जीवन में अनुकूलता/प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती रहती हैं। प्रथम दृष्टी में हमें प्रतिकूलता बिलकुल ही नहीं सुहाती तथा हम इससे सदैव दूर रहने का प्रयास करते हैं किन्तु यह सम्भव नहीं हो पाता। पिछले जन्म में हमने जैसे कर्म किये हैं उनका फल परमपिता ने पूर्व में निर्धारित किया हुआ है जिसके अनुपालन में प्रतिकूलता प्राप्त होती है। इससे घबराएं नहीं। इसमें भी हमारा हित है (1) पूर्व जन्म में किये गए दुष्कर्म का बोझ जो हमारे कन्धों पर था, उससे मुक्ति मिल जायेगी (2) दुःख की अवधि में परमपिता की ओर ध्यान रहेगा। (3) हमारा यह ध्यान ही परमपिता को हमारी ओर आकर्षित करेगा तथा परमपिता हम पर कृपा कर दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करेंगे। बहुत से व्यक्ति दुःख के लिये परमात्मा को कोसते दिखाई देते हैं। ऐसा करने वालों की दुःख को सहन करने की शक्ति घटेगी तथा परमपिता की कृपा से वंचित होना पडेगा। बाहरी रूप में प्रतिकूलता हमें सुहाती नहीं किन्तु वास्तव में प्रत्येक प्रतिकूलता में अनुकूलता छिपी हुई होती है। भले ही हम उसकी अनुभूति करें या नहीं। अनुकूलता की अनुभूति होते ही चिंता की लहर स्वतः ही समाप्त हो जायेगी। कुन्ती ने भगवान् कृष्ण से दुःख ही माँगा तथा कहा-
सुख के माथे सिला पड़े तो नाम ह्रदय से जाए। बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम रटाये।
हम समय को काट रहे हैं या समय हमें काट रहा है
जब हम अपने किसी मित्र, भाई- बन्धु इत्यादि से उनकी कुशल-क्षेम पूछते हैं तो 90 प्रतिशत बन्धु यही कहते सुनाई देते हैं कि टाइम पास कर रहें हैं या समय को काट रहे हैं। इन बंधुओं को अपना ध्यान गीता 1-(33) पर केन्द्रित करना श्रेयस्कर रहेगा। इस श्लोक में ब्रह्म स्वरुप भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से यही कहा है कि महाकाल मैं ही हूँ तथा सब ओर मुखवाला विराट स्वरुप, सबका पालन-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ।। ज़रा सोचिये ऐसी महा अपरमपारी सत्ता काल के लिये हम जैसे एक मच्छर द्वारा यह कहना कि काल (समय या टाइम) को काट रहे हैं या पास कर रहे हैं, न्यायसंगत होगा। अंत समय जब हम उसके दरबार में जायेंगे तो ऐसे महाकाल का अपमान करने वाले को निश्चित रूप से दण्ड का भागीदार बनना ही पडेगा। अतः यही अनुरोध है कि सदैव ध्यान रखें कि काल (समय, टाइम) हमको प्रति क्षण काट रहा है न कि हम उसे काट रहे हैं। काल अपने निर्धारित विधान के अनुसार दैनिक हमको काटता हुआ मृत्यु की ओर धक्का देता हुआ जीवन का संचालन कर रहा है।
सूर्या में त्रिदेव - ब्रह्म, विष्णु महेश स्थित हैं
हमारा दिन-प्रात:, मध्यान्ह और सायं तीन भागों में विभाजित होता है तथा इन तीनों में सूर्य रश्मियाँ सत तत्त्व प्रधान शान्तिक होती है तो मध्यकाल की राजप्रधान पौष्टिक होती है तथा सायं की तम प्रधान अभिधारिक होती है। इन्हीं के प्रभाव से हम प्रातः भजन, पूजा, पाठ करने को प्रेरित होते हैं तथा मध्यान्ह में गृहती सम्बन्धी अच्छे व बुरे कार्य करने को प्रेरित होते हैं। सूर्य अस्त होने पर रात्री में तामसिक कार्य, मनोरंजन वा अन्य गृहस्थी कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। यही क्रम जीवन के अंत तक चलता है। इस प्रकार संसार में ब्रह्म प्रकृति के तीन गुणों - सत, रज, तम का आश्रय स्थल सूर्य ही है। सतगुन उपासना में सत गुण को विष्णु, रज गुण को ब्रह्म तथा तमगुन को महेश रूप में प्रतिपादित किया गया हैं। (देखिये विष्णु पुराण द्वितीय अंश का अध्याय 11 के श्लोक 7 से 16) ऋग्वेद 5/6228 में कहा गया है कि सूर्या के उदय होने पर उषा काल में साक्षात ब्रह्म के दर्शन होते हैं तथा इसके बाद ब्रह्म प्रकृति के तीन गुण सत, रज, तम क्रियाशील होकर सृष्टी का संचालन निर्धारित विधि के अनुसार करते हैं। सूर्यतापिन्युपनिषद 1/6 में कहा गया है कि सूर्य ही ब्रह्म, विष्णु, शिव है तथा त्रिमूर्तियात्मक और त्रिदेवात्मक सर्व देवमय हरि ब्रह्म है। सूर्यापनिषद 2/4 में भी कहा गया है कि सूर्य से ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है, सूर्य से पालन होता है और सूर्य में ही लय होता है और जो सूर्य है वही मैं ही हूँ।
अतः हमारे लिये श्रेयस्कर रहेगा कि सूर्य के उदय होने पर उषा काल में साक्षात ब्रह्म, विष्णु, महेश त्रिदेवों से सद्विचार, सद्व्यवहार, सद्कर्मकी प्रेरणा देने की याचना करते हुए दैनिक कार्यों का सम्पादन करें।
परमात्मा से क्या याचना करें
साधारणतया हम परमात्मा से यही याचना करते हैं कि हमें धन-संपत्ति से तथा परिजनों को सभी प्रकार से फलावें और फूलावें। यदि इस पर थोड़ा सा ध्यान पूर्वक विचार करें तो ऐसी याचना लगभग निरर्थक ही साबिक हो सकती है। इसके मूल में कारण यह है कि हमारे जीवन की सुखद एवं दुखद भोगों का निर्धारण तो विधाता अपने विधान के आधार पर पूर्व में ही कर चुके हैं।
अतः परमात्मा से पूर्वोक्त धन, संपत्ति, वैभव आदि की याचना करने के स्थान पर निम्नलिखित याचनाएं करनी चाहिए-
1. सदविचार हो 2. सद व्यवहार करने की प्रेरणा की प्रेरणा दो 3. सद्कर्मों की ओर क्रियाशील बनाओं 4. परहित चिंतन एवं सेवा की भावना जाग्रत करो। इन सभी को अपने दैनिक क्रिया- कलापों में प्रमुखता दो और फल का निर्णय परमपिता पर छोड़ दो। वह स्वयं अपने आप हमें संभालेगा।
मानव धर्म
मानव समाज विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध आदि-आदि में विभाजित है तथा उनके ही निर्धारित सूत्रों अनुसार भिन्न- भिन्न नाम, रूपों एवं मत मतान्तरों के अनुसार परमपिता के दर्शन, चिंतन, मनन करते हुए अपनी जीवन शैली बनाते हैं। मत मतान्तरों एवं जीवन शैलियों में भिन्नता होना कोइ बुरी बात नहीं। इसमें यदि कोई बुराई है तो यह कि अपने धर्म सम्प्रदाय को दूसरों के धर्म सम्प्रदायों से श्रेष्ठ समझना तथा दूसरों के साथ शत्रुता भाव बनाना। ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि जिस प्राणी का अपमान या उससे शत्रुता कर रहें हैं उसमें भी वही परमात्मा है जो उसके भीतर हैं। दूसरे शब्दों में हम अपने परमपिता के अपमानकर्ता या शत्रु बन गए हैं। अतः श्रेयस्कर रहेगा कि दूसरे धर्म एवं सम्प्रदाय के व्यक्ति के प्रति हम उतना ही सम्मानजनक व्यवहार करें एवं भावना बनायें जैसे अपने धर्म एवं सम्प्रदाय के व्यक्तियों के साथ करते हैं। हम सभी एक ही पिता की संतान होने से सगे भाई- बहन हैं।
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