29 दिसंबर 2011

टोने टोटके - कुछ उपाय - 15 (Tonae Totke - Some Tips - 15)

रामचरित मानस द्वारा मंत्रोपचार करने हेतु निम्न चौपाइयों का पाठ करें।

सहज स्वरुप दर्शन के लिए
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना।
विस्ववास प्रगटे भगवाना॥

ज्ञान प्राप्ति के लिए
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा ॥

भक्ति प्राप्त करने के लिए
भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपासिंध सुख धाम।
सोई निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥

श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए
सुमिरि पवन सुत पावन नामू।
अपने वश करि राखे रामू॥

मोक्ष प्राप्ति के लिए
सत्यसन्ध छोड़े सर लच्छा।
कालसर्प जनु चले सपच्छा॥

सीताराम जी के दर्शन के लिए
नील सरोरुह नील मनि, नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥
 
श्री रामचंद्र जी को वश में करने के लिए
केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानु कुल भूषनहि विसरा सखिन्ह अपान॥

ईश्वर से अपराध क्षमा करने के लिए
अनुचित बहुत कहेंऊं अग्याता।
छमहु क्षमा मंदिर दोउ माता॥

विरक्ति के लिए
भरत चरत करि नेमु तुलसी जे सदर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु आवसि कोई भव रस विरति॥

भगत्स्मारणा करते हुए आराम से मरने के लिए
रामचरन पद प्रीति करि बाली कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥

प्रेम बढाने के लिए
सव नर करहिं परस्पर प्रीति।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति॥
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काल की रक्षा के लिए
मोरे हित हरि सम नहिं कोऊ।
एहिं अवसर सहाय सोई होऊ॥
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निंदा से निवृत्ति के लिए
राम कृपा अबरेव सुधारी।
बिबुध धरि भइ गुनद गोहारी॥

विद्या प्राप्ति के लिए 
गुरू गृह पढ़न गये रघुराई।
अल्प काल विद्या सब आई॥

उत्सव होने के लिए
सिय रघुवीर विवाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं ।
तिन्ह कहुं सदा उछाहु मंगलायतम राम जसु॥

कन्या को मनोवांछित वर के लिए
जै जै जै गिरिराज किशोरी।
जय महेश मुख चन्द्र चकोरी॥

यात्रा की सफलता के लिए
प्रविसि नगर कीजे सब काजा।
ह्रदय राखि कौसल पुर राजा॥

परीक्षा में पास होने के लिए 
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी ।
कवि उर अजिर नवावहिं बानी ॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती ।
जासुकृपा नहिं कृपा अघाती ॥

आकर्षण के लिए 
जेहि के जेहिं पर सत्य सनेहू ।
सो तेहि मिलइ न कछु सन्देहू॥

स्नान से पुण्य लाभ के लिये
राम कृपा अवरेव सुधारी।
बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥

खोई हुई वस्तु पुन: प्राप्त करने के लिये
गई बहोर गरीब नेबाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू॥

जीविका प्राप्ति के लिये
विस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई॥

दरिद्रता दूर करने के लिये
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।
कामद धन दारिद द्वारिके॥

लक्ष्मी प्राप्ति करने के लिये
जिमि सरिता सागद महुं नाहीं।
जघपि ताहि कामना नाहीं॥
तिमि सुख सम्पति विनहिं बोलाएं।
धरमसील पहिं जाहिं सुभाएं॥

पुत्र प्राप्ति के लिए
प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान॥

सम्पत्ति प्राप्ति के लिये
जे सकाम न सुनहिं जे गावहिं।
सुख सम्पत्ति नाना विधि पावहिं॥

ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करने के लिये
साधक नाम जपहिं लय लाएं।
होंहि सिद्ध अनि मादक पाएं॥

सर्वसुख प्राप्त करने के लिए
सुनहिं बिमुक्त विरत अरू विषई।
चहहिं भगति गति संपत्ति नई॥

मनोरथ सिद्धि के लिये

भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर और नारि।
तिन कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥

कुशल क्षेम के लिये
भुवन चारिदस भरा उछाहू।
जनकसुता रघुवीर विग्प्राहू॥

मुकदमा जीतने के लिये
पवन तनय बल पवन समाना।
बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना॥

शत्रु के सामने जाना हो उस समय के लिये
कर सारंग साजि कटि माथा।
अरि दल दलन चले रघुनाथा॥

शत्रु को मित्र बनाने के लिये
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु प्रबल सितलाई॥

शत्रुता नाश के लिये
बयरू न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई॥

शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिये
तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥

विवाह के लिये
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु व्याह साज सवांरिके।
माडवी श्रुतकीरति उरमिला कुंअरि लई हवनाति के॥

कैसी हो आपकी ड्रीम पार्टनर

अच्छे पार्टनर की तलाश सभी को रहती है, लेकिन अच्छाई के पैमाने सबके अलग-अलग होते हैं। फिर भी कुछ चीजें तो ऐसी हैं ही, जिन्हें हर पुरुष अपनी पाटर्नर में देखना चाहता है। आइए देखें क्या हैं वे चीजें:
किसी महिला या पुरुष को अपने पार्टनर में किन गुणों की तलाश होती है, अगर यह सवाल अलग-अलग लोगों से पूछा जाए तो उनके जवाब एक हो ही नहीं सकते। कई लोग शारीरिक सुंदरता को महत्व देते हैं तो कुछ लोग मन की खूबसूरती के दीवाने होते हैं। कुछ लोग इस सवाल का वह जवाब भी देंगे, जो आपके जहन में है। अलग-अलग लोगों के मन में अपनी ड्रीम गर्ल या सपनों के शहजादे की अलग-अलग तस्वीर होती है, फिर भी महिलाओं के कुछ ऐसे गुण हैं, जिनकी चाहत ज्यादातर पुरुषों को होती है। आइए इनकी चर्चा करते हैं।

टॉल वुमन
अगर कोई महिला अन्य महिलओं की तुलना में लंबी है, उसका ड्रेसिंग सेंस गजब का है, वह नियमित एक्सरसाइज करती है और खुद पर उसका पूरा होल्ड है, तो वह निश्चित रूप से पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करेगी।

बोल्ड एंड ब्यूटिफुल
पुरुष यह अच्छी तरह जानते हैं कि महिलाएं भावुक होती हैं। पता नहीं, वे किस बात पर हर्ट हो जाएं और उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगे। पति या प्रेमी इस बात का पूरा ख्याल तो रखते हैं कि उनकी किसी बात से उनकी वाइफ या गर्लफ्रेंड को ठेस न पहुंचे, लेकिन उनके मन के किसी कोने में बोल्ड और ब्यूटिफुल वुमन की इमेज भी होती है, जो विपरीत माहौल में उनके कंधे से कंधा मिलाकर चल सके।

सॉफ्टवेयर सैवी
ज्यादातर महिलाएं मजबूत कद-काठी वाले पुरुषों को पसंद करती है, जबकि पुरुषों के मन में नरम स्वभाव की महिलाएं जल्दी घर बना लेती हैं। अगर वह महिला कंप्यूटर फ्रेंडली है, तो फिर तो क्या कहने। अगर कोई महिला कंप्यूटर के नेटवर्क, सिस्टम और कनेक्शन से अच्छी तरह परिचित है, तो इससे उसकी स्मार्टनेस में चार चांद लग जाते हैं।

स्पेशल मोमेंट्स
महिलाओं या पुरुषों को ऐसे हमसफर की तलाश होती है, जो जिंदगी में खास लम्हों को याद रख सके। सभी लोग चाहते हैं कि मैरिज एनिवर्सरी या बर्थडे पर सबसे पहले वह ही उन्हें विश करें, जो उनकी लाइफ में सबसे स्पेशल हैं। इसके अलावा खास मौकों पर ड्रेस पहनने का आपका सेंस भी काफी महत्वपूर्ण है।

फ्रेश रिलेशनशिप
परफ्यूम और बॉडी लोशन तो सभी पसंद करते हैं, लेकिन संडे की सुबह सोकर उठने पर बेड टी के साथ सुगंधित शैंपू से धुले उनके बालों की खुशबू आपका स्वागत करे, तो समझ लीजिए आपके रिश्तों की ताजगी अभी बरकरार है।

डिफरेंट नेचर
जिस तरह पांचों उंगलियां एक सी नहीं होतीं, उसी तरह सभी पुरुषों और महिलाओं के व्यवहार में कुछ न कुछ अंतर होता है। कुछ लोग केवल फिजिकल फिटनेस और खूबसूरती को महत्व देते हैं, तो कुछ लोगों को कामकाजी और तेजतर्रार महिलाएं पसंद आती हैं।

टेक हेल्प
ज्यादातर पुरुषों को स्मार्ट लेडीज पसंद आती हैं, लेकिन उन्हें यह भी अच्छा लगता है कि कभी-कभी उनकी गर्लफ्रेंड उनकी मदद मांगे या कहे कि यह काम आपके बगैर तो हो ही नहीं सकता। इससे उन्हें पता चलता है कि जिसे वे स्पेशल मान रहे हैं, उसकी जिंदगी में उनके लिए खास जगह है।

विस्पर मोर
पुरुष चाहते हैं कि उनकी ड्रीम गर्ल उनके कान में धीरे से कुछ कहे। दरअसल, इस तरह उनकी गर्म सांसों की हल्की महक और प्यार भरी मीठी बातें पुरुषों के अंदर सेंसेशन पैदा करती हैं।

पेट नेम
पुरुषों की इच्छा होती है कि उनकी ड्रीम गर्ल उनका कोई पेट नेम रखें। हालांकि उनकी इच्छा यह भी होती है कि यह काम उनकी मर्जी से किया जाए। इससे उन्हें प्यार की गहराई का अहसास होगा।

होल्ड हैंड्स
ज्यादातर पुरुषों को ऐसी महिलाएं पसंद आती हैं, जिनमें पब्लिक प्लेस पर उनका हाथ थामकर चलने की हिम्मत हो। ऐसा करके पुरुषों को लगता है कि उनकी ड्रीम गर्ल का नेचर उनके प्रति पजेसिव है। पुरुषों की चाहत होती है कि उनकी पार्टनर उनके साथ हंसी-मजाक की बातें करें, साथ पिक्चर देखे और रोमांस करे।

पावरफुल लव स्टोरीज

प्यार वो जज्बा है, जो कभी भी किसी को भी हो सकता है। बात चाहे सिलेब्रिटी की हो, पावरफुल लोगों की हो या फिर आम आदमी की, प्यार की हिलोरें सबके दिल में एक जैसे ही उछाल मारती हैं। यही वजह है कि वर्ल्ड में ऐसे तमाम उदाहरण हैं, कामयाबी के शिखर पर बैठे लोगों ने इश्क की पींगें बढ़ाईं, लेकिन ऐसे लोगों की इश्क की कहानियों को लोग न केवल दिलचस्पी से सुनते हैं, बल्कि कई बार इन कहानियों में गॉसिप्स का मसालेदार तड़का भी लगाया जा सकता है। हाल ही में निकोलस सरकोजी और उनकी गर्लफ्रेंड (अब पत्नी बन चुकी हैं) के बारे में काफी कुछ कहा और लिखा गया है। मीडिया की सुर्खियों में रहे फ्रांसीसी राष्ट्रपति के इस रोमांस के बहाने वर्ल्ड के कुछ और पावरफुल लोगों के रोमांस की बात भी ध्यान में आना स्वाभाविक है। ऐसे ही कुछ और पावरफुल लव स्टोरीज की चर्चा करते हैं।

राजीव का लव ऐट र्फस्ट साइट
अगर आपने कभी जवाहर लाल नेहरू की ऑटोबायोग्राफी पढ़ी हो, तो आपको पता होगा कि इस भरे-पूरे ग्रंथ में उन्होंने कमला नेहरू के साथ अपनी अरेंज्ड मैरिज के बारे में महज कुछ लाइनें लिखी हैं। इस मुद्दे पर उन्होंने सिर्फ शादी की डेट, वेन्यू और पत्नी के नाम आदि जैसी सूचनाएं ही पाठकों के सामने रखी हैं। अपनी अरेंज्ड मैरिज में शायद उन्हें कुछ ऐसा रोमांटिक नजर नहीं आया, जिसे दर्शकों के सामने रखना वह जरूरी समझते। अगर उनकी पुत्री और पोतों ने भी उनके रास्ते को ही चुना होता, तो दुनिया वाले तमाम शानदार लव स्टोरीज से महरूम रह जाते। राजीव गांधी की बात करें तो उनका प्यार लव एट र्फस्ट साइट का एक बेहतरीन नमूना था। कैंब्रिज के कैंपस में वह दिन आम दिनों की तरह ही था। राजीव पॉलिटिक्स पर होने वाले एक डिस्कशन में हिस्सा ले रहे थे। जैसे ही सोनिया वहां पहुंचीं, राजीव और सोनिया दोनों को ही कुछ-कुछ हो गया।

जेएफके का प्यार
जॉन एफ कैनेडी की गिनती अमेरिका के सबसे ज्यादा ग्लैमरस राष्ट्रपतियों में की जाती है। मर्लिन मुनरो के साथ उनके रोमांस की खबरें लोगों के बीच बेहद चर्चा का विषय बनीं। कैनेडी की एक बर्थडे पर ईवनिंग गाउन में लिपटी ग्लैमरस मर्लिन ने उन्हें विश करने के लिए हैपी बर्थ डे... गाया। गाने को सुनकर कैनेडी अपना दिल मर्लिन को दे बैठे और उसके बाद जब उन्होंने इतनी अच्छी विशेज के लिए मर्लिन का शुक्रिया अदा किया, तो उस शुक्रिया में वहां मौजूद लोगों को प्यार की मिठास नजर आई।

रश्दी का रोमांस
सलमान रश्दी की लेटेस्ट बुक 'फरी' के बारे में रिव्यूअर कहते हैं कि इसका मेन हीरो सलमान की निजी जिंदगी का चित्र पेश करता है। बुक में एक अंग्रेज लड़की के साथ मलिक सोलंका की शादी दिखाई गई है और फिर यह दिखाया गया है कि कैसे वह उस लड़की को छोड़कर अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करने अमेरिका चला जाता है। गौर से देखा जाए तो यह सब सलमान रश्दी की जिंदगी की ही कहानी नजर आती है। जब से ईरान के अयातुल्ला ने रश्दी को जान से मार डालने का फतवा जारी किया, तब से रश्दी का कद एक हीरो की तरह हो गया है। उनकी कहानी को लव इन द फास्ट लेन कहा जा सकता है। एक बड़े एज गैप के बावजूद सलमान रश्दी पद्मालक्ष्मी से रोमांस करते नजर आए और उसके बाद अब चर्चा इस बात की है कि सलमान साहब रिया सेन के साथ इश्क फरमा रहे हैं।

डायना की कहानी
इश्क और रोमांस की बात चलने पर ऐसा हो ही नहीं सकता कि प्रिंसेस डायना का नाम न आए। ऐसी बहुत कम महिलाएं हैं, जिन्हें टाइम मैगजीन ने अपने कवर पर छापा है, लेकिन प्रिंसेस डायना टाइम मैगजीन के कवर पर सबसे ज्यादा छपने वाली महिला हैं। प्रिंस चार्ल्स के साथ उनकी लव स्टोरी की चर्चा की जाए तो उसमें एक सिजलिंग रोमांस के सभी एलिमेंट नजर आ जाएंगे। इस रोमांटिक कहानी में सब कुछ है, एक हीरो, एक हीरोइन, एक विलेन।

10 दिसंबर 2011

व्यक्तित्व को भी नष्ट कर देता है अहंकार

अहंकार और आत्मगौरव दोनों मनोभावों में मैं प्रधान होता है। मगर दोनों मनोभाव एक दूसरे के एकदम विपरीत होते हैं। मैंने देश के साथ कभी गद्‌दारी नहीं की - यह आत्मगौरव है। मेरे समान कोई दूसरा देशभक्त नहीं है- यह अहंकार है। आत्मगौरव व्यक्ति के चरित्र और स्वभाव को बल प्रदान करता है। अहंकार व्यक्ति के चरित्र और स्वभाव को केवल नष्ट ही नहीं करता, अहंकारी द्वारा कल्पित उसके नए चरित्र और स्वभाव को उसके मौलिक चरित्र और स्वभाव पर आरोपित कर देता है।

अहंकार के जन्म के कल्पनीय-अकल्पनीय असंख्य कारण हो सकते हैं। अहंकार सम्मान से भी उत्पन्न हो सकता है, अपमान से भी। वह सुख से भी उत्पन्न हो सकता है, दुख से भी, उपलब्धि से भी, अनुपलब्धि से भी, संपन्नता से भी, विपन्नता से भी, विजय से भी, पराजय से भी। मगर वह जिससे भी उत्पन्न हो, अहंकारी के ग्रहण करने की क्षमता के साथ-साथ उसके उचित-अनुचित विवेक को नष्ट कर देता है। वह इतना प्रबल और प्रभावशाली होता है कि वशिष्ठ जैसे ब्रह्म ज्ञान से संपन्न ब्राह्मण को भी आक्रांत कर सकता है, अपनी तपस्या और ब्रह्म-ज्ञान-साधन से राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र को भी।

ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र जुड़ा एक प्रसंग इसका एक सटीक उदाहरण है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जंगल में ध्यानमग्न थे कि अचानक उन्हें भगवान के कहीं निकट ही उत्पन्न होने का आभास हुआ। यह आभास होते ही वे आनंद से विह्वल हो उठे और फिर ध्यानमग्न होकर यह जानने की कोशिश करने लगे कि भगवान ने कहां अवतार लिया है। उन्होंने ध्यान में देखा कि भगवान ने अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी कौशल्या के गर्भ से राम के रूप में जन्म लिया है। इससे अधिक प्रसन्नता की और क्या बात हो सकती थी? उन्होंने फिर ध्यानमग्न होकर यह जानने की कोशिश की भगवान का सान्निध्य सुख उन्हें कैसे प्राप्त हो सकता है। जो उन्होंने जाना, उससे उनके अहंकार को गहरी ठेस लगी। वे राजर्षि से ब्रह्मर्षि तो हो गए थे, मगर सारे ब्रह्मज्ञान के बावजूद उनका क्षत्रियोचित अहंकार अभी भी नष्ट नहीं हुआ था। जिस वशिष्ठ को अपने ब्रह्मज्ञान से पराजित कर वे राजर्षि से ब्रह्मर्षि हुए थे, भगवान के सानिध्य-सुख का अवसर वशिष्ठ की अनुमति के बिना नहीं मिल सकता। यह विश्वामित्र का सौभाग्य था कि उनका अहंकार उन पर इतना हावी नहीं हुआ कि वे उस महान अवसर से वंचित रह जाते। वे वशिष्ठ की शरण में गए और यह आश्वासन प्राप्त करने में सफल हुए कि दशरथ के पुत्रों को शिक्षित करने का सौभाग्य उन्हें ही प्राप्त होगा।

लेकिन अहंकार शायद ही ऐसे विवेक का अवसर देता है। इसीलिए प्रत्येक अहंकार के त्याग का उपदेश करता है। जैन धर्म साधना की तो यह पहली शर्त है। जैन ग्रथों में इससे जुड़ी अनेक कहानियां प्राप्त होती हैं। एक कहानी के अनुसार एक राजा का पुत्र जब युवा हुआ और उसे राज्य के उत्तरदायित्व सौंपने के दिन करीब आए, राजा ने उसे उचित शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने गुरु के यहां भेजने का निर्णय किया। उन्होंने अपने पुत्र को बुलाकर शिक्षा के लिए उनके आश्रम में जाने का आदेश किया। पुत्र राजा का बेटा था, वैसा होने के अहंकार से भरा। स्वभावतर्‍ उसने गुरु को भी अपने सेवकों की नजर से देखा। गुरु पर रौब जमाने की गरज से वह नौकर-चौकरों की एक पूरी फौज के साथ उनके आश्रम की ओर चला। गुरु को उसके इस अहंकार का पूर्वाभास हो गया।

उसने आश्रम में रहने वाले अपने शिष्यों को उसके आते ही उसे मार-पीट कर भगा देने का आदेश किया। पिटकर राजपुत्र वापस लौट गया। पिता से शिकायत की। पिता ने समझाया -तुमसे जरूर कोई भूल हुई होगी। इस बार अकेले जाओ। वे तुम्हें जरूर स्वीकार करेंगे। पिता की आज्ञा मानकर राजपुत्र दुबारा गया, पर अकेले। मगर आश्रम में प्रवेश करते ही गुरु के शिष्यों ने गुरु की आज्ञा से उसे फिर मार-पीट कर भगा दिया। बहरहाल राजपुत्र रोते-गाते फिर पिता के सामने उपस्थित हुआ। पिता ने फिर समझाया-तुमसे फिर कोई गलती हुई होगी। इस बार ऐसा करो कि आश्रम के बाहर विनीत भाव से बैठ जाओ। मन ही मन पूरी भक्ति के साथ प्रार्थना करते रहना कि हे गुरुदेव मुझे स्वीकार कीजिए। राजपुत्र ने वैसा ही किया। कई दिन गुजर गए, कुछ नहीं हुआ। मगर ध्यानमग्न राजपुत्र को किसी के आने न आने का ध्यान ही कहां था? एक दिन गुरु शिष्यों के साथ आए। और उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।

जैन-धर्म साधना में अहंकार का नाश इसीलिए पहली शर्त है क्योंकि अहंकार ज्ञान के मार्ग तो अवरुद्ध करता ही है, व्यक्ति को स्वभाव से भी विमुख कर देता है। वह अपने यथार्थ को भूल जाता है। ऐसा केवल साधारण व्यक्तियों के साथ ही नहीं होता है। भारतीय पुराणों-महाकाव्यों में परशुराम एक ऐसे ही महापुरुष हैं। परशुराम का नाम भी राम ही था, मगर क्षत्रियों के विनाश की प्रक्रिया में वे परशु की शक्ति से इस हद तक अभिभूत हो गए और उन्हें अपनी शक्ति का ऐसा ऐसा अहंकार हो गया कि वे स्वयं को राम की जगह परशुराम के नाम से जानने लगे। उन्हें अपना सब कुछ भूल गया-अपना विगत, अपना वंश, अपना ब्राह्मणत्व। शक्ति के अहंकार से अभिभूत परशुराम को सीता स्वयंवर के अवसर पर शिव के धनुष का राम द्वारा तोड़ा जाना असहज और अविश्र्वसनीय प्रतीत हुआ। वे राम की शक्ति से प्रसन्न न होकर राम लक्ष्मण को दंडित करने पर उतारू हो गए। राम के द्वारा उनके क्रोध को शांत करने का हर विनम्र उपाय उन्हें उदंडता लगे। क्षत्रिय चरित्र के अहंकार के कारण उन्हें भृगुवंशी होना, करुणामूर्ति कहा जाना गाली की तरह मालूम हुए।
जो अहंकार परशुराम जैसे महापुरुष के स्वभाव को नष्ट कर सकता है, उसे साधारण मनुष्यों के स्वभाव को नष्ट करने में कितना समय लग सकता है?

व्यवहार बदलने की कला :ध्यान

मेडिटेशन यानी ध्यान हमारे मस्तिष्क को शांत रखने में सहायक है। यह हमें शांत मस्तिष्क के साथ साथ जीवन के विभिन्न आयामों में सफलता की तरफ ले जाता है। तब हम विचलित हुए बिना सफल होते हैं। अगर हमारे मन में शांति नहीं है, तो हमारी सफलता उस फूल की तरह है, जिसमें सुगंध नहीं होती।

हमारे अंदर असुरक्षा की भावना आने के पीछे विगत का असंतोष, वर्तमान का भ्रम और भविष्य के प्रति एक अविश्वास का होना है। किसी भी व्यक्ति को अपने विगत के अनुभव से सीखना चाहिए, वर्तमान का आनंद लेना चाहिए और भविष्य के लिए उसके मन में एक योजना होनी चाहिए। ये तीनों बातें हमारे अंदर की असुरक्षा की भावना को कम करने में सहायक हैं। मनस्थिति की ये अलग अलग अवस्थाएं हैं।

इसका भाव यही है कि अगर अतीत में ही उलझे रहोगे, तो वर्तमान के आनंद से वंचित हो जाओगे। अगर विगत से अनुभव नहीं लोगे, तो जीवन को बेहतर नहीं बना पाओगे, और भविष्य के लिए अगर योजना नहीं होगी तो आगे के सफर में मन में विचलन रहेगा।

यथार्थ जीवन हमारी अंतश्चेतना में समाया रहता है। वह हमारी प्रवृत्तियों में नजर आता है। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि अगर किसी व्यक्ति का मस्तिष्क बिल्ली की तरह है, तो वह बाहरी जीवन के किसी चीज का प्रभाव पड़ने पर बिल्ली की प्रवृति के अनुकूल ही काम करेगा।

इस प्रवृति के लोगों में भी यही व्यवहार देखा जाता है, उन्हें केवल अपने से मतलब होता है। दूसरी प्रवृत्ति कुत्ते की है जो केवल तब तक दुम हिलाता है जब तक उसे प्यार मिलता है। मेडिटेशन हमारे मस्तिष्क की ऐसी प्रवृत्तियों को दूर करता है। मेडिटेशन मस्तिष्क के इस तरह के क्षणिक स्वभाव को दूर करने में सहायक है। मेडिटेशन से हमारा मस्तिष्क स्थिर और शांत होता है। मेडिटेशन की अवस्था के अलग अलग चरण हैं। इसमें आनंद की अवस्था धीरे-धीरे आती है। मेडिटेशन से जब हमारे व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगे तो यह अवस्था कुछ पा जाने की है। मेडिटेशन से विचारों पर तो एकदम प्रभाव पड़ता है, लेकिन महत्व इस बात का है कि मेडिटेशन आपके व्यवहार में भी बदलाव ला दे। यह अवस्था अभ्यास से लाई जाती है। दिमाग की अवस्था हमेशा एक सा होनी चाहिए। हमेशा संतुलन की स्थिति होनी चाहिए। विचलन की स्थिति ठीक नहीं। हमारे दिमागी संतुलन और मस्तिष्क चेतना के लिए मेडिटेशन की पुरानी और आधुनिक पदतियां उपयोगी साबित हुई हैं। इससे दिमागी असंतुलन को दूर करने में मदद मिली है। यह हमें व्यावहारिक रूप से भी सहज बनाता है। उसमें भी एक तरह का संतुलन लाने में सहायक हुआ है।

कलयुग केवल नाम अधारा

संतो व सिद्धों को अपनी गति और नियति का पहले से ही अनुमान होता है। हुनमान भक्त पुरुषोत्तम दास जी भी ऐसे ही संत हैं। सबसे पहले कई दशक पूर्व वे माघ माह में स्नान करने प्रयाग आए, यहीं उनका परिचय कानपुर के अयोध्या प्रसाद शुक्ल और गंगा सागर मिश्र से हुआ। उनकी हनुमत भक्ति और विद्वता से प्रभावित होकर ही दोनों ने उन्हें कानपुर आने का आमंत्रण दिया और पनकी के पंचमुखी हनुमान जी के दर्शन का आग्रह किया।

माघ समाप्त होने के बाद पुरुषोत्तम दास जी कानपुर आए और पनकी स्थित पंचमुखी हनुमान जी के दर्शन किए। पुरुषोत्तम दास जी के मन में काफी दिनों से एक शंका थी कि हनुमान चालीसा की चौपाई 'हाथ वज्र और ध्वजा विराजे' में हुनमान जी का वज्र कहां है? पुरुषोत्तम दास जी की इस शंका का निवारण भी पंचमुखी हनुमान जी के दर्शन के बाद हो गया। उन्होंने अपने एक शिष्य को बताया कि हनुमानजी की कृपा से ही मुझे यह ज्ञान मिला कि वज्र खुद हनुमान जी का हाथ ही है। इसी प्रकार पुरुषोत्तम दास जी के मन में एक शंका यह भी थी कि अगर हनुमान जी शिव जी के अवतार हैं तो पार्वती जी कहां हैं? पंचमुखी हनुमान जी के दर्शन के बाद पुरुषोत्तम जी अपने एक शिष्य से बोले, 'पार्वती जी हनुमान जी के साथ उनकी पूंछ में प्रतिष्ठापित थीं। जब शंकर जी ने विश्वकर्मा से पार्वती जी के लिए लंका का निर्माण करवाया तो गृहप्रवेश के समय रावण को ही उन्होंने अपना आचार्य बनाया था। लेकिन रावण ने शिव जी से दक्षिणा में लंका ही मांग ली। इससे पार्वती बहुत रुष्ट हुईं। शिव जी को पार्वती जी उतनी ही प्रिय थीं जितनी वानर को अपनी पूंछ। अतः शिव जी ने जब हनुमान जी के रूप में अवतार लिया तब पार्वती जी उनकी पूंछ बनी और इसी पूंछ से उन्होंने लंका को जलाकर रावण से अपना बदला लिया।

पुरुषोत्तम दास जी कहते हैं कि कलयुग में प्रभु नाम का स्मरण ही मोक्ष का माध्यम है। प्रभुनाम स्मरण स्वतंत्र साधना है और यह बाह्य आचरण पर निर्भर नहीं है। शायद इसीलिए उन्होंने १३ करोड़ राम नाम के जप का संकल्प लिया था जिसे १२ अक्तूबर १९८५ को पूरा के बाद बिठूर में महाराज घाट पर गंगा में विसर्जित कर दिया।

                                                                                                                                                                                -शशिशेखर त्रिपाठी

समाज-सुधारक थे श्रीमद्‌ शंकरदेव

असम के महान संत श्रीमद्‌ शंकरदेव का जन्म नौगांव जिले के अली पुखरी में १४४९ में हुआ था। उनका जीवन अनेक अनूठी घटनाओं से पूर्ण था। अपने दूरदर्शी प्रयास से उन्होंने अनेक जाति-वर्गों में विभाजित पूर्वोत्तर में भक्ति रस की जो धारा प्रवाहित की और जनसाधारण को कल्याण की राह दिखाई, वह अतुलनीय है।
शंकरदेव के पूर्वज चंडीवर भूइयां पहले बंगाल आकर बसे थे और वहां से असम आ गए थे। उनके वशंजों ने मध्य असम के विभिन्न भागों में भूइयां-राज्यों की स्थापना की थी। शंकरदेव के पिता शिरोमणि भूइयां कुसुंबर अली पुखरी में आकर बस गए थे।
शंकरदेव की माता का नाम सत्यसंधा था। बचपन में ही शंकर को माता-पिता की स्नेह-छाया से वंचित होना पड़ा।
उनका पालन-पोषण दादी खेरसुती ने किया। बारह वर्ष की आयु में शंकर महेंद्र कंदली की संस्कृत पाठशाला में अध्ययन करने लगे। विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन के माध्यम से उनके मन में तत्व-ज्ञान की ज्योति जल उठी। अल्प समय में ही अतुल शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर वे घर लौटे, परंतु उनका मन भक्ति में रम गया था।
आम लोगों की दशा पर उन्होंने ध्यान दिया और अनुभव किया कि भक्ति की राह पर चलकर ही उनको उचित मार्गदर्शन मिल सकता है। परिवार के सदस्यों के आग्रह पर उन्होंने सूर्यावती से विवाह किया। सांसारिक कर्मों से उदासीन होकर वे चिंतन-लेखन में जुट गए। इन्हीं दिनों उन्होंने चिह्न यात्रा नाटक की रचना की और उसका मंचन किया। फिर वे अपने साथियों के साथ बारह वर्षों तक भ्रमण करते रहे। इस दौरान जहां उन्होंने तीर्थ स्थानों की यात्रा की, वहीं कई संतों के संपर्क में भी आए। उन्हें श्रीमद्‌भागवत पर आधारित कृष्ण भक्ति का प्रचार करने की प्रेरणा मिली।

वे ब्रजावली भाषा में भक्ति-पद की रचाना करने लगे। काशी, वृंदावन, मथुरा, जगन्नाथ पुरी, बद्रीनाथ आदि स्थानों की उन्होंने यात्रा की। तीर्थाटन से लौटने के बाद वे ग्रंथ लेखन और भक्ति धर्म का प्रचार करने में जुट गए। उन्हें अनेक शिष्यों के साथ माधवदेव जैसा प्रतिभाशाली शिष्य मिल गया। दोनों जनसाधारण के बीच धर्म का प्रचार करने लगे। ११९ वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर का परित्याग किया।
शंकरदेव मूलतः संत और धर्म प्रचारक-सुधारक थे। उन्होंने समाज-व्यवस्था की त्रुटियों की तरफ ध्यान दिया था। उन्होंने राज्याश्रय प्राप्त तत्कालीन ब्राह्मणों-पुरोहितों का अहंकार देखा, जो जनजातीय लोक-संस्कृति को हिकारत की नजरों से देखते थे। यही वजह है कि इन सब खामियों को दूर करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया।
शंकरदेव की प्रमुख कृतियां विशुद्ध असमिया भाषा में -काव्यः हरिशचंद्र उपाख्यान एवं रुक्मिणी हरण काव्य -भक्ति पद : कीर्तन घोष, भक्ति प्रदीप, गुणमाला ब्रजावली भाषा में - प्रगीत पद- बरगीत - टीकाः शंकरदेव ने भक्ति तत्व संबंधी संस्कृत ग्रंथ भक्ति रत्नावली की टीका भी लिखी थी। अनूदित कृतियां शंकरदेव ने उत्तर कांड रामायण तथा श्रीमद्‌ भागवत के कई स्कंधों का असमिया भाषा में अनुवाद भी किया।
शंकरदेव ने धर्म वंचित, शोषित, अशिक्षित, अंत्यज, शूद्र, जनजातीय जनों को धर्म-ज्ञान देने के लिए संस्कृत भाषा की दीवार तोड़ते हुए जनसाधारण की भाषा में मौलिक कृतियों की रचना की।

                                                                                                                                                                                      - ब्रजमोहन सिंह

23 नवंबर 2011

प्रेम के चार रूप : भक्ति, श्रद्धा, मैत्री और स्नेह

जीवन के दो रूप हैं- स्वार्थ केन्द्रित और पर-केन्द्रित। एक तीसरा रूप है- परमार्थ- केन्द्रित जिसमें स्वार्थ और पर का भेद समाप्त हो जाता है। स्वार्थ- केन्द्रित जीवन भोग है, पर- केन्द्रित त्याग है और परमार्थ- केन्द्रित प्रेम है। भोग में घुटन है, त्याग में कष्ट है, प्रेम में आनंद है।

इसमें प्रेम के चार रूप हैं- भक्ति, श्रद्धा, मैत्री और स्नेह। अस्तित्व- मात्र के प्रति भक्ति है, बड़ों के प्रति प्रेम श्रद्धा है, बराबर वालों से प्रेम मैत्री है और छोटों के प्रति प्रेम स्नेह है। प्रेम के इन चारों ही रूपों में अहंकार का विसर्जन रहता है जिसे हमने अस्तित्व कहा उसे सामान्य भाषा में भगवान् कहते हैं। हम अस्तित्व का एक भाग हैं। इस बोध में भक्तिभाव उत्पन्न होता है। अस्तित्व ही अस्तित्व के लिए कुछ कर रहा है, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। यह भावभक्ति है।

अस्तित्व निराकार है। वह साकार बनता है हमारे परिवेश के रूप में। माता-पिता, गुरूजन भी अस्तित्व का ही रूप हैं। इसलिए इन्हें हम भगवान् ही कहते हैं-
"गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु:, गुरूर्देवो महेश्वर:। गुरू: साक्शात्परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।"
गुरूजनों के प्रति यह श्रद्धा हममें नमनीयता लाती है, ग्रहणशीलता लाती है। हम ग्रहणशील होते हैं तो कुछ सीख पाते हैं- 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्'। उद्दण्ड व्यक्ति कुछ नहीं सीख पाता। श्रद्धा में झुकना पड़ता है तो अहंकार छोड़ना पड़ता है। बराबर वालों से मैत्री होती है| मैत्री में परायापन नहीं होता। जिस रहस्य को हम किसी से नहीं कह सकते उसे मित्र से कह कर मन हल्का कर लेते हैं। मित्रता में अद्वैत रहता है। यह अद्वैत भी भगवान् का ही एक रूप है। अर्जुन की श्रीकृष्ण से मैत्री थी तो उसके लिए श्रीकृष्ण भगवान् ही बन गये।

अपने से छोटों के प्रति प्रेम स्नेह कहलाता है। यही वात्सल्य-रस है। हमारे यहाँ एक शब्द प्रचलित है- बाल-गोपाल। अर्थ यह है की छोटे बच्चे भी भगवान् का ही एक रूप हैं। वे सब कार्य नि:स्वार्थ-भाव से करते हैं। वे सरल होते हैं। उनमें अपने पराये का भेद नहीं होता। साधना का उत्कृष्ट रूप यह है की व्यक्ति बच्चा बन जाये। इस प्रकार प्रेम नर में ही नारायण की प्रतिष्ठा कर देता है। सेवा, त्याग, तपस्या आदि नैतिकता के शब्द हैं; प्रेम अध्यात्म का शब्द है। नैतिकता में दबाव रहता है कर्तव्य-भावना का। प्रेम में कोई दबाव नहीं होता।

अहंकार का पत्थर हटे तो प्रेम का झरना फूट सकता है। प्रेम ही ज्ञान है- 'ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।' प्रेम ही जीवन है। प्रेम के बिना व्यक्ति का सांस लेना ऐसा ही है जैसा लोहार की धौंकनी का चलना।

जीवन जीने की कला : जरा रखिये सकारात्मक सोच

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धैर्य और आशा के साथ अपने प्रेरणा पूर्ण नवाचारों के माध्यम से लक्ष्य प्राप्ति के दृष्टिकोण को पूरा करने में समर्थ एवं सफल होने को ही सकारात्मक सोच कहा गया है।

सकारात्मक सोच क्यों-
इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है, और चेतना के विकास के साथ ही मानव ने प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया जो अन्य जातियां नहीं कर सकी, और उन्हीं प्रश्नों को पूरा करने की चाह में आज हम कहाँ आ पहुंचे हैं।
आज प्रत्येक व्यक्ति की परम इच्छा होती है की लोग उसकी प्रशंसा करें, उसके कार्य को सराहा जाए, उससे मिलना एवं बात करना पसंद करें, और यही प्रश्न वह अपने आप से पूछता है की मैं अपने आप में ऐसा क्या आकर्षण निर्मित करूँ कि मेरे प्रश्नों का हल प्राप्त हो जाए।
आकर्षण का नियम जीवन का महान रहस्य है।
आकर्षण का नियम कहता है कि सामान चीजें, सामान चीजों को आकर्षित करती हैं, इसलिए जब आप एक विचार सोचते हैं तो आप उसी जैसे अन्य विचारों को अपनी और आकर्षित करते हैं।
विचार चुम्बकीय है और हर विचार की एक फ्रिक्वेंसी होती है, जब आपके मन में विचार आते हैं तो वे ब्रह्माण्ड में पहुँचते है और चुम्बक की तरह उसी फ्रिक्वेंसी वाली सारी चीजों को आकर्षित करते हैं। हर भेजी गयी चीजें स्त्रोत तक यानी आप तक लौटकर आती हैं।
आप मानवीय ट्रांसमिशन टाँवर की तरह हैं और अपने विचारों की फ्रिक्वेंसी प्रसारित कर रहें हैं, अगर आप अपनी जिंदगी में कोई चीज बदलना चाहते हैं तो अपने विचार बदलकर फ्रिक्वेंसी बदल लीजिये।
आपके वर्त्तमान विचार आपके भावी जीवन का निर्माण कर रहे हैं। आप जिसके बारे में सबसे ज्यादा सोचते हैं, या जिस पर सबसे ज्यादा ध्यान केन्द्रित करते हैं, वह आपकी जिंदगी में प्रकट हो जाएगा।

आपके विचार वस्तु बन जाते हैं-
आपके विचार वस्तु कैसे बन जाते हैं, आपको बताना चाहूंगा इस कहानी से: अफ्रीका का एक कबीला जिसके बारे में कहावत थी कि वे जब भी डांस करते हैं, बारिश होती है, तब उनसे इसका राज जाना गया तो पता चला कि वो तब तक डांस करते हैं जब तक वर्षा नहीं हो जाती।

सकारात्मक सोच कैसे-
वजन कम करने के लिए वजन कम करने पर ध्यान केन्द्रित न करे। इसके बजाय अपने आदर्श वजन पर ध्यान केन्द्रित करें। अपने आदर्श वजन की संभावनाएं महसूस करेंगे तो आप इसका आह्वान करके इसे अपनी और आकर्षित कर सकेंगे।
आकर्षण के नियम की शक्ति महसूस करने के लिए छोटी चीजों से शुरूआत करें, सफलता मिलने पर बड़ी चीजों की कल्पना करने लगेंगे। उम्मीद एक प्रबल आकर्षण शक्ति है उन चीजों की उम्मीद करें जिन्हें आप चाहते हैं उन चीजों की उम्मीद न करें, जिन्हें आप नहीं चाहते है। आकर्षण के नियम का लाभ लेने के लिए इसे सिर्फ एक बार की घटना न बनाकर इसको आदत में शामिल कर लें।
हंसी, खुशी को आकर्षित करती है। नकारात्मक को नष्ट करती है और चमत्कारिक इलाज की और ले जाती है क्योंकि खुशी के साइड इफेक्ट्स पर किये गये शोधों में पाया गया है कि खुश लोग ज्यादा सफल होते हैं, क्योंकि खुश लोग -
-    मजबूत रिश्तों का आनंद उठाते है।
-    कम बीमार पड़ते है।
-    उम्मीद हमेशा ज़िंदा रखते है।
-    बुरे अनुभवों से जल्दी उभर जाते है।

महत्वपूर्ण बातें -
-     आप अपने आपको अभी अच्छा महसूस करें।
-     काम को इस तरीके से करे जिससे आप खुशी महसूस करें, जिससे खुशियाँ आपकी तरफ दौड़ी आयेंगी।
-     आलोचना करने से कभी कोई सुधरता नहीं अलबत्ता सम्बन्ध जरूर बिगड़ जाते हैं।

लोगों को प्रभावित करने के मूल तरीके -
-     बुराई मत करों, निंदा मत करो, शिकायत मत करो।
-     सच्ची तारीफ़ करने की आदत डालिये।
-     सामने वाले आदमी में प्रबल इच्छा जगाइये।

लोगों का चहेता बनने के तरीके -
-     दूसरे लोगों में सचमुच रुचि लें।
-     मुस्करायें।
-     याद रखें किसी व्यक्ति का नाम उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण और मधुरतम शब्द होता है।
-     बोलने वाले सबकी पसंद नहीं होते किन्तु सुनने वाले सबको भाते हैं, अच्छा श्रोता बनाने का प्रयास करें।
-     सामने वाले व्यक्ति की रुचि के विषय में बात करें।
-     सामने वाले व्यक्ति के महत्वपूर्ण होने का अहसास करायें और ईमानदारी से करायें।
-     गलती मानने का अर्थ यह है कि अब आप पहले से बेहतर है।

लोगों से अपनी बात कैसे मनवायें -
-     बहस से एक ही फायदा हो सकता है और वह है इससे बचना।
-     दूसरे व्यक्ति के विचारों के प्रति सम्मान दिखाएँ और यह कभी नहीं कहे- "आप गलत है"
-     अगर गलती आपकी हो तो तत्काल और पूरी तरह अपनी गलती मान लें।
-     बातचीत दोस्ताना तरीके से शुरू करें।
-     सामने वाले से तत्काल हाँ हाँ कहलवाने का प्रयास करें।
-     सामने वाले आदमी को ज्यादा बातें करने दें।
-     दूसरे व्यक्ति को यह लगने दे कि यह विचार उसी का है।
-     ईमानदारी से सामने वाले व्यक्ति का नजरिया समझने की कोशिश करें। सामने वाले व्यक्ति के विचारों और इच्छाओं के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने का प्रयास करें।
-     तारीफ़ और सच्ची प्रशंसा से बात शुरू करें।
-     लोगों की गलतियाँ सीधे तरीके से न बतायें।
-     किसी की आलोचना करने से पहले अपनी गलती बतायें।
-     सीधे आदेश देने की बजाय प्रश्न पूछना अधिक बेहतर होगा।
-     थोड़े से भी सुधार की तारीफ़ करें और हर सुधार पर तारीफ़ करें।
-     सामने वाले व्यक्ति को कई काम इस तरह सौपें कि वह आपका कहा काम खुशी से कर दें।

यदि यह सब अपने दैनिक जीवन में कर सकें तो अच्छा होगा।
                                                                                                                                                                          - कपिल, अलवर

08 नवंबर 2011

आत्माएं भटकती क्यों है?

जी हां!...कुछ लोगों को आत्माओं से साक्षात्कार हुआ है!....कहतें है कि मनुष्य का शरीर नष्ट हो जाता है, लेकिन आत्मा नष्ट नहीं होती!....कुछ आत्माओं को पुनर्जन्म प्राप्त नहीं होता!...उनकी मुक्ति हो जाती है...वह आत्माएं ईश्वर रुपी शक्ती में विलीन हो जाती है!...उन्हे पुण्यात्मा कहा जाता है!...ज्यादातर आत्माएं एक शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है!...आत्मा को कभी पिछ्ले जन्म की याद नही रहती!....कुछ आत्माओं को रह जाती है...नया जन्म लेने के बाद भी पिछ्ले जन्म की कहानी कहने वाले लोग मिल जातें है!...ये लोग अपने पिछ्ले जन्म के ठिकाने...गांव या शहर का नाम भी बताते है...उनकी मृत्यु कैसे हुई थी यह भी बताते है!...अपने पिछ्ले जन्म के घर का पता भी बताते है....उनके माता-पिता और भाई बहनों को ...अगर वे जिंदा है तो पहचान भी लेते है!...पिछ्ले जन्म के लोगों की फोटोएं भी पहचान लेते है!....कुछ लोगों को तो अपने पिछ्ले तीन से चार जन्मों की याद होने के उदाहरण मिले हुए है!

हां..कुछ आत्माओं को नया शरीर प्राप्त नहीं होता....और वे भटकती रहती है!...ऐसी आत्माएं दुष्ट्ता पर उतर आती है!...मौका मिलते ही किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में घुस कर उसे और उससे जुडे हुए अन्य मनुष्यों को तकलीफ देती है!...धन का नाश करती है...बिमारियां फैलाती है...गंदगी के ढेर लगाती है..कुछ आत्माएं तो जान से मार कर ही किसी शरीर को छोडती है!

कुछ आत्माएं बिना शरीर में दाखिल हुए भी किसी रासायनिक पदार्थ का इस्तेमाल करती है....और टेढे मेढे स्वरुप में दिखाई देती है!...उन्हे देख कर लोग डर जाते है!...पुराने आवासों मे या खंडहर या टूटे-फूटे मकानों मे बसना इन्हें अच्छा लगता है!....मनुष्य को छोड कर अन्य प्राणी इनके अस्तित्व को तुरन्त पहचान जाते है....विशेषतः कुत्ते इनकी उपस्थिति पहचान जाते है, और भौंकना शुरु कर देते है...आपने देखा होगा बिना किसी वजह के भी कुत्ता भौंकता है!....ऐसे में समझ लीजिएगा की भट्कती आत्मा वहां घूम रही है!...ऐसी आत्माओं को वहां से भगाना बहुत जरुरी हो जाता है!

देखा गया है कि कुछ भटकती आत्माएं अच्छी भी होती है और किसी की जान भी बचाती है!..बडे बडे हादसे होने वाले होते है...तब भी अच्छी आत्माएं कुछ न कुछ संकेत दे कर आने वाले संकट से हमें अवगत कराती है!...मुझे भी ऐसा ही संकेत एक आत्मा ने दिया था..उसने होने वाले ट्रेन एक्सिडैंट से मुझे आगाह कर दिया...और मेरा बचाव हो गया!..उसने ट्रेन में मौजूद अन्य लोगों को भी आगाह किया था...लेकिन वे उसका संकेत समझ नहीं पाए और जान से हाथ धो बैठे!

इस बात पर विश्वास करना चाहिए कि....अगर भगवान होता है, तो आत्माएं भी अच्छी और बुरी, दोनों तरह की होती है, जिन्हें हम भूत कहतें है!

भगवान् बुद्ध की देशना - जीवन के चार आर्य सत्य


भगवन बुद्ध ने संसार को जीवन के चार आर्य सत्य दिए हैं। भगवान् की यह देशना सर्वकालिक है। वे ढाई हजार वर्ष पूर हुए पर उनके बताये हुए मार्ग उस समय भी सटीक थे, आज भी हैं और जब तक मनुष्य है तब तक रहेंगे। उन्होंने मनुष्य के स्वभाव और चेतना की बात की है- श्रद्धा पर नहीं पर विज्ञान पर आधारित कर। उन्होंने एक जीवन विज्ञान दिया, दर्शन शास्त्र की बात ही नहीं की मात्र रोग व मोचिकित्सा की बात की है। किसी और पर आश्रित होने को नहीं कहा परन्तु स्वयं के जागरण व होश को महत्व दिया। इशारे दिए और मार्ग स्वयं ढूँढने को कहा। उनका सारा जोर इस बात पर था की मनुष्य की पीड़ा कैसे दूर हो, उसमें कैसे रूपांतर आए और वह स्वयं ही आनंद रूपी स्वभाव की पहचान कर सके।

इसके लिए भगवान् बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की घोषणा की
1.  दुःख है, मनुष्य दुखी है।
2.  मनुष्य के दुःख का, उसके दुखी होने का कारण है क्योंकि दुःख अकारण तो होता नहीं।
3.  दुःख का निरोध है दुःख के कारणों को हटाया जा सकता है। दुःख के मिटाने के साधन है, वे ही आनन्द को पाने के साधन है।
4.  दुःख निरोध की अवस्था है। एक ऐसी दशा है जब दुःख नहीं रह जाता, दुःख से मुक्त होने की पूरी संभावना है।

जीवन में दुःख है
भगवान् बुद्ध ने कहा जीवन में दुःख है, जीवन ही दुःख है इसलिए कि मनुष्य दुःख में पडा है और उसे दुःख दिखाई नहीं देता। बुद्ध कहते हैं, जन्म दुःख है, जवानी दुःख है, मित्रता दुःख है, प्रेम दुःख है, रोग दुःख है, सम्बन्ध दुःख है। असफलता तो दुःख है ही सफलता भी दुःख है। लगता है की बुद्ध महादुखवादी है। यों भी तो कहा जा सकता था कि जीवन आनन्द है, आनन्द के उपाय हैं, आनन्द पाया जा सकता है, आनन्द की एक दशा है। यह पूर्णता की स्थिति है, यह दुःख निरोध की स्थिति है। तो प्रश्न उठता है कि बुद्ध ने नकारात्मक पहलू क्यों चुना? कारण साफ़ है। दुःख तो सबने जाना है, आनंद किसने जाना है। जिससे साक्षात्कार ही नहीं हुआ, जिसको जानते ही नहीं, कोई परिचय नहीं उससे बात आरम्भ करें तो समझ में कैसे आए, आरम्भ तो अनुभव पर आधार बनाकर किया जा सकता है। जीवन दुःख है, यह तो जीवन का तथ्य है, इससे कौन इनकार करेगा। दुःख से हर कोई मुक्त होना चाहता है। बुद्ध जीवन की निंदा नहीं कर रहे हैं वे तो इतना ही कह रहे हैं कि जो जीवन का ढंग है, वह दुःख है। जीवन में लोग दुःख रोग से ग्रस्त हैं। वे रोग से परिचय करा रहे हैं फिर वे रोग के कारण समझाते हैं, रोग से छुटकारे के लिए औषधियां बताते हैं और रोग से मुक्त हुए लोगों की दशा से परिचित कराते हैं। वे यह सब करूणा के कारण कह रहे हैं कि जीवन दुखों का घर बना है अपनी जीवन पद्वति के कारण। वे तो जीवन का यथार्थ बता रहे हैं ताकि वह चुभने लगे, फिर उसे दूर करने का उपाय करें जिससे महासुख मिले, आनन्द की प्राप्ति हो।

दुःख का कारण है
भगवान् बुद्ध आनन्द की बात नहीं करते। वे तो कहते हैं की दुःख पैदा करने के आयोजन छोड़ दो, आनन्द तो अपने आप हो जाएगा क्योंकि आनन्द तो मनुष्य का स्वभाव ही है। आनद तो है ही, उसे पाना थोड़े ही है। दुःख न रहे तो आनन्द तो स्वतः ही हो जाएगा। व्यक्ति सोचता है कि जब आनन्द मौजूद ही है तो उसे पाने की ही कोशिश करें। परन्तु आनन्द मिलता नहीं दुःख को मिटाए बिना। आनन्द की खोज में वह दुःख को भूल जाता है। दुःख के रास्ते पर चलता है और आनन्द की कामना करने लगता है। बीमारी के कारण बने रहें तो स्वास्थ्य की कामना का कोई परिणाम नहीं होता। अतः बुद्ध कहते हैं कि स्वास्थ्य पाना है तो बीमारियों के कारण ढूंढों और उन्हें हटाओ तभी स्वास्थ्य घटेगा। बुद्ध की देशना में सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने कोई सीधे कारण नहीं बताये, इशारे किये और महत्वपूर्ण बात कही- 'अप्प दीपोभाव' अपने दीये स्वयं बनो। उन्होंने कहा- आकाशे च पदं नत्थि, समणों नत्थि बाहरे- आकाश में पथ नहीं होता और जो बाहर की तरफ दौड़ता है वह ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता। इसीलिये तो बुद्ध के मार्ग में ध्यान पर सबसे अधिक जोर है, होश पर सबसे अधिक जोर है। ध्यान में जितनी निर्विचार की स्थिति आएगी, उतना ही आनद स्पष्ट होने लगेगा। धीरे-धीरे यह स्पष्ट होगा कि जो सुख, आनन्द संसार में खोजा तो नहीं मिला पर ध्यान के घंटे, आधे घंटे में प्रकाश की छोटी-छोटी किरणों ने जीवन दृष्टि में बदलाव आरम्भ कर दिया। दुःख के कारणों पर दृष्टि पडी तो इलाज आरम्भ हुआ।

दोष युक्त मन
भगवान् बुद्ध ने कहा है- यदि कोई दोष युक्त मन से बोलता है या कर्म करता है तो दुःख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाडी का चक्का खीचने वाले बैलों के पैर का। यदि मन में किसी को दुःख देने का भाव उठता है तो बीज गिर रहा है। बीज बड़ा होकर वृक्ष बनेगा और उस पर फल लगेगा तो भोगना भी उसे ही पडेगा। अक्सर जब दुःख आता है तो व्यक्ति सोचता है कि कोई दूसरा उसके लिए दुःख उत्पन्न कर रहा है- पत्नी, पति, पुत्र, पिता, मित्र, समाज आदि। पर बुद्ध कहते हैं कि दुःख के कारण व्यक्ति के मन में होते हैं, बाहर खोजने गए तो गलती हो गई। वे कहते हैं कि यदि कोई गाली दे तो तुम उसे स्वीकार ही मत करो। दोष उसका है, क्रोध करके तो हम अपने को दंड देते हैं। जब हम किसी चीज को भीतर ले लेते हैं तब ही वह सक्रीय होती है। दूसरे से न लें, भीतर न उतरने दें तो फिर दुःख का कोई कारण नहीं होगा। सारी बात मन की है, उसकी व्याख्या की है, सब इसी पर निर्भर होता है।

इसीलिये बुद्ध कहते हैं कि जितनी हानि द्वेषी की या बैरी बैरी की करता है, उससे अधिक बुराई गलत मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है। वे कहते हैं कि दुश्मन से डरने की जरूरत नहीं है, चित्त से डरना चाहिए क्योंकि गलत दिशा में जाता हुआ चित्त ही हानि पहुंचाता है। ठीक दिशा में जाने वाला चित्त तो मित्र होता है अतः चित्त से सावधान होने की जरूरत है। गलत मार्ग पर ले जाने वाला चित्त व्यक्ति को सब दिशाओं में भटकाता है, स्वयं को भीतर की खोज का साधन नहीं बनने देता, वह स्वयं को अकेला नहीं होने देता। चित्त यदि भीड़ से हट जाए, स्वयं में केन्द्रित हो जाए तो दुःख का कारण ही समाप्त हो जाता है।

सुख, दुःख व्याख्या पर निर्भर
सुख और दुःख देखने पर निर्भर ही, दृष्टि पर निर्भर है। ये सब अपनी व्याख्याएं हैं। एक बात किसी के लिए सुख हो सकती है, वही दूसरे के लिए दुःख की। उसी बात में कोई व्यक्ति निरपेक्ष रह सकता है, न दुःख अनुभव करे, न सुख। यह भी हो सकता है कि जो आज सुख लग रहा है, कल दुःख हो जाए। इसके विपरीत भी हो सकता है। यदि जीवन का ठीक ठीक निरीक्षण हो तो निश्चय ही ज्ञात हो जाता है कि जीवन में जो कुछ भी हम अनुभव करते हैं, दुःख या सुख, सब हमारी व्याख्याए हैं। व्याख्याए बदली नहीं कि जीवन दूसरा हो जाता है। व्याख्याए अपनी है, हर व्यक्ति उसे बदलने में स्वतंत्र है, किसी और का कोई बंधन नहीं है।
भगवान् बुद्ध ने धम्मपद में कहा है ससुखं वतजीवाम  वेरिनेसू स्वेरिनोवेरिनेसू मनुस्सेसू विहराम अवेरिनो।। अर्थात वैरियो के बीच अबैरी होकर, अहो हम सुख पूर्वक जीवन बिता रहे हैं। बैरी मनुष्यों के बीच अबीरी होकर हम विहार करते हैं। यह गाथा बुद्ध ने एक विशेष अवसर के कारण कही। इसके पीछे सूत्र के जन्म की कथा है। शाक्य और कोली राजाओं में रोहिणी नामक नदी के पानी को रोक कर दोनों जनपदवासी खेतों की सिंचाई करते थे। एक बार ज्येष्ठ मास में फसलों को सूखते देखकर दोनों जनपदवासी पहले अपने खेतों को सींचना चाहते थे अतः दोनों और के नौकरों में झगडा हो गया। इस झगड़े की खबार दोनों और के मालिकों को मिली तो दोनों सेना को साथ लेकर युद्ध करने को आ गए। भगवान् बुद्ध रोहिणी नदी के तट पर ही ध्यान करते थे। उन्हें जब यह खबर मिली तो वे युद्ध को तत्पर दोनों सेनाओं के मध्य आए।

भगवान्  को देखकर शाक्य और कोलियों ने हथियार फ़ंड कर वन्दना की। भगवान् बुद्ध ने दोनों राजाओं को कहा-यह किस बात का झगड़ा है। राजाओं ने कहा कारण हम नहीं जानते। भगवान ने पूछा, फिर कारण कौन जानता है ? सेनापतियों को शायद पता हो। सेनापतियों ने उपसेनापतियों की और इशारा किया, उपसेनापतियों ने सैनिकों के प्रति और बात फिर नौकरों तक पहुँची। नौकरों ने कहा-भगवान पानी के कारण। बुद्ध ने कहा पानी तो सदा से बहता है, पानी के कारण नहीं हो सकता। नौकरों ने कहा पहले कौन उपयोग करे। बुद्ध ने कहा, पहले के कारण पानी के कारण नहीं।

बुद्ध हँसे। शाक्य व कोलियों के प्रधानों से पूछा पानी का क्या मूल है और मनुष्यों का क्या मूल्य है। उन्होंने कहा, पानी का तो नाम मात्र मूल्य है और मनुष्य अमूल्य है। बुद्ध ने कहा, फिर सोचो, नाम मात्र के मूल्य के लिए अमूल्य को मिटाने चले हो, असार के लिए सार को गंवाते हो।

दृष्टि बदल गयी तो सब बदल गया। व्याख्या बदल गयी तो सब बदल गया।

सुख-दुःख स्वयं के
साधारणतया धारणा यह रहती है की दूसरे दुःख दें रहें हैं। इसका यह भी अर्थ है की दूसरे ही सुख देंगे। बुद्ध के जीवन की एक घटना है। बुद्ध को किसी ने गालियाँ दी। बुद्ध ने कहा तेरी बात पूरी हो गयी हो तो जाऊं। उस व्यक्ति ने कहा, बात नहीं है, हम तो गालियाँ दे रहे हैं। बुद्ध ने कहा, मेरे लिए बात ही है, तुम्हारे लिए गाली होगी। यदि तुम दस साल पहले आते तो यह मेरे लिए गाली थी। अब मैं दूसरों की भूलों के लिए अपने को दंड नहीं देता, दुःख नहीं पाता। गाली दे रहे हो तो तुम जानो, हम बीच में आते ही नहीं। वह व्यक्ति गया पर रात भर नहीं सो सका। वह सुबह माफी माँगने आया। बुद्ध ने कहा, जो हमने ली ही नहीं, उसके लिए क्षमा कैसे करें। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। दुखी होना चाहें तो यह घटना काफी है पर यदि इस पर भी प्रसन्न रहना चाहें, दुखी न हों तो कोई दूसरा बाधा नहीं डाल सकता। सीधा सा अर्थ है कि कोई दूसरा न तो दुःख दे सकता है, न सुख। हम स्वयं अपने मालिक बनें तो कोई दूसरा दुःख दे ही नहीं सकता। दरअसल दूसरे के हाथ में चाबी दे दें, दूसरों के हाथ में खेलें, अपना बटन दूसरों को दबाने दे, तभी दूसरा दुःख दे सकता है।

एक बाहर का पहलवान गाँव में आया। दंगल हुआ गाँव के पहलवान से वह हार गया। लोग उसकी हार पर हंसने लगे, तालियाँ बजाने लगे तो हारा हुआ पहलवान भी जोर-जोर से हंसने लगा। लोगों की हंसी रूक गयी और आश्चर्यचकित हुए कि यह हारा हुआ पहलवान इतना क्यों हंस रहा है। उस पहलवान ने कहा कि हम भी देख रहे हैं, बड़े पहलवान बने फिरते थे, खूब हुई चारों खाने चित्त। वह पहलवान तो था ही, पर उससे ज्यादा उसकी फकीरी थी, मस्ती थी। वह दूसरों के कारण सुखी, दुखी नहीं हुआ, गुलाम नहीं बना।

सुख की आशा से दुःख
दुःख आता है सुख की आशा से। सुख की आशा भी अपने निकटतम से ही होती है। पति से होती है, पत्नी से होती है, पुत्र से होती है। यदि कोई औरत बिना देखे निकल जाए तो दुःख नहीं होता परन्तु यदि पत्नी बिना देखे निकल जाए तो दुःख होता है। यदि किसी का बेटा अपने को सम्मान न दे तो दुःख नहीं होता परन्तु अपना बेटा सम्मान न दे तो दुःख होता है तो बेटा दुःख देता है, पत्नी दुःख देती है, पति दुःख देता है। मित्र दुःख देते हैं अर्थात जो निकट हैं वे दुःख देते हैं क्योंकि जो निकट हैं उनसे उतना ही सुख मिलता है। मिलता तो नहीं है पर आभास होता है। जिससे सुख की आशा की जाती है उसी से दुःख मिलता है।

दुःख अपेक्षा से मिलता है। जितनी बड़ी सुख की उपेक्षा होती है, उतनी ही टूटती है। अपरिचित से उपेक्षा नहीं होती इसलिए दुःख भी नहीं होता, दुःख तो परिचितों से ही मिलता है। यदि उपेक्षा छोड़ दी जाए, सुख न माँगा जाए तो कोई दुःख नहीं होता। न बाहर से सुख आता है, न बाहर से दुःख आता है। दुःख सुख की उपेक्षा का ही परिणाम होता है। लाओत्से ने कहा, मैंने कभी सम्मान चाहा ही नहीं तो मेरा अपमान कैसे हो सकता है।

दुःख से छुटकारा पाने के लिए बुद्ध ने उपेक्षा एक कारगर उपाय बताया है। उपेक्षा का अर्थ है, न दुःख मिलता है, न सुख मिलता है। कोई उपेक्षा नहीं रखी का अर्थ उपेक्षा है। उपेक्षा में जीने वाले को न कोई चीज दुःख दे सकती है और न सुख। यह तो साक्षी भाव से जीता है वह दोनों की समदृष्टि से देखता है।

दुःख न देने तो स्वतः सुख
दुःख मनुष्य का मूल स्वाभाव नहीं है अतः वैसा घटने पर तकलीफ होती है, अच्छा नहीं लगता। यह किसी एक व्यक्ति के साथ नहीं सभी व्यक्तियों के साथ होता है। इसी कारण सभी धर्मों में कहा गया है कि ऐसा कोई व्यव्हार दूसरों के साथ मत करा करो जो स्वयं दूसरे से अपने साथ नहीं चाहो। सीधा सा अर्थ यह है कि ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे दूसरे को दुःख पहुंचे। विश्व के सभी प्राणी सुख से रहना चाहते हैं पर साधारण मनुष्य अपने लिए अलग नियम बनाता है और दूसरों के लिए अलग। वह चाहता है कि चाहे सारे संसार को दुःख मिले तो भी मैं सुख चाहूंगा। दूसरे को दुःख देगा अपने सुख के लिए। प्रकृति का नियम है कि जो देंगे वही लौटेगा। अस्तित्व में कोई सीमा नहीं है सभी एक दूसरे से जुड़े हैं पर गहरी दृष्टि नहीं होने पर सभी अलग-अलग लगते हैं। जो किसी को दुःख देगा, दुःख उसी पर लौट आएगा। इसलिए तो सभी वेड कुरआन, बाइबिल, धम्मपद आदि में सभी ने एक ही स्वर्ण नियम दिया है- जो तुम अपने लिए चाहते हो उससे अन्यथा दूसरे के लिए मत करना।

पर मनुष्य का स्वभाव अलग ही है। वह अपने निकटतम व्यक्ति पुत्र, पुत्री या अन्य पर अत्याचार भी करता है तो इस नाम से कि वह उसके भले के लिए कर रहा है। आकान्शाओं से दूसरे का जीवन सुखद नहीं होता पर दुःख पहुंचाया जाता है, सुख का लेबल लगाकर। हिंसा इतनी गहन है कि दूसरे को सुख देने के नाम पर भी कोई सता सकता है, किसी को दुःख दे सकता है। इसी कारण भगवान् बुद्ध ने कहा- अतानं उपमं कत्वा न हत्रेय न घातये। अर्थात अपने सामान ही सबको जानकार न मारे न किसी को मारने की प्रेरणा दें। उन्होंने कहा कि यदि दूसरों को दुःख नहीं दिया तो अपने जीवन में फूल खिलने शुरू हो जाएंगे क्योंकि जीवन ऐसा है कि जो दुःख नहीं देता तो सुख अपने आप हो जाता है।

 दुःख भोगने से सुख का अहसान
भगवान् बुद्ध ने कहा कि जो बाल्यावस्था में ब्रहमचारी का पालन नहीं करते और युवावस्था में धन नहीं कमाते वे वृद्धावस्था में चिंता को प्राप्त होते हैं। बड़ा अजीब लगता है कि बुद्ध कहे कि धन कमाए अर्थात मह्त्वकांशा हो, पद हो, धन एकत्रीटी करें अर्थात जो व्यक्ति है उसको भी इकट्ठा करें। एक यहूदी रबाई से एक गरीब आदमी ने आकर कहा कि मई बहुत दुखी हूँ, मुझे मरने का आशीर्वाद दें। उसने कहा कि जीना नरक हो गया है। एक छोटा सा कमरा है, वर्षा में पानी टपकता है। उसमें ही मैं, मेरी पत्नी, दो बच्चे, मेरी सास और ससुर रहते हैं। उसी में मेरे पिता व मेरी माँ। हिलने डुलने की भी जगह नहीं है, ऊपर से चिडचिडे व क्रोध भरे। नया मकान लेने की भी सामर्थ्य नहीं। नरक है, मरने की आगया दे दें। बूढ़े रबाई ने कहा, तुम्हे रोकूंगा नहीं, केवल सात दिन रूक जाओ। उसने कहा तुम्हारे पास कितने जानवर है. उसने कहा, एक कुत्ता, छह बकरिया, एक गाय और एक बछडा। रबाई ने कहा ऐसा करो कि इन सबको भी कमरे में ले आओ। उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि यों ही मरे जा रहे है, इन्हें लेकर तो खड़े रहने की भी जगह नहीं रहेगी। उस रबाई ने कहा, सात ही दिन का मामला है, फिर तुम मर जाना, इतना तो मान लो। सारी जिन्दगी तुमने मेरी बात मानी मरते वक्त तो न टालो। उस व्यक्ति ने कहा कि ऐसे तो सात दिन ज़िंदा ही नहीं रहूँगा। बूढ़े ने कहा कोई चिंता नहीं जब मरना ही है तो मरने की क्या फिकर।

घर जाकर उसने सारी बात बताई। सभी ने विरोध किया। वे भी रबाई के पास गए। रबाई ने कहा कि हाँ मैंने ही कहा है, करने दो। जब रबाई कहता है तो करना पड़ता है। ले लिया सबको अन्दर। सात दिन माह नरक के थे। सात दिन बाद वह व्यक्ति आया। रबाई ने कहा, अब मरने के पहले उन सबको घर के बाहर कर दे। उसने घर के बाहर कर दिया। रबाई ने दो-तीन दिन प्रतीक्षा की। वह आदमी लौटा नहीं तो रबाई उसके घर गया। कहा, क्या मामला है, मरना नहीं है? उसने कहा, कमरा वही है, अब इतनी जगह मालूम होती है, ऐसा आनद कभी जाना भी नहीं था, सब में प्रेम भाव भी बढ़ गया है। अब कौन मरता है, तुम्हारी कृपा है।
दुःख सघन हुआ, फिर अनुभव हुआ सुख की जैसी स्थिति में थे। यहाँ दुःख ने भी दिशा दी, सुख का अहसास कराया। जीवन में दुःख भी जरूरी है, सुख के आभास के लिए।

दुःख का निरोध है
भगवान् जेतवन में ठहरे थे। उनके साथ पांच सौ भिक्षु भी ठहरे थे। व आसंशाला में बैठे रात्री को बाते कर रहे थे। उनकी बात साधारण जनों जैसी थी। भगवान् मौन बैठे उन्हें सुन रहे थे। वे बातों में इतने तल्लीन थे कि भगवान् को भूल ही गए थे। कोई कह रहा था कि अमुख गाँव का मार्ग बड़ा सुन्दर है, अमुक गाँव का मार्ग बड़ा खराब है। अमुख मार्ग पर छायादार वृक्ष है, स्वच्छ सरोवर भी है और अमुक मार्ग बहुत रूखा है, उससे भगवान् बचाए। और कोई कह रहा था कि अमुक राजा भी अद्भुत व नगर सेठ भी अद्भुत बड़ा दानी। फलां नगर का राजा भी कंजूस और नगरसेठ भी कंजूस वहां तो कोई भूल कर पैर नहीं रखे। इस प्रकार की कई बातें हो रही थे। भगवान ने यह सब सुना। चौके भी, हँसे भी। भिक्षुओं को पास बुलाय। उन्हें कहा कि भिक्षु होकर भी बाह्य मार्गों की बात करते हो। समय थोड़ा है और करने को बहुत है। बाह्य मार्गों पर जन्म जन्म भटकते रहे हो, अब भी थके नहीं। अंतर्मार्गों की सोच। सौन्दर्य तो अंतर्मार्गों में है। शरण भी खोजनी हो तो वहा खोजो क्योंकि दुःख निरोध का वही मार्ग है। उन्होंने कहा कि भिक्षुओं मग्गानुट्ठगिको सेट्टो-यदि श्रेष्ठ मार्ग की बात करनी है तो आर्य अष्टान्गिक मार्ग की बात करो। यह तुम किन मार्गों की बात करते हो। तब उन्होंने गाथा कही उर कहा कि भीतर आने के बहुत मार्गों में आठ अंगों वाला मार्ग श्रेष्ठ है।

भगवान् बुद्ध ने दुःख निरोध के आठ सूत्र दिए। पहला, सम्यक दृष्टि अर्था जैसा है, वैसा ही देखना अपनी धारणाओं को बीच में लाकर नहीं देखना। आँख निर्दोष हो जैसे दर्पण खाली हो। यदि दर्पण पर धुल पडी हो कोई रंग लगा हो कोई पक्ष पडा हो तो जैसा सत्य है, वैसा दिखाई नहीं पड़ता। सम्यक दृष्टि का अर्थ है सभी दृष्टियों से मुखत निष्पक्ष।

दूसरा सूत्र सम्यक संकल्प। इसका अर्थ है कि जो करने योग्य है वह करना और उस पर पूरा जीवन लगा देना। करना किसी अहंकार के कारण न हो, वही सम्यक संकल्प। ऐसा संकल्प जो बोध से हो, जीवन की प्रौढ़ता से हो, क्षणिक उत्साह, लोग क्या कहेंगे इस भावना से न हों। जिसमें बाहरी उत्साह नहीं हो आतंरिक उत्साह हो।

तीसरा है सम्यक वाणी-जैसा है वैसा ही करना। अपनी मिलाकर, बदल कर नहीं. ऐसा नहीं कि भीतर कुछ है और बाहर कुछ। वाणी में ह्रदय की सही अवस्था प्रकट हो। जो बोलना है, वही बोले, असार न बोले जितनी आवश्यकता हो जिसके बिना का चले। अधिक बोलने से बड़ी दिक्कते होती है, जीवन व्यर्थ के जाल में फंस जाता है।

चौथा है सम्यक कर्मात अर्थात वही करना जो ह्रदय करने को कहे। ऐसा नहीं कि कोई खे वैसा कर दें। करें वही जो स्वयं को करने योग्य लगे। व्यर्थ काम नहीं, वही काम जिससे जीवन का सार मिले। व्यस्त रहना, कुछ न कुछ करते रहना जरूरी नहीं है। करना वही जो जरूरी हो, उसी को बुद्ध सम्यक कर्म कहते हैं।

पांचवा सम्यक आजीव। आजीव का अर्थ आजीविका से है। रोटी तो कमानी ही है पर आजीविका सम्यक हो, विध्वंसात्मक न होकर सृजनात्मक हो और जीवन को परमात्मा की तरफ ले जाने वाली हो। बुद्ध कहते है कि अपने जीने के लिए किसी का जीवन नष्ट करना अनुचित है। आजीविका ऐसी हो जिससे किसी का अहित न होता हो। यदि कोई दूसरे का अहित करता है तो वह अपने ही अहित के बीज बोता है।

छठा है सम्यक व्यायाम। यहाँ व्यायाम का अर्थ श्रम से समयक श्रम न तो आलस्य और न ही अति कर्मठता है जहाँ दौड रुके ही नहीं। दोनों का मध्य मार्ग है समयक व्यायाम, जहाँ जीवन की ऊर्जा संतुलित हो।

सांतवा सूत्र है सम्यक समाधि अर्थात मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। असली बात जाग्रत रह कर आनंद को उपलब्ध होना, उसीक ओ बुद्ध ने सम्यक समाधि कहा है। अंतिम दो चरण सर्वाधिक महत्व है। सम्यक स्मृति परिधि पर और सम्यक समाधि केंद्र पर। परिधि पर होश हो और फिर केंद्र में भी होश की ज्योति जले तो ही सम्यक समाधि।

दुःख निरोध की अवस्था
जब इस बात का अहसास हो गया कि जब जीवन है तो दुख अवश्यम्मभावी है, फ़िर कारण पर विचार किया और उन कारणों को दूर करने के लिये आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण कर सातवें-आठवें सूत्र तक पहुंचे तो निदान हो गया, उपाय हो गया कारण मिट गये, तब चौथा आर्य सत्य सुख की अवस्था आ गई। इसे निर्वाण की अवस्था महासुख की अवस्था कुछ भी कहा जा सकता है। इस अवस्था में आने पर मनुष्य की सभी तृष्णाएं समाप्त हो जाती हैं तो फ़िर उसका वापिस जन्म लेकर इस संसार में वापिस आने का कोई कारण नहीं रह जाता। जैसे ही दुख समाप्त हुए, संसार की यात्रा समाप्त हो गई। फ़िर यह व्यक्ति का आखिरी पडाव रह। एक बार दुख निरोध की अवस्था या महासुख को उपलब्ध करने पर शरीर छोडने के उपरान्त वह वापिस नहीं लौटता। ज्योति में ज्योति मिल जाती है। अन्य शब्दों में वही तो निर्वाण है, यही तो फ़िर मोक्ष है। जब ज्योति में ज्योति विलुप्त हो गई तो सूक्ष्म शरीर में समाहित इच्छाएं, तृष्णाएं, अहंकार, अस्मिता आदि जो पुनर्जन्म लेने का कारण बनती है, वे ही नहीं रहती तो वह आत्मा भैतिक शरीर के समाप्त होने के बाद आवागमन से मुक्त हो जाती है। भारतीय अध्यात्म में इस महासुख से बढकर जीवन की अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। इस चार आर्यसत्यों के माध्यम से भगवान बुद्ध ने व्यक्ति को चरम सीमा तक पहुंचने का मार्ग बताया है।

अप्प दीपो भव
भगवान बुद्ध ने अपनी देशना में मानने पर कत्तई जोर नहीं दिया, जोर दिया अनुभव कर स्वयं जानने पर। जीवन का सत्य बताया, रोग का इलाज दिया जिसे लेकर गूंगे के गुड की तरह अनगिनत लोग दुखों से मुक्त हुए, महासुख की अवस्था प्राप्त की। उनके बताए मार्ग को समझने, ह्रदयगम करें, उस पर चले तो बुद्ध की तरह कोई भी व्यक्ति उस स्थिति को पा सकता है। उन्हें महामानव, भगवान, अलौकिक शक्तियों से युक्त बताकर अपने को असमर्थ मानें तो हम अपने को धोखा देते हुए मनुश्य की गरिमा को ही कम करते हैं जिसे बुद्ध ने जीवन को सार्थक बनाने के लिये अप्प दीपो भव की देशना देकर शिखर पर पहुंचाया है। यह जन्म तो अनन्त जन्मों में आगे की एक कडी है। यात्रा यदि चालू रहे, कदम बढते रहें, दिशा यदि सही संकल्प और होश बढाने की है, हर मनुष्य को अपने भीतर छिपी दिव्यता को पहचानने और सही दिशा में चलने की है। भगवान बुद्ध ने तो मानव मात्र के कल्याण के लिये जीवन के सत्य उदघाटित किये हैं। 

07 नवंबर 2011

इंटरव्यू में आत्मविश्वास से काम लें

किसी इंटरव्यू से पहले के कई क्षण कभी-कभी इतने कठिन महसूस होते है कि अक्सर लोगों को दोबारा इंटरव्यू  के नाम से ही डर लगने लगता है। इंटरव्यू के बारे में सुनते ही लगता है मानो कोई अभी आयेगा और हमें  निगल जायेंगा। इस डर का असर आपके परफार्मन्स पर भी पडता हैं। सबसे ज्यादा डर इस बात का लगता है कि वो कौन से सवाल पूछेंगें? क्या मैने पूरी तैयारी कर ली है? क्या ऐसे सवाल भी पूछे जायेंगें जिसका मेरे काम के साथ कोई संबध नहीं होगा? ...लेकिन यह सब इतना मुश्किल भी नही है, जितना हम समझते हैं.. इंटरव्यू को एक खुशनुमा अनुभव भी बनाया जा सकता है।

जानें इंटरव्यू बोर्ड को
'इंटरव्यू बोर्ड' जिसका परिचय अब तक आपको मिल चुका है, उसकी बात करते हैं... इंटरव्यू बोर्ड मे कभी एक या कभी उससे अधिक लोग हो सकते हैं, लेकिन समझने वाली बात यह है कि हम एक समय में सिर्फ एक से बात कर रहे होते हैं। लिहाजा यह जरूरी है कि उस वक्त उसी पर गौर करें, हालांकि बाकी सभी पर भी आपकी नज़र दौडती रहनी चाहिये। भले ही 'बोर्ड' में कई सदस्य हों, सब का एक ही मकसद होता है... सबसे अच्छे उम्मीदवार का चुनाव।

सवाल-जवाब का सिलसिला
इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य अपने डिपार्टमेंट या विभाग की ज़रूरत को ध्यान मे रखकर सवाल पूछते हैं। इंटरव्यू केवल सवाल-जवाब का एक सिलसिला नहीं है। यह उम्मीदवार को कंपनी के बारे में और कंपनी को उम्मीदवार के बारे में जानने का पहला ज़रिया भी है। आमतौर परइंटरव्यू काफी औपचारिक माहौल मे होते हैं। लेकिन इसमे भी बदलाव आ रहा है। शायद आपने भी सुना होगा कि कई लोग जो इंटरव्यू मे चुने नही जाते है, कहते हैं,  "इंटरव्यू का अनुभव अच्छा रहा..." यह तब होता है जब इंटरव्यू मे हुई बातचीत तनावपूर्ण माहौल मे ना हुई हो। वैसे यह हमारे हाथ मे तो नही है..तो फिर क्या है हमारे हाथ में?

कहां से लाएं आत्मविश्वास?
आत्मविश्वास..आप कहेंगें कहनातो  आसान है पर ऐन वक्त पर सारा आत्मविश्वास कहीं गायब हो जाता है... हाथ-पैर काँपने लगते हैं। गला सूख जाता है। आत्मविश्वास जन्म से किसी मे नहीं होता है। इसे पैदा किया जाता है। इसका प्रदर्शन अक्सर जीत की वजह होती है। आत्मविश्वास अपने विषय मे निपुणता के कारण आ सकता है, या फिर पहले के इंटरव्यूज़ के अनुभव से या फिर सबसे अच्छा तरीका है खुद से... जी हां, अपने-आप से अपने अंदर से जो विश्वास आता है ...वही सच्चा आत्मविशवास होता है।

कुछ सुझाव
वैसे तो किताबें पढ़कर, लोगों से बातें करके, टीवी या फिल्में देखकर अपने विचारो का आदान-प्रदान करके आत्मविश्वास पैदा किया जा सकता है, लेकिन सबसे ज़रूरी है अपने अंदर के डर को भगाना। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार एक बहुत अच्छा तरीका है आईने के सामने खडे होकर खुद से बातें करना। किसी भी विषय पर। सुनने में अजीब लग सकता है। एक बार कोशिश कर के देखिये आपको अपने आत्मविशवास मे खुद फर्क नज़र आयेगा।

03 नवंबर 2011

जानिए शरीर में छिपे सप्त चक्रों को


मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात बताई गई है।  इन चक्रों  के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं गोपनीय जानकारी यहां दी गई है। यह जानकारी  शास्त्रीय, प्रामाणिक एवं तथ्यात्मक  है-

(1)  मूलाधार चक्र -  गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला 'आधार चक्र' है । आधार चक्र का ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास है ।

(2)  स्वाधिष्ठान चक्र -  इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है । उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।

(3)  मणिपूर चक्र -  नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईष्र्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये पड़े रहते हैं ।

(4)  अनाहत चक्र -  हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है । यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़ -फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।

(5)  विशुद्धख्य चक्र -  कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ विद्यमान है

(6)  आज्ञाचक्र -  भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है  । इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।

(7)  सहस्रार चक्र -  सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।


कुण्डलिनी जागरण: विधि और विज्ञान

कुंडलिनी जागरण का अर्थ है मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। यह शक्ति बिना किसी भेदभाव के हर मनुष्य को प्राप्त है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है। जिस प्रकार एक नन्हें से बीज में वृक्ष बनने की शक्ति या क्षमता होती है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य में महान बनने की, सर्वसमर्थ बनने की एवं शक्तिशाली बनने की क्षमता होती है। कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है। योग और अध्यात्म की भाषा में इस कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों में माना गया है। कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक पहुंचने के मार्ग में छ: फाटक है अथवा कह सकते हैं कि छ: ताले लगे हुए है। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति केंद्रों तक पहुंच सकता है। इन छ: अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्-चक्र कहते हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है: मूलधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धाख्य चक्र, आज्ञाचक्र। साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत करते हुए। अंतिम आज्ञाचक्र तक पहुंचता है। मूलाधार चक्र से प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है।

कमाल करते हैं चीनी भी..

 एक समय था कि चीन को केवल बहुसंख्य देश माना जाता था। आज उसने अपना सिक्का आर्थिक ही नहीं, सामाजिक क्षेत्रों में भी जमाया है। चुप रहकर काम करते रहने वाले चीनियों की जीवनशैली और सोच बहुत कुछ कहती है।

सचमुच हद की बात है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है चीन। वह कमियों और अभावों से जूझता होता तो हैरानी नहीं होती लेकिन वह अर्थव्यवस्था में दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, यह देखकर कहना ही होगा कि कमाल करते हैं चीनी भी। चीन से हम भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

सीखें कि हर व्यक्ति की क्षमता उपयोगी है।
चीन में हर परिवार में एक ही बच्चे के जन्म का नियम है। उस बच्चे पर भरपूर ध्यान दिया जाता है। उसकी क्षमताओं और गुणों को निखारने में उनके परिवार और शिक्षा व्यवस्था पूरा ध्यान देती है। उनके स्कूल-कॉलेजों में प्रतिस्पर्धा अपने चरम पर रहती है। ऐसे माहौल से निकले बच्चे दूसरे देशों के बच्चों को आसानी से पीछे छोड़ ही जाएंगे।

अपेक्षाओं को विस्तार देखकर देखें।
चीनियों का मानना है कि पश्चिमी देशों में बच्चों को काफी नरमी से पाला जाता है। इस हद तक कि वे नाज़ुक बन जाते हैं और जब ज़िंदगी की कसौटी इम्तेहान लेती है, तो वे टूटे-टूटे से लगते हैं। यही हाल वहां के कामकाजियों का है। चीनियों का मानना है कि अपनी अपेक्षाओं को निरंतर विस्तार देते रहना चाहिए। इतना भी खुद का ख्याल न रखें कि काम की गुणवत्ता पर असर पड़ने लगे। कामयाबी और विकास को एक निगाह से देखते हैं चीनी।

साथ चलेंगे, तो मंज़िल पाएंगे।

चीनी समाज में आपको व्यक्ति के रूप में उभरे हीरो कम मिलेंगे क्योंकि ये पश्चिमी देशों की तरह एक लीडर के सिद्धांत पर विश्वास नहीं करता। एक के आगे और बाकी के पीछे चलने के सिद्धांत पर विश्वास करने से प्रतियोगिता और महत्वाकांक्षा तो बढ़ती है, लेकिन इससे प्रयोगधर्मिता में कमी आती है तथा लीडर व अन्य में अंतर बहुत बढ़ जाता है, ऐसा चीनी मानते हैं।


कामयाबी सतत काम से मिलती है।
चीनी हार मानने वाले लोग नहीं होते। उनका मानना है कि लगातार किसी न किसी काम को करते रहने से मंज़िल ज़रूर हासिल होती है। खुशी भी इसी का नाम है। उनके एक दार्शनिक चुआंग ज़ू का कहना है, ‘अगर आप खुश हैं, तो मान लीजिए कि खुशी की तलाश का आनंद आप खो चुके हैं।’ कहने का मतलब है कि कामयाबी का प्रयास और खुशी की तलाश इनके लिए एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

31 अक्तूबर 2011

शमशान से आकर नहाना आवश्यक क्यों ?

शवयात्रा में जाना और मृत शरीर को कंधा देना लगभग सभी धर्मों में बड़े ही पुण्य का कार्य माना गया है। धर्म शास्त्रों का कहना है कि शवयात्रा में शामिल होने और अंतिम संस्कार के मौके पर उपस्थित रहने से, इंसान को वैराग्य रूपी सर्वश्रेष्ठ ज्ञान और परम फल की प्राप्ति होती है। इस मौके पर उपस्थित रहना यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और अंहकार जैसे मनोविकारों से कुछ समय के लिये छुटकारा पा लेना है।

पर जब शमशान जाने के इतने सारे सांसारिक और आध्यात्कि लाभ हैं, तो वहां से आकर तुरंत नहाने की जरूरत क्या है? नहाया तो जब जाता है जब हम अशुद्ध हो जाते हैं। फिर पुण्य का कार्य करके तुरंत नहाने की क्या आवश्यकता है? सतही दृष्टि से सोचने पर यहां विरोधाभास नजर आता है, किन्तु समाधान पाने के लिये गहराई में उतरने की आवश्यकता है। शव का अंतिम संस्कार होने से पूर्व ही वह वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म एवं संक्रामक कीटाणुओं से ग्रसित हो जाता है। इसके अतिरिक्त स्वयं मृत व्यक्ति भी किसी संक्रामक रोग से ग्रसित हो सकता है। अत: वहां पर उपस्थित इंसानों पर किसी संक्रामक रोग का असर होने की संभावना रहती है। जबकि पानी से नहा लेने से संक्रामक कीटाणु आदि पानी के साथ ही बह जाते हैं।

इसके साथ ही एक अन्य कारण भी तंत्र-शास्त्रों में बताया जाता है। शमशान भूमि पर लगातार ऐसा ही कार्य होते रहने से एक प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बन जाता है जो कमजोर मनोबल के इंसान को हानि पहुंचा सकता है। क्योंकि स्त्रियां अपेक्षाकृत पुरुषों के, कमजोर ह्रदय की होती हैं, इसलिये उन्हैं शमशान भूमि जाने से रोका जाता है। दाह संस्कार के पश्चात भी मृतआत्मा का सूक्ष्म शरीर कुछ समय तक वहां उपस्थित होता है, जो अपनी प्रकृति के अनुसार कोई हानिकारक प्रभाव भी डाल सकता है।

रात में क्यों नहीं जाते हैं श्मशान?
श्मशान का नाम सुनते ही हर इंसान के मन में एक अजीब सा डर पैदा हो जाता है। आपने जब भी कभी रात के समय श्मशान में जाने की नहीं सिर्फ पास से गुजरने की बात भी यदि अपने घर के किसी बुजुर्ग के सामने कही होगी, तो उन्हें यही कहते सुना होगा कि रात के समय श्मशान नहीं जाते हैं।

ऐसी बात सुनकर सामान्यत: सभी के दिमाग में यही सवाल उठता है कि रात के समय
शमशान क्यों नहीं जाए? आखिर इसके पीछे क्या कारण है? कुछ लोग इसे सिर्फ अंधविश्वास मानते हैं लेकिन ये अंधविश्वास नहीं है। दरअसल रात के समय निशाचरी या नकारात्मक शक्तियां का अधिक प्रभाव रहता है। रात के समय नकारात्मक शक्तियां किसी भी कमजोर व्यक्ति को तुरंत अपने प्रभाव में ले लेती है।

यदि कोई व्यक्ति भावनात्मक रूप से कमजोर है, नेगेटीव थिंकिंग से घिरा हुआ है तो ये संभावना बढ़ जाती है कि उस व्यक्ति को नकारात्मक शक्तियां घेर ले। जब व्यक्ति इन नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव में आ जाता है तो उसे कई तरह की परेशानियों घेर लेती हैं। इसीलिए रात के समय शमशान में जाना हमारे लिए वर्जित किया गया है। विज्ञान भी मानता है कि सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव हम पर होता है। कमजोर सोच के व्यक्तियों को नकारात्मक शक्ति तुरंत प्रभावित कर लेती है।

सिर पर चोटी यानि कमाल का एंटिना

क सुप्रीप साइंस जो इंसान के लिये सुविधाएं जुटाने का ही नहीं, बल्कि उसे शक्तिमान बनाने का कार्य करता है। ऐसा परम विज्ञान जो व्यक्ति को प्रकृति के ऊपर नियंत्रण करना सिखाता है। ऐसा विज्ञान जो प्रकृति को अपने अधीन बनाकर मनचाहा प्रयोग ले सकता है। इस अद्भुत विज्ञान की प्रयोगशाला भी बड़ी विलक्षण होती है। एक से बढ़कर एक आधुनिकतम मशीनों से सम्पंन प्रयोगशालाएं दुनिया में बहुतेरी हैं, किन्तु ऐसी सायद ही कोई हो जिसमें कोई यंत्र ही नहीं यहां तक कि खुद प्रयोगशाला भी आंखों से नजर नहीं आती। इसके अदृश्य होने का कारण है- इसका निराकार स्वरूप। असल में यह प्रयोगशाला इंसान के मन-मस्तिष्क में अंदर होती है।

सुप्रीम सांइस- विश्व की प्राचीनतम संस्कृति जो कि वैदिक संस्कृति के नाम से विश्य विख्यात है। अध्यात्म के परम विज्ञान पर टिकी यह विश्व की दुर्लभ संस्कृति है। इसी की एक महत्वपूर्ण मान्यता के तहत परम्परा है कि प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपने सिर पर चोंटी यानि कि बालों का समूह अनिवार्य रूप से रखना चाहिये।

सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को हिन्दुत्व की पहचान तक माना लिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए।

चमत्कारी रिसीवर- असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है। तथा शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है

क्यों रखी जाती है सिर पर शिखा?
सिर पर शिखा ब्राह्मणों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है। जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। शिखा एक धार्मिक प्रतीक तो है ही साथ ही मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है। आधुनिक युवा इसे रुढ़ीवाद मानते हैं लेकिन असल में यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। दरअसल, शिखा के कई रूप हैं।

आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचोंबीच सहस्राह चक्र होता है। शरीर में पांच चक्र होते हैं, मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्से में होता है और आखिरी है सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है।

शिखा का हल्का दबाव होने से रक्त प्रवाह भी तेज रहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।

व्रत उपवास क्यों करें?


व्रत का अर्थ है संकल्प या दृढ़ निश्चय तथा उपवास का अर्थ ईश्वर या इष्टदेव के समीप बैठना भारतीय संस्कृति में व्रत तथा उपवास का इतना अधिक महत्व है कि हर दिन कोई न कोई उपवास या व्रत होता ही है। सभी धर्मों में व्रत उपवास की आवश्यकता बताई गई है। इसलिए हर व्यक्ति अपने धर्म परंपरा के अनुसार उपवास या व्रत करता ही है। वास्तव में व्रत उपवास का संबंध हमारे शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण से है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। 1. नित्य 2. नैमित्तिक 3. काम्य व्रत
1. नित्य: जो व्रत भगवन को प्रसन्न करने के लिए निरंतर किया जाता है।
2. नैमित्तिक: यह व्रत किसी निमित्त से किया जाता है।
3. काम्य: किसी कामना से किया व्रत काम्य व्रत है।

स्वास्थ्य: व्रत उपवास से शरीर स्वस्थ रहता है। निराहार रहने, एक समय भोजन लेने अथवा केवल फलाहार से वाचनतंत्र को आराम मिलता है। इससे कब्ज, गैस, एसिडीटी अजीर्ण, अरूचि, सिरदर्द, बुखार, आदि रोगों का नाश होता है। आध्यत्मिक शक्ति बढ़ती है। ज्ञान, विचार, पवित्रता बुद्धि का विकास होता है। इसी कारण उपवास व्रत को पूजा पद्धति को शामिल किया गया है।
कौन न करें: सन्यासी, बालक, रोगी, गर्भवती स्त्री, वृद्धों को उपवास करने पर छूट प्राप्त है।
क्या नियम है व्रत का: जिस दिन उपवास या व्रत हो उस दिन इन नियमों का पालन करना चाहिए: किसी प्रकार की हिंसा न करें। दिन में न सोएं। बार-बार पानी न पिएं। झूठ न बोलें। किसी की बुराई न करें। व्यसन न करें। भ्रष्टाचार न करने का संकल्प लें। व्यभिचार न करें।सिनेमा, जुआं, टीवी आदि न देखें।

उपवास करने से पूर्व यह भ्रम मन से निकाल दें कि इससे आप कमजोरी महसूस करेंगे। उपवास के दौरान मन प्रसंचित तथा शरीर में स्फूर्ति आती है
उपवास के समय मुंह से दुर्गन्ध सी आती महसूस होती है और जीभ का रंग सफ़ेद पड़ जाता है।यह इस बात का लक्ष्ण है कि शरीर में सफाई काम शुरू हो गया है।
शारीरिक स्वस्थ्य व मानसिक स्वस्थ्य के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। शरीर के अन्दुरुनी भाग के सफाई के लिए उपवास एक सरल प्राकृतिक क्रिया है। इससे शरीर को आराम भी मिलता है। कुछ ऐसे भी रोग है जिनमे उपवास नहीं करनी चाहिए, जैसे- क्षय रोग, ह्रदय रोग आदि, इसी प्रकार स्त्रियों को भी गर्भावस्था में उपवास नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ रोगों में सिर्फ उपवास करना ही पर्याप्त नहीं होता , बल्कि अन्य उपायों कि भी जरुरत है, जैसे औषधि आदि इसलिए चिकिस्क कि सलाह ले लेनी चाहिए।
वैसे भी समय-समय पर एक-दो दिन का उपवास से साधारण रोगों के साथ-साथ अनेक असाध्य रोगों , जैसे मधुमेह, बबासीर आदि में अधिक लाभ मिलता है , इसके अतिरिक्त पाचन तंत्र के रोग, जैसे कब्ज़, अपच आदि में तो उपवास एक तरह से चमत्कारी प्रभाव दिखता है।
उपवास आरम्भ करने के चौबीस घंटे पहले गरिष्ठ खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। फलाहार करना ही उचित है। उपवास करते समय बहुत साबधानी बरतनी चाहिए। पेट के विभिन्न अंग उपवास कल में क्रियाशील नहीं रहते, इसलिए उपवास समाप्त करने के तुरंत बाद ही ठोस खाद्य पदार्थों का सेवन न करें। फलों का रस लेना ही ठीक रहता है
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व्रत में ऐसा हो आहार 
व्रत शरीर और मन की शुद्धि का अशक्त माध्यम है। यही नहीं, व्रत शरीर की शुद्धी के साथ-साथ रोगों के निवारण में भी सहायक है। आहार विशेषज्ञों के अनुसार सप्ताह में एक बार व्रत रखने के अनेक लाभ हैं, परन्तु व्रत के दौरान खाघ पदार्थों का उचित चयन व उपयोग नहीं हो पाता। इस सन्दर्भ में कुछ जानकारियाँ इस प्रकार हैं-
1. व्रत के दिन पानी अधिक मात्रा में लें।
2. इस दौरान अधिक परिक्श्रम का कार्य नहीं करना चाहिए।
3. व्रत के दिन दोपहरपर्याप्त मात्रा में खाघ पदार्थ लें और रात में कम खाएं।
4. पर्याप्त मात्रा में विश्राम करे और पानी में थोड़ी-थोड़ी मात्रा में शहद व नीबूं मिलाकर पीते रहें।
5. उपवास के दौरान सभी गैरजरूरी पदार्थ कोलेस्ट्रांल के रूप में शरीर से बाहर निकलते हैं। वहीं कोलेस्ट्रांल को नियंत्रित करने के लिए अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होती है।
6. व्रत के दौरान तले हुए खाघ पदार्थ कम लेने चाहिए।
7. इस मौसम में ऐसे फल लें, जिनमें पानी की पर्याप्त मात्रा उपस्थित हो।
8. फलों का ज्यूस शरीर को पर्याप्त ऊर्जा देता है। फलों के जूस में चुकंदर गाजर, सेब, अनार, संतरा आदि को शुमार कर सकते हैं।
स्वस्थ लोगों के अलावा डायबिटीज व हाइपरटेंशन के मरीज भी निम्न आहार तालिका पर अमल कर सकतें हैं।
आहार तालिका
समय                             भोज्य पदार्थ
सुबह           7-8              1 गिलास पानी-शहद 1 चम्मच-नीबूं (1/2 ) रस 
                 9-10            1 कप चाय/दूध+मखाने (50 ग्रा.) भुने हुए (बिना तेल के)
मध्याह्न       12-1             फलों की चाट/सलाद+दही 1 कटोरी(150 ग्रा.), (1 सेब, 1/2 चुकंदर, 1 गाजर, 1/2 अनार, 1 खीरा, 1 ककडी, 1 संतरा)
                 4.00             चाय या दूध एक कप +मखाने भुने हुए. 
शाम           7-8              1 गिलास फलों का रस 
                 9.00            200 ग्रा. पपीता/ 1 आलू/ 1 कटोरी लौकी
                 9.30            1/2 गिलास दूध/ सिंघाड़े के आटे का पराठा+दही

22 अक्तूबर 2011

सुख सौभाग्यप्रद नुस्खे

1.  घर के मुख्यद्वार की देहली को साफ़ सुथरा एवं सुन्दर बना हुआ होना चाहिए तथा प्रत्येक गुरूवार को देहली के दायें-बायें कोने पर हल्दी से स्वस्तिक बनाना चाहिए।

2.  घर में प्रातः एक बार कहीं भी झाडू लगाने के पश्चात नाश्ता/भोजन प्राप्त करना चाहिए।

3.  घर/आँफिस में टेलीफोन के नजदीक जल का पात्र नहीं रखना चाहिए।

4.  दक्षिणावर्ती शंख, नागकेसर, एकांशी नारियल, मोरपंख, श्वेतार्क वनस्पति, सीताफल घर में रखने से धनलाभ में सहायता होती है।

5.  घर/व्यवसाय स्थल पर मकडी के जले तुरंत साफ़ करने चाहिए अन्यथा धन एवं सुख में कमी के संकेत होते हैं

10 अक्तूबर 2011

टोने टोटके - कुछ उपाय - 14 (Tonae Totke - Some Tips - 14)

कार्य सिद्धि के लिए
किसी भी कार्य विशेष की सिद्धि के लिए या इंटरव्यू में सफलता पाने के लए यह उपाय यदि श्रद्धापूर्वक किया जाए तो पक्ष में परनाम निश्चित है। काम के लिए बाहर जाते समय भगवान् का निर्माल्य का फूल हाथ में लें और 'गजानना गजानना' का मूंगे या रूद्राक्ष की माला से एक माला जप करें फिर फूल जेब में रख कर कार्य पर चले जाएं। किन्तु विदा होने के पूर्व गणपति की तस्वीर को प्रणाम कर लें। पीछे मुड कर न देखें, कार्य सिद्ध होकर रहेगा।

व्यापार वृद्धि के लिए
शुक्ल पक्ष के बुधवार को बिल्ली की जेर चांदी के सिक्के के साथ लाल कपडे या थैली में रखकर श्रद्धापूर्वक तिजोरी में रखें। चांदी का सिक्का, चांदी का सिक्का न हो तो साधारण रूपये का सिक्का गंगाजल से शुद्ध करके साथ में रखें। ऐसा करने से निश्चित रूप से व्यापार में वृद्धि होगी।

शीघ्र विवाह के लिए
आयु अधिक होने के बाद भी यदि कन्या का रिश्ता पक्का न हो रहा हो तो यह उपाय करें। शुक्रवार की रात आठ छुहारे लें। ये छुहारे शुक्रवार को ही खरीदें। इन्हें जल में उबाल लें और जल के साथ ही अपने सिरहाने रख कर सो जाएं। यह जल चांदी के गिलास में या कटोरे में रखें तो उत्तम होगा। अगले दिन शनिवार को प्रातः स्नान करने के बाद इस जल और छुहारों को किसी बहते जल में प्रवाहित कर दें।

घर के सदस्यों में आपसी स्नेह बढाने के लिए 
स्फटिक माला से निम्न चौपाई का नित्य पाठ करें, परिवार के सदस्यों के साथ स्नेह बढेगा।
"जोही के जेहि पर सत्य सनेहु 
सो तेहि मिलही न कछु संदेहु

मुकदमें में विजय प्राप्ति हेतु 
हनुमान जी के पर्वत लिए चित्र के समक्ष शुक्ल पक्ष के मंगलवार से निम्नलिखित चौपाई का रूद्राक्ष की माला से नित्य दो माला पाठ करें। हनुमान जी की कृपा प्राप्त होगी और मुक़दमे में विजय मिलेगी। साथ ही हर प्रकार के क्लेश से मुक्ति मिलेगी। यह एक अचूक टोटका है। इसमें श्रद्धा जरूरी है।
'पवन तनय बल पवन समाना
बुद्धि विवेक विग्यान निधाना।
कवन सो काज कठिन जग माहि
जो नहि होई तात तुम पाहिं।

धन वृद्धि के लिए 
हर बुधवार गाय को पीला पपीता खिलाएं, धन दिन दूना रात चौगुना बढेगा। यह टोटका शुक्ल पक्ष से शुरू करें।

मनोकामना की पूर्ती के लिए
शुभ मुहूर्त में श्री कार्य सिद्धि यन्त्र लें। भोजपत्र पर लाल चन्दन से अपनी मनोकामना लिख लें। गुलाब की ग्यारह अगरबत्तियों से आरती उतारें। कामना पूर्ती के बाद कोई शुभ काम करने का संकल्प लें। उदहारण के लिए कीर्तन भजन कराने, या किसी निश्चित संख्या में (सात, नौ आदि) गरीबों को भोजन कराना या भगवान् को वस्त्र अर्पित करना जिस भोज पत्र पर मनोकामना लिखी है उसकी चार तह बनाकर कार्यसिद्धि यन्त्र के नीचे रख दें और उसे नियमित रूप से गुलाब की पांच अगरबत्तियां दिखाएं व 21 बार अपनी मनोकामना कहें। फिर अगरबत्तियां मुख्य द्वार पर लगा दें। यह सारी क्रिया श्रद्धापूर्वक करें, मनोकामना पूरी होगी।

घर में झगड़े, कलह शांति के लिए 
घर में झगड़े, कलह आदि होते हों तो महीने में एक बार दस किलो आटा व पांच किलो सरसों का तेल अनाथ आश्रम, साधु आश्रम, वृद्धाश्रम, अंधालय को दान दें। वातावरण अनुकूल होगा और कलह का नामोनिशान नहीं होगा।

07 अक्तूबर 2011

भगवन्नाम के अमर प्रचारक चैतन्य महाप्रभु

श्रीकृष्ण चैतन्यदेव का पृथ्वी पर अवतरण विक्रम संवत् 1542 (सन् 1486 ई.) के फाल्गुन मास की पूर्णिमा को संध्याकाल में चन्द्र-ग्रहण के समय सिंह-लग्न में बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में भगवन्नाम-संकीर्तन की महिमा स्थापित करने के लिए हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ तथा माता का नाम शची देवी था।

पतित पावनी गंगा के तट पर स्थित नवद्वीप में श्री चैतन्य महाप्रभु के जन्म के समय चन्द्रमा को ग्रहण लगने के कारण बहुत से लोग शुद्धि की कामना से श्रीहरिका नाम लेते हुए गंगा-स्नान करने जा रहे थे। पण्डितों ने जन्मकुण्डली के ग्रहों की समीक्षा तथा जन्म के समय उपस्थित उपर्युक्त शकुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की-इस बालक ने जन्म लेते ही सबसे श्री हरि नाम का कीर्तन कराया है अत:यह स्वयं अतुलनीय भगवन्नाम-प्रचारक होगा।

वैष्णव इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। देवी पुराण-भगवन्नाम ही सब कुछ है। इस सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए श्रीकृष्ण भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से प्रकट होंगे। गंगा के किनारे नवद्वीप ग्राम में वे ब्राह्मण के घर में जन्म लेंगे। जीवों के कल्याणार्थ भक्ति-योग को प्रकाशित करने हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ही संन्यासी वेश में श्री चैतन्य नाम से अवतरित होंगे। गरुडपुराण-कलियुग के प्रथम चरण में श्री जगन्नाथजी के समीप भगवान श्रीकृष्ण गौर-रूप में गंगाजी के किनारे परम दयालु कीर्तन करने वाले गौराङ्ग नाम से प्रकट होंगे। मत्स्यपुराण-कलियुग में गंगाजी के तट पर श्री हरिदयालु कीर्तनशील गौर-रूप धारण करेंगे। ब्रह्मयामल-कलियुग की शुरुआत में हरिनाम का प्रचार करने के लिए जनार्दन शची देवी के गर्भ से नवद्वीपमें प्रकट होंगे। वस्तुत:जीवों की मुक्ति और भगवन्नाम के प्रसार हेतु श्रीकृष्ण का ही चैतन्य नाम से आविर्भाव होगा।

विक्रम संवत् 1566 में मात्र 24 वर्ष की अवस्था में श्री चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास ले लिया। इनके गुरु का नाम श्री केशवभारती था। संन्यास लेने के उपरान्त श्रीगौरांग(श्रीचैतन्य)महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो वहां जगन्नाथजी का दर्शन करके वे इतना आत्मविभोर हो गए कि प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य व कीर्तन करते हुए मन्दिर में मूर्छित हो गए। संयोगवश वहां प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उपस्थित थे। वे महाप्रभु की अपूर्व प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। वहां शास्त्र-चर्चा होने पर जब सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्री गौर ने ज्ञान के ऊपर भक्ति की महत्ता स्थापित करके उन्हें अपने षड्भुज रूप का दर्शन कराया। सार्वभौम गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने जिन १०० श्लोकों से श्री गौर की स्तुति की थी, वह रचना चैतन्यशतक नाम से विख्यात है।

विक्रम संवत् 1572(सन् 1515 ई.) में विजयादशमी के दिन चैतन्य महाप्रभु ने श्री वृन्दावन धाम के निमित्त पुरी से प्रस्थान किया। श्री गौरांग सडक को छोडकर निर्जन वन के मार्ग से चले। हिंसक पशुओं से भरे जंगल में महाप्रभु श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए निर्भय होकर जा रहे थे। पशु-पक्षी प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन्मत्त होकर उनके साथ ही नृत्य करने लगते थे। एक बार श्री चैतन्य देव का पैर रास्ते में सोते हुए बाघ पर पड गया। महाप्रभु ने हरे कृष्ण हरे कृष्ण नाम-मन्त्र बोला। बाघ उठकर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहकर नाचने लगा। एक दिन गौरांग प्रभु नदी में स्नान कर रहे थे कि मतवाले जंगली हाथियों का एक झुंड वहां आ गया। महाप्रभु ने कृष्ण-कृष्ण कहकर उन पर जल के छींटे मारे तो वे सब हाथी भी भगवन्नाम बोलते हुए नृत्य करने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य श्री चैतन्यदेव की ये अलौकिक लीलाएं देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। कार्तिक पूर्णिमा को श्री महाप्रभु वृन्दावन पहुंचे। वहां आज भी प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को श्री चैतन्य देव का वृन्दावन-आगमनोत्सव मनाया जाता है। वृन्दावन के माहात्म्य को उजागर करने तथा इस परम पावन तीर्थ को उसके वर्तमान स्वरूप तक ले जाने का बहुत कुछ श्रेय श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों को ही जाता है।

एक बार श्री अद्वैत प्रभु के अनुरोध पर श्री गौरांग महाप्रभु ने उन्हें अपने उस महा महिमामय विश्वरूप का दर्शन कराया, जिसे द्वापरयुगमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय दिखाया था। श्री नित्यानन्द प्रभु की मनोभिलाषा थी कि उन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य देव के परम ऐश्वर्यवान विराट स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो। महाप्रभु ने उनको अपने अनन्त ब्रह्माण्ड रूपी दिव्य रूप का साक्षात्कार करवाया। माता शची देवी ने इनको श्रीकृष्ण रूप में देखा था। वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे वेदान्ती भी इनके सत्संग से श्रीकृष्ण नाम-प्रेमी बनकर भगवन्नाम का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु की सामीप्यता से बडे-बडे दुराचारी भी सन्त हो गए। इनके स्पर्श से अनेक असाध्य रोगी ठीक हो गए। श्री गौरांग अवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ हैं। इनमें श्री चैतन्य चरितामृत, श्री चैतन्यभागवत, श्री चैतन्यमंगल, अमिय निमाइचरित आदि विशेष रूप से पठनीय हैं। महाप्रभु की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए हैं।
द्वापरयुग में श्रीकृष्ण और राधा ने पृथक देह धारण करके श्री वृन्दावन धाम में लीलाएं की थीं। एक दूसरे के सौन्दर्य-माधुर्य को बढाते हुए प्रिया-प्रियतम ने स्थावर-जंगम सबको आनन्द दिया। यह ध्यान रहे कि प्रेम के विषय श्रीकृष्ण हैं परन्तु प्रेम का आश्रय राधाजी हैं। परस्पर एकात्मा होते हुए भी वे दोनों सामान्य प्राणियों को दो भिन्न स्वरूप लगे। श्रीकृष्ण को राधा के प्रेम, अपने स्वरूप के माधुर्य तथा राधा के सुख को जानने की इच्छा हुई। श्रीकृष्ण के मन में आया कि जैसे मेरा नाम लेकर राधा भाव-विह्वल होती हैं, वैसे मैं भी अपने नाम-रस की मधुरिमा का आस्वादन करूंगा। मैं जब राधा-भाव ग्रहण करूंगा, तभी मुझे राधा के प्रेम का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सकेगा। अस्तु राधा-भाव को अंगीकार करने के लिए ही श्री गौरांग का अवतार हुआ था।

श्री चैतन्य महाप्रभु ने 32 अक्षरों वाले तारक ब्रह्महरिनाम महामन्त्र को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
कलिपावनावतार, प्रेम्भूति,भाव निधि श्री गौरांगदेव के उपदेशों का सार यह है-मनुष्य को निज कुल, विद्या, रूप, जाति और धनादि के अहंकार को त्यागकर सर्वस्व समर्पण के भाव से भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करना चाहिए। अन्त: करण की शुद्धि का यह सबसे सरल व सर्वोत्तम उपाय है। भक्त कीर्तन करते समय भगवत्प्रेम में इतना मग्न हो जाएं कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगे, उसकी वाणी गदगद और शरीर पुलकित हो जाए। भगवन्नाम के उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी संपूर्ण शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। भगवान का नाम स्वयं भगवान के ही तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप-तीनों एक हैं, अत: इनमें भेद न करें। नाम नामी को खींच लाता है। कलियुग में मुक्ति भगवन्नाम के जप से प्राप्त होगी।