सिख धर्म का उदय उस वक्त हुआ था, जब हिन्दू धर्म के अंदर पाखंड चरम पर था। सूफी संत और दरवेश जगह-जगह जाकर सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे थे। आज अगर बात सिख समुदाय की आती है, तो ऐसे लोगों का अक्स सामने आता है, जिन्होंने मेहनत से पहचान बनाई है।
आज हिन्दुस्तान का कोई ऐसा शहर नहीं, दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं, जहां सिख मौजूद नहीं। श्री गुरू ग्रंथ साहिब में बताया गया कि किस तरह मेहनत की कमाई खाकर जीना बेहतर है। सिख धर्म की नींव गुरू नानक देव जी ने ही रखी थी। वह सिखों के पहले गुरू थे। उन की लिखी रचनाएं गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है। गुरू नानक देव ने सिखों को बताया कि जीवन का उद्देश्य बराबरी, सहनशीलता, बलिदान, निडरता के नियमों पर चलते हुए एक निराले व्यक्तित्व के साथ जीते हुए ईश्वर में लीन हो जाना है। गुरू नानक देव ने अपनी शिक्षा और उपदेशों से लोगों को खूब प्रभावित किया और समाज को नई दिशा दी। सिख धर्म की नींव गुरू नानक देव जी ने ही रखी थी। वह सिखों के पहले गुरू थे। उन की लिखी रचनायें गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। उन्होंने अपने जीवन काल में चार बड़ी यात्रायें की। यह यात्रायें उन्होंने अपने विचार को जन मानस तक पहुंचाने के लिए और उस समय लोगों में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों को दूर करने के लिए की थी।
आज 500 सालों से भी ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन उनके कहे उपदेश आज भी सार्थक हैं और जन कल्याण करने वाले हैं। उस समय जब प्राकृतिक रहस्यों को जानने का कोई साधन भी नहीं था। उन्होंने उस समय अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर जो बातें कहीं हैं वह आज भी विज्ञान की कसौटी पर एकदम खरी उतरती हैं। गुरू नानक देव जी का जन्म 1469 को 15 अप्रैल को पंजाब के तलवंड़ी नामक एक गांव में हुआ था। जो अब पाकिस्तान में है। उनका जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मेहता कालू था और माता का नाम मां तृपता जी था। उनकी एक बड़ी बहन थी जिसका नाम बीबी नानकी जी था। वह नानक देव को अवतारी बालक मानती थीं। नानक देव बचपन से ही बहुत मेधावी व शांत स्वभाव के थे। उनमें बचपन से ही ईश्वर के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना थी। कहा जाता है कि वह जब पैदा हुये थे रोने की बजाए हंसते हुये पैदा हुये थे।
उनके जीवन में अनेक ऐसी घटनायें हुई जों उनके अवतारी पुरुष होने का आभास कराती थी। जब वह कुछ बड़े हुये तो उन्हें विद्या प्राप्ति के लिए भेजा गया। अक्षरज्ञान प्राप्ति के बाद, उन्होंने अपने गुरु से कहा कि आप अपने शिष्यों को सच्ची व नेक बातें बतायें और साथ ही ईश्वर के बारे में बतायें। यह सुन उनके गुरु उनसे बहुत प्रभावित हुये। वहां उन्होंने अपने गुरू को बहुत सी प्रभु के बारे में गहन बातें भी बताईं। नौ साल की उम्र में उन्हें हिन्दू परिवार में जन्म के अनुसार जनेऊ धारण करने के लिए प्रेरित किया गया। लेकिन जब उन्हें जने पहनाने का समय आया तो उन्होंने जनेऊ पहनने से साफ इंकार कर दिया। इस पर जनेऊ धारण संस्कार करवाने वाले पंडित ने पूछा कि आप जनेऊ पहनने से क्यों इंकार कर रहे हैं? तब उन्होंने कहा कि इस जनेऊ के धागे को बांधने से क्या मेरे भीतर सत्य, संतोष, अहिसा आ जायेगी? यह धागा तो पुराना होने के बाद टूट जायेगा या घिर जायेगा। तब क्या होगा? इस से क्या मेरा मन अपने बस में रहेगा और मैं बुराइयों से दूर रहूंगा? यदि आप को मुझे जनेऊ पहनाना है तो ऐसा जनेऊ पहनाइये जो कभी भी ना टूटे और ना ही कभी पुराना पड़े। यह सुना सभी उन के तर्क पर हैरान हो गये। उन्होंने 22 सितम्बर 1939 को 69 वर्ष की आयु में अपनी भौतिक देह का त्याग किया। गुरु नानक का जन्म भी कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। अत: इस दिन गुरु नानक जयंती भी मनाई जाती है। इस दिन को गुरु पूरब के नाम से भी जाना जाता है। सिख धर्मानुयायी अन्य गुरुओं गुरू गोबिंद सिंह, गुरू तेग बहादुर, गुरू रामदास, गुरू अंगद देव, गुरू हरकिशन आदि के जन्मदिन, पुण्यतिथि या शहीदी दिवस को भी गुरू पर्व के रुप में मनाते हैं। इस दिन गुरुद्वारों में गुरू ग्रंथ साहिब का अखंड पाठ चलता रहता है। गुरुद्वारों की छटा देखते ही बनती है। मुख्य समारोह यानी पूर्णिमा के दिन पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब को फूलों से सजा कर पालकी में रखकर नगर कीर्तन का आयोजन किया जाता है। विभिन्न इलाकों से होता हुआ जुलूस गुरुद्वारे पर ही आकर विराम लेता है। इस अवसर पर जगह-जगह प्याउ लगाये जाते हैं और भोजन सामग्री के पैकेट बांटे जाते हैं। कई जगहों पर लंगर लगाये जाते हैं, जिसमें रास्ते में हर आने-जाने वाले को बिना किसी भेदभाव के भोजन कराया जाता है। यह सब गुरू नानक देव द्वारा दिये गए सांप्रदायिक सद्भाव के उपदेश के प्रभाव को प्रस्तुत करता है। गुरुद्वारों में प्रकाश करने का तात्पर्य भी यह माना जाता है कि लोगों का अज्ञान मिटे और जीवन में सुख-समृद्ध आये। श्री गुरुनानक देव जी से लेकर श्री गुरू गोबिंद सिंह जी तक गुरुगद्दी शारीरिक रुप में रही क्योंकि इन सभी गुरू जी ने पांच भौतिक शरीर को धारण करके मानवता का कल्याण किया। लेकिन 10वें गुरू जी ने शरीर का त्याग करने से पहले सारी सिख कौम को आदेश दिया कि आज से आपके अगले गुरू ‘श्री गुरू ग्रंथ साहेब' हैं। आज से हर सिख सिर्फ गुरू ग्रंथ साहेब जी को ही अपना गुरू मानेगा। उन्हीं के आगे शीश झुकायेगा और जो उनकी बाणी को पढ़ेगा वो मेरे दर्शन की बराबरी होगी। गुरू गोबिंद सिंह जी ने आदेश दिया कि सिख किसी भी शरीर के आगे, मूर्ति के आगे या फिर कब्र के आगे माथा नहीं झुकायेंगे। उनका एक ही गुरू होगा और वो है श्री गुरू ग्रंथ साहेब। गुरू ग्रंथ साहिब सिख धर्म का प्रमुख धर्मग्रंथ है। इसका संपादन सिख धर्म के पांचवें गुरू श्री गुरू अर्जुन देव जी ने किया। गुरू ग्रंथ साहिब जी का पहला प्रकाश 16 अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब अमृतसर में हुआ। 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरू तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमें कुल 1430 पृष्ठ है। गुरू ग्रंथ साहिब में मात्र सिख गुरुओं के ही उपदेश नहीं हैं, वरन 30 अन्य हिन्दू और मुस्लिम भक्तों की वाणी भी सम्मिलित है। गुरू ग्रंथ साहिब में उल्लिखित दाशर्निकता कर्मवाद को मान्यता देती है। गुरुवाणी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही महत्व पाता है। समाज की मुख्य धारा से कटकर संन्यास में ईश्वर प्राप्ति का साधन ढ़ूंढ़ रहे साधकों को गुरू ग्रंथ साहिब सबक देता है। हालांकि गुरू ग्रंथ साहिब में आत्मनिरीक्षण, ध्यान का महत्व स्वीकारा गया है, मगर साधना के नाम पर परित्याग, अकर्मण्यता निश्चेष्टता का गुरुवाणी विरोध करती है। गुरुवाणी के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने के लिये सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख होकर जंगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर हमारे हृदय में ही है, उसे अपने आंतरिक हृदय में ही है, उसे अपने आंतरिक हृदय में ही खोजने व अनुभव करने की आवश्यकता है। गुरुवाणी ब्रह्मज्ञान से उपजी आत्मिक शक्ति को लोककल्याण के लिए प्रयोग करने की प्रेरणा देती है। मधुर व्यवहार और विनम्र शब्दों के प्रयोग द्वारा हर हृदय को जीतने की सीख दी गई है।
02 फ़रवरी 2009
गुरू ग्रंथ साहिब
Posted by Udit bhargava at 2/02/2009 12:27:00 am
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