ऐसा कर हम उनका अपमान करते हैं। यह आदत बदलने की जरूरत है। हमने सामाजिक व्यवहार में यही सीखा हुआ होता है कि यदि हम किसी के विचारों से असहमत हैं फिर भी उनके नजरिए को जरूर सुनें पर अपने करीबी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करने का प्रशिक्षण हमें अमूमन नहीं मिला होता है इसलिए जैसे ही किसी की राय हमसे भिन्न होती है तो हम बेचैन होकर उसी समय उस बात को काटकर रोक देते हैं।

" यदि अनजाने में कोई भूल हो गई है तो माफ करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि सचमुच उसका इरादा दुख पहुँचाने का नहीं था तो उस बात को दिल से लगाए रखने का कोई तुक नहीं है। माफ करते हुए रिश्ते को आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए।"
* यदि आपको अपने प्यार को खास महसूस कराना है तो उसके बारे में बारीकी से नोटिस करें। उसे अहसास दिलाएँ कि छोटी-सी छोटी भिन्नता या बदलाव आपकी नजरों से नहीं बच सकता। उसके चेहरे पर गम, उदासी या खुशी की भावनाओं को महसूस कर उसके अनुसार जिज्ञासा करने से सामने वाले को साथी पर बेहद भरोसा होता है। वह खुद को खास महसूस करता है। वरना लोग अपनों के बीच भी अजनबी बनकर समय काट रहे होते हैं।

* अपने सब्र का दामन कभी न छोड़ें, चाहे शिकायत का मुद्दा आपकी सोच से विपरीत क्यों न हो। अगर आपने उनकी शिकायत को धैर्य से नहीं सुना तो सामने वाले को यही लगेगा कि आपको उनकी परवाह नहीं है। हो सकता है उनकी शिकायत पूरी तरह वाजिब न हो पर यह दुख या सवाल उनके मन में आपके ही किसी व्यवहार से आया है। बेहतर यही है कि उस शिकायत को खुले दिल से सुन लें। ऐसी परिस्थितियों से बचने से या अपनी बात कहकर चुप कराने से रिश्तों का अपनापन जाता रहता है।

* अपने प्यार करने वालों को घर की मुर्गी की तरह नहीं लेना चाहिए। अकसर कुछ समय के बाद हम यही मानने लगते हैं कि यह कहाँ जाएगा या जाएगी। इस खड़ूस को कौन चाहने वाला मिल सकता है या मिल सकती है पर जब कभी ऐसा होता है तब पाँव तले से जमीन खिसकने लगती है। हैरानी तब होती है जब वही व्यक्ति डर के मारे छोटी-बड़ी बातों का खयाल रखने लगता है। फिर उन्हें अपने साथी की पसंद-नापसंद पर नजर रखना भी आ जाता है। हँसना-हँसाना भी वे सीख जाते हैं पर यही सारा कुछ कोई पहले से ही करे तो जिंदगी इतनी बेरौनक न हो कि गुलजार करने के लिए किसी और का सहारा लिया जाए।

* अगर आप किसी रिश्ते को लेकर आश्वस्त हैं तो आपके साथी तक अपने आप ही उस आश्वस्ती की लहर पहुँच जाएगी। आपका भरोसा, अपनापन बिना शब्दों में ढाले ही दूसरे पर प्रतिबिंबित होगी। जहाँ मन की सच्चाई नहीं हो वहाँ कोई शब्द, कोई जादू-टोना काम नहीं करता। यदि एक व्यक्ति आश्वस्त नहीं है तो दूसरे से आश्वस्ती की उम्मीद करना बेकार है।

* यदि अनजाने में कोई भूल हो गई है तो माफ करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि सचमुच उसका इरादा दुख पहुँचाने का नहीं था तो उस बात को दिल से लगाए रखने का कोई तुक नहीं है। माफ करते हुए रिश्ते को आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए। समझौते की गुंजाइश हमेशा रहने देना चाहिए। चीखना-चिल्लाना और बहुत क्रूर होना तो भूल ही जाना चाहिए। इससे रिश्ते सुधरते नहीं हैं बल्कि बिगड़ते हैं।

ऊपर लिखे सातों नुस्खों को हम यदि आजमाएँ तो यकीन मानिए कम से कम पचास प्रतिशत तो हमारे रिश्ते में सुधार आना निश्चित है। रिश्ते में गरमाहट और खुशी भी तभी मिलती है जब हम उसे सच्चे मन व सचेत रूप से निभाते हैं।

तलाश... जो पूरी न हुई

लियो टॉल्‍स्‍टाय ने 18वीं सदी में एक उपन्‍यास लिखा था- अन्‍ना कारेनिना। एक विवाहित स्‍त्री का प्रेम के लिए भटकना और उसे पाकर भी मौत को पाना, विचारों की जटिलता प्रस्‍तुत करता है। यह एक ऐसे दौर की कथा है, जब समाज में स्‍त्री का प्रेम करना अपराध माना जाता था और यदि एक विवाहित स्‍त्री ऐसा कर रही है, तो उससे बड़ा कलंक और क्‍या हो सकता था! लेकिन उपन्‍यास की नायिका अन्‍ना कारेनिना ने उन बंधनों को मानने से इंकार कर दिया और प्रेम कर बैठी।

"लियो टॉल्‍स्‍टाय ने 18वीं सदी में एक उपन्‍यास लिखा था- अन्‍ना कारेनिना। एक विवाहित स्‍त्री का प्रेम के लिए भटकना और उसे पाकर भी मौत को पाना"
अन्‍ना का विवाह उससे उम्र में 20 साल बड़े व्‍यक्ति काउंट कारेनिन से होता है। उसका एक बेटा भी है-सेर्योझा। सारी सुख-सुविधाओं से घिरी अन्‍ना के जीवन में एक ऐसा खालीपन था, जिसे कोई भी ऐशो-आराम भर नहीं सकता था। उस खालीपन को तलाश थी, प्रेम की। और एक दिन ट्रेन में सफर करने के दौरान उसकी मुलाकात होती है व्रोन्‍स्‍की से। शुरुआत में अन्‍ना को व्रोन्‍स्‍की में कोई दिलचस्‍पी नहीं होती, लेकिन धीरे-धीरे अन्‍ना को उसका साथ अच्‍छा लगने लगता है। उसे महसूस होता है, इसी प्रेम की तो उसे तलाश थी। दोनों के रिश्‍ते प्रगाढ़ होने लगते हैं। व्रोन्‍स्‍की से उसे एक बेटी भी होती है। यह प्रेम अन्‍ना के पति को बिल्‍कुल रास नहीं आती। काउंट को लगता है कि इससे उसकी सामाजिक प्रतिष्‍ठा मिट्टी में मिल जाएगी। वह अन्‍ना को व्रोन्‍स्‍की से दूर रहने की हिदायत देता है और साथ ही उनकी बेटी को अपनाने की बात भी कहता है।

अन्‍ना ने जिस प्‍यार के लिए अपने पति और पूरे समाज से बगावत की, उससे ही दूरियाँ बढ़ने लगीं थीं। अब अन्‍ना और व्रोन्‍स्‍की के रिश्‍ते बोझिल होने लगे थे, अन्‍ना के जीवन में न प्रेम रहा और न ही पति नाम का कोई सामाजिक रिश्‍ता। दोराहे पर खड़ी अन्‍ना को लगा कि उसकी जिंदगी में मौत से बेहतर विकल्‍प और कुछ नहीं हो सकता। अंतत: उसने ट्रेन के आगे कूदकर आत्‍महत्‍या कर ली, और प्रेम की तलाश पूरी होकर भी अधूरी रह गई।

प्यार को कभी भूलना भी जरूरी

हैलो दोस्तो ! सच्चे अपनेपन से बड़ा अहसास और कोई नहीं होता। आप दुनिया के किसी कोने में हों, यदि आपको यह भरोसा हो कि कोई आपकी सलामती की दुआ करता है, आपके इंतजार में है और आपसे मिलने को बेचैन है तो आप अकेले होकर भी अकेले नहीं होते। आप अपने अंदर सुकून महसूस करते हैं और दिल लगाकर अपना काम पूरा करने में लग जाते हैं ताकि अपने साथी से जब मिलें तो पूरे संतोष के साथ मिलें लेकिन यदि कोई किसी का इंतजार करने से इनकार कर दे तो निश्चित ही यह दिल तोड़ने वाली बात होगी।

ऐसी ही स्थिति में हैं अजय (नाम बदला हुआ) जो शिप पर सेकेंड इंजीनियर हैं। अजय और उनकी दोस्त एक जाति के नहीं हैं। पहले तो इनमें खूब प्यार था पर धीरे-धीरे अजय की दोस्त को लगने लगा कि यह प्यार शादी में नहीं बदल सकता। उसने अजय को सलाह दी कि वह इस प्रेम को भूल जाएँ पर अजय हैं कि चाहे वह कहीं भी हों वहाँ से अपनी दोस्त को फोन करते हैं पर दोस्त बात तक नहीं करती। अजय के लिए इस प्यार को भुलाना मुश्किल हो रहा है।

अजय जी आपने पूछा है आप क्या करें? दरअसल, आप कुछ कर ही नहीं सकते हैं। आप तो प्यार कर ही रहे हैं। रिश्ता तोड़ने का फैसला तो आपकी दोस्त ले रही हैं। आप चाहें न चाहें, आपको उस फैसले को मानना ही है। चाहें तो एकतरफा प्यार करें पर उसकी क्या तुक है। अपनी दोस्त के बारे में कोई दुर्भावना रखने के बजाय उसे माफ करते हुए जीवन में आगे बढ़ जाना ही उचित होगा। अपनी दोस्त के मुँह फेर लेने से आपके प्यार भरे दिल को ठेस जरूर पहुँची है पर यदि आप उसके दृष्टिकोण का विश्लेषण करें तो शायद आपका दुख और क्रोध कम हो जाए और उसका फैसला कुछ हद तक जायज लगे। पुरानी मान्यताओं के कारण संभव है कि अलग जाति की वजह से दोनों ही परिवार इस शादी का वैसा स्वागत न करें जैसा अपनी जाति के रिश्तों में करते हैं। आप तो ज्यादा वक्त जहाज पर रहते हैं।

ऐसे में उस अकेली को यहाँ सहयोग करने वाला कौन रहेगा? जीवन में हर कदम पर समाज और परिवार की मदद की जरूरत पड़ती है। आप दोनों साथ-साथ होते तो शायद वह परिवार वालों की नाराजगी झेलने का साहस जुटा पाती। पर, भविष्य में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों से वह घबरा गई है। यूँ प्यार करने वालों से यही उम्मीद की जाती है कि वे जोखिम उठाने का दमखम रखें पर अपना जो सामाजिक ढांचा है वहाँ प्यार में कोई चैन सुकून से जी सके ऐसा बहुत ही मुश्किल है। आपकी दोस्त जानती है कि समय पड़ने पर मदद करने के बजाय लोग ताना कसने में जुट जाएँगे। उन सबकी कल्पना से ही वह विचलित हो गई होगी।

खैर ! बेहतर तो यही होता कि आप दोनों एक होते पर समय रहते ही उसके मन का सही द्वंद्व सामने आ गया, इसे आप बढ़िया संकेत समझें वरना शादी के बाद यह समस्या बेहद जटिल हो जाती और तब मनमुटाव-तकरार आपके जीवन का बहुत बड़ा भाग छीन लेता। अभी आपके हिस्से में बड़ा भाग खूबसूरत यादों का है। उसे संभालते हुए दूसरे साथी की तलाश में जुट जाएँ। जब कोई अपनी जुबान से अलग होने का प्रस्ताव रखता हो तो उसे प्यार से विदा कर देना चाहिए। प्यार दो दिलों का मेल होता है। जबर्दस्ती या रोना रोकर तो आप किसी को नहीं रोक सकते न। प्यार में विवशता नहीं होनी चाहिए। प्यार आजादी का दूसरा नाम है। रिश्ते में कई बार इतनी गहराई नहीं होती है कि वे एक-दूसरे से सारी बातें शेयर करें। सामने वाले को यह भरोसा नहीं होता है कि वह जो कुछ बताएगा उसे उसका साथी उसी भावना से समझ पाएगा,आत्मसात कर पाएगा इसलिए जोड़े काफी समय तक एक-दूसरे से छोटी-छोटी बातें भी छुपाते हैं। इस छुपाने को कई लोग इतनी गंभीरता से लेते हैं कि रिश्ते ही टूट जाते हैं।

ऐसी ही एक समस्या है गुड़िया की जो लता की दोस्त हैं। लता ने लिखा है कि उनकी दोस्त गुड़िया ने अपने प्रेमी हेम को एक एसएमएस देखने नहीं दिया। हेम को जब एसएमएस जानने वाले के बारे में पता चला तो दोनों में झड़प हो गई। जहाँ हेम को एसएमएस पर आपत्ति थी वहीं गुड़िया को उसके मोबाइल के मामले में हस्तक्षेप करने के मामले में। एक साल से चल रहा प्रेम-प्रसंग इस एक बात पर टूट गया।

कई महीनों की चुप्पी के बाद अब गुड़िया ने नया मोबाइल नंबर ले लिया है। लता पूछती हैं कि क्या गुड़िया फिर से प्रेम के बारे में सोचे? मेरे खयाल से नहीं। आपसी समझदारी ही प्यार के रिश्ते को आधार देती है। और पुरानी घटना यही बताती है कि उन दोनों में आपसी समझदारी की कमी है। एक खास प्रकार का रिश्ता जी लेने के बाद केवल दोस्त बनकर एक-दूसरे को समझना भी बहुत परिपक्वता खोजता है जो कि हेम और गुड़िया में फिलहाल नजर नहीं आता। बेहतर है इस प्रसंग को भूल जाएँ।

प्यार का मतलब रब होता है

कहने को ढाई अक्षर भर हैं, पर कितना कुछ समेटे है अपने अंदर। आशय कितना विराट और बहुआयामी। भाँति-भाँति के रंग लिए हुए। नि:शब्द, लेकिन अनुगूँज ठेठ अंदर तक। एक अमूर्त अहसास। अपनी संपूर्ण उदात्तता में प्रेम कोमल भावनाओं की मौन अभिव्यक्ति है। प्रेम कुछ देखा, कुछ अनदेखा, कुछ व्यक्त, कुछ अव्यक्त और कुछ दृश्य, कुछ अदृश्य-सा होता है। उसे किसी एक परिभाषा में बाँधना, उसे छोटा करके देखना है। प्यार का इज़हार आँखों से होता है, जबान से नहीं।

प्रदर्शनकारी होने पर प्रेम की महत्ता घटती है। 'आई लव यू' और 'आई लव यू टू' शब्द बहुत औपचारिक हो गए हैं। टीवी और सिनेमा के पर्दे पर ही अच्छे लगते हैं। पति का झूठा खाने से प्रेम प्रमाणित नहीं होता। दरअसल, शोर प्रेम के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। प्रेम तो अनंत है, असीम। वह बाँटने से बढ़ता है।

प्यार का इजहार भले ही आँखों से होता हो, होता वह हृदय है। कहने को दिल माँस का लोथड़ा भर है, पर कितना परेशान करता है। चैन नहीं लेने देता। तनिक-सी उथल-पुथल से धड़कन बढ़ जाती है। हेंपशायर (ब्रिटेन) की जेनिफर सटन का दिल शल्य चिकित्सा द्वारा बदला गया था। जब जेनिफर को निकाला गया उसका दिल दिखाया गया तो उसके मुँह से सहसा निकला, 'तो माँस का यही लोथड़ा था जिसने मुझे तरह-तरह से परेशान किया।' प्रेम हृदय से होता है, पर हृदय पर किसी का वश नहीं।

वह कब किस पर आ जाएगा, कहना कठिन है। स्त्री इस मामले में ‍अधिक भावुक और संवेदनशील है। वह कब किसको माथे का सिंदूर बना लेगी, कब प्रेमी की खातिर पति की हत्या करवा देगी और कब पति की चिता पर बैठकर सती हो जाएगी, कहना मुश्किल है। कहना मुश्किल है। प्यार पाने के लिए स्त्री राजपाट, पदवी सब छोड़ने को तत्पर रहती है। एक बार प्रेम का अंकुर फूट आए तो फिर उसे मन से बुहारना म‍ुश्किल है। जापान की राजकुमारी साया ने एक आम ना‍गरिक कुरोदा से विवाह करने के‍ लिए शाही परिवार से अलग हो, राजकुमारी की पदवी त्याग दी थी। जापान के शाही परिवार में ऐसे और भी हादसे हुए हैं।

ब्रिटेन के राजकुमार को भी अपने प्रेम की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। बांग्लादेश की अठारह वर्षीय सायरा ने ब्रिटेन की जेल में बंद अपराधी चार्ल्स ब्रोवासन से शादी रचा ली थी, जबकि सायरा चार्ल्स से सिर्फ तीन बार मिली थी। पर्दे पर नारी-अस्मिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाली खूबसूरत अभिनेत्रियों ने अपनी उम्र से काफी बड़े, विवाहित और युवा संतानों के पिता से विवाह कर लिया, यह भू‍लकर ऐसा करके वे दूसरी स्त्री का घर बर्बाद कर रही है। नोबेल पुरस्कार विजेता डोरिस लैसिंग ने शायद सही ही कहा है कि औरत ऐसा यथार्थ है, जिसकी व्याख्‍या नहीं की जा सकती। मैत्रेयी पुष्पा ने भी सच कहा है कि पुरुष भले ही औरत के शरीर पर बंधन लगा दे, पर उसके स्वच्छंद विचरण करते मन पर प्रतिबंध लगाना उसके वश में नहीं है।

एक औरत की मोहब्बत और पुरुष की मोहब्बत में बहुत फर्क है। पुरुष की तुलना में स्त्री अधिक निष्ठावान, समर्पित और सहिष्णु होती है। पता नहीं, यूरोपियन सोसायटी ऑफ कार्डियालाजिस्ट के निष्कर्ष इस विचार को किस हद तक समर्थन देते हैं। सोसायटी की वर्ष 2007 में वियना में संपन्न बैठक में व्यक्त मतानुसार बहुत जुदा हैं महिला और पुरुष के दिल।
इसलिए दोनों के दिलों की बीमारी की ऑपरेशन विधि में थोड़ी भिन्नता है। पुरुष का जीवन बचाने के‍ लिए किए जाने वाले ऑपरेशन स्त्रियों के लिए घातक भी सिद्ध हो सकते हैं। देखा गया है कि कारोनरी बायपास के बाद महिला मरीजों के मरने की संख्‍या पुरुष रोगियों की तुलना में ज्यादा है। मानसिक और शारीरिक स्तर पर पुरुष से अधिक सहनशील होने का भी कारण स्त्री के शरीर में मौजूद विशेष हारमोन्स हैं। समय से पूर्व (प्रिमेच्योर) जन्मे बच्चों में से अस्सी प्रतिशत लड़कियाँ बच जाती हैं, जबकि अधिकांश लड़के दम तोड़ देते हैं।
प्रेम और देह के अंतर्संबंधों का सवाल बहसतलब है। क्या देह को अलग कर प्रेम को देखा जा सकता है? क्या प्रेम देह के आकर्षण से परे है? क्या प्रेम देह के माध्यम से ही व्यक्त होता है? क्या प्रेम की सूक्ष्मता शरीर की स्थूलता में ही जाकर समाप्त होती है। कथाकार प्रियंवद का मत है कि देह के साथ प्रेम हो, वह अनिवार्य नहीं पर प्रेम के साथ देह होने से इंकार नहीं किया जा सकता। वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर के अनुसार हर प्रेम या रोमांस में सेक्स का स्फुरण होता है।
प्रेम की प्रारंभिक अवस्था में भी सेक्स के आकर्षण से इंकार नहीं किया जा सकता। सत्येनकुमार की कहानियाँ 'तेंदुआ' और काँच में भी प्रेम के साथ शरीर का संगीत है। देखा गया है कि अरैंज्ड मैरिज में देह के साथ-साथ प्रेम परवान चढ़ता है - स्थायी भाव के रूप में - एक अव्यक्त सुखानुभूति के साथ। उसी से समर्पण बढ़ता है।
सच्चे प्यार की डोर बारीक, किंतु मजबूत होती है। इसीलिए छोटे-छोटे आघात से टूटती नहीं। प्रेम में सघनता है तो तमाम कुंठाएँ, अंतर्विरोध, संदेह समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में शरीर की शुचिता, अशुचिता का प्रश्न भी गौण हो जाता है। यदि समझ व्यापक, दृष्टि उदार, प्रेम सच्चा और भरोसेमंद हो तो देह की पवित्रता-अपवित्रता का सवाल पीछे छूट जाता है।
यदि सवाल ऊब, अतृप्ति और एकरसता का है तो उसका सीधा संबंध शरीर से है, वासना से है। टाल्सटॉय ने एक जगह लिखा है - 'एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को कब तक प्यार करता रह सकता है!' यदि ऊबकर लोग देह की तलाश में बाजार जाते हैं या विवाहेत्तर संबंध बनाते हैं तो वहाँ व्यक्ति की अनिष्ठा और वासना पूर्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। प्रेम के बिना तृप्ति अधूरी है। तृप्ति और पूर्णता प्रेम के साथ आती है।
प्रेम में दीवानगी देखना हो तो लैला-मजनू, शीरी-फरहाद और हीर-रांझा के किस्से हमारे सामने हैं। प्रेम में पागल होने वालों की अजीब दास्तान है। प्रेमाग्नि में अपान सब कुछ स्वाहा करने वालों की फेहरिस्त लंबी है।
हो सके तो परहेज जितना इससे उतना कीजिए
इश्क वो नासूर है जिसका कोई मरहम नहीं।
वैसे भी भारतीय समाज में इश्क को इल्जाम माना गया है। विभिन्न कारणों से समाज प्राय: ऐसे संबंधों को स्वीकृ‍ति नहीं देता। इसीलिए प्रेमी-प्रेमिका लुक-छिपकर मिलते हैं। दुनिया कितनी ही आगे चली गई हो, लड़की के किसी लड़के से इश्क को समाज अनैतिक मानता है। परिजन इसे सामाजिक भय, प्रतिष्ठा और जातीय भेदभाव की दृष्टि से देखते हैं।
प्रेम का एक रूप वह है जो घृणा और निराशा से उपजता है। जब लड़की प्रेम निवेदन अस्वीकर कर देती है तो प्रेमोन्मत्त प्रेमी उसका गला रेत देता है। शायद यह नफरत, निराशा और नाकामयाबी से उपजे प्यार का घृणित रूप है।

प्रेम की प्रारंभिक अवस्था में भी सेक्स के आकर्षण से इंकार नहीं किया जा सकता। सत्येनकुमार की कहानियाँ 'तेंदुआ' और काँच में भी प्रेम के साथ शरीर का संगीत है। देखा गया है कि अरैंज्ड मैरिज में देह के साथ-साथ प्रेम परवान चढ़ता है - स्थायी भाव के रूप में - एक अव्यक्त सुखानुभूति के साथ। उसी से समर्पण बढ़ता है।
सच्चे प्यार की डोर बारीक, किंतु मजबूत होती है। इसीलिए छोटे-छोटे आघात से टूटती नहीं। प्रेम में सघनता है तो तमाम कुंठाएँ, अंतर्विरोध, संदेह समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में शरीर की शुचिता, अशुचिता का प्रश्न भी गौण हो जाता है। यदि समझ व्यापक, दृष्टि उदार, प्रेम सच्चा और भरोसेमंद हो तो देह की पवित्रता-अपवित्रता का सवाल पीछे छूट जाता है।
यदि सवाल ऊब, अतृप्ति और एकरसता का है तो उसका सीधा संबंध शरीर से है, वासना से है। टाल्सटॉय ने एक जगह लिखा है - 'एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को कब तक प्यार करता रह सकता है!' यदि ऊबकर लोग देह की तलाश में बाजार जाते हैं या विवाहेत्तर संबंध बनाते हैं तो वहाँ व्यक्ति की अनिष्ठा और वासना पूर्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। प्रेम के बिना तृप्ति अधूरी है। तृप्ति और पूर्णता प्रेम के साथ आती है।
आस्ट्रियाई लेखक आंद्रेयास वेबर के अनुसार, 'दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण चीज है प्रेम। प्रेम के कई रंग हैं। कई तरह से किया जाता है प्रेम। मैं अपनी माँ, पत्नी, बहनों और भाइयों सबको बहुत प्यार करता हूँ।' ईश्वर हो या मनु्ष्य, विनम्र लोगों के प्रति उसके मन में प्रेम सहज रूप से उमड़ता है। विनयशील होकर आप किसी का भी दिल जीत सकते हैं। झुककर ही मंदिर में प्रवेश करना होता है। जिसने प्रेम को समझ लिया, उसने परमात्मा को समझ लिया।
ओशो के अनुसार 'करुणा' के बिना प्रेम अपूर्ण है। अगर करुणा से प्रेम निकले तो प्रेम मुक्तदायी हो जाएगा, बंधनकारी नहीं रहेगा। हमें उन लोगों के प्रति भी प्रेमपूर्ण होना चाहिए जो हमारे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हैं। यदि कोई हमारा शत्रु है या हमें प्रेम नहीं करता है तो हम उसके प्रति घृणा की व्यवस्था कर लें, यह उचित नहीं। प्रेमपूर्ण हृदय को दिखाई नहीं पड़ता कि सामने वाला दुश्मन है। जिसके हृदय में प्रेम प्रतिष्ठित है, उसे तो प्रेम देना अच्छा लगता है। प्रेम करने में ही उसे आनंद मिलता है।'
कृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम सर्वथा भिन्न है। वहाँ प्री‍ति का स्थायी भाव भक्ति है। एक संसार ‍पति के होते हुए लोकलाज को दरकिनार कर मीरा अंत तक कृष्ण के प्रेमरस में डूबी रहीं। मीरा का प्रेम एकांगी था। उनके गीतों में जहाँ भी मिलन या सामीप्य का वर्णन है, वह काल्पनिक है। उनकी भक्ति में माधुर्य भाव है, वासना नहीं। पति प्रेम के रूप में ढले भक्ति-रस ने मीरा की संगीत धारा में जो दिव्य माधुर्य घोला है, वैसा शायद ही अन्यत्र मिले।
प्रेम की शक्ति असीम है। प्रेम इंसान को मानवीय बनाता है। उसे अंदर तक बदल देता है। प्रेम के ढाई अक्षर जिसने सही अर्थ में आत्मसात कर लिया, वही सच्चा पंडित है। जिसने प्रेम पा लिया, मानो प्रभु को पा लिया। किसी ने सच कहा है - प्रेम का मतलब रब होता है। प्रेम के बिना जीवन व्यर्थ है -
जिये तो जिये तेरी दुनिया में
उल्फ़त व मोहब्बत समझे ही नहीं
तो आइए, इस भयावह समय में घृणा, स्वार्थ और ईर्ष्या के कोहरे को चीरकर प्रेम की सरिता बहाएँ। बगिया में ऐसे फूल उगाएँ जिनकी सांस्कृतिक सुगंध दूर तक फैलकर धरती को इस लायक बनाए कि मनुष्य उस पर सुख, शांति और सुकून से रह सके।

प्रेम की शक्ति से चलती है जिंदगी

प्यार, केवल ढाई अक्षर का छोटा-सा शब्द अपने आप में कितने सारे अर्थ समेटे हुए है। प्रेम के विराट स्वरूप और उसके अनंत छोर तक फैले असीमित विस्तार सहित मानव जीवन के लिए उसकी अनिवार्यता का अंदाजा महज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस छोटे से शब्द की विस्तृत सत्ता तथा महिमा के संबंध में न जाने कितने ही कवियों, गीतकारों, शायरों, संत-महात्माओं द्वारा इतना कुछ कहा एवं लिखा जा चुका है कि अब कुछ और कहे या लिखे जाने की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती। फिर भी इसके महत्व एवं अस्तित्व के विषय में अनुभवी व्यक्तियों द्वारा अपने मत लिखे जाने का सिलसिला अनवरत जारी है।

अभी भी ऐसी कमी महसूस की जा रही है कि प्रेम के संबंध में बहुत कुछ लिखा जाना शेष है, जो अनकहा रह गया है। मेरा तो यहाँ तक मानना है कि जब तक धरा पर मानव रहेगा, तब तक प्रेम का वजूद कायम रहेगा। किसी भी स्तर पर प्रेम की आवश्यकता एवं उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता।

प्रेम के संदर्भ में इतना ज्यादा सार्थक एवं अर्थपूर्ण लेखन किए जाने के बावजूद किसी संत या मनीषी द्वारा आज तक निर्विकार प्रेम की ऐसी कोई सार्वभौमिक या सर्वमान्य परिभाषा नहीं लिखी जा सकी है, जिसे सभी एकमत होकर स्वीकार कर सकें और न ही भविष्य में ऐसा होने की कोई संभावना है। ऐसा कहा जाता है कि प्रेम को अभिव्यक्त करने की सर्वोत्तम भाषा मौन है, क्योंकि प्रेम मानव मन का वह भाव है, जो कहने-सुनने के लिए नहीं बल्कि समझने के लिए होता है या उससे भी बढ़कर महसूस करने के लिए होता है। प्रेम ही मानव जीवन की नींव है। प्रेम के बिना सार्थक एवं सुखमय इंसानी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। प्रेम की परिभाषा शब्दों की सहायता से संभव ही नहीं है।

सारे शब्दों के अर्थ जहां जाकर अर्थरहित हो जाते हैं, वहीं से प्रेम के बीज का प्रस्फुटन होता है। वहीं से प्रेम की परिभाषा आरंभ होती है। प्रेम का अर्थ शब्दों से परे है। प्रेम एक सुमधुर सुखद अहसास मात्र है। प्रेम की मादकता भरी खुशबू को केवल महसूस किया जा सकता है। प्रेम का अहसास अवर्णनीय है। इसलिए इस मधुर अहसास के विश्लेषण की भाषा को मौन कहा गया है। प्रेम को शब्द रूपी मोतियों की सहायता से भावना की डोर में पिरोया तो जा सकता है किंतु उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि जिसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसकी व्याख्या की जा सकती है, वह चीज तो एक निश्चित दायरे में सिमटकर रह जाती है जबकि प्रेम तो सर्वत्र है। प्रेम के अभाव में जीवन कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं।

प्रेम इंसान की आत्मा में पलने वाला एक पवित्र भाव है। दिल में उठने वाली भावनाओं को आप बखूबी व्यक्त कर सकते हैं किंतु यदि आपके हृदय में किसी के प्रति प्रेम है तो आप उसे अभिव्यक्त कर ही नहीं सकते, क्योंकि यह एक अहसास है और अहसास बेजुबान होता है, उसकी कोई भाषा नहीं होती।

प्रेम में बहुत शक्ति होती है। इसकी सहायता से सब कुछ संभव है तभी तो प्यार की बेजुबान बोली जानवर भी बखूबी समझ लेते हैं।प्यार कब, क्यों, कहाँ, कैसे और किससे हो जाए, इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके लिए पहले से कोई व्यक्ति, विशेष स्थान, समय, परिस्थिति आदि कुछ भी निर्धारित नहीं है। जिसे प्यार जैसी दौलत मिल जाए उसका तो जीवन के प्रति नजरिया ही इंद्रधनुषी हो जाता है। उसे सारी सृष्टि बेहद खूबसूरत नजर आने लगती है। प्रेम के अनेक रूप हैं। बचपन में माता-पिता, भाई-बहनों का प्यार, स्कूल-कॉलेज में दोस्तों का प्यार, दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी का प्यार। प्रेम ही हमारी जीवन की आधारशिला है तभी तो मानव जीवन के आरंभ से ही धरती पर प्रेम की पवित्र निर्मल गंगा हमारे हर कदम के साथ बह रही है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है-

साँसों से नहीं, कदमों से नहीं,
मुहब्बत से चलती है दुनिया।
सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है। जहाँ प्यार है, वहाँ समर्पण है। जहाँ समर्पण है, वहाँ अपनेपन की भावना है और जहाँ यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है। जिस प्रकार सीने के लिए धड़कन जरूरी है, उसी तरह जीवन के लिए प्रेम आवश्यक है। तभी तो प्रेम केवल जोड़ने में विश्वास रखता है न कि तोड़ने में।
सही मायने में सच्चा एवं परिपक्व प्रेम वह होता है, जो कि अपने प्रिय के साथ हर दुःख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर कदम सदैव साथ रहता है और अहसास कराता है कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए हूँ। प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुँचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।

तुम्हें क्यों न चाहे मन?

मम्मी आपने दाल में नमक ही नहीं डाला, क्या खाना बनाया है?' श्रुति ने ठुनकते हुए नम्रता से कहा। 'क्या बात कर रही हो? अभी-अभी तो पापा खाना खाकर गए हैं उन्होंने तो कुछ नहीं कहा', नम्रता ने कहा। तभी नम्रता की ननद रीतिका चुटकी लेते हुए बोली 'भैया तो आपके प्यार में बिना नमक का खाना भी स्वाद लेकर खा लेते हैं। वो क्या बोलेंगे।' नम्रता को तब भी विश्वास नहीं हुआ, उसने खुद दाल चखी। दाल बिल्कुल बेस्वाद थी। नम्रता परेशान हो उठी, 'अभिनव कहीं किसी परेशानी में तो नहीं है', जो उन्हें खाने में भी स्वाद का पता नहीं चला।'

नम्रता की परेशानी को भाँपते हुए रीतिका बोली 'भाभी आप भी न खामखाँ परेशान हो रही हैं। आप दोनों हर वक्त एक दूसरे के लिए परेशान रहते हो। बिना बोले ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते हो, परेशानी भाँप जाते हो। आप परेशान या शर्मिंदा न हों, इसलिए भैया ने कुछ नहीं बोला होगा।' रीतिका के समझाने पर नम्रता थोड़ी शांत हो गई।

शाम को श्रुति दौड़ती हुई आई - 'मम्मी-मम्मी ये देखो पापा आपके लिए क्या लाए हैं?' नम्रता पूछती है 'पापा आ गए? कहाँ हैं?' श्रुति ने बताया ड्राइंगरूम में हैं। नम्रता हाथ में पैकेट लिए अभिनव के पास ही चली आई,' ये क्या लाए हैं आप?' अभिनव अखबार पर नज़र गड़ाए हुए ही बोले 'यह एक मशीन है, इससे प्याज, गाजर, गोभी और भी सारी सब्जियाँ बहुत आराम से कट जाती हैं। तुम्हें इससे रसोई का काम करने में बहुत आराम होगा इसलिए ले लिया।' कितने की आई?'

नम्रता के इस सवाल पर अभिनव सिर ऊपर उठा के मुस्कुराते हुए बोले 'क्यों पसंद नहीं आई? पैसे से तुम्हें क्या करना?' नम्रता ने हँसते हुए कहा 'क्यों? सुबह की दाल में नमक नहीं डालने का इनाम लाए हो?' इस पर अभिनव हँसने लगे और कहा - 'अरे वो तो मुझे पता भी नहीं चला, सब्जियाँ जो बहुत स्वादिष्ट थीं। अच्छा! एक प्याला चाय बना दो।' नम्रता हँसते हुए बोली 'वो भी बिना चीनी के बना देती हूँ। क्यों? चलेगी? 'और मुस्कुराती हुई चली जाती है।

नम्रता का यह मुस्कुराता चेहरा देख रीतिका ने कहा - 'देखा भाभी, आप तो यूँ ही परेशान हो रही थीं और एक भैया का प्यार है आपके प्रति, जो बिना बोले ही आपकी परेशानी को समझ लेते हैं। मैं तो भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि हंसों का यह जोड़ा यूँ ही सदा हँसता-मुस्कुराता रहे।

आपके प्यार को किसी की नजर न लगे। टच वुड! काश! मुझे भी इतना ही प्यार करने वाला पति मिल जाए, मैं तो ख्वाबों के आसमान में पंख लगा के उड़ जाऊँ।' नम्रता ने कहा - 'हाँ, हाँ जरूर उड़ना, लेकिन ऐसा पति मिल गया न तो बस भगवान ही मालिक है। न कभी प्यार की दो बातें करते हैं, न कोई हँसी मजाक।

बस, हर वक्त पढ़ाई में ही लगे रहते हैं। प्यार का इजहार तो दूर की बात है, कभी जताते तक नहीं। रोमांस क्या होता है, ये बस फिल्मों में ही देखा है। कभी सचाई के धरातल पर इसका अनुभव करने का मौका ही नहीं मिला। अगर ऐसे पति मिल गए न, तो दो-चार मीठी बातों के लिए भी तरसोगी।' इतना कहते-कहते नम्रता के दिल का दर्द उसकी आँखों में उतर आया, जिस देख रीतिका ने कहा 'पता है भाभी! कुछ इंसान बोलते हैं ज्यादा, करते हैं कम, दिखाते हैं ज्यादा, करते हैं कम, दिखाते हैं ज्यादा और होते हैं कुछ नहीं।

याद है आपको? एक बार आप और भैया बाजार गए थे। आपने लाल वाली साड़ी देखकर बस, इतना कहा था 'वाह! कितनी सुंदर साड़ी है?' उस वक्त भैया ने सिर्फ उसे देखा था। और अगले ही दिन वह आपके हाथ में थी। ये प्यार नहीं तो और क्या है? आपको पता नहीं है भाभी, कुछ लोग मान-मर्यादा, रीतिरिवाज का हवाला देकर पत्नियों को परेशान करते हैं?

ये मत पहनो, उससे बात मत करो, कहाँ गई थी? इतना समय कहाँ लगा दिया? इतने पैसे कहाँ खर्च कर दिए? जैसे अनगिनत सवालों से अपनी पत्नी को अपमानित करते हैं। भैया ने तो शादी के बाद आपकी इच्छा पर आपको एम।ए.करवाया। आपने पेंटिंग कोर्स करना चाहा तो भैया ने आपके शौक को पूरा करने के लिए कभी ना नहीं कहा। कितनों के पति सिर्फ पत्नी की खुशी के लिए यह सब करने देते हैं? आपने कहा कि ब्यूटी पार्लर खोलना चाहती हैं, चुपचाप बिना रकम भरा चेक काट के आपको चेक दे दिया।

भाभी आप तो बहुत भाग्यशाली हैं जो आपको इतना प्यार करने वाला पति मिला है। जरूर आपने पिछले जन्म में मोती दान किए होंगे।' इतना सुनने के बाद नम्रता सचाई के स्वरूप को समझ गई। वह समझ गई कि वाकई में अभिनव उसे कितना प्यार करते हैं। उनके बीच भावनाओं का बंधन है। जीने की आजादी है। इतनी देर में प्यार से भरी एक प्याली चाय तैयार हो चुकी थी, ‍जिसके साथ मीठे जज्बात के बिस्कुट थे, जिसे लेकर वो ड्राइंगरूम में आ गई। दोनों चुप थे पर दोनों एक-दूसरे के दिलों के एहसास को समझ रहे थे तभी श्रुति कूदती-फानती हुई पापा के गोद में आ बैठी और बाप-बेटी दोनों अपनी ही बातों में लग गए। मुस्कुरा कर नम्रता दोनों को एक भरपूर नजर से निहारने लगती है।

रात को सारे काम निपटाने के बाद जब नम्रता बेडरूम में आई तो, अभिनव ने कहा 'तुम्हारे लिए अलमारी में कुछ रखा है।' नम्रता ने जैसे ही अलमारी खोली वहाँ एक लाल रंग का लिफाफा रखा हुआ था उसने आश्चर्यचकित होकर उसे खोला। पत्नी को समर्पित एक संगीत वाला कार्ड था उसमें जो 'आई लव यू' बोल रहा था। साथ ही एक पत्र था -

मेरी जिंदगी की हर सुबह खुशनसीब होती है क्योंकि वो तुम्हारे सुंदर चेहरे को देखकर शुरू होती है। मैं चाहता हूँ कि अंत भी ऐसा ही हो। तुमने जैसे पति की कल्पना की थी वैसा मैं नहीं हो सका इसके लिए माफी चाहता हूँ, क्योंकि मेरी परवरिश बहुत गरीबी में हुई, जहाँ मुझे फिल्म देखने का मौका नहीं मिला। मामा के यहाँ रह कर किसी तरह पढ़-लिखकर एक नौकरी हासिल करने के लक्ष्य के आगे कभी कुछ सोच ही नहीं पाया। परंतु, अब मैं कोशिश करूँगा तुम्हारे ख्वाबों का पति बनने की, क्या तुम थोड़ी मदद करोगी?
तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा
अभिनव
पत्र पढ़कर नम्रता की आँखें भर आईं, जिसे देख अभिनव घबराए से नम्रता के पास आए। 'अरे! ये क्या हुआ? मेरा इरादा ऐसा तो कतई नहीं था। मैंने तुम्हारी और रीतिका की बातें सुन ली थीं इसलिए... लेकिन मैं तो तुम्हें खुशी देने के लिए यह सब किया और तुम तो रोने लगीं।'
नम्रता अभिनव के सीने से लग कर रोते हुए बोली 'आप बहुत अच्छे हैं। आप बिल्कुल मत बदलिए आप जैसे हैं वैसे ही मुझे प्यारे हैं। मैं क्यों न आप से ही आपकी तरह ही प्यार करूँ?'

पति-पत्नी की दोस्ती असंभव?

श्रीमती शालिनी एक परिपक्व उम्र की महिला हैं। पिछले कुछ दिनों से वे किसी तनाव से गुजर रही थीं। वे चूँकि गृहिणी हैं सो कारण भी कुछ घरेलू ही थे। नौकरीपेशा महिलाओं के साथ तो दोहरी समस्याएँ रहती हैं। यद्यपि मेरी उनसे बहुत अंतरंग बातें नहीं होती थीं लेकिन इस बार वे जैसे अपना मन ही खोलकर रख गईं। हुआ यूँ कि घर में छोटी-मोटी बातों के चलते एक दिन उन्हें कुछ उदास देखकर उनके ‍पति ने पूछ लिया, 'क्या बात है? कुछ परेशान हो क्या?' आँखों में तैरते आँसुओं को रोकते हुए उन्होंने एक-दो समस्याएँ अपने पति को बताई।

साथ ही कहने लगीं - 'मैं बहुत परेशान हूँ। समझ में नहीं आता इस समस्या से कैसे निपटूँ?' पति ने आम आदमी की तरह जवाब दिया - 'तुम औरतें सोचती बहुत हो। इस कान से सुनो उस कान से निकाल दो या अपनी किसी दोस्त के साथ शेयर करो।'
'तुम्हें तो पता है मेरी ऐसी कोई घनिष्ठ मित्र नहीं और मेरे सबसे अच्छे दोस्त तो तुम ही हो'
'मैं और दोस्त? हो ही नहीं सकता। नेव्हर।'
'मैं तो सोचती थी, हम दोनों एक-दूसरे के अच्छे दोस्त हैं।'
'ऐसा भ्रम न पालना। पति-पत्नी एक-दूसरे के दोस्त हो ही नहीं सकते।
कई बातें ऐसी होती हैं जो मैं तुम्हें नहीं बता सकता और बताता भी नहीं हूँ। लेकिन अपने दोस्त को बता सकता हूँ।

छनाक की आवाज भी नहीं हुई और बगैर कोई आवाज किए पत्नी का दिल टूटा। एक ही झटके में उसका मोह भंग हो गया। इतने वर्षों के वैवाहिक जीवन में वह यही समझती थी कि उसके सच्चे दोस्त उसके पति हैं। और वह स्वयं उनकी मित्र। अब इस उम्र में क्या वे दोस्त ढूँढ़ेंगी, जिसे वह अपने मन की सारी बातें कह सकें? और वे तो पिछले कई वर्षों से अपने मन की सारी बातें अपने पति से कह लेती थीं यहाँ तक कि स्त्रियोचि‍त निंदा रस से भरी बातें भी वे अपने पति से कर लिया करती थीं। (हालाँकि ये बात उन्हें अब उन्हें ध्यान आ रही है कि पतिदेव हाँ, हूँ से ज्यादा जवाब नहीं देते थे।)

अपनी बात का ऐसा अप्रत्याशित जवाब पाकर वे एकाएक ही मानो सुन्न होकर चुप्पी लगा गई। लेकिन अनायास ही मेरे सामने एक प्रश्न मुँह बाए खड़ा हो गया। क्या सचमुच पति-पत्नी दोस्त नहीं हो सकते? क्या पत्नी अच्छा भोजन बनाकर पेट तक व प्रेम प्रदर्शित कर हृदय तक ही पहुँच सकती है? क्या पति-पत्नी दोस्त बनकर एक-दूसरे की दिमागी उलझनों को नहीं सुलझा सकते? दोस्ती का मतलब क्या है? यही न कि दो दोस्त एक-दूसरे के दुख दर्द को बाँटें। एक-दूसरे की खुशी में खुश हो व एक-दूसरे की उन्नति को देखकर गर्व करें। यही बात पति-पत्नी के साथ होती है। फिर दोस्ती न होने का क्या कारण है?

निभाएँ प्यार की जिम्मेदारी

हेलो दोस्तो! कौन नहीं चाहता कि उसकी जिंदगी सुचारु रूप से चले। जिस रिश्ते में वह रहे वह स्वच्छ जल की मानिंद कल-कल बहता जाए। बस वहाँ खुशी और सुकून हो, अनबन की गुंजाइश ही न हो। एक-दूसरे से केवल शक्ति पाएँ तथा उसे रचनात्मक काम लगाएँ। हमारा समय आपसी उलझन को सुलझाने में नष्ट न हो। पर ऐसा नहीं होता है। हम हर रिश्ते में कुछ न कुछ परेशानी झेलते ही रहते हैं।

ऐसी ही समस्या से जूझ रही हैं रोशनी। उसे पता ही नहीं चलता है वह अपने दोस्त के साथ कैसे संतुलन बनाए। जब दोनों बेहद प्यार में डूबे रहते हैं तो एक-दूसरे पर अधिक अधिकार और अपेक्षाएँ जोड़ लेते हैं और किसी भी कारणवश वे अपेक्षाएँ पूरी नहीं होने पर प्यार का भरोसा हिलने लगता है। फिर एक-दूसरे की मजबूरी समझने में कई दिन लग जाते हैं। गिला, शिकवा, रूठना-मनाना इसमें ही बेहतरीन समय नष्ट हो जाता है। रोशनी को लगता है आखिर क्या तरीका अपनाया जाए कि वे दोनों अपनी गरिमा और स्वतंत्रता बरकरार रखते हुए भी बिल्कुल एक महसूस करें।

रोशनी जी, आपकी समस्या आज कमोबेश सभी रिश्तों में नजर आती है। हाँ, आपकी एक बात जरूर भिन्नता लिए हुए है, वह है आप दोनों प्यार में रहते हुए भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखना चाहते हैं। यह प्रयास आम चलन से हटकर है इसलिए इसमें उतार-चढ़ाव की गुंजाइश भी ज्यादा है। ऐसी सोच समझदारी के साथ-साथ धैर्य और बौद्धिक नजरिए की भी माँग करता है। ऐसा रिश्ता सींचने में हम यदि कामयाब हो जाएँ तो इससे खूबसूरत चीज और कोई नहीं हो सकती।

सवाल यह उठता है कि आखिर यह स्वाधीनता कैसे बनाए रखी जाए। कैसे अपना प्यार लुटाते हुए भी दूसरे से अपेक्षा न करें। सच यह है तो बहुत ही पेचीदा प्रश्न। पर जहाँ चाह है वहाँ राह है। हमें सबसे पहले बहुत संजीदगी से विचार कर लेना चाहिए कि हम किस स्थिति में जीना चाहते हैं। अगर हमने यह तय कर लिया कि जिसे हम प्यार करते हैं उसे हर हाल में प्यार करते रहेंगे, चाहे जो भी सामंजस्य करना पड़े तो मेरे खयाल से बहुत सारी दुविधा और अपेक्षाएँ खत्म हो जाती हैं। प्यार के रिश्ते में भावनाओं की प्राथमिकता तय करना बहुत अहम है। यदि प्यार में सम्मान, खुशी और शांति से जीना है तो केवल अपनी जिम्मेदारी निभाने के विषय में सोचना चाहिए।

" हम यह भूल जाते हैं कि हम किसी की बीमारी में कोई सेवा या कोई भी कष्ट इसलिए उठाते हैं कि हमें वैसा करके संतोष मिलता है। उस व्यक्ति को हम स्वस्थ और खुश देखना चाहते हैं।"
रोशनी जी, आप अपने पर नियंत्रण रख सकती हैं दूसरे की भावना उसी परिस्थिति में क्या होगी उस पर आपका अख्तियार नहीं है। आपके प्यार के बदले में दूसरे को कैसी प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए थी यदि हम यह तय या अपेक्षा करना छोड़ दें तो कई मुश्किलें अपने आप ही हल हो जाएँगी।

आप ही नहीं, बहुत जोड़ों की यही शिकायत रहती है कि फलाँ हालत में मैंने इतना समय दिया, इतना कष्ट उठाया पर जब मेरी बारी आई तो उसने वैसा कुछ भी नहीं किया। हम यह भूल जाते हैं कि हम किसी की बीमारी में कोई सेवा या कोई भी कष्ट इसलिए उठाते हैं कि हमें वैसा करके संतोष मिलता है। उस व्यक्ति को हम स्वस्थ और खुश देखना चाहते हैं ताकि हमें सुकून मिले इसलिए कष्ट उठाना बुरा नहीं लगता है। पर वैसे ही व्यवहार की कामना करना अपनी और दूसरे की स्वाधीनता पर प्रतिबंध लगाना है।

जब माँ-बाप बच्चों को यह सुनाते रहते हैं कि हमने तुम्हारे लिए यह कष्ट उठाया अब तुम्हारी बारी है तो उस वक्त बच्चों को लगता है काश उन्होंने हमारे लिए इतना न किया होता और हमारी आजादी बरकरार रहती। बच्चे माँ-बाप के लिए बहुत कुछ कर भी सकते हैं बशर्ते कि उसे किसी उलाहने के बदले में न करना पड़े। हर किसी को यदि हम मुक्त रहने का अहसास दिलाएँ तो शायद सभी रिश्ते में ज्यादा सच्चाई और गहराई हो सकती है।

रोशनी जी, आप तो रिश्ते में रहते हुए स्वाधीन रहना चाहती हैं। ऐसी हालत में आप केवल अपने प्यार की जिम्मेदारी संभालें। अपने साथी को आजाद छोड़ें। यह उसका सिरदर्द है, वह आपके साथ कैसा व्यवहार करे।

लिख दें अपनी मोहब्बत का अफसाना

'मजा आता अगर गुजरी हुई बातों का अफसाना
कहीं से हम बयां करते, कहीं से तुम बयां करते'

वाकई जब प्यार किसी से होता है तो हर दिन कोई नया अफसाना बनता है और फिर आगे बढ़ती है प्रेम कहानी। हर प्रेमी युगल अपने प्यार को हमेशा अपने साथ रखने का ख्वाहिशमंद होता है। हर कोई चाहता है कि अपने महबूब के साथ गुजरे हर पल का लेखा-जोखा उसके पास हो ताकि तन्हाइयों में वह उन पलों को याद करके एक बार फिर उस सुखद अहसास की अनुभूति कर सके।

लेकिन ये क्या जब आप अपना हाले दिल कागज पर उतारने की कोशिश करते हैं तो समझ ही नहीं आता कि कहाँ से शुरू करें? क्या लिखें? आपकी कलम तो अपना काम करने के लिए तैयार रहती है, बस शब्द ही नहीं मिलते। बात सिर्फ शुरुआत की ही नहीं रहती, यदि आप इसे शुरू कर भी लेते हैं तो इसे आगे बढ़ाने में भी आपको मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। खैर, कोई बात नहीं हम आपको कुछ मशविरा दिए देते हैं ताकि आप अपने इस अफसाना-ए-मोहब्बत को धाराप्रवाह लिख सकें।

पहले इस बात पर गौर फरमाएँ कि आपकी प्रेम कहानी में कुछ ऐसा खास हो जो आपको बाँधे रखे और आप उसे पढ़ते समय उस दौर को महसूस कर सकें। हाँ, कुछ विशेष स्वरूप देने के लिए बीच-बीच में शेरो-शायरी, कविता, ग़ज़लें या फिर लव कोटेशन का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। अब जरा बात करें कि इसमें आप शामिल क्या करेंगे? देखिए जनाब इसमें कई सारी बातें शामिल की जा सकती हैं लेकिन कुछ खास बातें बहुत ही जरूरी रहेंगी। जरा आगे पढ़ें-


" ये कहानी आपकी होते हुए भी कुछ अलग लगे। यानी कि यदि आपके अलावा कोई तीसरा व्यक्ति भी इसे पढ़े तो ये जान न सके कि ये कहानी आपकी ही है। क्या करेंगे इसके लिए? ज्यादा कुछ नहीं करना होगा सिवाय नाम बदलने के।"
सबसे पहले आपकी कहानी में शामिल होना चाहिए कि आप पहली बार उनसे कब, कैसे और कहाँ मिले?
* उनसे मिलने के बाद आपके दिल ने क्या कहा?
* आपने दोस्ती के लिए उन्हें कैसे प्रपोज किया?
* आपको इस बात का अहसास कब और कैसे हुआ कि आप उनके प्यार में डूब चुके हैं?
* अपने प्यार की अनुभूति को अपने महबूब तक पहुँचाने के लिए आपने क्या किया?
* आपके प्रेम-प्रस्ताव पर उनकी प्रतिक्रिया।
* पहली बार जब आप दोनों मिले वो दिन, तारीख, समय तथा बातचीत का ब्यौरा।
* आप दोनों ने कब पहली बार एक-दूसरे को प्यार भरे वो तीन शब्द कहे, जिसे कहने-सुनने के लिए हर प्रेमी युगल बेकरार रहता है।

ये और इनके जैसी और भी कई बातें हैं, जिसे आप अपनी प्रेम कहानी में शामिल कर सकते हैं। अब जरा देखें कि मोहब्बत के इस अफसाने का स्वरूप क्या हो?

इसके लिए आप कुछ ऐसा कर सकते हैं कि ये कहानी आपकी होते हुए भी कुछ अलग लगे। यानी कि यदि आपके अलावा कोई तीसरा व्यक्ति भी इसे पढ़े तो ये जान न सके कि ये कहानी आपकी ही है। क्या करेंगे इसके लिए? ज्यादा कुछ नहीं करना होगा सिवाय नाम बदलने के। अपने महबूब समेत ऐसे व्यक्तित्व जिन्हें कहानी में शामिल करना है, सभी को नया नाम दे दें। साथ ही अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग करके कुछ ऐसी बातें शामिल करें जो अलग हों।

चाहें तो अपनी कहानी को कुछ इस अंदाज में लिख सकते हैं कि- 'कुछ साल पहले की बात है....'

या फिर इस अफसाने को डायरी की शक्ल भी दे सकते हैं। जैसे कि जब आप दोनों मिले उस तारीख के साथ लिखें - 'आज मैंने उसे पहली बार देखा...।'

यदि कुछ और अंदाज में लिखना चाहें तो शुरुआत करें शायरी से॥ या फिर किसी कविता की कुछ चुनिंदा पंक्तियों से।

तो जनाब अब जबकि आपने अपनी प्रेम कहानी लिखने का मन बना ही लिया है तो फिर हम कहाँ ठहरते हैं। बस उठाइए कागज-कलम और रच दीजिए अपनी प्रेम कहानी....।