पुराना धर्म है । ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, साम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है । ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मज़हब है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत में हैं। नेपाल विश्व का अकेला देश है जिसका राजधर्म हिन्दू धर्म है । हालाँकि इसमें कई देवी-देवतओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है। हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इंडोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है।
हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है
हिन्दुओं के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद के अध्ययन से प्राय: यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उसमें इन्द्र, मित्र, वरुण आदि विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है । किन्तु बहुदेववाद की अवधारणा का खण्डन करते हुए ऋग्वेद स्वयं ही कहता है-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।
जिसे लोग इन्द्र, मित्र,वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं ।
वास्तविक पुराण तो विभिन्न पन्थों के निर्माण में कहीं खो गया है । किन्तु वास्तविक पुराण के कुछ श्लोक ईश्वर के एकत्व को स्पष्ट करते हैं । यथा :-
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तै-
र्युक्त: पर: पुरुष एक इहास्य धत्ते
स्थित्यादये हरिविरंचि हरेति संज्ञा:
श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्ववतनोर्नृणां स्यु: ।
प्रकृति के तीन गुण हैं :- सत्त्व, रज और तम; इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिए एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु , ब्रह्मा और रुद्र - ये तीन नाम ग्रहण करते हैं।
ऊपरी तौर पर यह लगता है कि हिन्दू वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य आदि सम्प्रदायों में बँटा हुआ है किन्तु सत्य यही है कि कर्ता ब्रह्म के किसी विशेषण जैसे विष्णु (सर्वव्यापी ईश्वर), शिव (कल्याणकर्ता ईश्वर), दुर्गा (सर्वशक्तिमान ईश्वर), गणेश (परम बुद्धिमान या सामूहिक बुद्धि का द्योतक ईश्वर) की उपासना ही होती है । इसीलिए हिन्दू विष्णु, शिव, दुर्गा, काली आदि के नाम से बने मन्दिरों में समान श्रद्धा से जाता है ।
उपनिषदों में एकत्व की खोज के लिए विशेष प्रयत्न किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जीवात्मा और परमात्मा में अग्नि की लपट और उसकी चिनगारी जैसा सम्बन्ध है । ईश्वर अलग किसी स्थान पर नहीं बैठा है । उसका वास हमारे हृदय में है, सर्वत्र है । वही सत्य रूप में सर्वत्र प्रकाशित है । परमात्मा ही सब कुछ है; तभी तो उससे प्रार्थना की जाती है :-
तेजो सि तेजो मयि धेहि, वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि,
बलमसि बलं मयि धेहि, ओजोसि ओजो मयि धेहि ।
हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है
पुरुषार्थ या मनुष्य होने का तात्पर्य क्या है? हिन्दुत्व कहता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ही पुरुषार्थ है । धर्म का तात्पर्य सदाचरण से है, अर्थ का तात्पर्य धनोपार्जन और जान-माल की रक्षा के लिए राज-व्यवस्था से है । काम का तात्पर्य विवाह, सन्तानोपत्ति एवं अर्जित धन का उपभोग कर इच्छाओं की पूर्ति से है । मोक्ष का तात्पर्य अर्थ और काम के कारण भौतिक पदार्थों एवं इन्द्रिय विषयों में उत्पन्न आसक्ति से मुक्ति पाने तथा आत्म-दर्शन से है । हिन्दू की दृष्टि में मध्य मार्ग ही सर्वोत्तम है । गृहस्थ जीवन ही परम आदर्श है । संन्यासी का अर्थ है सांसारिक कार्यों को एवं सम्पत्ति की देखभाल एक न्यासी (ट्रस्टी) के रूप में करने वाला । अकर्मण्यता, गृह-त्याग या पलायनवाद का संन्यास से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । आजीवन ब्रह्मचर्य भी हिन्दुत्व का आदर्श नहीं है, क्योंकि काम पुरुषार्थ का एक अंग है ।
हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं
हिन्दुओं के पर्व एवं त्योहार पर बिना पूर्ण जानकारी किये भी मुबारकबाद दिया जा सकता है क्योंकि हिन्दू मातम का त्योहार नहीं मनाते । राम और कृष्ण के जन्मोत्सव को धूमधाम से मनाया जाता है किन्तु उनके देहावसान के दिन लोगों को याद तक नहीं हैं ।
हिन्दुओं के तीन प्रमुख पर्व हैं :-
(अ) विजय दशमी
(ब) दीपावली
(स) होली या होलिका या होलाका
सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र
हिन्दू समाज गायत्री मंत्र को ईश्वर की आराधना के लिए सबसे बड़ा मंत्र मानता है जो इस प्रकार है-
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।
(भावानुवाद)
ओम् ईश अनादि अनंत हरे ।
जीवन का आधार स्वयंभू सबमें प्राण भरे ।
जिसका ध्यान दुखों को हरता दुख से स्वयं परे ।
विविध रूप जग में व्यापक प्रभु धारण सकल करे ।
जो उत्पन्न जगत को करके सब ऐश्वर्य भरे ।
शुद्ध स्वरूप ब्रह्म अविनाशी का मन वरण करे ।
दिव्य गुणों से आपूरित जो सुख का सृजन करे ।
वह जगदीश्वर बुद्धि हमारी प्रेरित सुपथ करे ।
आत्मा अजर-अमर है
हिन्दू समाज उपनिषदों और गीता में वर्णित आत्मा की अमरता को स्वीकार करता है । गीता में कहा गया है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरो पराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।
जीर्ण वस्त्र को जैसे तजकर नव परिधान ग्रहण करता नर ।
वैसे जर्जर तन को तजकर धरता देही नवल कलेवर ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुत: ।
शस्त्रादि इसे न काट पाते जला न सकता इसे हुताशन ।
सलिल प्रलेपन न आर्द्र कर खा न सकता प्रबल प्रभंजन ।
हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी
हिन्दू विचारक कहता है ‘उदारचरितानाम् वसुधैव कुटुम्बकम्’ । श्रेष्ठता-मनोग्रन्थि या हीनता-मनोग्रन्थि निम्न स्तर के लोगों में पायी जाती है । हिन्दू विचारधारा का जो जितना ही अधिक ज्ञाता होगा, वह उतना ही अधिक उदार होगा और उसे यह सम्पूर्ण विश्व ही कुटुम्ब के समान दिखायी देगा । वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के प्रचार के लिए पाखण्डी और स्वार्थी तत्त्व उत्तरदायी हैं । अपनी अज्ञानता और कुकृत्य को छिपाने के लिए जन्म के आधार पर ऊँच-नीच का भेद फैलाया गया है । वर्ण-व्यवस्था झूठ पर आधारित व्यवस्था है जो पाखण्डियों द्वारा निर्मित, पाखण्डियों द्वारा पोषित और पाखण्ड के विस्तार के लिए है । हिन्दू धर्म अपने चरम पर प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा को ही देखता है । धर्म की दृष्टि में न तो कोई अगड़ा है, न पिछड़ा, न दलित । धर्म न्याय का साथ देता है जिसमें सामाजिक न्याय शामिल है; निर्बल और असहाय को सहारा देने की बात करता है; दीन-दु:खी के आँसू पोछने की बात करता है; श्रमिक को उसका पूर्ण पारिश्रमिक देने की बात करता है; उत्पीड़न और अत्याचार का विरोध करने की प्रेरणा देता है ।
हिन्दुत्व हिन्दुओं को किसी एक प्रकार के रीति-रिवाज से नहीं बाँधता । किसी एक दर्शन को मानने के लिए बाध्य नहीं करता, किसी एक मत को अंगीकार करने के लिए विवश नहीं करता । यह ईश्वर में आस्था रखने या न रखने की छूट देता है । यह ऐसा उद्यान है जहाँ अधिक फल-फूल प्राप्त करने के लिए पेड़-पौधों की कटाई-छँटाई की जा सकती है । नये पेड़-पौधे लगाये जा सकते हैं । यह समन्वयकारी व्यवस्था है जो सबको अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता देती है फिर भी आत्मानुशासन के बल पर पल्लवित और प्रस्फुटित हो रही है । यदि किसी को इस व्यवस्था में जड़त्व दिखता है तो सकारात्मक सुझाव देना चाहिए । लोगों को शराब, जुआ आदि से दूर रहने तथा सदाचरण के लिए प्रेरित करना चाहिए । ढोंगी साधुओं और पाखण्डी धर्म-गुरुओं से हिन्दू धर्म का उत्थान नहीं हो सकता ।
पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता
हिन्दू धर्म में नीम, बेल, तुलसी, बरगद, पीपल, आंवला, आम आदि वृक्षों एवं पौधों को पूजा-अर्चना के साथ जोड़ा गया है । ये वृक्ष औषधियों के निर्माण एवं पर्यावरण की रक्षा करने में अत्यधिक महत्त्व रखते हैं । वस्तुत: हिन्दुत्व में प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा की गयी है । सम्पूर्ण प्रकृति ही ईश्वर का शरीर है । इस प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नदी आदि को देवत्व प्रदान कर उनकी पूजा की जाती हैं ।
हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में
हिन्दू विचारों को प्रवाहित करने वाले वेद हैं, उपनिषद् हैं, स्मृतियां हैं, षड्-दर्शन हैं, गीता, रामायण और महाभारत हैं, कल्पित नीति कथाओं और कहानियों पर आधारित पुराण हैं । ये सभी ग्रन्थ हिन्दुत्व के उद्विकास एवं उसके विभिन्न पहलुओं के दर्शन कराते हैं । इनकी तुलना विभिन्न स्थलों से निकलकर सद्ज्ञान के महासागर की ओर जाने वाली नदियों से की जा सकती है । किन्तु ये नदियाँ प्रदूषित भी हैं । उदाहरण के लिए झूठ पर आधारित वर्ण व्यवस्था को सही ठहराने और प्राचीन स्वरूप देने के लिए ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में कुछ अंश जोड़ा गया । ऊँच-नीच की भावना पैदा करने के लिए अनेक श्लोक गढ़कर मनुस्मृति के मूल स्वरूप को नष्ट कर दिया गया । पुराणों में इतनी अधिक काल्पनिक कथाएँ जोड़ी गयीं कि वे पाखण्ड एवं अंधविश्वास के आपूर्तिकर्ता बन गये । आलोचनाओं में न उलझकर किसी भी ग्रन्थ के अप्रासंगिक अंश को अलग करने पर ही हिन्दुत्व का मूल तत्त्व प्रकट होता है ।
वस्तुत: सामान्य हिन्दू का मन किसी एक ग्रन्थ से बँधा हुआ नहीं है । जैसे ब्रिटेन का संविधान लिखित नहीं है किन्तु वहां जीवन्त संसदीय लोकतन्त्र है और अधिकांश लोकतान्त्रिक प्रक्रिया परम्पराओं पर आधारित है; उसी प्रकार सच्चे हिन्दुत्व का वास हिन्दुओं के मन, उनके संस्कार और उनकी महान् परम्पराओं में है ।
सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है
पत्नी की सत्यनिष्ठा पति में होने को हिन्दू धर्म में आदर्श के रूप में देखा गया है । स्त्री संतान को जन्म देती है । बालक/बालिका को प्रारम्भिक संस्कार अपनी माता से ही मिलता है । यदि स्त्री स्वेच्छाचारिणी होगी तो उसकी संतान में भी उस दुर्गुण के आने की अत्यधिक सम्भावना रहेगी । पुरुष संतति-पालन का भार उठाने को प्राय: तभी तैयार होगा जब उसे विश्वास होगा कि उसकी पत्नी के उदर से उत्पन्न संतान का वास्तविक पिता वही है । पति की मृत्यु होने पर भी उत्तम संस्कार वाली स्त्री संतान के सहारे अपना बुढ़ापा काट सकती है । पश्चिम के आदर्शविहीन समाज में स्त्रियाँ अपना बुढ़ापा पति के अभाव में अनाथाश्रम में काटती हैं ।
इसका अर्थ यह नहीं है कि पुरुष को उच्छृंखल जीवन जीने की छूट मिली हुई है । एक पत्नीव्रत निभाने की अपेक्षा पुरुष से भी की गयी है; किन्तु ऐसा करने वाले पुरुष पर कोई महानता नहीं थोपी गयी है । गृहस्थी का कामकाज देखने वाली स्त्री अपने पति के प्रति सत्यनिष्ठ होकर ही महान हो जाती है जबकि पुरुष देश की रक्षा, निर्बलों की रक्षा, जनोत्थान के कार्य करके महान बनता है ।
अपने पति की चिता में बैठकर या कूदकर जल मरने वाली स्त्री को सती नहीं कहा गया । इस तरह का दुष्प्रचार पाखण्डियों द्वारा ही किया जाता है । विधवा स्त्री को मिलने वाली सम्पत्ति का हरण करने के लिए उसके परिवार वाले इस प्रकार का नाटक रचाते हैं । शान्तनु के मरने पर सत्यवती जीवित रही । दशरथ के मरने पर उनकी तीनों रानियां जीवित रहीं । पाण्डु के मरने पर कुन्ती जीवित रही । माद्री ने चिता में कूदकर आत्महत्त्या ग्लानिवश की क्योंकि वह पति के मरण का कारण बनी थी । सती अनसूया, सती सावित्री किसी को भी सती पति के साथ जल मरने के लिए नहीं कहा गया।
स्त्री आदरणीय है
संसार में हिन्दू धर्म ही ऐसा है जो ईश्वर या परमात्मा को स्त्रीवाचक शब्दों जैसे सरस्वती माता, दुर्गा माता, काली मैया, लक्ष्मी माता से भी संबोधित करता है । वही हमारा पिता है, वही हमारी माता है (त्वमेव माता च पिता त्वमेव) । हम कहते हैं राधे-कृष्ण, सीता-राम अर्थात् स्त्रीवाचक शब्द का प्रयोग पहले । भारतभूमि भारतमाता है । पशुओं में भी गाय गो माता है किन्तु बैल पिता नहीं है । हिन्दुओं में ‘ओम् जय जगदीश हरे’ या ‘ॐ नम: शिवाय’ का जितना उद्घोष होता है उतना ही ‘जय माता की’ का भी । स्त्रीत्व को अत्यधिक आदर प्रदान करना हिन्दू जीवन पद्धति के महत्त्वपूर्ण मूल्यों में से एक है । कहा गया है :-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ।
जहां पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता रमते हैं । जहाँ उनकी पूजा नहीं होती, वहाँ सब काम निष्फल होते हैं ।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।
जिस कुल में स्त्रियाँ दु:खी रहती हैं, वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है । जहां वे दु:खी नहीं रहतीं, उस कुल की वृद्धि होती है।
प्राणि-सेवा ही परमात्मा की सेवा है
ईश्वर निराकार है; उसकी सेवा नहीं की जा सकती । किन्तु वह संसार के प्राणियों में अधिक व्यक्त है । अत: जो प्राणि-सेवारत है वह वास्तव में परमात्मा की सेवा ही करता है।
परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्
दूसरों का उपकार करना ही पुण्य है,
दूसरों को सताना ही पाप है।
क्रिया की प्रतिक्रिया होती है
हिन्दू धर्म कहता है कि यदि आप दूसरों को सुख देने का यत्न करेंगें तो प्रतिक्रिया स्वरूप आपको भी सुख प्राप्त होगा । यदि आप दूसरों को दु:ख देंगे तो आपको भी दु:ख मिलकर रहेगा । किये गये पापों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, अधिक से अधिक पुण्य का अर्जन कीजिए । दुष्कर्मों के परिणाम भोगने से बचने का एक ही उपाय है कि अधिक से अधिक सुकर्म कीजिए । हम जो भी शुभाशुभ कर्म करते है उसका अनजान में मन पर प्रभाव पड़ता है और वह हमारा संस्कार बन जाता है । कुसंस्कार हमें अकल्याणकर और पाप-कर्म की ओर प्रेरित करता है और सुसंस्कार हमें कल्याणकर और पुण्य कर्मों की ओर ले जाता है । दुष्कर्म का जितना अधिक संचय होगा, एक दिन उसकी प्रतिक्रिया उतनी ही भयंकर होगी । एक गुण्डे, आतंकवादी या तस्कर का दूसरे गुण्डे या आतंकवादी द्वारा मारा जाना क्रिया की प्रतिक्रिया को ही दर्शाता है।
हिन्दुओं में कोई पैगम्बर नहीं है
ईसामसीह ईसाई धर्म के प्रवर्तक हैं । हजरत मुहम्मद इस्लाम के पैगम्बर माने जाते हैं । किन्तु हिन्दुत्व का न तो कोई प्रवर्तक है और न ही पैगम्बर । हिन्दुत्व एक उद्विकासी व्यवस्था है जिसमें विभिन्न मतों के सह-अस्तित्व पर बल दिया गया है । किसी को किसी एक पुस्तक में लिखी बातों पर ही विश्वास कर लेने के लिए विवश नहीं किया गया है । हिन्दू धर्म में फतवा जारी करने की कोई व्यवस्था नहीं है । यह उदारता और सहनशीलता पर आधारित धर्म है।
हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर है
कुछ पंथ या मजहब कहते हैं कि ईश्वर से डरोगे, संयम रखोगे तो मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा और सरकशी का जीवन बिताओगे तो नरक मिलेगा । स्वर्ग में सुन्दर स्त्री मिलती है; मनचाहे भोजन का, सुगन्धित वायु का और कर्णप्रिय संगीत का आनंद मिलता है; नेत्रों को प्रिय लगने वाले दर्शनीय स्थल होते हैं अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियों को परम तृप्ति जहाँ मिले वहीं स्वर्ग है । नरक में यातनाएँ मिलती हैं पुलिसिया अंदाज में; जैसे अपराधी से उसका अपराध कबूल करवाने या सच उगलवाने के लिए व्यक्ति को उल्टा लटका देना, बर्फ की सिल्लियों पर लिटा देना आदि या आतंकवादियों, डकैतों और तस्करों के कुकृत्य की तरह जो शारीरिक और मानसिक यातना देने की सारी सीमाएँ तोड़ देते हैं । नरक में इससे अधिक कुछ नहीं है ।
स्वर्ग के जो सुख बताये गये हैं, उन सुखों को विलासी राजाओं और बादशाहों ने इस धरती पर ही प्राप्त कर लिया । और नरक की जो स्थिति बतायी गयी है, मजहब और पंथ के नाम पर आतंकवादी इस धरती को ही नरक बना रहें हैं । नरक का भय दिखाकर तो हम ईश्वर को सबसे बड़ा आतंकवादी ही साबित करेंगे । वस्तुत: ईश्वर को स्वर्ग के सुख या नारकीय यातना से जोड़ने का कोई सर्वस्वीकार्य कारण उपलब्ध नहीं है ।
हिन्दू धर्म में जो संकेत मिलते हैं उसके अनुसार स्वर्ग और नरक यहीं हैं । हमारे शरीर एवं इन्द्रियों की क्षमताएँ सीमित हैं । हम अत्यधिक विषयासक्ति के दुष्परिणामों से बच नहीं सकते । किन्तु हिन्दू समाज में भी स्वर्ग और नरक के लोकों के अन्यत्र स्थित होने को मान्यता दी गयी है । यदि हम इसे सही मान लें तो जिन लोगों ने नेक काम किये हैं उन्हें स्वर्ग में और जिन लोगों ने बुरे काम किये हैं उन्हें नरक में होना चाहिए । चाहे सुख हो या यातना दोनों को शरीर के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है । इस स्थिति में स्वर्ग की आबादी तो बहुत बढ़ जानी चाहिए । अप्सराओं की संख्या तो सीमित है; वे कितने लोगों का मन बहलाती होंगी? वस्तुत: यह धरती ही स्वर्ग है, यह धरती ही नरक है । इस धरती को नरक बनने से रोकने और स्वर्ग में बदलने का उत्तरदायित्व हमारा है । यह कार्य सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना और सामूहिक प्रयास से ही सम्भव है । इसीलिए धर्म की आवश्यकता है ।
हिन्दुत्व कहता है कि यदि हमने सत्कर्म किये हैं और हमें लगता है कि पूर्ण कर्म-फल नहीं मिला तो हमारा पुनर्जन्म हो सकता है - अतृप्त कामना की पूर्ति के लिए । और यदि हमने दुष्कर्म कियें हैं तो कर्म-फल भोगने के लिए हमारा पुनर्जन्म होगा । किन्तु यदि संसार से हमारा मोह-भंग हो जाता है, कर्मों में आसक्ति समाप्त हो जाती है, कोई कामना शेष नहीं रहती या ईश्वर में असीम श्रद्धा और भक्ति के कारण ईश्वर को पाने की इच्छा ही शेष रहती है तो हम पुनर्जन्म सहित सभी बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार हिन्दुत्व का परम लक्ष्य स्वर्ग-प्राप्ति न होकर मोक्ष की प्राप्ति है।
ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें
हिन्दुत्व कहता है कि ईश्वर हमारा परमपिता है, हम उसकी संतान हैं । वही बच्चा अपने माता-पिता से डरता है जो गलत काम करता है या उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करता है । ईश्वर की इच्छा क्या हो सकती है? अपनी सृष्टि को बनाये रखना ही उसकी इच्छा है । वह पालनकर्ता है, हम भी किसी न किसी के पालन-पोषण में सहायक बनें । अपनी स्त्री और संतान का उचित लालन-पालन भी उत्तम कार्य है । वह दयालु है, हम भी दया दिखायें । वह समदर्शी है, हम भी यथासम्भव समानता एवं न्याय को जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान दें । यह प्रकृति ही ईश्वर का शरीर है । प्रकृति से प्रेम ईश्वर से प्रेम करने के समान ही है । हम ईश्वर और उसकी प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करें ।
ईश्वर न तो चाटुकारिता से प्रसन्न होता है, न ही बलि से और न ही धन और रुपया-दान से । हम अकर्मण्य रहकर राम-राम जपते रहें और चाहें कि हमारी चाटुकारिता से प्रसन्न होकर ईश्वर हमें सारे सुख-साधन उपलब्ध करा दे तो यह हमारी भूल है ।
पशु-पक्षियों की बलि से ईश्वरीय न्याय में बाधा पहुँचती है । हिंस्र पशु भी अकारण शिकार नहीं करते । ईश्वर या किसी देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए यदि किसी को बलि देना है तो उसे अपने अहं की बलि देना चाहिए ।
समस्त धन-सम्पत्ति का अनन्त काल का स्वामित्व ईश्वर का ही है, अत: धन-सम्पत्ति से उसे नहीं रिझाया जा सकता । धन-सम्पत्ति का दान पुजारियों के भरण-पोषण एवं मन्दिरों के अनुरक्षण के लिए किया जाता है ।
जहाँ-जहाँ राजतंत्र है, प्रत्येक राजकुमार स्वयं को शासन एवं राज-काज संचालन के योग्य मानता है । ऐसा ही भाव प्रत्येक व्यक्ति को रखकर यह समझना चाहिए कि वह भी परमपिता परमेश्वर की संतान है । इस प्रकार लोकतंत्र में वह हीनभावना से मुक्त होकर अपनी क्षमता के अनुसार अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है ।
ईश्वर में विश्वास भय से मुक्त करता है । ईश्वर में अति विश्वास और अपार श्रद्धा से मृत्यु के भय से भी मुक्ति मिलती है । जल की एक बूँद को महासागर से क्या भय; महासागर में गिरकर बूँद का अस्तित्व महासागर में विलीन हो जायेगा । बूँद भी महासागर बन जायेगी । हिन्दुत्व का सर्वोच्च विचार प्रलय से भी भयभीत नहीं है क्योंकि उस समय कर्मफल से सबको मुक्ति मिल जाती है । कयामत के समय किसी से पुण्य-पाप का हिसाब नहीं लिया जाता । स्वर्ग नरक का अस्तित्व नहीं है । अत: किसी को इन स्थानों पर भेजे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । प्रलय के समय सभी मुक्त होकर ब्रह्ममय हो जाते हैं।
ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है
ब्रह्माण्ड का जो भी स्वरूप है वही ब्रह्म का रूप या शरीर है । वह अनादि है, अनन्त है । जैसे प्राण का शरीर में निवास है वैसे ही ब्रह्म का अपने शरीर या ब्रह्माण्ड में निवास है । वह कण-कण में व्याप्त है, अक्षर है, अविनाशी है, अगम है, अगोचर है, शाश्वत है । ब्रह्म के प्रकट होने के चार स्तर हैं - ब्रह्म, ईश्वर, हिरण्यगर्भ एवं विराट (विराज) । भौतिक संसार विराट है, बुद्धि का संसार हिरण्यगर्भ है, मन का संसार ईश्वर है तथा सर्वव्यापी चेतना का संसार ब्रह्म है ।
‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म सत्य और अनन्त ज्ञान-स्वरूप है । इस विश्वातीत रूप में वह उपाधियों से रहित होकर निर्गुण ब्रह्म या परब्रह्म कहलाता है । जब हम जगत् को सत्य मानकर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक, सर्वज्ञ आदि औपाधिक गुणों से संबोधित करते हैं तो वह सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है । इसी विश्वगत रूप में वह उपास्य है । ब्रह्म के व्यक्त स्वरूप (माया या सृष्टि) में बीजावस्था को हिरण्यगर्भ (सूत्रात्मा) कहते हैं । आधार ब्रह्म के इस रूप का अर्थ है सकल सूक्ष्म विषयों की समष्टि । जब माया स्थूल रूप में अर्थात् दृश्यमान विषयों में अभिव्यक्त होती है तब आधार ब्रह्म वैश्वानर या विराट कहलाता है ।
ईश्वर एक नाम अनेक
ऋग्वेद कहता है कि ईश्वर एक है किन्तु दृष्टिभेद से मनीषियों ने उसे भिन्न-भिन्न नाम दे रखा है । जैसे एक ही व्यक्ति दृष्टिभेद के कारण परिवार के लोगों द्वारा पिता, भाई, चाचा, मामा, फूफा, दादा, बहनोई, भतीजा, पुत्र, भांजा, पोता, नाती आदि नामों से संबोधित होता है, वैसे ही ईश्वर भी भिन्न-भिन्न कर्ताभाव के कारण अनेक नाम वाला हो जाता है । यथा-
जिस रूप में वह सृष्टिकर्ता है वह ब्रह्मा कहलाता है ।
जिस रूप में वह विद्या का सागर है उसका नाम सरस्वती है ।
जिस रूप में वह सर्वत्र व्याप्त है या जगत को धारण करने वाला है उसका नाम विष्णु है ।
जिस रूप में वह समस्त धन-सम्पत्ति और वैभव का स्वामी है उसका नाम लक्ष्मी है ।
जिस रूप में वह संहारकर्ता है उसका नाम रुद्र है ।
जिस रूप में वह कल्याण करने वाला है उसका नाम शिव है ।
जिस रूप में वह समस्त शक्ति का स्वामी है उसका नाम पार्वती है, दुर्गा है ।
जिस रूप मे वह सबका काल है उसका नाम काली है ।
जिस रूप मे वह सामूहिक बुद्धि का परिचायक है उसका नाम गणेश है ।
जिस रूप में वह पराक्रम का भण्डार है उसका नाम स्कंद है ।
जिस रूप में वह आनन्ददाता है, मनोहारी है उसका नाम राम है ।
जिस रूप में वह धरती को शस्य से भरपूर करने वाला है उसका नाम सीता है ।
जिस रूप में वह सबको आकृष्ट करने वाला है, अभिभूत करने वाला है उसका नाम कृष्ण है ।
जिस रूप में वह सबको प्रसन्न करने, सम्पन्न करने और सफलता दिलाने वाला है उसका नाम राधा है ।
लोग अपनी रुचि के अनुसार ईश्वर के किसी नाम की पूजा करते हैं । एक विद्यार्थी सरस्वती का पुजारी बन जाता है, सेठ-साहूकार को लक्ष्मी प्यारी लगती है । शक्ति के उपासक की दुर्गा में आस्था बनती है । शैव को शिव और वैष्णव को विष्णु नाम प्यारा लगता है । वैसे सभी नामों को हिन्दू श्रद्धा की दृष्टि से स्मरण करता है ।
06 फ़रवरी 2009
हिन्दू के प्रमुख तत्त्व
Posted by Udit bhargava at 2/06/2009 03:30:00 pm
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