साधारणतया धारणा यह रहती है की दूसरे दुःख दें रहें हैं। इसका यह भी अर्थ है की दूसरे ही सुख देंगे। बुद्ध के जीवन की एक घटना है। बुद्ध को किसी ने गालियाँ दी। बुद्ध ने कहा तेरी बात पूरी हो गयी हो तो जाऊं। उस व्यक्ति ने कहा, बात नहीं है, हम तो गालियाँ दे रहे हैं। बुद्ध ने कहा, मेरे लिए बात ही है, तुम्हारे लिए गाली होगी। यदि तुम दस साल पहले आते तो यह मेरे लिए गाली थी। अब मैं दूसरों की भूलों के लिए अपने को दंड नहीं देता, दुःख नहीं पाता। गाली दे रहे हो तो तुम जानो, हम बीच में आते ही नहीं। वह व्यक्ति गया पर रात भर नहीं सो सका। वह सुबह माफी माँगने आया। बुद्ध ने कहा, जो हमने ली ही नहीं, उसके लिए क्षमा कैसे करें। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। दुखी होना चाहें तो यह घटना काफी है पर यदि इस पर भी प्रसन्न रहना चाहें, दुखी न हों तो कोई दूसरा बाधा नहीं डाल सकता। सीधा सा अर्थ है कि कोई दूसरा न तो दुःख दे सकता है, न सुख। हम स्वयं अपने मालिक बनें तो कोई दूसरा दुःख दे ही नहीं सकता। दरअसल दूसरे के हाथ में चाबी दे दें, दूसरों के हाथ में खेलें, अपना बटन दूसरों को दबाने दे, तभी दूसरा दुःख दे सकता है।
एक बाहर का पहलवान गाँव में आया। दंगल हुआ गाँव के पहलवान से वह हार गया। लोग उसकी हार पर हंसने लगे, तालियाँ बजाने लगे तो हारा हुआ पहलवान भी जोर-जोर से हंसने लगा। लोगों की हंसी रूक गयी और आश्चर्यचकित हुए कि यह हारा हुआ पहलवान इतना क्यों हंस रहा है। उस पहलवान ने कहा कि हम भी देख रहे हैं, बड़े पहलवान बने फिरते थे, खूब हुई चारों खाने चित्त। वह पहलवान तो था ही, पर उससे ज्यादा उसकी फकीरी थी, मस्ती थी। वह दूसरों के कारण सुखी, दुखी नहीं हुआ, गुलाम नहीं बना।
सुख की आशा से दुःख
दुःख आता है सुख की आशा से। सुख की आशा भी अपने निकटतम से ही होती है। पति से होती है, पत्नी से होती है, पुत्र से होती है। यदि कोई औरत बिना देखे निकल जाए तो दुःख नहीं होता परन्तु यदि पत्नी बिना देखे निकल जाए तो दुःख होता है। यदि किसी का बेटा अपने को सम्मान न दे तो दुःख नहीं होता परन्तु अपना बेटा सम्मान न दे तो दुःख होता है तो बेटा दुःख देता है, पत्नी दुःख देती है, पति दुःख देता है। मित्र दुःख देते हैं अर्थात जो निकट हैं वे दुःख देते हैं क्योंकि जो निकट हैं उनसे उतना ही सुख मिलता है। मिलता तो नहीं है पर आभास होता है। जिससे सुख की आशा की जाती है उसी से दुःख मिलता है।
दुःख अपेक्षा से मिलता है। जितनी बड़ी सुख की उपेक्षा होती है, उतनी ही टूटती है। अपरिचित से उपेक्षा नहीं होती इसलिए दुःख भी नहीं होता, दुःख तो परिचितों से ही मिलता है। यदि उपेक्षा छोड़ दी जाए, सुख न माँगा जाए तो कोई दुःख नहीं होता। न बाहर से सुख आता है, न बाहर से दुःख आता है। दुःख सुख की उपेक्षा का ही परिणाम होता है। लाओत्से ने कहा, मैंने कभी सम्मान चाहा ही नहीं तो मेरा अपमान कैसे हो सकता है।
दुःख से छुटकारा पाने के लिए बुद्ध ने उपेक्षा एक कारगर उपाय बताया है। उपेक्षा का अर्थ है, न दुःख मिलता है, न सुख मिलता है। कोई उपेक्षा नहीं रखी का अर्थ उपेक्षा है। उपेक्षा में जीने वाले को न कोई चीज दुःख दे सकती है और न सुख। यह तो साक्षी भाव से जीता है वह दोनों की समदृष्टि से देखता है।
दुःख न देने तो स्वतः सुख
दुःख मनुष्य का मूल स्वाभाव नहीं है अतः वैसा घटने पर तकलीफ होती है, अच्छा नहीं लगता। यह किसी एक व्यक्ति के साथ नहीं सभी व्यक्तियों के साथ होता है। इसी कारण सभी धर्मों में कहा गया है कि ऐसा कोई व्यव्हार दूसरों के साथ मत करा करो जो स्वयं दूसरे से अपने साथ नहीं चाहो। सीधा सा अर्थ यह है कि ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे दूसरे को दुःख पहुंचे। विश्व के सभी प्राणी सुख से रहना चाहते हैं पर साधारण मनुष्य अपने लिए अलग नियम बनाता है और दूसरों के लिए अलग। वह चाहता है कि चाहे सारे संसार को दुःख मिले तो भी मैं सुख चाहूंगा। दूसरे को दुःख देगा अपने सुख के लिए। प्रकृति का नियम है कि जो देंगे वही लौटेगा। अस्तित्व में कोई सीमा नहीं है सभी एक दूसरे से जुड़े हैं पर गहरी दृष्टि नहीं होने पर सभी अलग-अलग लगते हैं। जो किसी को दुःख देगा, दुःख उसी पर लौट आएगा। इसलिए तो सभी वेड कुरआन, बाइबिल, धम्मपद आदि में सभी ने एक ही स्वर्ण नियम दिया है- जो तुम अपने लिए चाहते हो उससे अन्यथा दूसरे के लिए मत करना।
पर मनुष्य का स्वभाव अलग ही है। वह अपने निकटतम व्यक्ति पुत्र, पुत्री या अन्य पर अत्याचार भी करता है तो इस नाम से कि वह उसके भले के लिए कर रहा है। आकान्शाओं से दूसरे का जीवन सुखद नहीं होता पर दुःख पहुंचाया जाता है, सुख का लेबल लगाकर। हिंसा इतनी गहन है कि दूसरे को सुख देने के नाम पर भी कोई सता सकता है, किसी को दुःख दे सकता है। इसी कारण भगवान् बुद्ध ने कहा- अतानं उपमं कत्वा न हत्रेय न घातये। अर्थात अपने सामान ही सबको जानकार न मारे न किसी को मारने की प्रेरणा दें। उन्होंने कहा कि यदि दूसरों को दुःख नहीं दिया तो अपने जीवन में फूल खिलने शुरू हो जाएंगे क्योंकि जीवन ऐसा है कि जो दुःख नहीं देता तो सुख अपने आप हो जाता है।
दुःख भोगने से सुख का अहसान
भगवान् बुद्ध ने कहा कि जो बाल्यावस्था में ब्रहमचारी का पालन नहीं करते और युवावस्था में धन नहीं कमाते वे वृद्धावस्था में चिंता को प्राप्त होते हैं। बड़ा अजीब लगता है कि बुद्ध कहे कि धन कमाए अर्थात मह्त्वकांशा हो, पद हो, धन एकत्रीटी करें अर्थात जो व्यक्ति है उसको भी इकट्ठा करें। एक यहूदी रबाई से एक गरीब आदमी ने आकर कहा कि मई बहुत दुखी हूँ, मुझे मरने का आशीर्वाद दें। उसने कहा कि जीना नरक हो गया है। एक छोटा सा कमरा है, वर्षा में पानी टपकता है। उसमें ही मैं, मेरी पत्नी, दो बच्चे, मेरी सास और ससुर रहते हैं। उसी में मेरे पिता व मेरी माँ। हिलने डुलने की भी जगह नहीं है, ऊपर से चिडचिडे व क्रोध भरे। नया मकान लेने की भी सामर्थ्य नहीं। नरक है, मरने की आगया दे दें। बूढ़े रबाई ने कहा, तुम्हे रोकूंगा नहीं, केवल सात दिन रूक जाओ। उसने कहा तुम्हारे पास कितने जानवर है. उसने कहा, एक कुत्ता, छह बकरिया, एक गाय और एक बछडा। रबाई ने कहा ऐसा करो कि इन सबको भी कमरे में ले आओ। उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि यों ही मरे जा रहे है, इन्हें लेकर तो खड़े रहने की भी जगह नहीं रहेगी। उस रबाई ने कहा, सात ही दिन का मामला है, फिर तुम मर जाना, इतना तो मान लो। सारी जिन्दगी तुमने मेरी बात मानी मरते वक्त तो न टालो। उस व्यक्ति ने कहा कि ऐसे तो सात दिन ज़िंदा ही नहीं रहूँगा। बूढ़े ने कहा कोई चिंता नहीं जब मरना ही है तो मरने की क्या फिकर।
घर जाकर उसने सारी बात बताई। सभी ने विरोध किया। वे भी रबाई के पास गए। रबाई ने कहा कि हाँ मैंने ही कहा है, करने दो। जब रबाई कहता है तो करना पड़ता है। ले लिया सबको अन्दर। सात दिन माह नरक के थे। सात दिन बाद वह व्यक्ति आया। रबाई ने कहा, अब मरने के पहले उन सबको घर के बाहर कर दे। उसने घर के बाहर कर दिया। रबाई ने दो-तीन दिन प्रतीक्षा की। वह आदमी लौटा नहीं तो रबाई उसके घर गया। कहा, क्या मामला है, मरना नहीं है? उसने कहा, कमरा वही है, अब इतनी जगह मालूम होती है, ऐसा आनद कभी जाना भी नहीं था, सब में प्रेम भाव भी बढ़ गया है। अब कौन मरता है, तुम्हारी कृपा है।
दुःख सघन हुआ, फिर अनुभव हुआ सुख की जैसी स्थिति में थे। यहाँ दुःख ने भी दिशा दी, सुख का अहसास कराया। जीवन में दुःख भी जरूरी है, सुख के आभास के लिए।
दुःख का निरोध है
भगवान् जेतवन में ठहरे थे। उनके साथ पांच सौ भिक्षु भी ठहरे थे। व आसंशाला में बैठे रात्री को बाते कर रहे थे। उनकी बात साधारण जनों जैसी थी। भगवान् मौन बैठे उन्हें सुन रहे थे। वे बातों में इतने तल्लीन थे कि भगवान् को भूल ही गए थे। कोई कह रहा था कि अमुख गाँव का मार्ग बड़ा सुन्दर है, अमुक गाँव का मार्ग बड़ा खराब है। अमुख मार्ग पर छायादार वृक्ष है, स्वच्छ सरोवर भी है और अमुक मार्ग बहुत रूखा है, उससे भगवान् बचाए। और कोई कह रहा था कि अमुक राजा भी अद्भुत व नगर सेठ भी अद्भुत बड़ा दानी। फलां नगर का राजा भी कंजूस और नगरसेठ भी कंजूस वहां तो कोई भूल कर पैर नहीं रखे। इस प्रकार की कई बातें हो रही थे। भगवान ने यह सब सुना। चौके भी, हँसे भी। भिक्षुओं को पास बुलाय। उन्हें कहा कि भिक्षु होकर भी बाह्य मार्गों की बात करते हो। समय थोड़ा है और करने को बहुत है। बाह्य मार्गों पर जन्म जन्म भटकते रहे हो, अब भी थके नहीं। अंतर्मार्गों की सोच। सौन्दर्य तो अंतर्मार्गों में है। शरण भी खोजनी हो तो वहा खोजो क्योंकि दुःख निरोध का वही मार्ग है। उन्होंने कहा कि भिक्षुओं मग्गानुट्ठगिको सेट्टो-यदि श्रेष्ठ मार्ग की बात करनी है तो आर्य अष्टान्गिक मार्ग की बात करो। यह तुम किन मार्गों की बात करते हो। तब उन्होंने गाथा कही उर कहा कि भीतर आने के बहुत मार्गों में आठ अंगों वाला मार्ग श्रेष्ठ है।
भगवान् बुद्ध ने दुःख निरोध के आठ सूत्र दिए। पहला, सम्यक दृष्टि अर्था जैसा है, वैसा ही देखना अपनी धारणाओं को बीच में लाकर नहीं देखना। आँख निर्दोष हो जैसे दर्पण खाली हो। यदि दर्पण पर धुल पडी हो कोई रंग लगा हो कोई पक्ष पडा हो तो जैसा सत्य है, वैसा दिखाई नहीं पड़ता। सम्यक दृष्टि का अर्थ है सभी दृष्टियों से मुखत निष्पक्ष।
दूसरा सूत्र सम्यक संकल्प। इसका अर्थ है कि जो करने योग्य है वह करना और उस पर पूरा जीवन लगा देना। करना किसी अहंकार के कारण न हो, वही सम्यक संकल्प। ऐसा संकल्प जो बोध से हो, जीवन की प्रौढ़ता से हो, क्षणिक उत्साह, लोग क्या कहेंगे इस भावना से न हों। जिसमें बाहरी उत्साह नहीं हो आतंरिक उत्साह हो।
तीसरा है सम्यक वाणी-जैसा है वैसा ही करना। अपनी मिलाकर, बदल कर नहीं. ऐसा नहीं कि भीतर कुछ है और बाहर कुछ। वाणी में ह्रदय की सही अवस्था प्रकट हो। जो बोलना है, वही बोले, असार न बोले जितनी आवश्यकता हो जिसके बिना का चले। अधिक बोलने से बड़ी दिक्कते होती है, जीवन व्यर्थ के जाल में फंस जाता है।
चौथा है सम्यक कर्मात अर्थात वही करना जो ह्रदय करने को कहे। ऐसा नहीं कि कोई खे वैसा कर दें। करें वही जो स्वयं को करने योग्य लगे। व्यर्थ काम नहीं, वही काम जिससे जीवन का सार मिले। व्यस्त रहना, कुछ न कुछ करते रहना जरूरी नहीं है। करना वही जो जरूरी हो, उसी को बुद्ध सम्यक कर्म कहते हैं।
पांचवा सम्यक आजीव। आजीव का अर्थ आजीविका से है। रोटी तो कमानी ही है पर आजीविका सम्यक हो, विध्वंसात्मक न होकर सृजनात्मक हो और जीवन को परमात्मा की तरफ ले जाने वाली हो। बुद्ध कहते है कि अपने जीने के लिए किसी का जीवन नष्ट करना अनुचित है। आजीविका ऐसी हो जिससे किसी का अहित न होता हो। यदि कोई दूसरे का अहित करता है तो वह अपने ही अहित के बीज बोता है।
छठा है सम्यक व्यायाम। यहाँ व्यायाम का अर्थ श्रम से समयक श्रम न तो आलस्य और न ही अति कर्मठता है जहाँ दौड रुके ही नहीं। दोनों का मध्य मार्ग है समयक व्यायाम, जहाँ जीवन की ऊर्जा संतुलित हो।
सांतवा सूत्र है सम्यक समाधि अर्थात मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। असली बात जाग्रत रह कर आनंद को उपलब्ध होना, उसीक ओ बुद्ध ने सम्यक समाधि कहा है। अंतिम दो चरण सर्वाधिक महत्व है। सम्यक स्मृति परिधि पर और सम्यक समाधि केंद्र पर। परिधि पर होश हो और फिर केंद्र में भी होश की ज्योति जले तो ही सम्यक समाधि।
दुःख निरोध की अवस्था
जब इस बात का अहसास हो गया कि जब जीवन है तो दुख अवश्यम्मभावी है, फ़िर कारण पर विचार किया और उन कारणों को दूर करने के लिये आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण कर सातवें-आठवें सूत्र तक पहुंचे तो निदान हो गया, उपाय हो गया कारण मिट गये, तब चौथा आर्य सत्य सुख की अवस्था आ गई। इसे निर्वाण की अवस्था महासुख की अवस्था कुछ भी कहा जा सकता है। इस अवस्था में आने पर मनुष्य की सभी तृष्णाएं समाप्त हो जाती हैं तो फ़िर उसका वापिस जन्म लेकर इस संसार में वापिस आने का कोई कारण नहीं रह जाता। जैसे ही दुख समाप्त हुए, संसार की यात्रा समाप्त हो गई। फ़िर यह व्यक्ति का आखिरी पडाव रह। एक बार दुख निरोध की अवस्था या महासुख को उपलब्ध करने पर शरीर छोडने के उपरान्त वह वापिस नहीं लौटता। ज्योति में ज्योति मिल जाती है। अन्य शब्दों में वही तो निर्वाण है, यही तो फ़िर मोक्ष है। जब ज्योति में ज्योति विलुप्त हो गई तो सूक्ष्म शरीर में समाहित इच्छाएं, तृष्णाएं, अहंकार, अस्मिता आदि जो पुनर्जन्म लेने का कारण बनती है, वे ही नहीं रहती तो वह आत्मा भैतिक शरीर के समाप्त होने के बाद आवागमन से मुक्त हो जाती है। भारतीय अध्यात्म में इस महासुख से बढकर जीवन की अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। इस चार आर्यसत्यों के माध्यम से भगवान बुद्ध ने व्यक्ति को चरम सीमा तक पहुंचने का मार्ग बताया है।
अप्प दीपो भव
भगवान बुद्ध ने अपनी देशना में मानने पर कत्तई जोर नहीं दिया, जोर दिया अनुभव कर स्वयं जानने पर। जीवन का सत्य बताया, रोग का इलाज दिया जिसे लेकर गूंगे के गुड की तरह अनगिनत लोग दुखों से मुक्त हुए, महासुख की अवस्था प्राप्त की। उनके बताए मार्ग को समझने, ह्रदयगम करें, उस पर चले तो बुद्ध की तरह कोई भी व्यक्ति उस स्थिति को पा सकता है। उन्हें महामानव, भगवान, अलौकिक शक्तियों से युक्त बताकर अपने को असमर्थ मानें तो हम अपने को धोखा देते हुए मनुश्य की गरिमा को ही कम करते हैं जिसे बुद्ध ने जीवन को सार्थक बनाने के लिये अप्प दीपो भव की देशना देकर शिखर पर पहुंचाया है। यह जन्म तो अनन्त जन्मों में आगे की एक कडी है। यात्रा यदि चालू रहे, कदम बढते रहें, दिशा यदि सही संकल्प और होश बढाने की है, हर मनुष्य को अपने भीतर छिपी दिव्यता को पहचानने और सही दिशा में चलने की है। भगवान बुद्ध ने तो मानव मात्र के कल्याण के लिये जीवन के सत्य उदघाटित किये हैं।
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